शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

खेल के लिये मुफीद खिलौने

संसद के कुलीनों के मन मलिन हैं। वे टसुए बहा रहे हैं। पता नहीं इन विराट गलियारों में चहलकदमी के मौके फिर मिलेंगे या नहीं। बिदाई की बेला में उदासी का आलम है।मानों घर में डाका पड़ गया और सगकुछ लुट गया है। उधर मलिन बस्तियों में मस्‍ती का माहौल है। अकुलीनों की बन आई है। ऑस्‍कर क्‍या मिला-- अधमी, ये स्‍लमडॉग का हिन्‍दी अनुवाद है, और अकुलीन हर्ष में डूबे हैं और सांसदी छूटने से कुलीन विषाद में डूबे हें। कुर्सियां थीं तो जनता का मर्सिया भी अनसुना था। अब कुर्सियां छिन रही हैं तो भाईलोग अपना मर्सिया खुद ही पढ़ रहे हैं।

फागुन का असर है। सदियों से होली कुलीनों का नहीं मलिनों का त्‍यौहार होता आया है। इस बार कुछ ज्‍यादा ही हैं मलिनों की मस्‍ती। सारे स्‍लमडॉग खुद को मिलियोनेअर समझ रहे हैं। ये सिफ्त है गरीबी और मलिनता की कि वह खुशी और ग़म दोनों को मिलबांटकर मनाती है। अमीरों या कुलीनों के यहां मामला उलटा है। वे अपने दुख में तो सबकी शिरकत चाहते हैं पर सुख अकेले अकेले भोगना चाहते हैं। ऑस्‍कर पाकर सारा स्‍लम आनन्दित है पर सांसदी छिनने से केवल साढ़े पांच सौ के चेहरों पर मुर्दनी है। फिर भी वे चाहते हैं कि सारा देश उनके साथ मुर्दघाट चले।

अब यह मुर्दनी भी कहीं तो फिर से खुशी में तब्‍दील हो जाएगी, पर अधिकांश चेहरों पर यह स्‍थायीभाव बन कर बैठने वाली है। डरे हुए इन्‍हीं चेहरों पर अश्रुपात चल रहा है। दिन रात चल रहा है। पहले तो टिकट की जुगाड़ में अंटी डीली करो। फिर कार्यकर्ताओं के नखरे उठाने में तिजोरी के ताले खोलो। अंत में वोटरों का रिझाने के लिये अपना तन धन और क्षण समर्पित करो। गारंटी इसके बाद भी कुछ नहीं। ईवीसी ने अनकूल नतीजे न उगले तो अपने ही बच्‍चे नाकारा और अपनी ही बीबी नपुंसक करार देने से नहीं चूकेगी। हे राम, तब क्‍या होगा।

क्‍या होना है । राम तो बार बार आने से रहे नैया पार लगाने के लिये। राम की जगह अगर जनता ने काम पूछ लिया तो मुश्किल हो जाएगी। राम अनुकूल नहीं और काम सारे प्रतिकूल हैं। ऊपर से बूढ़े सोम दा का शाप। अब ऐसे में साम और दाम का ही सहारा है भाई लोगों कों। इन भाईलोगों के दूसरे भाई लोगों ने दण्‍ड हाथ में लेकर ईवीसी को अनुकूल करना है। योजनाएं बनने लगी हैं। अब उन्‍हें कुर्सी मिले या न मिले कइयों को अस्‍थायी काम ज़रूर मिल जाएगा। डंडे चलाने का काम, डंडों में झण्डे लगाने का काम, नारे लगाने का काम, पोस्‍टर बनाने, चिपकाने, अखाड़ने का काम, भीड़ जुटाने भगाने का काम, मुफ्त में जीमने और पीने का काम। काम ही काम हैं। डेर सारे काम हैं ढेर सारे लोगों के लिये कि वे सब मिलकर एक आदमी को दिल्‍ली की गोल इमारत की एक कुर्सी पर बिठा दें। फिर वहां बैठकर वह कुछ काम करे या न करे। बस पांच साल बाद आकर फिर से दो महीने के लिये ढेर सारे लोगों को ढेर सारे काम और उनके ढेर सारे दाम दे दे।

