शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

अखाड़े हैं तो लड़ेंगे ही

इन दिनों कुम्‍भनगरी हरिद्वार में अखाड़ों के चर्चे आम हैं। अखाड़े यानी साधुसंतों के अखाड़े। अखाड़ा होता वही है जहां मल्‍लयुद्ध सिखाते हैं और करते हैं। दो मल्‍ल आमने सामने खड़े होकर हाथ मिलाते हैं और फिर अपने दांवपेंच आजमाकर दूसरे को पटकनी देने की जुगाड़ में जुट जाते हैं। यही कुछ आजकल हरिद्वार के संतई अखाड़ों में हो रहा है। यहां के अखाड़ची कई स्‍तरों पर पटकनी दे रहे हैं और झेल रहे हैं।

साधु संतों के कुल मिलाकर तेरह अखाड़े हैं। इनकी अखाड़ेबाजी का पहला स्‍तर कुम्‍भ स्‍नान को लेकर होता रहा है। फिर ये अपने अखाड़ों में परस्‍पर मल्‍लयुद्ध करते हैं, फिर दूसरे अखाड़ों से करते हैं और फिर सारे अखाड़े मिलकर शासन प्रशासन से लड़ते हैं। अबर ये लोग इन अलग अलग स्‍तरों पर न लड़ें तो इनकी संतई ख़तरे में पड़ने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। दनके बीच का बड़ा ‍मुद्दा यह होता है कि पहले कौन नहाए। ये एक अत्‍यंत अनिवार्य और स्‍वास्‍थ्‍य की दृष्टि महत्‍वपूर्ण मुद्दा है। भारतीय लोग जितनी जल्‍दी गंदे होते हैं इतनी ही जल्‍दी नहाने की जुगत में रहते हैं। चूंकि वे बार बार नहा लेते हैं इसलिये उन्‍हें बार बार बन्‍दा होने में कोई संकोच भी नहीं होता। दुनिया में कई जगह कम या कभी-कभार नहाते हैं। वे लोग या तो गंदे नहीं होते या फिर गंदगी को गंदा नहीं मानते। दोनों स्थितियों में उनके लिये नहाना ज़रूरी नहीं रह जाता। पर अपने महान देश में नहाने पर बहुत जोर है क्‍योंकि यहो गंदला होने की संभावनाएं भी हमेशा से उज्‍ज्‍वल रही हैं। इसीलिये पहले के ज़माने में भी पहले कौन नहाए यह विवाद का मुद्दा रहता आया है। जो पहले नहाएगा वह पहले पापमुक्‍त होगा। इस मान्‍यता ने आज हर नये मकान के हर कमरे को अटैच्‍ड बाथरूम बनवा दिया है। जल्‍दी नहाओ और अगली गंदगी ओढ़ने को तत्‍पर हो जाओ।

जब तय कर दिया गया कि गंगा में गोता लगते ही बन्‍दे पापमुक्‍त हो जाएंगे तो बहस हुई कि कि पहले कौन नहाए। पहले किसके पाप दूर हों। ख़ासकर कुम्‍भस्‍नान पहले कौन करे, तो आम लोगों ने मान लिया कि मुनिजन श्रेष्‍ठ होते हैं इसलिये वे ही पहले नहाएं। पर कौनसे मुनि पहले नहाएं यह कौन तय करे। इसे तय करने के लिये अखाड़े और अखाड़ची आगे आए। उनके हाथों में तीर कमान, बरछे-भाले, तलवार-कटारी और डण्‍डे ही नहीं बाद में तो बन्‍दूकें तक आ गईं यह तय करने के लिये कि पहले कौन नहाए। अन्‍तत: जिसके गटृों में दम था उसका नंबर पहले लग गया।

