विकास के कई आयाम हैं। विकसित होना और अविकसित होना इसके दो ध्रुवान्त हैं तो अर्द्धविकसित होना मध्यबिन्दु है। अर्द्धविकसित होने में एक स्थिरता का भाव है पर इसके अलावा एक भाव है विकासशीलता का। विकासशीलता के इस भाव में गतिशीलता है। बड़ी संभावनाएं छिपी रहती हैं इस विकासशीलता में। यह पूत के पांवों की तरह होती है जिसे चतुर सुजान लोग पालने में ही देख लेते हैं। देखकर फिर उन पांवों के घुटनों को अपने ही पापी पेट की ओर मोड़ लेते हैं। हमारा प्यारा देश भारतवर्ष एक विकासशील देश है और अनंत संभावनाओं से लबालब है। जैसी और जो जो संभावनाएं देश में हैं वैसी ही, बल्कि उससे भी ज्यादा संभावनाएं देशवासियों के पापी पेट में हैं। देश की तरह देशवासियों का पेट भी विकासशील है और विकसित होने की तमाम संभावनाएं अक्सर भुनाता रहता है। फर्क सिर्फ यह है कि अगर पेटवाला गरीब है, आम जनता का हिस्सा है तो उसे अपना पेट कटवाना ही है। इसके विपरीत अगर पेट वाला कोई खास है, अमीर है, नेता है, अफ़सर है, इंजीनियर है, दफ्तर का बाबू है या फिर कोई सरकारी ठेकेदार है तो उसे अपना पेट भरने की ही नहीं, ठूंस ठूंस कर भरने की पूरी छूट है। उसे यह भी छूट है कि वह अपने बेचारे पेट के लिए औरों के पेट पर लात मारे या ज़रूरी समझे तो उसे काट डाले।
इस छूट के चलते कुम्भन्रर हरिद्वार में पूरी मस्ती हैं। नज़र पारखी हो तो यह देख सकती है कि किसका पेट कितना विकासशील हो रहा है।
आइये कुछ विकासशील पेटों की चर्चा का रस लें। पहली श्रेणी के विकासशील पेटों में आते हें चुनाव की नाव में बैठकर राजधानियों में ब़डी-छोटी कुर्सियां पाए मंत्रिगण जो दावे करते नहीं अघा रहे हैं कि वे पांचसौ पैंसठ करोड़ रुपये कुम्भ पर खर्च कर रहे हैं। ऐसी घोषणा के समय वे अपने मातहत अधिकारियों की तरफ मुस्कराकर देख लेते हैं। उनकी मुस्कान से आश्वस्त कुम्भ में जुटे अधिकारी और इंजीनियर अपने विश्वस्त बाबुओं की ओर देखकर मुस्कराते हैं और फिर बाबूजनों के मुस्कराने की बारी आती है। जब बाबूजन मुस्कराते हैं तब सरकारी ठेकेदार भी खींसे निपोरते हैं। यह मुस्कान श्रृंखला कुम्भकार्यों तक पहुंचती है। ऐसे में कर्मठ ठेकेदार और समर्पित अधिकारीगण कुछ और लोगों के बीच अपना मुस्कानसुख बांटते हैं। जनता की तरफ से बोलनेवाले मौहल्ला-नेताओं और अखबारों और चैनलों का नाम लेकर डराने वाले और वह नाम भुनाने वाले कलमची और टीवी आईडीधारक इस मुस्कानसुख से उपकृत होते हैं।
आजकल कुम्भनगर में नीचे ये उुपर तक यही मुस्कान बिखरी हुई है। कुम्भ में कुछ पेट अत्यंत विकासशील हैं। वे लगातार डकार रहे हैं पर डकार नहीं ले रहे हैं। उनके डकार-प्रकारों पर शोधप्रबंध लिखे जाने की पूरी गुंजाइश हैं। पर यह शोधप्रबंध कौन लिखेगा। जिसका पेट विकसित है और जिसका अविकसित है, इन दोनों को ही फुर्सत नहीं है अपने अपने कारणों से। अर्धविकसित पेट वाले बेचारे समझ ही नहीं पा रहे हैं कि माजरा क्या है और विकाशीलों को अपने पेट-विकास से ही फुर्सत नहीं है। उनका कुम्भ लगातार भर रहा है।
