बुधवार, 25 नवंबर 2009

बुज़ुर्गों के घर में बचपना

दिल्‍ली में अपनी राजसभा भरेली थी। राजसभा को अंग्रेजी में बोले तो एल्‍डर्स हाउस यानी बुज़ुर्गों का घर। तो बुज़ुर्गों का घर खचाखच भरेला था। सफेद बाल और सफेद दाढ़ी-मूंछ वाला शैतान बच्‍चा लोग भी उधर धमाचौकड़ी मचाने कू जमा था। बड़ा ही सेकुलर किसिम का माहौल था। अध्‍यक्ष की ऊंची कुर्सी पर डिप्‍टी स्‍पीकर जनाब के.ए. रहमान और स्‍पीकर जनाब हामिद अंसारी,  बारी बारी बैठ रयेला था। अयोध्‍या रिपोर्ट के रूप में सत्रह बरस बाद जनाब जस्टिस लिब्राहान को चिदम्‍बरम ने जैसे ही सदन के पटल पर अवतरित किया वैसे ही शोर मच गया। अयोध्‍या  के राजा राम ध्‍वनिमत से आगे कू बढ़ते दीखे तो यह बात अपने समाजवाद को अख़र गई और झट से उठकर सारा समाजवाद भाजपा की ओर लपक लिया। रणबांकुरे कुर्सीछोड़ रण को भागे और एकदूसरे के सामने डट गए। 

अपने सुरेन्‍दर, बोले तो देवताओं के इन्‍दर यानी राजा। और अपने अमर, बोले तो जो कभी मरेगाच नर्इ, माने खुदीच देवता। क्‍या नज़ारा है। एक तरफ अमर खड़ेला है और दूसरी तरफ सुरेन्‍दर खड़ेला है। एक के पीछू समाजवादी अड़ेला है और दूसरे के पीछू भाजपाई अड़ेला है। सारा राज्‍यसभा खचाखच भरेला है और ये दोनों आपस में ढिशुंग ढिशुंग के मूड में आयेला है।

तभी इन दोनों को अपना कॉलेज का जमाना याद आयेला है। वो जवानी का दिन था, मस्‍ती की रातें थीं। एक यूपी से  गया तो दूसरा बिहार से गया था कोलकाता। दोनों एक साथ कोलकाता यूनिवर्सिटी में पढ़ने कू गया था। पढ़ा या नई, ये तो वोईच जाने पर दोनों का मेहबूबा एकीच था- अपना कांगरेस।  पर वो बंगाल था। दोनों दोस्‍त कुछ दिन एकीच मेहबूबा से पींग बढ़ाया पर बाद कू दोनों का मन भर गया तो बीच रास्‍ते में उसको छोड़ दिया। इधर का कांग्रेस बाबू मोशाय ले उड़े। अपने सरदार साहब और ठाकुर साहब दोनों का कांग्रेसी इश्‍क़ परवान ना चढ़ा तो दोनों के रास्‍ते अलग अलग हो गए। एक को भाजपा रास आई तो दूसरा समाजवादी हो गया। बहुत दिनों से दोनों के बीच में कोई सीधा संवाद नहीं हुआ था। अमर मन करता था कि जोर से पुकारें, 'सुरेन्‍दर ओय, की करदा फिरदा ए। चल कन्‍टीन चलिये।' सरदार मन भी कहने को उतावला था कीने को कि, 'अमर यार, चल  इक वारी कोलकाता हो आइये। तेरे नाल  यूनिवर्सिटी घुम्‍मन दा बड़ा मन करदा ए।'कॉलेज के दिन किसको याद नहीं आते। पर बुरा हो इस राजनीति का दो दोस्‍तों को दूर कर दिया। हाय। पर दोस्‍ती सलामत रहे दोनों की। एक ने 'जय बजरंग बली' कहा तो दूसरे ने 'या अली' कहा। दोनों गुस्‍से में भिड़े और प्‍यार से लिपट गए। दोनों की राजनीति भी सच्‍ची हो गई। दोनों के वोट भी पक्‍के हो गए और रोटियां भी पक्‍की हो गईं। देश तमाशबीन था और वे दोनों तमाशगीर। तमाशगीर मज़ा ले गए और तमाशबीन ठगे से देखते रह गए। 

