बुधवार, 28 नवंबर 2007

सम्‍पादकों को पटाना ही पड़ता है

हमने जब लिख्‍ाना शुरू किया तब न तो मोबाइल था न कम्‍प्‍यूटर । इण्‍टरनेट नाम की चिडि़या भारतीय लेखन के आकाश में उड़ती ही नहीं थी फिर भला ब्‍लॉग या चिट्ठाजगत को कौन जाने। फिर भी बड़े खुशनुमा दिन थे वे। रोज़ाना अपुन दसबीस चिट्ठियां लिखते थे और हर सुबह पोस्‍टमैन नम्‍बर नौ के पीछे जाकर खड़े हो जाते थे। दसपांच चिट्ठियां वो हमें थमाकर ऐसी कृतज्ञ नज़रों से देखता था जैसे उसकी नौकरी ही हमारी इन चिट्ठियों की वजह से सुरक्षित है। इन्‍हीं चिट्ठियों में अधिकांशत: स‍पादकों के लौटाए छपे-छपाए खेदपत्र के पुर्जे हुआ करते थे। लिखा रहता कि, खेद है आपकी रचना लौटाई जा रही है ताकि आप इसका उपयोग अन्‍यत्र कर सकें। नीचे भाईलोग ये भी छाप देते थे कि रचनाओं के साथ अपना पता लिख डाक-टिकट लगा लिफाफा भेज दिया करें ताकि लौटाने में सुविधा हो। मानों कैदी से कहा जा रहा हो कि भाई फांसी की रस्‍सी अपने घर से लेते आना।
खैर, अपनेराम की डाक में और भी कई रंगाबिरंगे ख़त हुआ करते थे। बच्‍चन जी के रंग वाले ख़तों का तो कहना ही क्‍या । मैंने एक बार उन्‍हें लिखा कि महाराज, मेरे पास सम्‍पादकों के भेजे खेदपत्रों का ढेर लग गया है। जब ये ससुर हमें छापते ही नहीं तो हम इन्‍हें अपनी रचनाएं भेजे क्‍यों ।
मेरे इस ख़त के जवाब में बच्‍चन जी ने एक मज़ेदार ख़त मुझे लिखा जो आपको पढ़वाता हूँ। आपको मज़ा भी आएगा और सम्‍पादकों के बारे में बच्‍चन जी की राय भी ज़ाहिर हो जाएगी।

7 मार्च 1979
प्रियवर, पत्र के लिए धन्‍यवाद । सद्भावना के लिए आभारी हूं।
प्रकाशन संसार में प्रवेश पाने के लिए पत्रपत्रिकाओं की शरण लेनी ही पड़ती है-
सम्‍पादकों को पटाना ही पड़ता है। विदेशों में भी लेखक को इस प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। शॉ ने कहीं लिखा था कि तब मैं सम्‍पादकों को अपने लेख भेजता था तो 10 में से 9 चीज़ें वापस आ जाती थीं। तब मैंने सौ चीज़ें भेजनी शुरू कर दीं कि दस तो उनमें से छपेंगी। शॉ की थोड़ी अतिशयोक्ति हो सकती है। पर विधि यही है।
जब लेखक समझ ले कि उसकी चीजें छपने योग्‍य हैं तो वह सम्‍पादकों को लेखों, कविताओं, निबंधों से बम्‍बार्ड कर दे। लौटाते-लौटाते कमसे कम नाम से तो परिचित होगा। फिर नाम से आई चीज़ों पर ध्‍यान देगा। और अगर उसके दिमाग़ में कूड़ा ही नहीं भरा हुआ है तो अच्‍छी चीज़ों को कभी न कभी तो पसंद करेगा ही। शेष सामान्‍य। तेजी जी आजकल
चित्रकूट की तीर्थयात्रा पर हैं, होली से पूर्व लौटेंगी।। परिवार में सब लोग सकुशल। बुधकर परिवार में सबको होली की बधाई। सस्‍नेह- बच्‍चन ।
तो मित्रों, ये था महाकवि का परामर्श नए बांगड़ुओं को। आज सम्‍पादक धरे ठेंगे पर। किसको पड़ी है उन पत्र पत्रिकाओं की जो लेखों की जगह विज्ञापनों से अटी पड़ी हैं। अब तो हर नए‍-पुराने कम्‍प्यूटर प्रेमी लिक्‍खाड़ की अपनी एक पत्रिका है इण्‍टरनेट पर जिसके आगे सारी पत्रपत्रिकाएं फेल हैं, अनुत्‍तीर्ण हैं। सम्‍पादक पटे या न पटे, कम्‍प्‍यूटर जि़न्‍दाबाद ।

