यूं तो बारहों महीने वसंत है संतई में। पर इन दिनों गंगनगरी हरिद्वार में संतो का विराट् वसंतोत्सव आने को है। महाकुम्भ के रूप में संत बनने-बनाने का द्वादशवर्षीय दुर्लभ अवसर आने को है। रोज़गार के अवसर जुटनेवाले हैं। समाज को ऋणी होना चाहिए कि बेरोज़गारों को काम मिलने वाला है। उन्हें राज़ी-रोटी ही नहीं मुफ्त में पैसा और प्रणाम मिलने के दिन आने वाले हैं। उम्र की कोई सीमा नहीं है। बच्चे हैं तो बालयोगी या बालब्रह्मचारी और बड़े हैं तो 108 से 1008 तक श्रीयुक्त हो सकते हैं। जो अशक्त हैं, जो परित्यक्त है, जो घर-परिवार से विरक्त है, उन सबके लिये सशक्त ढंग से अभिव्यक्त और आश्वस्त होने का अवसर आ गया है। जाना कुछ है नहीं, बस आना ही आना है। कहावत पूरी होने को है, ''हींग लगे ना फिटकरी, रंग भी चोखा होय।''
करना कुछ नहीं; बस एक बार कपड़े उतार कर नग्न होना है फिर उसके बाद तो इतनी चादरें चढ़ेंगी कि एक नहीं कई कई 'चादर-भण्डार' खोल लो या अपने पूर्व परिजनों को खुलवा दो। किस्मत ने साथ दे दिया और गट्टों में दम रहा तो नेता-अफ़सर चीज़ ही क्या है, मंत्री और मुख्यमंत्री तक अपनी कुर्सी आपसे छिनवाकर गौरवान्वित होंगे। खुद को बड़ा उपकृत अनुभव करेंगे।
यूं भी संतई में बड़े मज़े हैं। पन्द्रह-बीस प्रतिशत विद्वान् संतों को छोड़कर शेष को अपनी संतर्इ चलाने के लिये आजकल कुछ ख़ास करना भी नहीं पड़ता। पहले भी आसान था बाबा बनना और आजकल तो और भी ज््यादा आसान है। तुलसीदास लिख गए हैं कि ''नारि मुई, गृह, संपति नासी, मूड़ मुड़ाए भए संन्यासी।'' पर अब तो ऐसा ना भी हो तो भी बाबा बनना आसान है और फ़ायदेमन्द भी है। जैसे नेता, अभिनेता या पत्रकार बनने में किसी योग्यता, शिक्षा दीक्षा या अनुभव की ज़रूरत नहीं होती वैसे ही बाबा बनने के लिए भी केवल इच्छाभर होनी चाहिए। कपड़े का रंग पसंद करो और बाबागीरी शुरू। भगवा पहनो या सफेद, लाल पहनो या काला। जटाजूट रखो या रुण्ड-मुण्ड बन जाओ। वस्त्र पहनों या निर्वस्त्र रहो। रामनाम जपो या किसी की मां-बहन एक करो। आपके लिये सब जायज़ है। आजकल बड़े बड़े लठपति ही मठपति बनते हैं। फिर सारा समाज आपको सप्रणाम विस्तृत अनंत अधिकार प्रदान कर देता है।
अभी अभी हरिद्वार में ऐसा हो भी गया है। हरिद्वार महोत्सव के उद्घाटन मंच पर संत महंतों का जमावड़ा था। आसन्न कुम्भ के चलते आजकल इन सबकी सर्वत्र घुसपैठ और जबरदस्त सम्मान का दौर है इसलिये हरिद्वार महोत्सव कैसे अछूता रहता। सो बाबालोग मंचासीन ही नहीं हुए बल्कि प्रदेश के मुखिया की कुर्सी तक हथिया बैठे। मुख्यमंत्री को जनता में बैठकर देखना पड़ा कि 'बाबानाम केवलम्' का जलवा क्या होता है। संस्कृति के उस मंच से मुख्यमंत्री की उपस्थिति में जिस असांस्कृतिक, अश्लील, अभद्र, मातृ-भगिनी-मूलक गालियों का जो प्रसारण संतों के श्रीमुख से हुआ, वह जिसने भी देखा-सुना वह आज तक अचंभे में है। लोगों को विश्वास हो गया है कि हरिद्वार में सचमुच कुम्भ आने को है। संतों के निर्बाध दम्भ के पीछे ही तो आजकल कुम्भ आता है।
शुक्रवार, 13 नवंबर 2009
दम्भ का महाकुम्भ
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 4:37 am
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3 टिप्पणियां:
ग़ज़ब का दृष्य खींचा है और लपेटा उनको है जो नंगई के लिए ख्यात या कुख्यात है। प्रश्न ये कौंध रहा है कि ये लपेटना क्या? आपने अपने वस्त्र यानी कंबल में लपेट कर इन्हें धोया, आपके सुदर्शन चक्र की लपेट में इनका कोई वस्त्र आ गया (पर ये तो नंगे हैं!!!) अथवा आप इन्हें अपने लपेटे में ले रहे हैं?(ये तो धन्य हो रहे होंगे कि बाम्हन के लपेटे में आए, किसी और के नहीं)।
बढ़िया व्यंग्य है। कुम्भ के हाल इसी तरह देते रहें। पिछली कड़ी का लिंक भी लगाते चलें और साथ ही मज़ाहिया फोटो भी देते चलें। आपके पास तो ख़ज़ाना है। ढूंडने में दिक्कत हो तो गूगल बाबा तो हैं ही। वैसे भी क्या भरोसा कि इनमें से भी कौन सी आपकी मदद से खींची गई हो....
सादर
अजित
बहुत सुन्दर. इसे पढ़कर मेरा भी मन कर गया कुम्भ में आने का और गंगा मैया में डुबकी लगाने का :)
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