अपने देश के ये ढेर सारे लोग हैं भी तो इसी काम के। जब सचमुच कुछ करने का वक्‍त आता है तब ये करने के स्‍थान पर खेलने लगते हैं। वह भी औरों के हाथों में। और लोग खेलते हैं बड़े बड़े खेल और ये झेर सारे लोग उनके हाथों में खेलते खेलते सिर्फ खिलौना बन जाते हैं। लोकतंत्र का चाबी वाला खिलौना। ''राज राज'' खेलनेवालों के लिये खिलौना बनकर उन्‍हें खेलने के भरपूर अवसर देना ही आजका लोकतंत्र है। और हम ढेर सारे लोग इस खेल के लिये मुफीद खिलौने हैं।

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

श्वेत शालीनता में विवाहोत्सव

देश के सुप्रसिद्ध अरबपति हिन्दुजा बंधुओं के संयुक्त परिवार में हाल ही में छोटे भाई अशोक हिन्दुजा की बेटी अंबिका बिदा हुई। इन पंक्तियों के लेखक को भी इस भव्य विवाह समारोह में सपत्नीक शरीक होने का अवसर मिला। यह अवसर इसलिये अविस्मरणीय नहीं था कि वह किसी अरबपति के परिवार में था या इसमें करोड़पतियों और अरबपतियों ने शिरकत की थी, बल्कि इसलिये वे पल यादगार बने क्योंकि सामाजिक उच्चता की उस सीढ़ी पर पवित्र परम्पराओं और सादगी के अपूर्व दर्शन हुए! वह तड़क भड़क, दिखावा, शोरशराबा और उछलकूद सर्वथा गायब थी जो आज प्रायः हर ऐसे समारोह का हिस्सा बन चुकी है!

बेटी की बिदाई और उससे पूर्व के पारम्परिक वैवाहिक संस्कार जिस आस्था और रीतिरिवाज़ों के साथ संपन्न हुए उसे देखकर इतना तो विश्वास हुआ कि भारतीय समाज और उसमें भी हिन्दू समाज में रिश्तों की पवित्रता और मर्यादा, वैदिक रीति-रिवाजों के प्रति आस्था निम्न से उच्चतम श्रेणी तक सहज देखी जा सकती है। पर साथ ही यह
भी लगा कि अपार समृद्धि के सागर में तैरते हुए भी शालीनता को कैसे बनाए रखा जा सकता है।

अंबिका और रमण के विवाहपूर्व स्वागत समारोह में तथा विवाह समारोह में श्वेतिमा और शालीनता का मनमोहक मिश्रण अतिथियों को लुभा रहा था। सिंध प्रांत से आकर भारत में बसे व्यापारी परमानन्द और जमुनादेवी ने अपने
परिवार में पारम्परिक आस्तिकता और धर्मकर्म की जो नींव रखी और अपने चारों बच्चों श्रीचंद, गोपीचन्द, प्रकाश और अशोक हिन्दुजा को जिस तरह के आत्मीय संस्कार दिए उसीका परिणाम है कि आज समृद्धि के शिखर पर बैठा हिन्दुजा परिवार परस्पर सौमनस्य, सौजन्य और रिश्तों की अटूट डोर में बंधा हुआ आदर्श संयुक्त परिवार बना हुआ है! दशरथ के चारों बेटों की तरह चारों हिन्दुजा भाइयों का परस्पर स्नेह और व्यवहार कमसेकम आज के युग में तो सुखद आश्चर्य ही है। अथाह संपत्ति और अतुलित ऐश्वर्य ने इस परिवार के बीच सीमेंट का काम किया है! साझेपन की सौंधी सुगंध से हिन्दुजा स्वयं तो महकते ही हैं, औरों को भी महकाते हें!