बुधवार, 18 नवंबर 2009

पहले राष्ट्रीय फिर महाराष्‍ट्रीय

वाह बेटा सचिन, क्‍या बल्‍ला घुमाया है। ठाकरे की बॉल पर तुमने वो अट्ठा मारा है कि अपनेराम का दिल बल्लियों उछल रहा है। अपने निजी स्‍वार्थ के लिये रोज़ सुबह उठकर हवा में ठा ठा करने वाले इन ठाकरों को अब क्‍या कहें जिन्‍हें सामान्‍य बोलचाल की भाषा के अर्थ भी समझ नहीं आते। वे अपने को महाराष्‍ट्रीय कहते हैं। पर महाराष्ट्रीय में छिपे राष्‍ट्रीय का अपमान करते नहीं अघाते। वे खुद को महाराष्‍ट्रीय कहें तो कहें पर सच पूछिये वे तो हैं नहीं। होते तो पूरे राष्‍ट्र की बात करते, केवल महाराष्‍ट्र की नहीं। तब फिर आज की तरह देश उन्‍हें दुत्‍कारता  नहीं दुलारता।

असली महाराष्‍ट्रीय थे गोखले, तिलक, सावरकर, राजगुरू और अम्‍बेडकर जो देश के लिये जीये और देश के लिये ही मरे। असली महाराष्‍ट्रीय थे धोंडो केशव कर्वे, पाण्‍डुरंग वामन काणे, पंडित भीमसेन जोशी, प्रह्लाद केशव अत्रे और शंतनुराव किर्लोस्‍कर क्‍योंकि वे सभी पहले राष्‍ट्रीय फिर महाराष्‍ट्रीय थे। उनकी कला, सुमेधा, ज्ञान और उद्यमिता ने केवल महाराष्‍ट्र का नहीं सारे देश का नाम ऊंचा किया। महाराष्‍ट्रीय हैं भारतरत्‍न लता मंगेशकर और अद्वितीय सचिन तेंदुलकर जिन्‍हें सारा राष्‍ट्र सिर-आंखों पर बिठाता है । नाम और भी हैं जिनकी सूचियां बहुत लम्‍बी हो जाएंगी। पर ठाकरों  की सूची बहुत छोटी है। हमेशा छोटी ही रहेगी। 

सच कहें तो अपनेराम के भीतर भी एक  महाराष्‍ट्रीयन हैं। पर वह सचिन की जमात का महाराष्‍ट्रीय हैं, ठाकरे की जमात का नहीं। अपनेराम के एक भांजेमियां अजित वड़नेरकर ने खोजबीन करके बताया कि इतिहासकार विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े ने अपने शोध से सौ बरस पहले ही यह स्थापना दे दी थी कि महाराष्ट्वासी मूलतः मघराष्ट्रीय अर्थात् मगध से आप्रवासित होकर दक्षिणापथ में जा बसे थे। यानी महाराष्ट्रीय मूलतः बिहारी ही हुए। अब आज का व्यंग्य यह है कि एक पुराना बिहारी दूसरे नए बिहारी को भगा रहा है। राजवाड़े जी की उस शोध का हवाला यहां देखा जा सकता है। लिंक देखे-ठाकरे, तुम्हारे पुरखे कहां से आए थे

अब अपनी समझ में तो इस महाराष्‍ट्रीय शब्‍द का अर्थ न जाने कबसे आया हुआ है। यह शब्‍द ही अपने आपमें सारी कहानी बयां कर रहा है। उस कहरनी का लुब्‍बेलुआब यह है कि जो राष्‍ट्रीय नहीं है वह महाराष्‍ट्रीय कैसे हो सकता है । जो कवि ही नहीं है उसके महाकवि बनने के चांसेस कहां हैं। जो वीर ही नहीं उसे भला कौन महावीर कहेगा। यहां तक कि किसी को महामूर्ख कहने से पहले यह देख लेना जरूरी है कि वह मूर्ख भी है कि नहीं। बिना सोचे समझे किसी को महामूर्ख कहना भी ठीक नहीं।

