शुक्रवार, 22 मई 2009

सिंहासन पर सिंह


आखिर सिंह सिंहासन पर आसीन हो ही गए। देश को तिकड़मी  लकड़बग्घों की जगह विनम्र सिंह पसंद आया। उसने ‘मजबूत नेता और निर्णायक सरकार‘ के नारे को सिरे से नकार दिया आर काम करके दिखाने वाली विकासप्रिय सरकार के पक्ष में वोट दे दिया। सोलह मई का दिन पक्षियों के आसमान छूने  और विपक्षियों के धूल चाटने का दिन था। सुबह से लाली लिपस्टिक लगाए और सोलह सिंगार  किए दल वधुएं दरवाजे पर बारात का इन्तजार करती रहीं और बारात का मन मोह बैठे सरदार  मनमोहन सिंह। जयमाला उन्हीं के गले में डाल दी गई।
पीएमआईडब्लूसी में घनी मायूसी है। पीएमआईडब्लूसी यानी प्राइम-मिनिस्टर इन वेटिंग क्लब। पहले यह क्‍लब नहीं था। यह अपने बीजेपी वाले लालभाई का 'सोल वैन्‍चर' था। इस मामले में वे अकेले रजिस्टर्ड स्वप्नदर्शी थे।  सारे देश में उन्हीं के नाम का डंका बज रहा था कि प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने का अधिकार सिर्फ लालभाई को है। ऐसा सपना और कोई नहीं देख सकता। और किसी को देखना  भी नहीं चाहिए। यह बात पार्टी स्तर पर घोषित थी। पर भाईसाहब, इतिहास गवाह है कि विभीषण लंका में ही पैदा होते हैं। लालभाई  के इस हसीन सपने को क्लब बनाने में उन्ही के दल के नरेन्द्रभाई ने पलीता लगा दिया।
अब जब भाजपा से दो दो पीएमआईडब्लू आ गए तो दक्षिण की अम्मा जी, उत्तर की बहनजी, मराठवाड़ा के शरदभाई और यूपी के मुलायम भैया क्योंकर पिछड़ते। घर में नहीं दाने और अम्मा चली  भुनाने। घोडी को देखा तो मेंढकी भी नाल ठुकवाने आगे आ गई। अपने लालभाई की कतार में  लालब्रिगेड के प्रकाश करात को भी खड़ा कर दिया गया। पता नहीं इससे प्रकाशभाई कर कद बढ़ा या लालभाई का कम हुआ। पर लालभाई का दिल अलबत्ता जरूर टूट गया। यह शुरुआत थी  उनके सुन्दर सपने के चकनाचूर होने की।
सोलह मई का मनहूस दिन। सारे दलों के दूल्हे नए जूते, शेरवानी और पगडि़यों में सजे, सेहरे में तिलक काजल लगाए तैयार बैठे थे कि कब इशारा हो और कब घोड़ी पद सवार हो कर वे बारात की अगुवाई करें। बारात भी तैयार थी। घोड़ी भी दाना खाकर  मुटिया रही थी। बैण्ड भी बुला लिया गया था और रोशनी के भी पुख्ता इंतजामात थे। पर शाम होते होते सब कुछ बेमानी हो गया।
जनता ने सरदार को सरदार तो माना ही, असरदार भी सिद्ध कर दिया। बाकी दूल्हों ने मुह छिपा लिए क्यों कि विजयश्री खुद 7 रेसकोर्स रोड पहुंच गई जयमाला लिये। जैसे ही पता चला धूम मच गई माहौल में। अधिकांश दूल्हे अपनी पगड़ी उतार शेरवानी फेंककर सरदार की बारात में शामिल होने को मचल उठे। बरबस  उनके कंठ से ये बोल फूट पड़े- आज मेरे यार की शादी है।
राजनीति के कई कई रंग हैं। सदाबहार लालू धरती सूंघ रहे हैं। कुछ अपने करमों के और कुछ अपने साले साधु के मारे हुए हैं। साधु को ज्यादा कुछ कहें तो भौजी के शेरनी होने का खतरा है। दिल्ली की शेरनी को तो झेल लें पर घर की शेरनी नहीं झिलेगी। इसलिये वक्त की मार से बिलबिलाए बिना फौजफाटे के अपनी मांद में दुबके हैं। वहीं से रिरिया रहे हैं कि कांग्रेय के साथ हैं। पर खुर्रांट कांग्रेसी  उनसे निबटना जानते हैं। अब अगर सरदार साहब को खतरा है तो चापलूस कांग्रेसियों से ही है। पता नहीं कब उनके मन में राहुल भक्ति जाग जाए और वे एकजुट होकर राहुल को 7 रेसकोर्स रोड भेजने पर आमादा हो जाएं। एक ज्योतिषी ने इसके लिए 2010 के पहले छह महीने घोषित किए हैं। यूं अपने सरदार साहब सितारों का मन भी मोह चुके हैं अब तक।

4 टिप्‍पणियां:

अनूप शुक्ल ने कहा…

सुन्दर! शानदार बरात कथा!

अजित वडनेरकर ने कहा…

कम मतदान का इतना शानदार नतीजा अपनेराम ने पहली बार देखा। अपना वोट भी सफल हो गया। अलबत्ता भोपाल का प्रत्याशी नहीं जीत पाया पर वोट स्थिरता के नाम पर सरदारजी को ही गया।

शानदार रूपक बांधा ...असरदार व्यंग्य...

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत सटीक बात कही!!

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

यह कोई जीत नहीं बल्कि जनता के सामने विकल्पहीनता का नतीजा है. जहां तक सवाल सिंह की सिंहता का अन्दाज़ा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज तक उनको जनता का सामना करने की हिम्मत नहीं पड़ी. भारतीय इतिहास में ये पहले पीएम जिनमें एमपी बनने का साहस भी नहीं है. लोकतंत्र में वंशवाद की पराकाष्ठा का इससे बेहतर व जीवंत उदाहरण और क्या होगा?