शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

दौर-ए-मिलावट

मेल-जोल, मेल-मिलाप और मिलावट एक जैसे दीखने वाले शब्‍द हैं। पर मेल-जोल और मेल-मिलाप से लोग खुश होते हैं और मिलावट पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। कहते हैं मिलन अच्‍छा है, मिलावट ग़लत है। मिलन को असली बताते हैं और मिलावट को नकली से जोड़ देते हें। 

अब कोई उन्‍हें कैसे समझाए कि जनाब,यह दौर-ए-मिलावट है। कुछ भी असल नहुीं रहा गया है। ''जित देखूं तित मेल मिलावट''। बिना मिलावट के तो मेल-मिलाप भी फीका फीका सा लगता है। नक़ल हमारी राष्‍ट्रीय पहचान है। नक ल करना ही वर्तमान में राष्‍ट्रीयता है।

आज नक़ल और नक़लीपन हावी है। भाषा तो हमारी सैकड़ों बरसों से मिलावटी चली आरही है। भाषा की मिलावट ही हमारी  भूषा में भी मिलावट ले आई। भाषा और भूषा में मिलावट आई तो खांटी देसीपन में कमी आ गई। हमने इस कमी को कहीं उदारता के कारण तो कहीं मजबूरी के कारण स्‍वीकार लिया। ये उदारता और मजबूरी भारतीयों के ख़ास गुण हैं। कहीं हमारी मजबूरी उदारता बनाकर परोसी जाती है तो कहीं उदारता को मजबूरी में रंग दिया जाता है। कुल मिलाकर मिलावटीपन हमारी मजबूरी भी है और उदारता भी है। फि़सल पड़े तो हर हर गंगे की तर्ज़ पर  मजबूरी में हम उदार हो जाते हैं और उदारता हमारी मजबूरी हो जाती है।

हिन्‍दु-मुस्लिम-ईसार्इ्र-पारसी वगैरह का यह देश विश्‍व का उदारतम देश है। सब जातियां, सब धर्म, सब वर्ण, सब वर्ग यहां आबाद हैं। सब मिले जुले हैं, मिलजुलकर रहते हैं पर मिलावट नहीं कहलाते। यह और बात है कि मिलावट करने में यह सब परस्‍पर मिले हुए हैं। मेलजोल-प्रधान इस देश में इसीलिये मिलावट की नींव बड़ी पुख्‍़ता है।

मिलावट की नींव पर टिका यह देश आज अपने मिलावटी चरित्र को साकार करने में जी-जान से जुटा है। हमने इस क्षेत्र में मौलिक कि़स्‍म की तरक्कि़यां हासिल की हैं। विश्‍व के पटल पर मिलावट में हमसे आगे कोई नहीं। हमारा देश मिलावट के मामले में विश्‍वशक्ति बनने की ओर तेजी से अग्रसर है।

हमने भेदभाव समाप्‍त करने का जो बीड़ा अपने संविधान में उठाया था उसके मद्देनज़र हमने सबसे पहले असली और नक़ली का भेद समाप्‍त करने की ठानी और उसमें सफलता भी हासिल की है। हम अंत्‍योदयवादी हैं और निम्‍नोत्‍थान के विश्‍वासी हैं। जो निम्‍न है उसे उच्‍च बनाओं के सिद्धांत को सामने रखकर हमने हर नक़ली  को असली का दर्जा देने की भरपूर कोशिश की है और अब भी कर रहे हैं।

हमने भाषा और भूषा के बाद साहित्‍य, संगीत, कला और संस्‍कृति में मिलावट की और चहां नक़लचियों और नक़लों को असल का दर्जा दिलवाया। पूरा समाज आज नक़ली कवियों, नक़ली साहित्‍यकारों, नक़ली पत्रकारों और नक़ली कलाकारों से अटा पड़ा है।

फिर हमने खानपान पर ध्‍यान दिया। हमने नक़ली चीज़ों का असली बनाकर प्रस्‍तुत किया। हमने नक़ली दूध बनाया, नक़ली घी बनाया, नक़ली मावा बनाया, नक़ली दवाइयां बनाईं और तो और नक़ली खून तक बना डाला। जब दुनिया के विकासशील देश नक़ली आदमी यानी रोबोट बनाने में जुटे हैं तो हमने नक़ली खून बनाकर शायद उनकी मदद ही की है। क्‍या हम किसी से कम विकासशील हैं।

फिल्‍मों और सीरियलों में तो हमारी नक़ल के चर्चे आम हैं। बॉलीवुड ने जाने कितने हॉलीवुड अपनी जेब में छुपा रखे हैं। उनकी चर्चा को एक अलग आख्‍यान चाहिएा फिलवक्‍त अपनेराम चैनलों के सीरियलों में चन्‍द चरित्रों पर ध्‍यान केन्द्रित कर रहे हैं। ''लाडो न आना इस देस'' में ऐ वीरपुर है और एक हैं वीरपुर की अम्‍माजी। वीरपुर में सिर्फ दो सिपाहियों वाली चौकी है और उसके दोनों सिपाही हुड्डा सरकार की जगह अम्‍माजी के हैं। अम्‍माजी हिटलर की बहन हैं और पूरे गांव में आज की तारीख में कोई अखबार नहीं आता। पत्रकार तो वहां है ही कोई ना । वीरपुर में जो कुछ हो रहा है उसका विरोध पूरे गांव में तो किसी से होत्‍ता नहीं। बस एक डॉक्‍टर की छोरी ही क्रांति का बिगुल बजावै है। अपनेराम को लगता है कि भूपेन्‍द्रसिंह हुड्डा ने या उसके बन्‍दों ने या तो ये नक़ली जीवनकथा वाला सीरियल देख्‍‍या को नी। देख लेत्‍ता तो हुड्डा वीरपुर का एकाध दौरा तो कर ही लेत्‍ता इब लौं। नम्‍बर वन हरियाणा की ये गत तो देखी नहीं जाती अपनेराम से।