हमारी मुम्‍बई में एक हैं बाळ और एक हैं राज। बाळ मराठी में बच्‍चे को कहते हैं। जैसे हिन्‍दी में मुन्‍ना। तो ये जो बाळ हैं वैसे तो बालबच्‍चों और भतीजों वाले हैं पर हैं अब भी बाळ ही। ये जिस पालने में हैं वही इनका विश्‍व है। ये पड़े हुए अंगूठा चूस रहे हैं। अंगूठा कभी हाथ का होता है तो कभी पांव का। चूसते चूसते कभी हंसकर किलकारी भरते हें तो कभी फुक्‍काफाड़ रो पड़ते हैं। इनकी इन बाल‍ लीलाओं से उकताकर इनके भतीजे राजलीला पर उतर आए। अब दोनों चचा-भतीजे कंपीटीशन में हैं। लीला दोनों तरफ कॉमन है। और कॉमन हैं इन बचकानी लीलाओं को सराहने वाले। मैं और मेरा की यह लीलाएं सुप्रसिद्ध मराठीमंच को कलंकित कर रही हैं पर लीलाकारों को तो केवल टिकट बिकवाने की पड़ी है। कभी 'विषवमन' का मंचन होता है तो कभी 'सिर्फ मैं' का। भाई लोगों का इन दिनों जो नाटक चल रहा है उसका एक ही ध्‍येयवाक्‍य है, ''खेल खेलो मराठी की आड़ में, चाहे सारा देश जाए भाड़ में।'' ऐसे में अपनेराम की हार्दिक इच्‍छा है कि सारा देश, ख़ासकर राष्‍ट्रवादी सचिन तेन्‍दुलकर जैसे मराठीभाषी,  मिलकर ठाकरे जैसी मनोवृत्तियों को भाड़ का रास्‍ता दिखाएं। मराठीभाषी समाज पहले राष्‍ट्रवादी बने फिर महाराष्‍ट्रवादी। हम पहले राष्‍ट्रीय बनें फिर महाराष्‍ट्रीय, पहले जय राष्‍ट्र, फिर जय महाराष्‍ट्र ।।

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

दम्‍भ का महाकुम्‍भ

यूं तो बारहों महीने वसंत है संतई में। पर इन दिनों गंगनगरी हरिद्वार में संतो का विराट् वसंतोत्‍सव आने को है। महाकुम्‍भ के रूप में संत बनने-बनाने का द्वादशवर्षीय दुर्लभ अवसर आने को है। रोज़गार के अवसर जुटनेवाले हैं। समाज को ऋणी होना चाहिए कि बेरोज़गारों को काम मिलने वाला है। उन्‍हें राज़ी-रोटी ही नहीं मुफ्त में पैसा और प्रणाम मिलने के दिन  आने वाले हैं। उम्र की कोई सीमा नहीं है। बच्‍चे हैं तो बालयोगी या बालब्रह्मचारी और बड़े हैं तो 108 से 1008 तक श्रीयुक्‍त हो सकते हैं। जो अशक्‍त हैं, जो परित्‍यक्‍त है, जो घर-परिवार से विरक्‍त है, उन सबके लिये सशक्‍त ढंग से अभिव्‍यक्‍त और आश्‍वस्‍त होने का अवसर आ गया है। जाना कुछ है नहीं, बस आना ही आना है। कहावत पूरी होने को है, ''हींग लगे ना फिटकरी, रंग भी चोखा होय।''

करना कुछ नहीं; बस एक बार कपड़े उतार कर नग्‍न होना है फिर उसके बाद तो इतनी चादरें चढ़ेंगी कि एक नहीं कई कई 'चादर-भण्‍डार' खोल लो या अपने पूर्व परिजनों को खुलवा दो। किस्‍मत ने साथ दे दिया और गट्टों में दम रहा तो नेता-अफ़सर चीज़ ही क्‍या है, मंत्री और मुख्‍यमंत्री तक अपनी कुर्सी आपसे  छिनवाकर गौरवान्वित होंगे। खुद को बड़ा उपकृत अनुभव करेंगे।

यूं भी संतई में बड़े मज़े हैं। पन्‍द्रह-बीस प्रतिशत विद्वान् संतों को छोड़कर शेष को अपनी संतर्इ चलाने के लिये  आजकल कुछ ख़ास करना भी नहीं पड़ता। पहले भी आसान था बाबा बनना और आजकल तो और भी ज्‍्यादा आसान है। तुलसीदास लिख गए हैं कि ''नारि मुई, गृह, संपति नासी, मूड़ मुड़ाए भए संन्‍यासी।'' पर अब तो ऐसा ना भी हो तो भी बाबा बनना आसान है और फ़ायदेमन्‍द भी है। जैसे नेता, अभिनेता या पत्रकार बनने में किसी योग्‍यता, शिक्षा दीक्षा या अनुभव की ज़रूरत नहीं होती वैसे ही बाबा बनने के लिए भी केवल इच्‍छाभर होनी चाहिए। कपड़े का रंग पसंद करो और बाबागीरी शुरू। भगवा पहनो या सफेद, लाल पहनो या काला। जटाजूट रखो या रुण्‍ड-मुण्ड बन जाओ। वस्‍त्र पहनों या निर्वस्‍त्र रहो। रामनाम जपो या किसी की मां-बहन एक करो। आपके लिये सब जायज़ है। आजकल बड़े बड़े लठपति ही मठपति बनते हैं। फिर सारा समाज आपको सप्रणाम विस्‍तृत अनंत अधिकार प्रदान कर देता है।