तब की चिट्ठियां जि़न्‍दाबाद, अब के चिट्ठे जि़न्‍दाबाद ।

मंगलवार, 27 नवंबर 2007

बच्‍‍चन जी से ब्‍लैकमेलिंग

बच्‍चन जी का आज सौवां जन्‍मदिन है। वे होते तो हरिद्वार से भेजे बेसन के लडडुओं से अपने जन्‍मदिन की शुरुआत करते। ऐसा उन्‍होंने कई बार किया भी और मुझे लिखा भी। बेसन के लडडू उनकी कमजो़री थे। मेरी पत्‍नी संगीता जी को उनकी इस कमज़ोरी का पता चला तो वे हर साल उनके जन्‍मदिन पर उन्‍हें लडडुओं का पार्सल भिजवाने लगीं। एक बार, शायद 1979 की बात है, मैंने बच्‍चन जी के जन्‍मदिन पर उन्‍हें एक गज़ल लिख भेजी और साथ में भेज दिए संगीता जी के बनाए बेसन के लडडू। बच्‍चन जी का जवाब आया जिसमें उन्‍होंने गज़ल को मीठी बताते हुए लिखा कि..... तुम्‍हारी गज़ल यूं तो बहुत मीठी है पर संगीता जी के बनाए लडडू खाकर शायद उतनी मीठी न रह जाए।..... फिर बच्‍चन जी आगे लिखते हैं कि..... लडड़ुओं पर एक शेर मुलाहिज़ा हो...
लज्‍़ज़ते लडडू बताऊं किस तरह,
देखते ही मुंह में पानी आ गया ।।
डॉ. हरिवंशराय बच्‍चन एक बहुत बड़ी हस्‍ती का नाम है जो महाकवि ही नहीं महान मनुष्‍य भी थे। मेरे जैसे अदना आदमी के साथ उनका बरसों पत्राचार चला जो 2004 में नवभारत टाइम्‍स संस्‍थान ने उनकी पाती अपनी थाती नाम से प्रकाशित ही नहीं किया बल्कि महाकवि के महानायक पुत्र अमिताभ जी से उसका मुम्‍बई में विमोचन भी करवाया। यह पत्राचार इस बात का पक्‍का सबूत है कि वे कितने ख़ास होकर भी कितने आम थे। मेरे जीवन को जिन चन्‍द महान विभूतियों का आशीर्वाद मिला उनमें डॉ. बच्‍चन अग्रणी हैं। 1965 से 1984 तक हमारे बीच बाकायदा पत्रों का एक मजबूत पुल बना रहा जिस पर होकर मैं अक्‍सर दिल्‍ली के सोपान और मुम्‍बई के प्रतीक्षा तक आता जाता रहा और वे हरिद्वार में लक्ष्‍मण निवास पर अपने पत्रों की दस्‍तक देते रहे। उन्‍हीं के शब्‍दों में कहूं तो कह सकता हूं.....
अगणित अवसादों के क्षण हैं, अगणित उन्‍मादों के क्षण हैं।
रजनी की सूनी घडि़यों को किन किन से आबाद करूं मैं,
क्‍या भूलूं क्‍या याद करूं मैं..... ।
फिर भी आइये, एकाध बात याद करके उन्‍हें प्रणाम करने का प्रयत्‍न करता हूं।
1982, 1983 में मैंने कई बार बच्‍चन जी से कहा कि मैं आपसे अमिताभ जी को लेकर एक साक्षात्‍कार करना चाहता हूं। पर हर बार बच्‍चन जी टाल जाते थे... मेरे से नहीं अमिताभ के बारे में औरों से पूछो...। एक बार मैं टेप रेकॉर्डर लेकर पहुंच गया तो बोले कि यह टेप रेकॉर्डर हटा लो, बन्‍द कर दो तो बात करूं‍। मैंने कहा कि मुझे शॉर्टहैण्‍ड में लिखना नहीं आता, आपकी कही बातें कैसे लिख पाऊंगा उतनी जल्‍दी। तो बोले चलो किसी और तरह से तुम्‍हारा काम कर दूंगा। काम उन्‍होंने किया नहीं और वक्‍त टलता गया। फिर वह वक्‍त आया जब बच्‍चन रचनावली का विमोचन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को करना था। दिल्‍ली के एक सभागार में भव्‍य कार्यक्रम आयोजित था। बच्‍चन जी ने मुझे भी कार्यक्रम का निमंत्रण भिजवाया तो मैं सपत्‍नीक कार्यक्रम में शरीक हुआ। मेरी पंक्ति से अगली ही पंक्ति में राजीव गांधी, सोनिया गांधी, अमिताभ जी, जया जी और अजिताभ जी बिराजमान थे। मैं इस समारोह में एक छोटा सा टेपरेकॉर्डर लेता गया। मैंने सारा कार्यक्रम दो कैसेटों में टेप कर लिया। हुआ य‍ह कि मुख्‍यअतिथि के रूप में इंदिरा जी और अन्‍य वक्‍ता जो बोले वह किसी तकनीकि वजह से समारोह वाले शायद टेप नहीं कर सके पर मेरे रेकार्डर के ज़रिये दो कैसेटों में वह सब आ गया। यह बात बाद में महाराजसिंह कॉलेज सहारनपुर के मेरे विभागाध्‍यक्ष डॉ. सुरेशचन्‍द्र त्‍यागी के पत्र से बच्‍चन जी को पता चली क्‍योंकि मैंने सहारनुपर जाकर त्‍यागी जी को वह कैसेट सुनवाए। बाद में जब बच्‍चन जी से मिलना हुआ तो वे बोले मुझे वो कैसेट दे दो जिसमें रचनावली विमोचन की कार्यवाही अंकित है। मैंने जवाब दिया कैसेट तब मिलेंगे जब आप मुझे इंटरव्‍यू देंगे। बच्‍चन जी मुस्‍कराए और बोले अब तुम पक्‍के पत्रकार हो गए हो।बाद में, जैसाकि बच्‍चन जी और मेरे बीच तय हुआ, मैंने अमिताभ संबंधी प्रश्‍नों की एक प्रश्‍नावली बनाकर उन दो कैसेटों के साथ उन्‍हें भेजी जिसकी लम्‍बी से उत्‍तरावली बच्‍चन जी ने मुझे स्‍वाक्षरों में लिख भेजी। आज भी उनके द्वारा लिपिबदध वे दर्जन भर दस्‍तावेज मेरे पास सुरक्षित हैं। बच्‍चन जो को ब्‍लैकमेल करके मैं खुश था और बच्‍चन जी ब्‍लैकमेल होकर भी प्रसन्‍न थे। बाद में वह लिखित साक्षात्‍कार घर्मयुग के ‍1 जुलाई 1984 के अंक में प्रकाशित हुआ।
आज यह संस्‍मरण मैंने अपने पूर्व कॉलेज एसएमजेएन पीजी कॉलेज हरिद्वार में में बच्‍चन जी की याद में हुए एक समारोह में भी सुनाया और अपने तमाम भांजों की फरमाइश पर अपने ब्‍लॉग यदा कदा के लिए भी सुरक्षित कर दिया। पाठकों को आनन्‍द आया तो आगे ऐसे ही लिखता रहूंगा । आमीन।

