गुरुवार, 24 सितंबर 2009

बीबी चाहिये तो वोट दो

चुनावों में किये जाने वाले वादो से सारा देश परिचित है। तरह तरह के उम्‍मीदवार तरह तरह के वादे करते नज़र आते हैं। कोई मकान का वादा करता है तो कोई बिजली का। कोई सड़कों की बात करता है तो कोई साफ पानी का वादा करता है। वोटर इन वादों पर यकीन करके  उम्‍मीदवार को जिताता है और फिर पांच बरस टापता रहता है यह सारा देश जानता है। पर इस बार दावे भी नए हैं और वादे भी। अगर कुंवारों को बीबियां चाहिए तो वोट देना होगा। यह खबर अपने हरयाणे से आई है।  खबर बिलकुल पक्‍की है। वहां इन दिनों आम चुनावों का माहौल है। नाम ही हैं आम चुनावों का वरना सच तो यह है कि हरयाणे के चुनाव तो हमेशा ही खास होते हैं। इस बार की खासियत छनकर ये आई कि कई इलाकों में प्रत्‍याशीगण कुंवारों को लड़कियां दिलवाने के वादे कर रहे हैं। बेटों के मां-बाप खुश हैं। उन्‍हें अब यकीन है कि उनके घर बहू आ जाएगी। भाभी की इन्‍तज़ार करने वाले देवरगण और ननन्‍दों की जमातों में हर्ष  है। और दूल्‍हे तो भयंकर प्रसन्‍न हैं। उनके घर बसने को हैं।

यह देश सचमुच विविध भारती है। विविधता भी यहां की विरोधाभासी है। एक तरफ नारी मुक्ति की हलचलें और दू‍सरी ओर समाज को नारी से ही मुक्‍त करने के षड्यंत्र। अजब विविधता है इस विविध भारती में। यह विविधता ही इसे तारती है और यही विविधता ही इसे मारती है। यह देश जिस काम को हाथ में लेता है उसे पूरा करके छोड़ता है। अब इक्‍कीसवीं सदी में यह अजब विरोधाभास इसी देश में संभव है कि लोग बेटियां न पैदा होने दें और बीबीयों के तलाश में उनके बेटे अपने वोट बेचने को मजबूर हों ।

इन दिनों एक चैनल पर हरयाणे की एक अम्‍माजी छाई हुई हैं। अम्‍माजी हैं तो खुद भी औरत ही पर अपने गांव बीरपुर की औरतों और लड़कियों के सख्‍त खिलाफ़ हैं। इस बात का पूरा ध्‍यान रखती हैं कि कोई छोरी पैदा ना ना जाए उनके गांव में। यहां तक उनकी देवरानी की लड़की झूमर भी उनके घर में इसलिये पल-बढ़ गई कि उसे बाहर गांव से आई नौकरानी की बेटी बताया गया।

तो भाईलोगों, ऐसे हरयाणे से समाचार कुछ ये आरहे हैं कि वहां अब छोरियों का टोटा पड़ गया है। छोरे ज्‍यादा हो गए हैं और छोरियां समाज से नदारद होती जा रही हैं। ये मामला अब चुनावी मुद्दा बन गया है। अब वहां के कुंवारे कुलदीपक चुनावी उम्‍मीदवारों से रोटी, कपड़ा या मकान, बिजली, सड़क, पानी की जगह लड़कियां मांग रहे हैं। वे बेचारे करें भी क्‍या। घर ही नहीं बसेगा तो बाकी चीजों का क्‍या करेंगे। घरवाली के बगैर घर का क्‍या मतलब। सरकार गेहूं-चावल का जुगाड़ कर भी दे तो  क्‍या। रोटी पकाने वाली ही न मिले तो जि़न्‍दगी बेकार है। मुश्किल यह भी है कि अगर जात बाहर की छोरी पसंद आ जावे तो गांवों की, बिरादरी की पंचायतें बवाल कर दें। जीने ना दें छोरे-छोरियों को।  अब तो एक ही लोकतांत्रिक रास्‍ता बचा है नई पीढ़ी के सामने। छोरी दिलाओ वोट ले जाओ। ये मुहिम दोनों तरफ से जोर से चल रही है। उम्‍मीदवार कह रहे हैं वोट दो तो छोरी दिलाएंगे। वोटर कह रहे हैं छोरी दिलाओ तो वोट ले जाओ।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