अभी अभी हरिद्वार में ऐसा हो भी गया है। हरिद्वार महोत्‍सव के  उद्घाटन मंच पर संत महंतों का जमावड़ा था। आसन्‍न कुम्‍भ के चलते आजकल इन सबकी सर्वत्र घुसपैठ और जबरदस्‍त सम्‍मान का दौर है इसलिये हरिद्वार महोत्‍सव कैसे अछूता रहता। सो बाबालोग मंचासीन ही नहीं हुए बल्कि प्रदेश के मुखिया की कुर्सी तक हथिया बैठे। मुख्‍यमंत्री को जनता में बैठकर देखना पड़ा कि 'बाबानाम केवलम्' का जलवा क्‍या होता है। संस्‍कृति के उस मंच से मुख्‍यमंत्री की उपस्थिति में जिस असांस्‍कृतिक, अश्‍लील, अभद्र, मातृ-भगिनी-मूलक गालियों का जो प्रसारण संतों के श्रीमुख से हुआ, वह जिसने भी देखा-सुना वह आज तक अचंभे में है। लोगों को विश्‍वास हो गया है कि हरिद्वार में सचमुच कुम्‍भ आने को है। संतों के निर्बाध दम्‍भ के पीछे ही तो आजकल कुम्‍भ आता है।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

आज वाणी अवाक् है

कई बरस बीत गए, शायद अस्‍सी के दशक की बात है। हरिद्वार कला साहित्‍य प्रसारिका संस्‍था ''वाणी'' ने तब व्‍याकरणाचार्य पं.किशोरीदास वाजपेयी की स्‍मृति में व्‍याख्‍यानमाला का आयोजन किया था। नवभारत टाइम्‍स के तत्‍कालीन प्रधान संपादक पत्रकार-प्रवर राजेन्‍द्र माथुर मुख्‍य वक्‍ता थे और जनसत्‍ता के संपादक प्रखर पत्रकार प्रभाष जोशी उस कार्यक्रम में अध्‍यक्ष की हैसियत से शामिल हुए थे। दोनों परस्‍पर प्रगाढ़ मैत्री की डोर में बंधे थे और दोनों ने ही अपनी पत्रकारिता इंदौर में एक ही बिन्‍दु से शुरू करके दिल्‍ली की मंजिल गांठी थी।

उस कार्यक्रम में तब प्रभाष जी ने अपने अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य की शुरुआत में कहा था कि, ''जिन रज्‍जू भैया की अध्‍यक्षता में मैंने पत्रकारिता की शुरुआत की थी आज उन्‍हीं के भाषण में मुझे अध्‍यक्ष बनाकर बिठा दिया गया है। यह स्थिति मुझे संकोच में भी डाल रही है और गुदगुदा भी रही है।''

प्रभाष जी का ऐसा कहना जहां उनकी सूफियाना वाणी और लेखनी का परिचायक था वहीं रज्‍जूभैया से उनके पारस्‍परिक आदरपूर्ण  मैत्री संबंधों की ऊष्‍मा को भी उजागर कर रहा था। मेरे लिए तो वे क्षण जीवनभर की पूंजी बन गए थे जब हिन्‍दी पत्रकारिता के इन दोनों दिग्‍गजों ने एक साथ मेरे घर की रसोई को पवित्र किया था। आज रज्‍जूभैया भी नहीं हैं और पं.प्रभाष जोशी भी हिन्‍दी पत्रकारिता को बिलखता छोड़कर चल निकले हैं अपने मित्र से मिलने। देश की स्‍वतंत्रता के बाद की हिन्‍दी पत्रकारिता अपना एक और पुरोधा खो चुकी है। पत्रकारिता सदमें में है, उसकी वाणी आज अवाक् है।

प्रभाष जी हिन्‍दी पत्रकारिता के एक पूरे युग की अलग पहचान थे। वे सही मायनों में चिंतक और विचारक पत्रकार थे जिनके संपादन में जनसत्‍ता ने हिन्‍दी को सर्वथा एक नई भाषा शैली और प्रस्‍तुतिकरण की अपूर्व धज प्रदान की। विभिन्‍न विषयों पर अपनी खांटी सोच रखनेवाले प्रभाष जी यूं तो परिवेश के सारे विषयों के प्रति जागरूक थे पर क्रिकेट उनकी जान थी। यह कहना भी शायद अतिशयोक्तिपूर्ण न माना जाए कि उनकी असामयिक मृत्‍यु का, उनके हृदयाघात का कारण भी यही क्रिकेट बनी।

