डिप्लोमा इन शू-जर्नलिज्म
अपनेराम अपने विश्वविद्यालय के कुलपति को यह समझाने में सफल हो गए हैं कि विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में ‘जूत-पत्रकारिता’ यानी शू-जर्नलिज्म’ में एक वर्षीय डिप्लोमा पाठ्यक्रम आरम्भ कर ही दिया जाए। इस विषय की भविष्य में बड़ी संभावनाएं हैं। जूते में तो पहले से ही बहुत संभावनाएं थीं। वह आदिकाल से ही अनेक गुणों की खान माना जाता रहा है पर हाल फिलहाल में जूते में आशातीत संभावनाएं जाग गई हैं। और ये संभावनाएं भी ग्लोबली जगी हैं ये और भी खास बात है। इन्हीं संभावनाओं के चलते उनके बुश और अपने चिदम्बरम् का कद एक हो गया है। गर्व से कहो हम अमरीका से पीछे नहीं हैं।
पत्रकारिता तब भी होती थी जब विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थानों में सिखाई पढ़ाई नहीं जाती थी। पर तब की पत्रकारिता अधुनातन उपकरणों के स्थान पर कलम कागज, कैमरा और प्रिंटिंग प्रेस तक सिमटी अखबारी पत्रकारिता थी। समय ने करवट ली और बिना कम्प्यूटरी उपकरणों के पत्रकारिता के बारे में सोचना गुनाह हो गया। संचार क्रांति ने पुरानी पीढि़यों के सामने इलैक्ट्रनिक मीडिया की परोसी भ्रांतियों के पहाड़ खड़े कर दिए। पुरानी पीढ़ी के पत्रकार का उपयोग ‘हमारे जमाने में ऐसा होता था’ कहकर छाती पीटने के लिए किया जाने लगा या फिर वह मुख्य अतिथि आब्लीक अध्यक्ष के रूप में केवल भाषणी व्यक्तित्व बनकर रह गया। ये जो उपकरणाश्रित पत्रकारिता का दौर आया उसे कुछ लोगों ने स्वीकार भी किया ! मान लिया कि अब जमाना ‘करणीय’ नहीं ‘उपकरणीय’ पत्रकारिता का है! उपकरणों की भीड़ में ताजा नाम जुड़ा है पादत्राण का। संस्कृत का पादत्राण जो हिन्दी तक आते आते जूता बन गया। बनना तो छोटी बात थी, वह तो चल गया। पिछली सदी के एक शायर ने अपनी वेदना यू प्रकट की थी -
बूट डासन ने बनाया मैंने इक मजमूं लिखा।
मेरा मजमूं चल न पाया और जूता चल गया ।।
मियां शायर इस दौर में हुए होते तो अफसोस और रंजोगम की जगह इजहारे-खुशी करते, फूलकर कुप्पा हो जाते क्यूंकि जूते के साथ साथ उनका मजमूं भी चल रहा होता। बल्कि जूते की वजह से ही उनका मजमुं चल रहा होता। जूता तो चलता ही। वह अलग बोनस होता।
पहले राजनीति जाजम, बिछाइतों, दरियों, गद्दों, पर यानी कुलमिलाकर जमीनी होती थी। लोग जूते कमरे के ही नही, शामियाने तक के बाहर उतारकर आते थे। पर अब तरक्की हो गई है। मंच कुर्सियों का जमाना है। सभा सोसायटियों में ही नहीं, खाने की मेज और भीड़भड़क्के में तो मंदिरों तक में जूते दर्शन कर आते हैं। भगवान भी धन्य हो जाते हैं। यह जूतोन्नति का युग है। हमारा प्यारा भारतवर्ष भी जूताप्रधान देश हो चला है।
पत्रकारिता में जूते का भविष्य उज्ज्वल है। जूते के कारण हमारी पत्रकारिता का भविष्य भी उज्ज्वल है। बस आवश्यकता है आने वाली पत्रकार पीढि़यों को विधिविधान से जूत-पत्रकारिता सिखाने की। उन्हें यह बताने की कि बच्चों यह भी एक दिशा है जो आपको नाम दे सकती है। बदनामी में क्या नाम नहीं होता। अपनेूराम ने कुलपति को यकीन दिला दिया है कि आनेवाला वक्त कुतर्क, बदजबानी और जूतेवाली पत्रकारिता का है। इन्हीं विषयों में डिप्लोमा डिग्री देने वाले विश्वविद्यालयों में छात्रसंख्या बढ़ेगी। उम्मीद है गर्मी की छुट्टियों के बाद जब विश्वविद्यालय खुलें तो डीएसजे यानी डिप्लोमा इन शू-जर्नलिज्म की पढ़ाई या तो विधिवत् चाले हो चुकी हो या फिर इस मुद्दे पर जूते चल चुके हों।
गुरुवार, 9 अप्रैल 2009
डिप्लोमा इन शू-जर्नलिज्म
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 8:21 am
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6 टिप्पणियां:
bahut hi joradaar vah vah anand gaya ji .
बहुत खूब है साहब...आप तो कई लोगों के खैरख्वाह और कई के लिए सिर्फ ख़ार साबित होने वाले हैं। वैसे जूते की नियती है जड़ना और जुड़ना। इसकी जन्मपत्री में लिखा है ऐसा। जूता बना है संस्कृत के युक्तम् से। जो युक्त हो। इसमें जो़ड़ी का भी भाव है और पैरों से जुड़ने का भी। अब जूता जब पैरों से जुड़े जुड़े आजिज़ आ जाता है तो वह पैरों के निकट संबंधी हाथों से कहता है कि भाई, कुछ तो तुम भी हमें अपने से जोड़ो। अब जो हथेलियां चाटूकारिता के दौर में खुद ही एक दूसरे से जुडी जुडी खुजली की बीमारी की शिकार हो रही हों वे जूते को क्यों खुद से जोड़ें? सो बेहतर यही है कि जूते को कहीं और ज़ड़ दिया जाए। अब पैरों का स्वभाव है कि वे हमेशा पिछाड़ी पर ही चलते हैं, और हाथों की मेहरबानी हमेशा श्रीमुख पर होती है। सो पैरों से आजिज आए जूते की रिरियाहट पर हाथ उसे सिर्फ थामते भर हैं और फिर मंत्री से संत्री तक किसी से भी जुड़ने के लिए छोड़ देते हैं। जूता वही जो युक्त हो, संयुक्त हो अर्थात जुड़े। जूता जोड़ता है, तोड़ता नहीं।
शू पत्रकारिता का भविष्य उज्जवल है। आपकी पाठ्यक्रम कमेटी में हमें रखवा दीजिए या फिर लैक्चर के लिए बुलवा लीजिए...
डीएसजे के कोर्स की सोच करें शुरुआत।
वाणी का तब मोल क्या हो जूते से बात।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
आपका यह व्यंग्य 'पीडा में आनन्द' देने वाला है। अच्छा भी लगता है और वेदना भी होती है।
अच्छी रचना को सुधी पाठक मिलने के सुपरिणाम कैसे होते हैं - यह भी यहां देखने को मिला। श्री अजित वडनेरकर की टिप्पणी आपके इस लेख का सुन्दर 'शिष्ट परिशिष्ट' है।
शू पत्रकारिता पर बहुत बढिया व्यंग्य लिखा आपने ।
sir bhut achha lga aapki ye post padhkar...vyang bhut dumdaar laga..
Dr.Ajeet
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