आजकल कुम्भनगर हरिद्वार में कुम्भ की रौनक है। कुम्भ यानी संतों का वसंत। तो हरिद्वार में इन दिनों संतों का वसंत आया हुआ है। न केवल आया हुआ है, बल्कि छाया भी हुआ है- ''जित देखूं तित संतई संता, जित संता उत सदा बसंता''।
गली गली, डगर डगर, मौहल्ले मौहल्ले, और अखाड़े अखाड़े सर्वत्र बस संत ही संत हैं। जहां संत हैं वहीं महंत हैं। महंत ही संतों के कंत हैं। जहां महंत हैं वहीं मण्डलेश्वर हैं, महा मण्डलेश्वर हैं, आचार्य हैं। और ये सब जहां हैं वहां आनन्द है, परमानन्द है और सच्चिदानन्द है। फिर जहां स्वयं सच्चिदानन्द हों वहां उनके सम्मान में किस चीज़ की कमी रखी जा सकती है। सो, छत्र-चंवर, बैण्ड-बाजे, रथ, पालकियां, हाथी-हौदे, ऊंट-घोड़े क्यों सब कुछ जुट रहे हैं संन्यासियों- बैरागियों और उदासियों-निर्मलों के लिए। सो, इन दिनों हरिद्वार में यही कुछ दर्शनीय है।
जैसे घर-गिरस्ती वाले ब्याह-शादी की तैयारी में जुटते हैं वही नज़ारा संतों की दुनिया में आजकल चल रहा है। बेटी का ब्याह हो तो घर की लिपाई-रंगाई-पुताई से लेकर हलवाई तक और मेहमानों की मेज़बानी के इंतज़ामों में बेटीवाले जिस तरह जुटे रहते हैं उसी तरह का माहौल आजकल संतनगरी में है। जिस तरह बेटे वाले बारात की तैयारी में बैण्ड, घोड़ी, शहनाई, बिजली के लिये बेचैन रहते हैं उसी तरह संतों की जमातों में तैयारियों का जोर है और जोश भी है। हर जमात की और हर अखाड़े की कोशिश यह है कि उनकी भव्यता दूसरे से बढ़कर हो। दिव्यता की चिंता नहीं है, भव्यता के पीछे बौराए हुए हैं हमारे संतगण। चिंतन यह नहीं है कि आत्म-परमात्म का संगम किस तरह हो, मोक्ष कैसे हो आम आदमी का या कैसे मुक्ति मिले माया मोह से बल्कि चिंता यह है कि हमारी भौतिक भव्यता कैसे दूसरे से अधिक बनी रहे। हमारे अखाड़े की पेशवाई और शाही बाकियों की पेशवाइयों और श्खाहियों से ज्यादा सुन्दर, प्रभावशाली और आकर्षक कैसे बने। सबकी कोशिश यही है कि लोग देखें तो बस यही कहें कि अखाड़ा तो बस यही है।
कुम्भनगर सज रहा है। संतों के धूने सज रहे हैं और महंतों के महल सजाए जा रहे हैं। जो जहां है सजीला दीखने की भरपूर कोशिश में व्यस्त है। कुछ व्यस्त होकर आकर्षित कर रहे हैं और कुछ अपनी अस्तव्यस्तता में आकर्षक लग रहे हैं। तरह तरह की वेशभूषा और साज-श्रृंगार में, तरह तरह की कण्डीमाला में, तरह तरह के तिलक-त्रिपुण्ड में तरह तरह के कफ़नी-चोले में और तरह तरह के आसनों और मुद्राओं में साधुसंत यत्रतत्र बिखरे हुए हैं। भक्तों की इंतज़ार में कोई नाखून तो कोई जटाजूट बढ़ाए है, कोई रुण्डमुण्ड है तो कोई दाढ़ीमूंछ में अलपेट दिए है। कोई भगवा तो कोई सफेद, कोई काला पहने है तो कोई कुछ भी नहीं पहने है। हम पहने हैं तो भेगी हैं और वह नहीं पहने है तो योगी। भोग और योग के बीच एक वस्त्र की दूरी भर है।
कुम्भ में आने से बड़ा एक मुद्दा है कुम्भ में नहाना। बारह बरसों में यह मुद्दा छह बार उठता है और छहों बार यह मुद्दा साधुसंतों के बीच से उठता है। वे कहते हैं, ''हमारी फलां मांग मानों वरना हम नहीं नहाएंगे।'' सरकारें हिल जाती हैं और मीडिया चौंक जाता है कि बाबालोग नहीं नहाएंगे तो धर्म का क्या होगा। बाबाओं की मानमनौव्वल शुरू हो जाती है। अधिकारीगण बाबाओं की ठुड्डी सहलाते हैं, ''बाबाजी तीन साल हो गए अब तो नहा लो'' और बाबाजी रूठे रहते हैं, ''जाओ, नहीं नहाते।'' कभी कभी दूसरे बाबाजी हुंकार भरते हैं, ''ख़बरदार, फलाने बाबा को नहाने दिया तो मारकाट हो जाएगी।'' और फलाना बाबा या फलाना अखाड़ा नहाने से रह जाता है। यानी पंचायती साधुओं के इस पंचतंत्र गणतंत्र में गंगा नहाने पर भी राशनिंग है।
जहां तक मामला इस बार हरिद्वार कुम्भ में नहाने का है, सारे बाबालोग एक साथ नहाने को राजी हैं। जो अखाड़े पिछले नौ सालों से नहीं नहाए उन्हें नहाने वालों ने इसबार अपने अंगसंग लगाने का फैसला कर लिया है। इसलिये अखाड़ा जगत में पूरा वसंत खिल रहा है। सब साथ साथ जाएंगे और साथ साथ गंगा नहाएंगे।
शुक्रवार, 22 जनवरी 2010
संतों का वसंत
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 5:17 am
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3 टिप्पणियां:
sir jee, raipur navbharat me aapka har hafte coulm padhta hu tab ye khyal dimag me aata hai ki agar kabhi shri shyaam vetaal ji na rahein raipur navbharat me, tab kaise aapka coulm padh sakenge raipur navabharat me.....kyonki unke aane se pahle to kabhi ham nahi padh paye the raipur navbharat me aapka colum.... ;)
एक संत नगर वासी की हरिद्वारी संतई पर। संत वसंती पर। दैनिक हिन्दुस्तान http://blogonprint.blogspot.com/2010/01/blog-post_27.html आज में इस पोस्ट की चर्चा पर बुधकर जी को बारंबार बधाई, वे हैं आदरणीय बड़े भाई।
Aapkay lekh padhkar lagta hai ki hum toh dilli baithe hi ganga naha liye. Badhai ho!!
Suman
Kabhi darshan dein kripalu
Narendra Mohan
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