हमने जब लिख्ाना शुरू किया तब न तो मोबाइल था न कम्प्यूटर । इण्टरनेट नाम की चिडि़या भारतीय लेखन के आकाश में उड़ती ही नहीं थी फिर भला ब्लॉग या चिट्ठाजगत को कौन जाने। फिर भी बड़े खुशनुमा दिन थे वे। रोज़ाना अपुन दसबीस चिट्ठियां लिखते थे और हर सुबह पोस्टमैन नम्बर नौ के पीछे जाकर खड़े हो जाते थे। दसपांच चिट्ठियां वो हमें थमाकर ऐसी कृतज्ञ नज़रों से देखता था जैसे उसकी नौकरी ही हमारी इन चिट्ठियों की वजह से सुरक्षित है। इन्हीं चिट्ठियों में अधिकांशत: सपादकों के लौटाए छपे-छपाए खेदपत्र के पुर्जे हुआ करते थे। लिखा रहता कि, खेद है आपकी रचना लौटाई जा रही है ताकि आप इसका उपयोग अन्यत्र कर सकें। नीचे भाईलोग ये भी छाप देते थे कि रचनाओं के साथ अपना पता लिख डाक-टिकट लगा लिफाफा भेज दिया करें ताकि लौटाने में सुविधा हो। मानों कैदी से कहा जा रहा हो कि भाई फांसी की रस्सी अपने घर से लेते आना।
खैर, अपनेराम की डाक में और भी कई रंगाबिरंगे ख़त हुआ करते थे। बच्चन जी के रंग वाले ख़तों का तो कहना ही क्या । मैंने एक बार उन्हें लिखा कि महाराज, मेरे पास सम्पादकों के भेजे खेदपत्रों का ढेर लग गया है। जब ये ससुर हमें छापते ही नहीं तो हम इन्हें अपनी रचनाएं भेजे क्यों ।
मेरे इस ख़त के जवाब में बच्चन जी ने एक मज़ेदार ख़त मुझे लिखा जो आपको पढ़वाता हूँ। आपको मज़ा भी आएगा और सम्पादकों के बारे में बच्चन जी की राय भी ज़ाहिर हो जाएगी।
7 मार्च 1979तो मित्रों, ये था महाकवि का परामर्श नए बांगड़ुओं को। आज सम्पादक धरे ठेंगे पर। किसको पड़ी है उन पत्र पत्रिकाओं की जो लेखों की जगह विज्ञापनों से अटी पड़ी हैं। अब तो हर नए-पुराने कम्प्यूटर प्रेमी लिक्खाड़ की अपनी एक पत्रिका है इण्टरनेट पर जिसके आगे सारी पत्रपत्रिकाएं फेल हैं, अनुत्तीर्ण हैं। सम्पादक पटे या न पटे, कम्प्यूटर जि़न्दाबाद ।
प्रियवर, पत्र के लिए धन्यवाद । सद्भावना के लिए आभारी हूं।
प्रकाशन संसार में प्रवेश पाने के लिए पत्रपत्रिकाओं की शरण लेनी ही पड़ती है-
सम्पादकों को पटाना ही पड़ता है। विदेशों में भी लेखक को इस प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। शॉ ने कहीं लिखा था कि तब मैं सम्पादकों को अपने लेख भेजता था तो 10 में से 9 चीज़ें वापस आ जाती थीं। तब मैंने सौ चीज़ें भेजनी शुरू कर दीं कि दस तो उनमें से छपेंगी। शॉ की थोड़ी अतिशयोक्ति हो सकती है। पर विधि यही है।
जब लेखक समझ ले कि उसकी चीजें छपने योग्य हैं तो वह सम्पादकों को लेखों, कविताओं, निबंधों से बम्बार्ड कर दे। लौटाते-लौटाते कमसे कम नाम से तो परिचित होगा। फिर नाम से आई चीज़ों पर ध्यान देगा। और अगर उसके दिमाग़ में कूड़ा ही नहीं भरा हुआ है तो अच्छी चीज़ों को कभी न कभी तो पसंद करेगा ही। शेष सामान्य। तेजी जी आजकल
चित्रकूट की तीर्थयात्रा पर हैं, होली से पूर्व लौटेंगी।। परिवार में सब लोग सकुशल। बुधकर परिवार में सबको होली की बधाई। सस्नेह- बच्चन ।
तब की चिट्ठियां जि़न्दाबाद, अब के चिट्ठे जि़न्दाबाद ।