यह महक हमने मुम्बई में 'अम्बिका-रमण' परिणय के स्वागत समारोह में तथा बाद में विवाह के मांगलिक अनुष्ठान में महसूस की। महालक्ष्मी क्षेत्र के टर्फ क्लब में 11 फरवरी की सांझ हरितिमा और श्वेतिमा की सांझ थी! चारों ओर पसरे उपवन के हरियल माहौल को शुभ्र्रता की सजावट ने अद्भुत कांति प्रदान की थी। सारे वातावरण में चकाचैंध की जगह अपूर्व शांति और हलका प्रकाश मन को आनंदित कर रहा था। कर्णप्रिय हरे रामा हरे कृष्णा की मन्द मन्द धुन सर्वत्र एक आध्यात्मिकता बिखेर रही थी! और ऐसे मोहक वातावरण में हिन्‍दुजा परिवार की ओर से स्वागत को तत्पर भद्र वेशभूषा में शालीन युवक-युवतियों का जत्था मार्गदर्शन को तैयार था। शायद ही कोई अतिथि इस आतिथ्य से वंचित रहा हो! दरवाजे पर हिन्दुजा बंधुओें में द्वितीय गोपीचन्द हिन्दुजा और उनके आत्मज स्वयं स्वागत को तत्पर थे! हमें देखकर उन्होंने गंगाजी का स्मरण किया और तुरंत पूछा कि गंगा जी का प्रसाद लाए या नहीं। हमारी स्वीकारोक्ति मिलने पर वे अभिभूत और धन्य हो गए! गंगा जी के प्रति उनके इन मनोभावों ने हमें भी निहाल कर दिया। उनके छोटे भाई प्रकाश हिन्‍दूजा तो पूरे परिसर में घूमघूमकर अतिथियों का स्‍वागत कर रहे थे और उनसे हालहवाल पूछ रहे थे। इस अवसर पर भी वे हरिद्वार की हरकी पौड़ी के श्रीगंगामंदिर के अधूरे जीर्णोद्धार कार्य की प्रगति के समाचार लेना नहीं भूले। 

टर्फ क्‍लब में एक ओर एक छोटे से मैदान के सामने हरे पत्तों और सफेद फूलों से सजा एक मंच था। मंच पर श्वेत साड़ी में सजी सुन्दर छरहरी दुल्हन अम्बिका हिन्दुजा और काले औपचारिक सूट में दूल्हा रमण मक्कड़ विनम्रता से अतिथियों के अभिवादन स्वीकार रहे थे! उन्हींके साथ खड़े थे हिन्दुजा परिवार के प्रमुख श्रीचन्द हिन्दुजा और बेटी के बाप अशोक हिन्दुजा! दोनों काले पार्टी सूट में। दोनों की पत्नियां और बहन भी मंच पर आत्‍मीयता बिखेरती उपस्थित थीं। सभी मिलकर आगंतुकों और अभिवादकों की बधाइयां स्वीकार रहे थे! पर वहां केवल बधाइयां और पुष्पगुच्छ ही स्वीकारे जा रहे थे। उपहारों को स्वाकारने में यह परिवार असमर्थता ही प्रकट कर रहा था। देर रात तक लोग पंक्तिबद्ध होकर मंच पर जाते रहे और लौटकर सुस्वादु व्यंजनों का आनन्द लेते रहे!

