कई बरस बीत गए, शायद अस्सी के दशक की बात है। हरिद्वार कला साहित्य प्रसारिका संस्था ''वाणी'' ने तब व्याकरणाचार्य पं.किशोरीदास वाजपेयी की स्मृति में व्याख्यानमाला का आयोजन किया था। नवभारत टाइम्स के तत्कालीन प्रधान संपादक पत्रकार-प्रवर राजेन्द्र माथुर मुख्य वक्ता थे और जनसत्ता के संपादक प्रखर पत्रकार प्रभाष जोशी उस कार्यक्रम में अध्यक्ष की हैसियत से शामिल हुए थे। दोनों परस्पर प्रगाढ़ मैत्री की डोर में बंधे थे और दोनों ने ही अपनी पत्रकारिता इंदौर में एक ही बिन्दु से शुरू करके दिल्ली की मंजिल गांठी थी।
उस कार्यक्रम में तब प्रभाष जी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य की शुरुआत में कहा था कि, ''जिन रज्जू भैया की अध्यक्षता में मैंने पत्रकारिता की शुरुआत की थी आज उन्हीं के भाषण में मुझे अध्यक्ष बनाकर बिठा दिया गया है। यह स्थिति मुझे संकोच में भी डाल रही है और गुदगुदा भी रही है।''
प्रभाष जी का ऐसा कहना जहां उनकी सूफियाना वाणी और लेखनी का परिचायक था वहीं रज्जूभैया से उनके पारस्परिक आदरपूर्ण मैत्री संबंधों की ऊष्मा को भी उजागर कर रहा था। मेरे लिए तो वे क्षण जीवनभर की पूंजी बन गए थे जब हिन्दी पत्रकारिता के इन दोनों दिग्गजों ने एक साथ मेरे घर की रसोई को पवित्र किया था। आज रज्जूभैया भी नहीं हैं और पं.प्रभाष जोशी भी हिन्दी पत्रकारिता को बिलखता छोड़कर चल निकले हैं अपने मित्र से मिलने। देश की स्वतंत्रता के बाद की हिन्दी पत्रकारिता अपना एक और पुरोधा खो चुकी है। पत्रकारिता सदमें में है, उसकी वाणी आज अवाक् है।
प्रभाष जी हिन्दी पत्रकारिता के एक पूरे युग की अलग पहचान थे। वे सही मायनों में चिंतक और विचारक पत्रकार थे जिनके संपादन में जनसत्ता ने हिन्दी को सर्वथा एक नई भाषा शैली और प्रस्तुतिकरण की अपूर्व धज प्रदान की। विभिन्न विषयों पर अपनी खांटी सोच रखनेवाले प्रभाष जी यूं तो परिवेश के सारे विषयों के प्रति जागरूक थे पर क्रिकेट उनकी जान थी। यह कहना भी शायद अतिशयोक्तिपूर्ण न माना जाए कि उनकी असामयिक मृत्यु का, उनके हृदयाघात का कारण भी यही क्रिकेट बनी।
जिस तरह की सूचनाएं मिलीं हैं यह क्रिकेट का दीवाना लिक्खाड़ पत्रकार कल रात सचिन तेंदुलकर की 17000 रनों की उपलब्धि पर विभोर था। प्रसन्नता और गर्व उनके वाणी और व्यवहार से छलक रहा था। पर अचानक देर रात को जब उन्हें समाचार मिला कि कंगारुओं ने भारत को सिर्फ तीन रनों से मात दे दी तो प्रभाष जी अवाक् रह गए। उन्हें भारत की इस हार से गहरा आघात लगा और समाचार मिलने के पन्द्रह मिनिट में ही उन्हें दिल का दौरा पड़ गया। उन्हें जब तक डॉटर की देखरेख में ले जाया गया तब तक तो वे लम्बी, बहुत लम्बी यात्रा पर निकल चुके थे।
प्रभाष जी का जाना हिन्दी पत्रकारिता के साथ साथ उनके उन हज़ारों मित्रों-परिचितों की व्यक्तिगत क्षति है जिन्होंने उनकी कार्यशैली देखी है और उनके विचार-सरोवर में अवगाहन कर उसमें समय समय पर खिले अनगिन कमलों का नैकट्य हासिल किया है। प्रभाष जी बेहद खुले व्यवहार वाले पारिवारिक किस्म के रचनाकार थे। वे कभी वायवीय चिंतक नहीं बने। उनकी भाषा में घरेलूपन था और विचारों में आत्मीयता थी। उनकी भाषा और विचार दोनों ही पाठक को अपने अपने से और बहुत करीब के लगते थे। राजकमल प्रकाशन ने ''लिखि कागद कारे किए'' श्रृंखला के 2000 से अधिक पृष्ठों वाले जो पांच खण्ड प्रकाशित किए हैं उनमें करीब चार सौ निबंघनुमा टिप्पणियों में पत्रकार प्रभाष जोशी की दृष्टि और सृष्टि का मणिकांचन संयोग उपस्थित हुबा है। प्रभाष जी की सोच को समझने के लिए इन चार सौ रचनाओं के बीच से गुज़रना काफी होगा।
हरिद्वार और गंगा से प्रभाष जी को बड़ा लगाव था। ''धन्न नरबदा मैया हो'' कहने लिखने वाला यह कलमशिल्पी अक्सर हरिद्वार के गंगातट पर दिखाई पड़ जाता था। यह और बात है कि इस तरह की गंगायात्राओं के पीछे हमारी उषा भाभी की मंशा और प्रेरणा अधिक हुआ करती थी। पर यूं भी पंडित प्रभाष जोशी हरिद्वार आने या हरिद्वारियों से मेल-मुलाकात का कोई मौका छोड़ते नहीं थे। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में हिन्दी पत्रकारिता पाठ्यक्रम की नींव 1991 में उनके ही आशीर्वाद वक्तव्य से पड़ी थी। अनेक ऐसे अवसर स्म़तिपटल पर हैं जब वे आए और अपनी वाचा से हमें धन्य करके लौट गए। उनकी यात्रा स्मृतियां हमें स्फूर्ति देती रहीं। पर अब हाथ-पांव फूल रहे हैं। पता नहीं उनके परिजन उन्हें किस तरह हरिद्वार लाएंगे। जिस तरह लाएंगे उसकी कल्पना तक सिहरा रही है। पंडित प्रभाष जोशी यायावर थे, घुमक्कड थे, मनमौजी थे । उनका अचानक हरिद्वार आना चौंकाता नहीं था। पर अब यह सोच सोच कर मन व्याकुल है वे कि क्या सचमुच रज्जूभैया की ही तरह उनके अस्थि-अवशेषों के गंगाविसर्जन का साक्षी हमें बनना होगा। हिन्दी पत्रकारिता में जमीनी जुड़ाव, सांस्कृतिक चेतना और बेलाग प्रखरता की चर्चा अब किस नाम से शुरू हुआ करेगी।
3 टिप्पणियां:
दुखद. मेरी विनम्र श्रद्धांजलि.
नाम तो उन्हीं का कायम रहेगा
विचारों का साम्राज्य कभी धूमिल नहीं हुआ करता।
विनम्र श्रद्धांजलि।
उनसे जुड़ी बहुत सी यादें कल से दस्तक दे रही हैं।
शृद्धांजलि...
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