शुक्रवार, 29 जनवरी 2010
विकासशील पेट का कुम्भ
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 5:00 am 7 टिप्पणियॉं
शुक्रवार, 22 जनवरी 2010
संतों का वसंत
आजकल कुम्भनगर हरिद्वार में कुम्भ की रौनक है। कुम्भ यानी संतों का वसंत। तो हरिद्वार में इन दिनों संतों का वसंत आया हुआ है। न केवल आया हुआ है, बल्कि छाया भी हुआ है- ''जित देखूं तित संतई संता, जित संता उत सदा बसंता''।
गली गली, डगर डगर, मौहल्ले मौहल्ले, और अखाड़े अखाड़े सर्वत्र बस संत ही संत हैं। जहां संत हैं वहीं महंत हैं। महंत ही संतों के कंत हैं। जहां महंत हैं वहीं मण्डलेश्वर हैं, महा मण्डलेश्वर हैं, आचार्य हैं। और ये सब जहां हैं वहां आनन्द है, परमानन्द है और सच्चिदानन्द है। फिर जहां स्वयं सच्चिदानन्द हों वहां उनके सम्मान में किस चीज़ की कमी रखी जा सकती है। सो, छत्र-चंवर, बैण्ड-बाजे, रथ, पालकियां, हाथी-हौदे, ऊंट-घोड़े क्यों सब कुछ जुट रहे हैं संन्यासियों- बैरागियों और उदासियों-निर्मलों के लिए। सो, इन दिनों हरिद्वार में यही कुछ दर्शनीय है।
जैसे घर-गिरस्ती वाले ब्याह-शादी की तैयारी में जुटते हैं वही नज़ारा संतों की दुनिया में आजकल चल रहा है। बेटी का ब्याह हो तो घर की लिपाई-रंगाई-पुताई से लेकर हलवाई तक और मेहमानों की मेज़बानी के इंतज़ामों में बेटीवाले जिस तरह जुटे रहते हैं उसी तरह का माहौल आजकल संतनगरी में है। जिस तरह बेटे वाले बारात की तैयारी में बैण्ड, घोड़ी, शहनाई, बिजली के लिये बेचैन रहते हैं उसी तरह संतों की जमातों में तैयारियों का जोर है और जोश भी है। हर जमात की और हर अखाड़े की कोशिश यह है कि उनकी भव्यता दूसरे से बढ़कर हो। दिव्यता की चिंता नहीं है, भव्यता के पीछे बौराए हुए हैं हमारे संतगण। चिंतन यह नहीं है कि आत्म-परमात्म का संगम किस तरह हो, मोक्ष कैसे हो आम आदमी का या कैसे मुक्ति मिले माया मोह से बल्कि चिंता यह है कि हमारी भौतिक भव्यता कैसे दूसरे से अधिक बनी रहे। हमारे अखाड़े की पेशवाई और शाही बाकियों की पेशवाइयों और श्खाहियों से ज्यादा सुन्दर, प्रभावशाली और आकर्षक कैसे बने। सबकी कोशिश यही है कि लोग देखें तो बस यही कहें कि अखाड़ा तो बस यही है।
