उत्स का उत्सव
अमा के घुप घनेरे, ये अंधेरे,
भले कितने बड़े हों,
भले ही राह में तन कर खड़े हों,
पर, सच कहूं तो हैं बड़े डरपोक।
बहुत कमज़ोर होते हैं- तमस के ये सिपाही !
लड़ नहीं सकते
अकेले एक नन्हें दीप से भी,
जो जला खुद को, मिटा देता
अंधियार की सारी सियाही !
हार जाते हैं उसी से ये सिपाही !!
आज फिर उजियार का बेटा
हमारे द्वार पर सजकर खड़ा है,
अंधत्व से लड़ने अड़ा है।
बनकर नई पीढ़ी खड़ा है,
स्वागत करो इसका !
रोशनी की इस विरासत से
मिलो, उत्सव मनाओ।
गीत गाओ राग के, अनुराग के,
अग-जग उजाला बांटती उस आग के
जो पीढ़ियों की है धरोहर!
जब जुड़ेंगी पीढ़ियां निज उत्स से,
तब मिटेगा
घर ही नहीं, मन-प्राण में
पसरा हुआ तमतोम सारा।
लुप्त होगा तब सकल अंधियार
औ’ खिलेगी यह धरा, यह व्योम सारा !
फिर बहेगी रोशनी की गंगधारा
जिसमें नहाकर पीढ़ियां अविमुक्त होंगी,
संतुष्ट और संतृप्त होंगी !!
अपनी जड़ों से विलग होकर सूख जाता हर तना है,
उत्स से कटकर नहीं कोई बना है,
पर साक्षी इतिहास है कि उत्स से जुड़कर
सदा उत्सव मना है !
सदा उत्सव मना है !
श्रीपर्व 2010
पर उजासभरी मंगलकामनाओं सहित सादर सविनय
हम सब बुधकर-
सौ.संगीता एवं डॉ.कमलकांत
सौ.डॉ.मृणाल एवं सौरभ कु.अपरा तथा अद्वय-ओम
सौ.पारुल एवं पल्लव अथर्व-रघु
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1 टिप्पणी:
दीर्घावधि बाद आपके दर्शन हुए। आप आए भी तो उजास और उत्सव लेकर। अच्छा लगा।
हम सब बैरागियों की ओर से तमाम बुधकरों को अभिनन्दन और हार्दिक शुभ-कामनाऍं।
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