शनिवार, 10 नवंबर 2007

शह और मात !!

सनातन है प्रकाश
अंधकार भी सनातन है,
फिर भी इन दोनों में
जाने क्या अनबन है।
टिक नहीं पाते दोनों
इक दूजे के आगे
पहला आए,
तो दूसरा भागे!
दोनों परस्पर
हताश हैं, निराश हैं,
यहॉं तक कि
एक दूसरे के लिए
मानों यमपाश हैं।

अब देखिए न-
प्रतापी सूरज की चाल
पड़ जाती है मद्धिम
पाकर हर शाम
रात के अँधियारे की आहट।
और
काला डरावना अँधेरा
हर भोर
हो जाता है रफूचक्कर,
जैसे ही मिलती है उसे
सूर्य किरणों की
सुगबुगाहट!
लेकिन यह भ्रम है,

उजास और अँधियार
सिर्फ दुश्मन लगे हैं।
सच तो यह है कि
दोनों एक दूसरे के
बेहद सगे हैं।

जैसे बन नहीं सकता
काले कैनवस पर
अँधेरे का चित्र,
ठीक वैसे ही
सफेद कैनवस
उभर नहीं सकतीं
रोशनी की किरणें।
अँधेरा ज़रूरी है
यह बताने को कि
रोशनी है
और रोशनी हो
तभी बिछ सकती है
अँधेरे की बिसात,
यही है
अँधेरे-उजाले की
शह और मात !!
- डॉ. कमलकान्‍त बुधकर