अतिथियों में जहां प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और उनके मंत्रिमंडलीय साथी थे वहीं कांग्रेसी नेता और पूर्वमुख्यमंत्री सुशील कुमार शिन्दे, राम नाइक, भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी आदि दर्जनों नेताओं के अलावा बड़ी संख्या में फिल्मी सितारे भी मौजूद थे! दरअसल अम्बिका हिन्दुजा लंदन के इंटरनेशनल फिल्म स्कूल से पढ़कर आई नवोदित फिल्म निर्माता हैं। उनकी 'तीन पत्ती' में खुद मेगास्टार अमिताभ बच्चन जुड़े हुए हैं। स्वाभाविक है कि अम्बिका-रमण परिणय में फिल्मी सितारों की धूम होती! अभिषेक बच्चन, हृतिक रोशन, जिया खान, गोविन्दा, ईशा देओल, करण जौहर विवेक और उनके पिता
सुरेश ओबेराय, सुभाष घई ही नहीं पुरानी पीढ़ी के स्टार देवानन्द भी नवयुगल को
आशीष   देने आए थे। समाज का शायद ही कोई ऐसा वर्ग रहा होगा जिसने इस विवाह में शिरकत नहीं की।
पत्रकार, लेखक, संपादक, खिलाड़ी, उद्योगपति, व्यापारी, गरज कि हर वर्ग ने इन परम्पराप्रिय आस्तिक परिवार को जीभरकर असीसा! श्रृंगेरी मठ के जगद्गुरू शंकराचार्य श्रीअभिनव सच्चिदानन्‍द तीर्थ और परमार्थ निकेतन ऋषिकेश के परमाध्यक्ष मुनि श्री चिदानन्द जी महाराज ने इस अवसर पर विशेष आशीष देते हुए कहा कि ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास से भी महत्वपूर्ण गृहस्थाश्रम है क्योंकि यही शेष तीनों आश्रमों को पालता पोसता है! आज के युग में हिन्दुजा परिवार एक आदर्श गृहस्थी के रूप में समाज और धर्म की सेवा कर रहे हैं जो अनुकरणीय है!

इस तरह सभी के आशीषों से 11 फरवरी को आरंभ हुआ यह भव्य किन्तु सादा विवाह समारोह 12 फरवरी को संपूर्ण विधिविधान के साथ जुहू के हिन्दुजा हाउस में संपन्न हो गया और सम्मिलित होने वालों के मन पर अमिट यादें छोड़ गया! मेरे इस आलेख को पढ़कर रतलाम ये भाई विष्‍णु बैरागी जी ने ठीक ही टिप्‍पणी की हैा उन्‍होंने लिखा है कि-- 'बडे लोग' यदि सादगी बरतेंगे तो गरीबों का भला ही करेंगे। वरना बडे लोगों के प्रदर्शन में गरीबों की मौत है।

-मुम्‍बई से लौटकर कमलकांत बुधकर-

सोमदा के शाप से तापित

लोकसभा वाले अपने दादा ने शाप दे दिया है। अरे अपने सोमनाथ दादा। सांसदों के आचरण से दुखी दादा ने आखिर अपने तरकश से शाप वाला तीर निकालकर सांसदों पर चला ही दिया। दादा ऋषिपद पर हैं। ऋषि ने शाप दिया है तो असर तो होना ही है। अब अपने लोकतंत्र का क्‍या होगा। अगर जनता ने दादा की आवाज़ सुन ली और संसद में बैठने वाले मौजूदा लोगों को नहीं जिताया, सबको हरवा दिया तो अगला सिनेरियो क्‍या होगा। तब भी कोई तो जीतेगा।

अब यह कोई तो कौन होगा। भाइयों और बहनों दादा के शाप में अपनेराम को तो बड़ी संभावनाएं नज़र आ रही हैं। दादा का सारे सांसदों के नाम शाप यह है कि 'आप सब अगला चुनाव हार जाएं।' टोन कुछ इस तरह है उनका कि, 'मेरी नींद चुरानेवाले जा, तुझको भी नींद न आए'। बड़े भैया भारत भूषण जी की ये पंक्तियां फिलहाल बिलकुल मौजूं हैं दादा की मनस्थिति पर।

मुझे तो लगता है कि बाकी पार्टियों के मुकाबले में दादा का यह शाप कम्‍यूनिस्‍ट पार्टियों के लिये कुछ ज्‍यादा है। सारी जि़न्‍दगी दादा जिन पार्टियों, जिन लोगों, जिन विचारों और जिन सिद्धांतों के लिए मरते खपते रहे, उन्‍होंने ही अंत में आकर दादा की क्‍या गत बना दी। तो दादा को शाप तो देना ही था। दादा ने केवल सीपीआई सीपीएम की जगह शाप के फन्‍दे में सबको लपेट लिया है। ठीक ही हुआ। अब सारा ओवर हॉलिंग हो जाएगा।