जिस तरह की सूचनाएं मिलीं हैं यह क्रिकेट का दीवाना लिक्‍खाड़ पत्रकार कल रात सचिन तेंदुलकर की 17000 रनों की उपलब्धि पर विभोर था। प्रसन्‍नता और गर्व उनके वाणी और व्‍यवहार से छलक रहा था। पर अचानक देर रात को जब उन्‍हें समाचार मिला कि कंगारुओं ने भारत को सिर्फ तीन रनों से मात दे दी तो प्रभाष जी अवाक् रह गए। उन्‍हें भारत की इस हार से गहरा आघात लगा और समाचार मिलने के पन्‍द्रह मिनिट में ही उन्‍हें दिल का दौरा पड़ गया। उन्‍हें जब तक डॉटर की देखरेख में ले जाया गया तब तक तो वे लम्‍बी, बहुत लम्‍बी यात्रा पर निकल चुके थे।

प्रभाष जी का जाना हिन्‍दी पत्रकारिता के साथ साथ उनके उन हज़ारों मित्रों-परिचितों की व्‍यक्तिगत क्षति है जिन्‍होंने उनकी कार्यशैली देखी है और उनके विचार-सरोवर में अवगाहन कर उसमें समय समय पर खिले अनगिन कमलों का नैकट्य हासिल किया है। प्रभाष जी बेहद खुले व्‍यवहार वाले पारिवारिक किस्‍म के रचनाकार थे। वे कभी वायवीय चिंतक नहीं बने। उनकी भाषा में घरेलूपन था और विचारों में आत्‍मीयता थी। उनकी भाषा और विचार दोनों ही पाठक को अपने अपने से और बहुत करीब के लगते थे। राजकमल प्रकाशन ने ''लिखि कागद कारे किए'' श्रृंखला के 2000 से अधिक पृष्‍ठों वाले जो पांच खण्‍ड प्रकाशित किए हैं उनमें करीब चार सौ निबंघनुमा टिप्‍पणियों में पत्रकार प्रभाष जोशी की दृष्टि और सृष्टि का मणिकांचन संयोग उपस्थित हुबा है। प्रभाष जी की सोच को समझने के लिए इन चार सौ रचनाओं के बीच से गुज़रना काफी होगा।

हरिद्वार और गंगा से प्रभाष जी को बड़ा लगाव था। ''धन्‍न नरबदा मैया हो'' कहने  लिखने वाला यह कलमशिल्‍पी अक्‍सर हरिद्वार के गंगातट पर दिखाई पड़ जाता था। यह और बात है कि इस तरह की गंगायात्राओं के पीछे हमारी उषा भाभी की मंशा और प्रेरणा अधिक हुआ करती थी। पर यूं भी पंडित प्रभाष जोशी हरिद्वार आने या हरिद्वारियों से मेल-मुलाकात का कोई मौका छोड़ते नहीं थे। गुरुकुल कांगड़ी विश्‍वविद्यालय में हिन्‍दी पत्रकारिता पाठ्यक्रम की नींव 1991 में  उनके ही आशीर्वाद वक्‍तव्‍य से पड़ी थी। अनेक ऐसे  अवसर स्‍म़तिपटल पर हैं जब वे आए और अपनी वाचा से हमें धन्‍य करके लौट गए। उनकी यात्रा स्‍मृतियां हमें स्‍फूर्ति देती रहीं। पर अब हाथ-पांव फूल रहे हैं। पता नहीं उनके परिजन उन्‍हें किस तरह हरिद्वार लाएंगे। जिस तरह लाएंगे उसकी कल्‍पना तक सिहरा रही है। पंडित प्रभाष जोशी यायावर थे, घुमक्‍कड थे, मनमौजी थे । उनका अचानक हरिद्वार आना चौंकाता नहीं था। पर अब यह सोच सोच कर मन व्‍याकुल है वे कि क्‍या सचमुच रज्‍जूभैया की ही तरह उनके अस्थि-अवशेषों के गंगाविसर्जन का साक्षी हमें बनना होगा। हिन्‍दी पत्रकारिता में जमीनी जुड़ाव, सांस्‍कृतिक चेतना और बेलाग प्रखरता की चर्चा अब किस नाम से शुरू हुआ करेगी।