उत्तराखंड को लोग उसकी प्राकृतिक सुन्दरता के चलते धरती का स्वर्ग कहते हैं लेकिन इसी नाते से उत्तराखंड के निवासियों को स्वर्गवासी कहने का कोई रिवाज़ नहीं है। हां, इस प्रदेश का प्रमुख नगर हरिद्वार अलबत्ता कई तरह के ''द्वार'' के रूप में मशहूर है। देवभूमि की सीमा पर होने के कारण यह स्वर्गद्वार ज़रूर कहलाता है। यह महादेव यानी हर का द्वार है और विष्णु यानी हरि का भी द्वार है। अपनेराम का खटोला इसी दरवाजे पर पड़ा है। इसी दरवाज़े पर द्वाराचार के लिए द्वारपाल बने बैठे हैं अपनेराम। आजकल इसी द्वार पर बड़ी चहल पहल है। महाकुम्भ जो आने को है।
कुम्भ यानी घड़ा। हण्डा कह लो, कलश कह लो, कलसा कह लो । पर हर बारह बरस में यह घड़ा हरिद्वार आता है। बहुत बड़ा घड़ा बनकर आता है जिसे महाकुम्भ कहते हैं और इस महाकुम्भ के साथ ही यहां आते हैं देश-विदेश से लाखों-लाख श्रद्धालु तीर्थयात्री जिन्हें तलाश रहती है घड़े से गिरे अमृतकणों की। इसी तलाश में हरिद्वार पहुंचते हें ये सभी तीर्थयात्री।
2010 की शुरुआत यानी जनवरी से अप्रैल तक अपनेराम की छोटी सी कुम्भनगरी हरिद्वार में इन्हीं अमृत चाहने वालों की चहल-पहल ही नहीं रेल-पेल और उससे भी आगे की कहें तो धका-पेल भी बढ़ जाएगी। हर एक की कोशिश रहेगी कि अमृत की बूंद बस, उसीके हलक में उतरे।
लेकिन अमृत का घड़ा तो सही मायनों में हरिद्वार पहुंच चुका है। देवताओं का तो पता नहीं पर कुम्भ के शुम्भ निशुम्भ ज़रूर इस घड़े से अपने अपने गिलास भरने में जुट गए हैं। हर बार ऐसा होता है। पिछली बार खाली हो चचुके घड़े को सरकार फिर से अपना कोष देकर भरती है और अपने शुम्भ-निशुम्भों की नियुक्ति करके उसे खाली करने के रास्ते भी खोल देती है।
शुम्भ सरकारी होते हैं और निशुम्भ गैर-सरकारी। शुम्भ अधिकारी होते हैं और निशुम्भ उनके चहेते ठेकेदार। सरकारी और गैर-सरकारी दोनों मिलकर काफी असरकारी हो जाते हैं। ये दोनों प्रकार के असरकारी मिलकर महाकुम्भ जनपर्व को धनपर्व में तब्दील कर देते हैं। साढ़े पांच सौ करोड़ रुपयों से भरा है इस बार के महापर्व का घड़ा। जो हो रहा है करोड़ों में हो रहा है। अब इस घड़े को तीर्थयात्रियों के आने से पहले खाली करने की बड़ी जि़म्मेदारी शुम्भ निशुम्भों पर आ पड़ी है। इस घड़े का धन खाली होगा तभी तो इसमें आस्था और विश्वास का अमृत भरेंगे कुम्भ के ये असरकारी आयोजक। फिलहाल धन-कुम्भ खाली किया जा रहा है, जिन्हें अपना मन-कुम्भ भरना है वे अपनी जेबें भरकर कुम्भ नहाने आएं।
5 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर... तथ्यों और शब्दों का मणिकांचन उपयोग करने पर बहुत बहुत बधाई....
यथार्थ को व्यंग्यात्मक स्वरुप में ढाल विषय को अत्यंत प्रभावी बना दिया है आपने....बहुत बहुत सुंदर !!!
प्रस्तुतीकरण का निराला अंदाज .. बहुत बढिया लगा !!
चित्रण ने भीतर के चित्र को शब्दों में साकार कर दिया है।
कुंभ के तैयारी में पहले सारे अफसर-ठेकेदार गंगा नहालें फिर जनता को नहलाने के लिए पंडे तैयार हैं ही। सार्थक व्यंग्य है।
प्रमोद ताम्बट
भोपाल
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