शनिवार, 22 सितंबर 2007

कोई बताएगा मुझे ?

सुख में
जो लगाम खींचता रहे मेरी
और दुख में
सौंप दे मुझे अनन्‍त आकाश
जीभर उडानों के लिये।

जो मोड़कर ले जाए
मेरा रथ
रणभूमि की ओर
जब मैं अपनों के प्‍यार में डूबा
उनसे यह कह भी न पाऊं
कि वे गलत हैं कदम-कदम पर।

क्‍या कोई ऐसा दोस्‍त है मेरी प्रतीक्षा में ?
जिसके कंधे मेरे माथे को जगह दे सकें
उन क्षणों में जब मेरे भीतर
उफन रही हो दुख की नदी
तब कोई आए और
मेरे अन्‍दर सोए उत्‍सवों को जगा जाए।

क्‍या आजकल ऐसे दोस्‍त होते हैं ?
कहां मिलते हैं वे ?
कोई बताएगा मुझे ?

1 टिप्पणी:

अजित वडनेरकर ने कहा…

स्वागत है आपका ब्लाग विश्व में । आपसे कुछ नहीं बहुत कुछ यहां सुना जाएगा । आगाज़ भी बहुत खूब रहा । आपके संस्मरणों,
आपकी कविताओं का अब नियमित आनंद मिलता रहेगा । बधाई भी आभार भी ...