कुम्भनगर सज रहा है। संतों के धूने सज रहे हैं और महंतों के महल सजाए जा रहे हैं। जो जहां है सजीला दीखने की भरपूर कोशिश में व्यस्त है। कुछ व्यस्त होकर आकर्षित कर रहे हैं और कुछ अपनी अस्तव्यस्तता में आकर्षक लग रहे हैं। तरह तरह की वेशभूषा और साज-श्रृंगार में, तरह तरह की कण्डीमाला में, तरह तरह के तिलक-त्रिपुण्ड में तरह तरह के कफ़नी-चोले में और तरह तरह के आसनों और मुद्राओं में साधुसंत यत्रतत्र बिखरे हुए हैं। भक्तों की इंतज़ार में कोई नाखून तो कोई जटाजूट बढ़ाए है, कोई रुण्डमुण्ड है तो कोई दाढ़ीमूंछ में अलपेट दिए है। कोई भगवा तो कोई सफेद, कोई काला पहने है तो कोई कुछ भी नहीं पहने है। हम पहने हैं तो भेगी हैं और वह नहीं पहने है तो योगी। भोग और योग के बीच एक वस्त्र की दूरी भर है।
कुम्भ में आने से बड़ा एक मुद्दा है कुम्भ में नहाना। बारह बरसों में यह मुद्दा छह बार उठता है और छहों बार यह मुद्दा साधुसंतों के बीच से उठता है। वे कहते हैं, ''हमारी फलां मांग मानों वरना हम नहीं नहाएंगे।'' सरकारें हिल जाती हैं और मीडिया चौंक जाता है कि बाबालोग नहीं नहाएंगे तो धर्म का क्या होगा। बाबाओं की मानमनौव्वल शुरू हो जाती है। अधिकारीगण बाबाओं की ठुड्डी सहलाते हैं, ''बाबाजी तीन साल हो गए अब तो नहा लो'' और बाबाजी रूठे रहते हैं, ''जाओ, नहीं नहाते।'' कभी कभी दूसरे बाबाजी हुंकार भरते हैं, ''ख़बरदार, फलाने बाबा को नहाने दिया तो मारकाट हो जाएगी।'' और फलाना बाबा या फलाना अखाड़ा नहाने से रह जाता है। यानी पंचायती साधुओं के इस पंचतंत्र गणतंत्र में गंगा नहाने पर भी राशनिंग है।
जहां तक मामला इस बार हरिद्वार कुम्भ में नहाने का है, सारे बाबालोग एक साथ नहाने को राजी हैं। जो अखाड़े पिछले नौ सालों से नहीं नहाए उन्हें नहाने वालों ने इसबार अपने अंगसंग लगाने का फैसला कर लिया है। इसलिये अखाड़ा जगत में पूरा वसंत खिल रहा है। सब साथ साथ जाएंगे और साथ साथ गंगा नहाएंगे।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 5:17 am 3 टिप्पणियॉं
शुक्रवार, 8 जनवरी 2010
ज़मीनों की मारामारी
भक्तों, इस घोर कलिकाल में द्वापर घुसने को आतुर है। अपनेराम भयभीत हैं कि अब क्या होगा। गंगातट पर कुम्भ का मेला लगने वाला है। साधुसंतों की रेलमपेल शुरू हो चुकी है। एक तरफ पाण्डव साधुवेश में पाण्डव हैं और दूसरी ओर अफ़सरों की कौरवी सेना। मामला वही भूमि का है। एक राज्य चाहता है और दूसरा फुटों, मीटरों और बीघों में बात कर रहा है। यही क्या कम है कि मामला सूई की नोंक से आगे निकल आया है। अब के कौरव भूमि दे तो रहे हैं पर पाण्डवों को वह, तब भी कम लगी थी और अब भी कम लग रही है। महाभारत जारी है।
अजब विडम्बना है कि किसी वक्त सब कुछ त्यागने का नाम संतई था पर अब सब कुछ त्याग कर फिर से वही सब जुटा लेना संतई की परिभाषा में आता है। सारी दुनिया छोड़कर, अपना घर बार, ज़मीन जायदाद त्यागकर भगवा धारण करने वाले ये जो इन दिनों हरिद्वार पहुंच रहें हैं वे सब सरकार से ज़मीनें मांग रहे हैं। ज़मीनें यूं कि उस पर ये लोग अपना धूना रमाएंगे। झण्डा गाड़ेंगे, अपना शिविर लगाएंगे। उस सुसज्जित शिविर में आप हम जैसों को बुला