मेल-जोल, मेल-मिलाप और मिलावट एक जैसे दीखने वाले शब्द हैं। पर मेल-जोल और मेल-मिलाप से लोग खुश होते हैं और मिलावट पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। कहते हैं मिलन अच्छा है, मिलावट ग़लत है। मिलन को असली बताते हैं और मिलावट को नकली से जोड़ देते हें।
अब कोई उन्हें कैसे समझाए कि जनाब,यह दौर-ए-मिलावट है। कुछ भी असल नहुीं रहा गया है। ''जित देखूं तित मेल मिलावट''। बिना मिलावट के तो मेल-मिलाप भी फीका फीका सा लगता है। नक़ल हमारी राष्ट्रीय पहचान है। नक ल करना ही वर्तमान में राष्ट्रीयता है।
आज नक़ल और नक़लीपन हावी है। भाषा तो हमारी सैकड़ों बरसों से मिलावटी चली आरही है। भाषा की मिलावट ही हमारी भूषा में भी मिलावट ले आई। भाषा और भूषा में मिलावट आई तो खांटी देसीपन में कमी आ गई। हमने इस कमी को कहीं उदारता के कारण तो कहीं मजबूरी के कारण स्वीकार लिया। ये उदारता और मजबूरी भारतीयों के ख़ास गुण हैं। कहीं हमारी मजबूरी उदारता बनाकर परोसी जाती है तो कहीं उदारता को मजबूरी में रंग दिया जाता है। कुल मिलाकर मिलावटीपन हमारी मजबूरी भी है और उदारता भी है। फि़सल पड़े तो हर हर गंगे की तर्ज़ पर मजबूरी में हम उदार हो जाते हैं और उदारता हमारी मजबूरी हो जाती है।
हिन्दु-मुस्लिम-ईसार्इ्र-पारसी वगैरह का यह देश विश्व का उदारतम देश है। सब जातियां, सब धर्म, सब वर्ण, सब वर्ग यहां आबाद हैं। सब मिले जुले हैं, मिलजुलकर रहते हैं पर मिलावट नहीं कहलाते। यह और बात है कि मिलावट करने में यह सब परस्पर मिले हुए हैं। मेलजोल-प्रधान इस देश में इसीलिये मिलावट की नींव बड़ी पुख़्ता है।
मिलावट की नींव पर टिका यह देश आज अपने मिलावटी चरित्र को साकार करने में जी-जान से जुटा है। हमने इस क्षेत्र में मौलिक कि़स्म की तरक्कि़यां हासिल की हैं। विश्व के पटल पर मिलावट में हमसे आगे कोई नहीं। हमारा देश मिलावट के मामले में विश्वशक्ति बनने की ओर तेजी से अग्रसर है।
हमने भेदभाव समाप्त करने का जो बीड़ा अपने संविधान में उठाया था उसके मद्देनज़र हमने सबसे पहले असली और नक़ली का भेद समाप्त करने की ठानी और उसमें सफलता भी हासिल की है। हम अंत्योदयवादी हैं और निम्नोत्थान के विश्वासी हैं। जो निम्न है उसे उच्च बनाओं के सिद्धांत को सामने रखकर हमने हर नक़ली को असली का दर्जा देने की भरपूर कोशिश की है और अब भी कर रहे हैं।
हमने भाषा और भूषा के बाद साहित्य, संगीत, कला और संस्कृति में मिलावट की और चहां नक़लचियों और नक़लों को असल का दर्जा दिलवाया। पूरा समाज आज नक़ली कवियों, नक़ली साहित्यकारों, नक़ली पत्रकारों और नक़ली कलाकारों से अटा पड़ा है।
फिर हमने खानपान पर ध्यान दिया। हमने नक़ली चीज़ों का असली बनाकर प्रस्तुत किया। हमने नक़ली दूध बनाया, नक़ली घी बनाया, नक़ली मावा बनाया, नक़ली दवाइयां बनाईं और तो और नक़ली खून तक बना डाला। जब दुनिया के विकासशील देश नक़ली आदमी यानी रोबोट बनाने में जुटे हैं तो हमने नक़ली खून बनाकर शायद उनकी मदद ही की है। क्या हम किसी से कम विकासशील हैं।
फिल्मों और सीरियलों में तो हमारी नक़ल के चर्चे आम हैं। बॉलीवुड ने जाने कितने हॉलीवुड अपनी जेब में छुपा रखे हैं। उनकी चर्चा को एक अलग आख्यान चाहिएा फिलवक्त अपनेराम चैनलों के सीरियलों में चन्द चरित्रों पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं। ''लाडो न आना इस देस'' में ऐ वीरपुर है और एक हैं वीरपुर की अम्माजी। वीरपुर में सिर्फ दो सिपाहियों वाली चौकी है और उसके दोनों सिपाही हुड्डा सरकार की जगह अम्माजी के हैं। अम्माजी हिटलर की बहन हैं और पूरे गांव में आज की तारीख में कोई अखबार नहीं आता। पत्रकार तो वहां है ही कोई ना । वीरपुर में जो कुछ हो रहा है उसका विरोध पूरे गांव में तो किसी से होत्ता नहीं। बस एक डॉक्टर की छोरी ही क्रांति का बिगुल बजावै है। अपनेराम को लगता है कि भूपेन्द्रसिंह हुड्डा ने या उसके बन्दों ने या तो ये नक़ली जीवनकथा वाला सीरियल देख्या को नी। देख लेत्ता तो हुड्डा वीरपुर का एकाध दौरा तो कर ही लेत्ता इब लौं। नम्बर वन हरियाणा की ये गत तो देखी नहीं जाती अपनेराम से।