दादा ने शाप देने से पहले जो तक़रीर दी उसमें दो अलग अलग बातें कह दीं। उन्‍होंने कहा कि आप सब सांसदों को संसद में बैठने का भत्‍ता नहीं दिया जाना चाहिये। अब भला ये क्‍या बात हुई दादा। अगर इन महानुभावों का भत्‍ता ही बन्‍द हो गया तो संसद में ये करेंगे क्‍या। भारतीय लोकतांत्रिक परम्‍परा में तनखा अलग होती है और काम करने के पैसे अलग। अगर इन्‍हें शोरशराबा करने, धींगामस्‍ती करने, संसद में गालीगलौज करने के बदले दैनिक भत्‍ता न मिला तो एक ओर देश के दर्शक उच्‍चस्‍तरीय मनोरंजन से महरूम रह जाएंगे और दूसरी ओर तमाम सांसदों के ऊर्जास्रोतों पर अघोषित पाबन्‍दी लग जाएगी। संसदीय ऊर्जा का क्‍या होगा।

दादा, आपने दूसरी बात सांसदों से यह कही कि आप लोग जनता का अपमान कर रहे हैं और उसे मूर्ख बना रहे हैं। बिलकुल सत्‍तबचन महाराज। लोकसभाध्‍यक्ष के श्रीमुख से लोकतंत्र का यह नग्‍न सत्‍य सुनकर मतली सी होने लगी है। आपकी हिम्‍मत की दाद देते हैं अपनेराम कि आपने उस ऊंची कुर्सी पर बैठकर जो सच बोला है वह वहां से बोला जाने से शायद काबिलेगौर हो गया है वरना सड़कों से तो यह बात साठ बरसों से संसद तक गुंजाई जा रही है। कोई सुनता ही नहीं, सुनता है तो हंसकर कह देता है कि जनता पहले से मूर्ख है वरना हमें वहां भेजती क्‍यों।

दादा के शाप को लेकर मेरी कुछेक सांसदों से चर्चा हुई। सबने हंसकर कहा कि कुछ होने जाने वाला नहीं है। शाप वाप कलियुग से पहले होते थे। अब जो है सब कलियुग का है। हम भी, न दादा भी, जनता भी, और लोकसभा भी। अपनेराम जी, आप क्‍या समझते हैं हमें किसी का कोई शाप लगेगा। सव्‍वाल ही पैदा नहीं होता। वो तो दादा खुद अपनी पार्टी से शापित हैं इसलिये इतने तापित हैं। इतना गुस्‍सा कर रहे हैं।

अपनेराम को लगा कि भाईलोगों की बात में दम है। कलियुग का पूरा जोर है। दादा से मिले शापोत्‍तर भविष्‍य में महान दृश्‍य सामने आ सकते हैं। लोकसभा के चुनावों में उम्‍मीदवारों के नामों के साथ पार्टियां ब्रैकेट में लिखेंगी--- 'शापित'। 'अशापित'। जो शापितों को वोट नहीं देगे वे तापित होने को तैयार रहें। उन्‍हें शापितगण बाद में देख लेंगे।

बात यह है कि दादा का शाप अगर लग ही गया तो मनमोहन, सोनिया, अटल, आडवाणी, राहुल, मुलायम, अमरसिंह वगैरा वगैरा करीब साढ़े पांच सौ छंटे छंटाए सज्‍जनों के सामने बेरोजगार हो जाने का संकट पैदा हो जाएगा। इदेश का यह अमला अगर बेरोजगार हो गया तो बाकी बेरोजगारों को रोजगार के वायदे कौन देगा। कहां से मिलेगी देश को गरीबी दूर करने और देश की कायापलट के आश्‍वासन। दादा ने यह सोचा ही नहीं कि वे शाप देकर राष्‍ट्र की एक पूरी आश्‍वासनपटु पीढ़ी को नाकारा बना देंगे। उनसे हाथ से नेत़त्‍व छीनकर वे रामभरोसे चलते इस देश का राम ही छीन लेंगे। दादा, अपना शाप वापिस ले लो। साढ़े पांच सौ परिवारों के पेट पर यूं लात न मारो।

