वे दिन हवा हुए जब अपनी राजनीति में भी सचमुच के संत हुआ करते थे, संतई हुआ करती थी। चरित्र के संतों और वाणी-व्यवहार की संतई का वह जमाना अब इतिहास हुआ। अब तो संतों में परस्पर राजनीति के दिन हैं, संतई के राजनेता हो जाने के दिन हैं। इस देश के कतिपय महान राजनीतिक दलों को इस महान परिवर्तन का श्रेय जाता है कि कुटिया वाले त्यागी-बैरागी, संसद के रागी-अनुरागियों के संग एक टेबल पर कॉफी पी रहे हैं। देश तरक्की पर है, संत तरक्की पर हैं और संतई के दिन बहुरे हैं।
अपनेराम यह पंक्तियां संतों के बीच से लिख रहे हैं। आश्रमों, मठों, अखाड़ों का यह नगर गंगामैया के नाम पर सबकुछ पाता है और उन्हीं के नाम पर सबकुछ खाता है। विरक्त संतों ने यहां भव्य भवन बनाए हैं। संसार छोड़ चुके संन्यासियों ने सैकड़ों बीघों और एकड़ों में भूमि खरीदी है और मठों-मन्दिरों आश्रमों का निर्माण किया है। अटैच्ड लैटरीन बाथरूम वाले होटलाकृति आश्रम इस तीर्थनगरी में वैराग्य और तपस्या को गौरव-गरिमा देते हैं। साधु का स्टेटस सिंबल है उसके चैपहिया वाहन की कंपनी। हुंडई, इन्नोवा, टवेरा तो छोटे साधु संत रखते हैं, बड़े साधुओं का बड़प्पन उनकी लम्बी विदेशी गाडि़यों से पहचाना जाता हैं।
दिन भर में कपड़े बदलने के मामले में इस देश के पूर्व गृहमंत्री शिवराज को भी मीलों पीछे छोड़ने वाले इस देश के संत जब विदेशी खुशबुओं से नहाए जब भक्तों को दर्शन देने आते हैं तो यह तपोवन निहाल हो जाता है। इस गंगानगर की सारी अर्थसत्ता के रखवाले और उसे गति-प्रगति देने का सारा काम भगवा ब्रिगेड के ये सिपहसालार ही करते हैं। अगर बैंकों से ये संतगण अपने संबंध तोड़ लें तो न जाने कितनों की नौकरियों पर खतरा मंडराने लगे और कितने ही बैंक अपना बोरिया बिस्तर बांध लें। इन साधु-संतों और त्यागियों बैरागियों के द्वारा दायर मुकदमों का ही असर है कि हरिद्वार के न्यायालयों में ही नहीं उत्तराखंड के उच्चन्यायालय में भी भरपूर काम वकीलों, न्यायाधीशों को मिला हुआ है। गंगातट पर स्थित बैंकों की सैकड़ों शाखाएं मठ-मन्दिरों और आश्रम-अखाड़ों के कारण ही फलफूल रही हैं। हजारों घर पल रहे हैं संतकृपा से। सारे संसार को छोड़ने के बावजूद इन महात्माओं को हमारी दुनिया का कितना खयाल है यह देख सोच कर ही अपनेराम की छाती चौड़ी हो जाती है, माथा उंचा हो जाता है और वाणी गर्व से न जाने क्या क्या कह देना चाहती है।
ये सारे संत महंत हमारे पूज्य हैं। इनका सम्मान हमारा धर्म है। सो, कुछेक राजनीतिक पार्टियों ने इस पूज्यता का सम्मान करने का अभिनव तरीका कुछ यूं ईजाद कर लिया कि महात्मा जी को आश्रम से उठाकर सीधे विधानसभाओं और संसद के गलियारों तक पहुँचा दिया गया। उदार राजनेताओं ने सोचा कि इन बेचारे काषाय वस्त्रधारियों के पास यूं तो सब कुछ तो है, पर एक टिकट नहीं है। इन्हें टिकट देकर इन समाजसेवियों के पुण्यों में वृद्धि कर दो। इनका जीवन भी सफल कर दो।
इस उदार विचार के जन्मते ही अनेक संत-महंत हाईकमान का चरणचुम्बन करते नजर आने लगे। कई साधु कई साध्वियां देश सेवा के लिये शास्त्र छोड़कर राजनीतिक शस्त्रों के सहारे अपने युद्धकौशल के प्रदर्शन पर उतर आए। अभी तक युद्ध केवल कुम्भ के स्नानों को लेकर होते थे साधुसंन्यासियों के बीच। पर अब नए नए राजनीतिक अखाड़ों में बार-बार के चुनावकुम्भों की परम्परा शुरू हो गई! कौन जाने कब कुम्भ पड़ जाए यह सोचकर संतई हमेशा की युद्धई में तब्दील हो गई! चुनावों में दूल्हा कौन बने इसकी होड़ संतों में भी लग गई।
अब यह भी सच है कि जिन्दगी का सबसे बड़ा मौका होता है शादी ब्याह। और लोकतंत्र का सबसे बड़ा मौका है चुनाव। अब अगर दोनों मौके साथ साथ आ जाएं तो लोकतंत्र का जीवन और जीवन का लोकतंत्र दोनों ही संवर जाएं। इन दिनों ऐसा ही हो रहा है! दूल्हे पहले ईवीएम की पेटी तक जाते हैं फिर ससुर की बेटी तक जाते हैं। पर हमारे संत क्या करें। वे बेचारे ईवीएम की पेटी तक तो पहुंच जाएं। पर ससुर की बेटी कहां से लाएं।
हमारा लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। और लोकतंत्र में चुनाव उत्सव ही नहीं महोत्सव है। किसी होली दीवाली ईद ईस्टर से कम नहीं है यह महोत्सव। होली की तरह यारों पर रंग भी बिखेरते हैं लोग और कीचड़ में भी सानते हैं उम्मीदवारों को। दीवाली की तरह जूए के दांव भी लगते हैं और सट्टे के बाजार की रौनक भी बढ़ जाती है। जीतनेवाले के यहां दीये जलते हैं, लक्ष्मीपूजा का दौर शुरू होता है और हारने वाले काली की आराधना में लग जाते हैं। ईद की तरह गले तो मिलते हैं लोग पर फर्क सिर्फ यह रह जाता है कि चुनावी ईद मिलनेवालों की आस्तीनों के सांप नजर नहीं आते। डसे जाने का अहसास भी लोगों को तब होता है जब परिणाम सामने आ जाते हैं। उस दिन उनकी ईद मौहर्रम में तब्दील हो जाती है। प्रभु ऐसा दिन हमारे संतों को न दिखाए।
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009
संतई से युद्धई तक
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 11:42 pm
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