सारा देश मवेशी है

धन्‍यवाद कृष्‍णा जी, शुक्रिया थरूर जी। हम आभारी हैं अपने इन माननीय केन्‍द्रीय मंत्रियों के जिनके कारण इस देश को अचानक सादगी याद आ गई है। न ये माननीय मंत्रिगण पंचतारा होटलों में रहते और ना ही मीडिया में उनके विलास-विश्राम की चर्चाएं होती। न विलास-विश्राम की चर्चा होती और ना ही ग़रीब देश के अमीर मंत्रियों को सादगी की नसीहत दी जाती। अब बेचारे जबरिया सादगी झेल रहे हैं।

यूं  देश को तो पता है कि देश में कौन कितने पानी में है। कौन पंचतारा में रहने वाले हैं और कौन गली-मौहल्‍लों में डोलते-फिरने वाले हैं। लेकिन कांग्रेस की सर्वाम्‍मा को शायद पहली  बार पता चला कि उनकी मनमोहनी-सरकार के  मंत्रिगणों के क्‍या ठाठ हैं। माननीयों को सरकारी आवास नहीं मिले तो अतिथिगृह भी नज़र नहीं आए। हाई-फाई मंत्रालयों के इन 'बॉसेस' को यह बुरा लगा कि भारत सरकार के मंत्री होकर वे सामान्‍य अतिथिशालाओं में रहें। दुनिया क्‍या कहेगी। देश में महामहिम राज्‍यपाल और संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ में अपर महासचिव जैसे महिमाशाली पदों पर रह चुके इन मान्‍यवरों के लिये ये सरकारी व्‍यवस्‍थाएं बड़ी लचर थीं। इसीलिये देश के स्‍वाभिमान और अपने अभिमान की सुरक्षा के लिये भाईलोग सीधे पंचतारा होटलों में रहने चले गए। पर जैसे ही सर्वाम्‍मा को पता चला फौरन सर्कुलर जारी हो गए कि खर्चों में कटौती की जाए। फालतू खर्चों से बचा जाए और मंत्रिगण हवाई यात्राएं भी इकॉनॉमी क्‍लास में किया करें।

अब पंचतारा छोड़ने तक तो बात सहनीय थी पर हवाई यात्राएं इकॉनॉमी क्‍लास में। भई ये तो ज्‍़यादती की हद है। ज्‍़यादती की भी ज्‍़यादती। मंत्रिवर  ने तुरंत फतवा जारी कर दिया कि इकॉनॉमी क्‍लास तो कैटल क्‍लास होती है। यानी साधारण श्रेणी में यात्रा करना मवेशियों के रेवड़ में सफ़र करना है। बात बिलकुल वाजिब है। भारतवर्ष का मंत्री औरनज़र आता हैा रेवड़ में चले। बिलकुल मुनासिब नहीं है। ये और बात है कि मवेशियों का रेवड़ कहलाने वाली जनता ही अपने बीच से साण्‍‍डों को चुनकर राजधानी भेजती है । फिर ये चरवाहे बनकर मवेशियों को हांकते हैं।

मुश्किल तब आती है जब चरवाहे मवेशियों से खुद को अलग जाति-गोत्र का समझकर उन्‍हें पालने की जगह हांकने लगते हैं। सारा देश इन्‍हें मवेशी आता है और ये और ये चरवाहे अपने मवेशियों का चारा तक चट करने लगते हैं। बहरहाल सर्वाम्‍मा ने चरवाहों पर लगाम लगाई तो उनका अपना बछड़ा भी कटौती की ज़द में आ गया। राहुल भैया ने खर्च में कटौती के चलते राधानी एक्‍सप्रैस कैटल-क्‍लास में यात्रा कर डाली। उनकी इस सादगी पर पत्‍थर पड़ गए।  जितने पैसे टिकट में बचाए उससे कई गुना ज्‍़यादा के रेल के शीशे तुड़वा दिए। लो कल्‍लो  बचत। राहुल की रेलगाड़ी पर किसने पत्‍थर मारे, क्‍यों मारे, किसके इशारे पर मारे, उसका इरादा क्‍या था और उस गाड़ी पर क्‍या पत्‍थर पड़ते ही रहते हैं। इन सब प्रश्‍नों के उत्‍तर जानने के लिये एजेंसियां सक्रिय हो गई हैं। उनकी कवायद पर होने वाले खर्चें राहुल भैया की रेलयात्रा के खर्चे को भले ही कई स्‍टेशन पीछे छोड़ दें पर इस देश की सादगी पर दाग़ नहीं लगना चाहिए।