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

आ गया ऊंट पहाड़ के नीचे

अजब संयोग है कि पंधेर और पाकिस्तान दोनों ए‍क साथ षड्यंत्रों के दोषी सिद्ध हो गए हैं। जिस दिन पंधेर को निर्दोष बच्‍चों की हत्‍याओं में कोर्ट ने षड्यंत्रकारी माना है उसी दिन पाक ने खुद ब खुद मान लिया कि मुम्‍बई में निर्दोष लोगों की हत्‍याओं का षड्यंत्र उसी की सरज़मीं पर रचा गया।  पंधेर भी वहशी  और पाक भी वहशी। आतंक और क्रूरता में न पंधेर कम है और ना ही पाक ।

इस पूरे घटनाक्रम में एक अव्‍छी बात ये हुई कि मियां कसाब अनाथ नहीं रहे।  पाक ने उन्‍हें सनाथ कर दिया और मान लिया कि बच्‍चा नाजायज़ नहीं है, उसीका है। रोते बिलखते और भारतीय जेल की दीवारों से सिर मारते कसाब को भी तसल्‍ली हो गई होगी कि वह अब लावारिया नहीं मरेगा। उसकी लाश का वलीवारिस अब सामने आ गया है। कसाब हफ्तों से बेचैन था । मम्‍मी मम्‍मी पुकार कर उसने सारी जेल सिर पर उठा रखी थी। अब कमसे कम उसे मौत की नींद आने से पहले थोड़ी सी वैन भी आ जाएगी।

नींदें तीन प्रकार की होती हैं। पहली चैन की नींद। दूसरी बेचैनी की नींद और तीसरी मौत की नींद। मौत की नींद तो सबको आती है। फ़र्क यह है कि किसी को जल्‍दी आती है तो किसी को देर से। किसी को वक्‍त पर आती हैं तो किसी को बेवक्‍त। किसी को दी जाती है और किसी को खुद आ जाती है। और कोई कोई तो इस मौत की नींद को ख़ुद बुलाते हैं। खुद बुलाने वालों में कुछ किस्‍मत के मारे होते हैं जो बदतर जि़न्‍दगी से निज़ात पाने के लिए खुद मौत को इन्‍वीटेशन कार्ड भेजते हैं। तब मामला सीधा सीधा आत्‍महत्‍श का बनता है।

पर आजकल  आत्‍महत्‍या के लिये उकसाने का रिवाज़ भी चल पड़ा है। हमारे पड़ौसियों के यहां मौत के लिये उकसाने का यह कुटीर उद्योग बरसों से फलफूल रहा है। जिस सरकार को लोगों के लिये खुशी खुशी जीने के हालात पैदा करने चाहियें  वही सरकार लोगों के लिये खुशी खुशी मरने के हालात पैदा करवाती है। जनता को जीतेजी खुशी मिले यह बात पड़ौसी सरकार कर नहीं पाती। इंसानियत के साथ खुशी खुशी जीने देना जब उसके लिये मुश्किल हो जाता है तो वह मज़़हब के नाम पर मरने की बातें अपने नौजवानों को सिखाती है। मरते तब भी लोग पैसे के लिये ही हैं। मज़हब का तो बस नाम ही होता है। कसाब उन्‍हीं नक़ली मज़हबी बहाद़़ुरों में सं एक है जो अब न मरों में हैं न जि़न्‍दों में। 

मुम्‍बई में मारने आए कसाब के भाईबन्‍द जो भारतीय गोलियों से मर-खप गए, वे तो फिर भी किस्‍मतवाले थे। पाक हुक्‍मरानों ने कमसेकम उनके नाते-रिश्‍तेदारों को तो उनकी मौत के बदले मालामाल कर दिया होगा। पर ये बेचारा कसाब। इसे तो जि़न्‍दा रहते ही कई कई मौतें आ गईं। यहां यह पकड़ा गया और जेल में सड़ रहा है। वहां उसके मां-बाप नाते-रिश्‍तेदार बेघर कर दिए गए।  न माया मिली न राम । भाई मियां की ज़ुबान में कहें तो ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम, ना इधर के रहे ना उधर के रहे  

