सोमवार, 27 अक्टूबर 2008
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हौं जानत तुम बड़े व्यस्त हो
पै तनिक समै हमकूँ भी दीजै
कछु हमरी सुनि लीजै।
घन बरसत बाढत जल नदियन
बुध जन कहत यही है मौको
मुख अकास करि पीजै
कछु हमरी सुनि लीजै।
शठ, मूरख औ' अति रसबंजर
दुनिया माहि बसत हैं कबतैं
तिन को कछु उपदेस न कीजै
कछु हमरी सुनि लीजै।
कबित कला रुन-झुन झांझर की,
मधु मुस्कान ठठाकर हंसिबौ -
अनल निदाघ माँझि रस भीजै
कछु हमरी सुनि लीजै