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

शूकरताप से ग्रस्‍त भाजपा

सारे देश में शूकरताप क्‍या फैला अपनी भाजपा भी उसके चपेट में आ गई लगती है। पुणे, बैंगलोर के बाद अब शिमला चपेट में है। पर शिमला में खैरियत ये है कि वहां तापित केवल भाजपा है शेष शहर नहीं। लौहपुरुषों की अपनी यह पार्टी शापग्रस्‍त तो पहले ही हो चुकी थी, अब बुरी तरह तापग्रस्‍त भी हो गई है। ताप भी ऐसा जो बड़े बड़ों की बलि लेने पर उतारू दीख रहा है। जसवंत के 'जस' की बलि तो वह ले ही चुका है। देश में तो यह ताप विदेशों से आयातित है पर पार्टी में यह ताप ज्‍यादातर राजस्‍थान से आ रहा है।

ताप की शुरुआत तभी हो गई थी जब कांग्रेसी शेखावत ने भाजपाई शेखावत को पराजित किया था। भाजपाई शेखावत की खुन्‍नस ने भाजपा में जो वायरल फैलाया उसकी परिणति अब शिमला की हसीन वादियों तक फैल चुकी है। राजस्‍थान की ही वीरांगना वसुन्‍धरा को धरा दिखाने के बाद जसवंत का जस लीलने के फैसले से पार्टी में हड़कंप तो है पर य‍ह दोहरा है। कंपाने वाले खुद भी कांप रहे हैं। बैठक चिंतन के लिए चलनी थी पर चिंता में तब्‍दील हो रही है। चिंता के साथ जैतली जैसों का गुस्‍सा उबाल पर है क्‍योंकि पिछली बड़ी हार के लिए आई रिपोर्ट में वे ही नहीं, बड़े लौहपुरुष और छोटे लौहपुरुष दोनों जि़म्‍मेदार बताए गए हैं। अब बड़े लौहपुरुघ तो चुप्‍पी साध गए हैं और छोटे लौहपुरुष ने जसवंत की किताब पर पाबंदी लगाकर ध्‍याान बांटन की कोशिश की है। पर युवा जैतली के वकालती बयान तो आग उबल ही रहे हैं। इसी आग की तपिश शूकरताप में तब्‍दील होती जा रही है।

चिंता का सबसे बड़ा विषय फिलवक्‍त पड़ौसियों के बाबा-ए-क़ौम मियां जिन्‍ना हैं। इकसठ बरस पहले जन्‍नतनशीन हुए जिन्‍ना साहब का जिन्‍न एक बार फिर भाजपा पर हावी हो गया है। इस बार इस जिन्‍न ने बलि भी ले ली है। जसवंतसिंह 'सिंह' थे पर जिन्‍ना के भूत ने उनके 'सिंहत्‍व' का हरण करके उन्‍हें पार्टी में मेमना बनाकर छोड़ दिया है।

जसवंत और उनके शुभचिंतकों को यही खुन्‍नस है कि पार्टी के लौहपुरुष ने जिन्‍ना की मज़ार पर माथा टेका तो पार्टी ने उनकी थोड़ी बहुत लानत-मलामत करके उन्‍हें फिर पार्टी की कमान सौंप दी। पर जसवंत ने उसी जिन्‍ना पर कलम चलाई तो पार्टी ने उनकी दहाड़ को मिमियाने में तब्‍दील करने की ठान ली। भीतरी लोकतंद्त्र को भी दरकिनार करके उनसे स्‍पष्‍टीकरण तक मांगे बगैर बाहर का रास्‍ता दिखा दिया। ये अत्‍याचार है।

हालांकि जबान खोलने पर अत्‍याचार पार्टी में नया नहीं है। खुराना, उमा भारती, गोविन्‍दाचार्य, अरुण जेतली, यशवंतसिंह, अरुण शौरी, वसुन्‍धरा राजे, आदि अनेक नाम हैं जिन्‍होंने भाजपा को समय समय पर सिरदर्द दिया है और अब भी दे रहे हैं। पर संसद में कभी 'आउटस्‍ंटैंडिंग पार्लियामेंटेरियन' का खिताब पाने वाले जसवंत सिंह इस बार अपनी ही किताब की बलि चढ़ा दिए गए हैं। पार्टी ने चिंतन बैठक में पहुंचे इस 'आउटस्‍ंटैंडिंग पार्लियामेंटेरियन' को बैठक में घुसने ही नहीं दिया गया। कह दिया--''प्‍लीज़ स्‍टैंड आउट साइड''। इसमें भी बढ़चढ़कर निकले गुजरात के छोटे लौहपुरुषा उन्‍होंने आगेबढ़कर विचारों पर पाबन्‍दी लगाते हुए जसवंत की पुस्‍तक को ही गुजरात की सीमाओं में घुसने से रोक दिया है। आदमी पार्टी से बाहर और उसके विचार भौगोलिक सीमाओं से बाहर। यही है सच्‍चा लोकतंत्र।

पर अब क्‍या होगा, ख़ासकर वसुंधरा का। राजनाथ ने जसवंत को तो ऐसा नाथा कि राजनीतिक अनाथ कर दिया। क्‍या अब वसुंधरा की बारी है। अगर ऐसा हुआ तो राजस्‍थान के वीर-वीरांगनाएं कब तक राजनाथ को नाथ मानेंगे।