और इन आतंकवादियों के नापाक आक़ाओं का हाल तो और भी ख़राब है। पहले तो हर बात से इनकार कर दिया। फिर अब, जब ओसामा के बाप ओबामा ने घुड़काया तो इजारबन्‍द गीले हो गए आतंक के इन आक़ाओं के। ओबामा की धुड़की और अपने बाबू मोशाय प्रणब दा की डपट का असर यह हुआ कि भाईमियां ने झूठ के लबादे उतार कर अपनी नंगई कबूल कर ली। 79 दिन तक रट लगाए रहे कि हमने कुछ नहीं किया। पता नहीं किसकी औलाद आपके आंगन में धमाचौकड़ी मचा गईा हम बेक़सूर हैं। अब, जब अंतरराष्‍ट्रीय गालियां पड़ी तो मान लिया कि वे ही हैं बदमाश बच्‍चों के बाप।

ऊंट पहाड़ के नीचे आ चुका है। पहले भी कई बार आया है। पर हर बार करवट बदल लेता है। ऊंट जो ठहरा। यह हर बार भूल जाता है कि पिछली करवट कौनसी थी। लेकिन उम्‍मीद है इस बार ऊंट को याद रहेगा कि सवारी ओबामा कर रहे हें। भाईमियां या तो ओसामा को बाप मान लो या फिर और ओबामा को। दुनिया में दो बाप वैसे तो किसी  के होते नहीं। पर अगर कोई अपने दो बाप बताए या बनाए तो दुनिया उसे क्‍या कहती है यह आप बखूबी जानते ही होंगेा

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

तौबा ऐसे तालिबे इल्‍मों से

जो ख़ुद तालिब-ए-इल्म यानी सीखने की इच्‍छा रखनेवाले हैं, वे ही इन दिनों लोगों को सिखा-पढ़ा रहे हैं। सारी दुनिया में ये 'तालिबान' यानी शिष्‍यों के नाम से मशहूर हैं पर ये सीखते किसीसे नहीं। ये सिर्फ सिखाते हैं। ये तालिबान हैं। इनकी अपनी ओपन युनिवर्सिटी है। उस्‍ताद ओसामा बिन लादेन इनके वाइस चांसलर हैं जो अपने तालिब-ए-इल्मों को काग़ज क़लम से कतई दूर रखते हैं। वे इनके बस्‍तों में बम और हाथों में गन देखकर खुश होते हैं। 'मोगेम्बो खुश हुआ' की तर्ज़ पर।

जब सारी दुनिया में तरक्‍की़ की हवा है और लोग तरक्‍की की राह पर चलने के ख्‍़वाहिशमन्‍द हैं तब ये तालिबान भाई तरक्‍की के दुश्‍मन नंबर एक बने हुए हैं। इनका विश्‍वास लीक छांडि़ चलने में है। इन्‍हें तरक्‍की से नफ़रत है। दरअसल ये सारी दुनिया से अलग दीखना चाहते हैं इसलिये वो काम नहीं करते जो बाकी दुनियावाले करते हैं। ये दुनिया से अलग राह पर हैं। चलना इन्‍हें भी है, पर जब सारी दुनिया आगे बढ़ रही है तो इन्‍हें पीछे लौटना है। इनकी दिशा बढ़ने की नहीं, लौटने की है। अरे भाई, लौटने में भी तो चलना पड़ता है। सो, ये चल तो रहे ही हैं।

जब सारी दुनिया में इल्‍मो-अदब का परचम लहरा रहा है तब ये खुदा के बन्‍दों पर जंगल के क़ानून-क़ायदे थोपने पर आमादा हैं। ये चाहते हैं कि शहरों के क़ायदे-क़ानून बहुत हो लिये अब जंगल के क़ायदे-क़ानून चलने चाहिएं। पीछे लौट जाने में भी तो परिवर्तन है और परिवर्तन प्रकृति का नियम है। भाईलोग प्रकृति की ओर लौट रहे हैं।