बुलाकर कहेंगे कि भाईलोगों अपनी ज़मीनें, अपने घर, अपना मालमत्ता यानी कुलमिलाकर सारा माया मोह छोड़ो और अपने सब कुछ को हमारे चरणों में धर दो तभी मुक्ति मिलेगी, तभी मोक्ष मिलेगा। अपनेराम को मोक्ष की तलाश है ही, झट से इन वंदनीय चरणों में सब कुछ धरने को तैयार हो जाते हैं। लकहनि देते अपनेराम उसी साधु को हैं जिससे राजकाज, व्यापार, नौकरी में फ़ायदा हो। ऐसे साधु का दमदार होना, हाई-फ़ाई होना ज़रूरी है।
ऐसा माना जाता है कि जितनी बड़ी ज़मीन पर जितना बड़ा शिविर होगा और जितनी बड़ी गाड़ी में बैठकर जितने भव्य-सुदर्शन स्वामी जी जितने बड़े मंच के जितने बड़े सिंहासन पर बिराजकर जितनी बड़ी बड़ी बातें करेंगे उतनी ही जल्दी भक्त कोउतनी ही प्रभावशाली मुक्ति मिलेगी।
तो कुम्भ की शुरुआत में फिलहाल ज़मीनों की मारामारी है। गरीब गृहस्थों, उनकी झुग्गी-झोंपडि़यों को और उनके पटरी-खोखों को हटाया जा रहा है। भगवाधारियों को दिया जा रहा है। अफ़सर खुश हैं कि वे इस बार पिछले कुम्भ की तुलना में संतों को डेढ़ गुना ज्यादा भूमि बांट रहे हैं। संत परेशान हैं कि उन्हें वांछित भूमि नहीं मिल पा रही है। मिले कैसे, वे डेढ़ सौ एकड़ भूमि चाहते हैं और यह बताने को भी राजी नहीं हैं कि वे इतनी भूमि में जनवरी से अप्रैल तक किस चीज़ की खेती करेंगे। कुम्भ आदि मेलों में भक्ति की खेती ही सर्वाधिक फलती है। नवधा भक्ति में भले ज़मीन की चर्चा न की गई हो, पर बिना ज़मीन के कोई भक्ति करे कैसे। सो, संतों को ज़मीनें चाहिये ही। भक्ति के लिये भी ज़मीन चाहिए और मुक्ति के लिये भी ज़मीन चाहिए। भला कोई कहां बैठकर भक्ति करे या करवाए।
कुम्भ क्षेत्र में आने वाले साधु-संत भजन-पूजन, यज्ञ-याग, संदेश-उपदेश आदि के लिये सैकड़ों एकड़ों में भूमि चाहते हैं। अफ़सर उन्हें एक बटा दस भाग भूमि भी देने को तैयार नहीं हैं। सरकार के पास इतनी भूमि हरिद्वार में तो है ही नहीं।
अब सरकार गम्भीरता से परिवार नियोजन की तर्ज़ पर संत-नियोजन की नीति बनाने पर विचार कर रही है। पर जब इस उर्वर देश में बच्चों की पैदावार नहीं रोकी जा सकी तो साधु-संतों, पीरों-फ़कीरों की पैदावार कैसे रुक सकती है। बच्चा पैदा करने के लिये तो फिर भी दो की ज़रूरत होती है, चेला तो कोई भी अकेले ही मूंड लेता है।
तो भैये, साधु-संन्यासी इन दिनों ज़मीनों में उलझे हैं। जिन्हें ज़मीन मिल गई वह बसेरा बनाने की जुगत में है और जिस साधु को बसेरा मिल गया वह जमात जुटाने की जुगाड़ में है। जमात के बाद फिर पद है प्रतिष्ठा है, धन है वैभव है। अपनेराम जैसा गृहस्थ चकित है। समझ नहीं पा रहा है कि मुक्ति का मार्ग गृहस्थों के वैभव के बीच से निकलता है या संन्यस्तों के वैभव के बीच से निकलता है।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 4:44 am 4 टिप्पणियॉं