यही वजह है कि अपने पड़ौस में स्‍वात घाटी में भी इन दिनों परिवर्तन की बयार चल रही है। पाकिस्‍तानी हुकूमत के ऊपर तालिबानों की हुकूमत नाजि़ल है। मज़हब के ठेकेदार तालिबानों ने सारी घाटी पर कब्‍ज़ा करके नए नए फ1रमान जारी कर दिए हैं। बहुत सोचने समझने के बाद वे लौटकर इस नतीजे पर पहुंचं हैं कि स्‍कूल कॉलेजों की पढ़ाई में कुछ नहीं रखा है। खेलेंगे कूदेंगे बनेंगे नवाब, पढ़ेंगे लिखेंगे तो होंगे ख़राब। तालिबान चाहते हैं कि बच्‍चे ख़़राब न हों बल्कि बच्‍चा बच्‍चा नवाब बने। यही वजह है कि बच्‍‍चों को, ख़ासकर बच्चियों को पढ़ाई से महरूम कर दिया गया है। क्‍या करोगी स्‍कूल जाकर। घर में रहो, खाना पकाओ और बच्‍चे पैदा करो। बस, तुम्‍हारे पैदा होने और जीने का यही मक़सद है।

इस नेक मक़सद के लिए मदरसे तबाह कर दिए गए हैं। औरतों की तरक्‍की के लिए भी कई सुधार कानून बनाए गए हैं। पाकिस्‍तानी और अफ़गानी सरकारों को धता बताकर तालिबानी रेडियों से प्रसारण हो रहे हैं कि तमाम कुंआरी लड़कियां तालिबानियों से ब्‍याह दी जाएं। ये अच्‍छी नस्‍ल बच्‍चे पैदा करने की तालिबानी मुहिम है। ये भी फ़रमान हैं कि औरतें सिर से पांव तक ढकी रहें। घरों से निकलें तो ढकी ढकी, औरों को दीखें तो ढकी ढकी। अब जनाब जब ढकी ढकी ही र‍हना है तो लाली पावडर लपिस्टिक का बेहूदा खर्चा  क्‍यों। राष्‍ट्रीय बचत में इजाफे के लिए ठोस और कारगर तालिबानी उपाय।

दरअसल हिन्‍दुस्‍तानी कहावत लीक छांडि़ तीनौं चलैं, सायर सिंह सपूत के मुताबिक गौर करें तो सपूत तो ये हैं नहीं। पर सपूत हों न हों भाईलोग किसी सीमा तक सिंह और सायर तो हैं। एके-47 से निकली इनकी मौत की शायरी 'ख़वातीनों-हज़रात' की पूरी ऐसी तैसी करके ही दहशती-मुशायरे मुक़म्मिल करती है। गोलियों की गज़लों और कब्रिस्‍तानी नज्‍़मों के दीवाने इन लोगों ने दुनियाभर में नेस्‍तनाबूदी के जो कलाम पेश किये हैं वे इन्‍हें मौत का शायर ही करार देते हैं। अगर आप इन्‍हें शायर नहीं मानते तो क़ायर मान लें। वो तो ये हैं ही। तो क्‍या भाई लोग सिंह हैं। अब अगर कायर हैं तो इन्‍हें सिंह कैसे मान लें। ना भई ना। सिंह तो उतने परसेंट ही हैं जितने परसेंट जंगल में रहते और अपना जंगली कानून चलाते हैं।

अब अपने से तो इन्‍हें तालिबान भी नहीं कहा जा रहा हैा दरअसल तालिबान पैदा करना अपनेराम का भी पेशा है। मुम्‍बइया हिन्दी में बोले तो अपुन बरसों से कॉलेज में बच्‍चा लोग को पढ़ारेला है, सिखारेला है। पन अपने को अगर पता चला कि अपुन जिनको पढ़ाया वो पढ़लिखकर अपनीच वाट लगारेला है तो अपुन किसी अंधारकूंआ में कूदने को तैयार हो जाएंगा। पर मज़े की बात ये हैं कि ये बन्‍दूकवाला तालिबान तो उनके उस्‍ताद लोग का ही नहीं बल्कि सारे कौम का ही वाट लगारेला है और क़ौम वाला, मज़हब वाला चुप बैठेला है। रामझरोखे बैठ के जग का मुजरा ले रेला हैा