अब जब एकला चलो सिद्धांत के हामी एकांत-पथिक साधु अखाड़े में और अखाड़े जमात में तब्‍दील हो गए तो साधुओं की जमातों ने राजकृपा से झण्‍डे-निशान, हाथी-हौदे, रथ पालकियां और भरी तिजोरियों के साथ साथ धर्म की ठेकेदारी भी सहज ही प्राप्‍त कर ली। कुम्‍भ इन्‍हीं की वर्चस्विता का प्रदर्शन पर्व है। इसी वर्चस्‍व प्रदर्शन की गहमा-गहमी इन दिनों कुम्‍भनगर में चल रही है। कुम्‍भ वर्ष में अखाड़ा परिषद की बागडोर जिनके हाथों में है शासन में उनकी लम्‍बी 'पूछ' देखकर अन्‍यत्र बेचैनी है। यह बेचैनी अखाड़ों के बीच पैंतरेबाजी और दांवपेंचों की भूमिका तैयार कर चुकी है। आम जनता देख रही है कि उसे मोक्षपथ दिखाने वाले किस तरह कुर्सीपथ पर लड़-झगड़ रहे हैं। जनता मूक दर्शक है और यही बने रहना उसकी नियती है। 
मुनियों के साथ साथ यह देश कपट-मुनियों का भी देश रहा है। तो जहां मुनियों के कपट-मुनि होने की घटनाएं इतिहास का हिस्‍सा रही हैं वहां सामान्‍यजन तो अपने गुरुओं की प्रेरणा से गुरुघंटाल बनते ही रहे हैं। जब लोग देखते हैं कि साधु का भगवा चोला देखकर सामान्‍य जन कमर में दर्द होने तक झुके रहने के आदी हैं तो फिर भगवा भेस उन्‍हें प्रेरित और प्रभावित करता है। त्‍याग और तपस्‍या के आगे झुकना हमारी परम्‍परा है। और हमारी यही आस्‍था, हमारी यही परम्‍परा, हमारा यही विश्‍वास हमारे ठगे जाने की भूमिका तैयार क‍रता है। हमारे ही बीच के चंद लोग इसीलिये परम्‍परा की आड़ लेकर, भेस बदलकर खुद को हम जैसों से पुजवा लेते हैं। हम अपनी जमापूंजी का सारा धन ऐसों को देकर धन्‍य हो जाते हैं और वे अपनी कृपा की मुस्‍कान बिखेरते हुए हमारे धन्‍यवाद बटोरते रहते हैं। वे ऐसे चमत्‍कारी भेसधारी बन जाते हैं जिनके लिये पाप-पुण्‍य, लाभ-अलाभ, जय-पराजय, हानि-लाभ सब कुछ केवल औरों को पटकनी देने के औजार मात्र ही होते हैं। यानी इसलिये कि वे समाज में पुण्‍यपुरुष दीखें, पाप करने से भी नहीं हिचकते।

 

रविवार, 20 दिसंबर 2009

राजनीति में पत्‍थर

राजनीति में पत्‍थरों का बड़ा महत्‍व है। बड़े काम की चीज होते हैं ये पत्‍थर। इनके के बगैर राजनीति का काम नहीं चलता। न पक्ष की राजनीति का और ना ही विपक्ष की राजनीति का। फिर राजनीति अगर पहाड़ की हो तो कहना ही क्‍या। सारा उत्‍तराखण्‍ड प्रदेश कंकर से पत्‍थर, पत्‍थर से शिला, शिला से पहाड़ी और पहाड़ी से पहाड़ तक पथरीली राजनीति का प्रदेश है। इसलिये यहां जो लोग कुर्सियां पाना चाहते हैं उनके हाथों में पत्थर होना जरूरी है ताकि वे उनका प्रयोग कुर्सियों पर बैठे हुओं पर कर सकें। और जो लोग कुर्सियों पर बैठे हैं उनके हाथ भी कुलबुलाते रहते हैं अपने नाम लिखे पत्‍थरों से परदे हटाने के लिए।

इन दिनों अपनेराम की नगरी हरिद्वार में भी पत्‍थरों का मौसम है। वैसे सच तो यह है कि इस महाकुम्‍भ आने को है, सो पत्‍थरों की बहार है। पत्‍थर पड़ भी रहे हैं और पत्‍थर लग भी रहे हैं।  नये राज्‍य का पहला महाकुम्‍भ है। सरकार को समझाया गया है कि पांच करोड़ लोग आएंगे। सो, दरियादिल प्रदेश सरकार ने साढ़े पांच सौ करोड़ खर्च करने की ठान ली। ठान ली तो दिल्‍ली से गुहार लगाई। ''हमारे घर मेहमान आ रहे हैं, व्‍यवस्‍था के लिए पैसा दो।'' पिछले कई महीनों से दिल्‍ली और देहरादून के बीच इसी बात पर पत्‍थरबाजी चल रही थी। देहरादून बेचैन था कि दिल्‍ली ने अपनी तिजोरी नहीं खोली तो फिर महकुम्‍भ का क्‍या होगा। क्‍या होगा उन शिलापटों का जो थोक के भाव में बना लिये गए हैं। पर दिल्‍ली ने सारी समस्‍या हल कर दी। कह दिया कि, ''चिन्‍ता नास्ति, हम देंगे चार सौ करोड़। तुम अपने नाम से शिलापट लगाते चलो।'' देहरादून अब खुश है कि दिल्‍ली ने उसका अमृत-कुम्‍भ भर दिया है, अब सारा प्रदेश हर आशंका से दूर है। सारा प्रदेश निशंक है। कुम्‍भ को लेकर लघु और दीर्घ सब तरह की शंकाओं पर काबू पा लिया गया है। विपक्षियों की पत्‍थरबाज़ी का जवाब शिलान्‍यास और उद्घाटन की शिलाओं से दिया जा रहा है। माहौल बूमरैंग का है। यानी जिसका पत्‍थर है उसीका सिर घायल हो रहा है।

हरिद्वार आने वाले प्राय: पूछते हैं कि यहां की क्‍या चीज़ मशहूर है। उन्‍हें उत्‍तर मिलता है कि, ''भाया, यहां तो गंगा जी का जल और गगा जी के पत्‍थर ही मशहूर हैं।'' जिसकी जिसमें श्रद्धा है उसे वही मिल जाता है। जब यह चर्चा चलती है कि स्‍नानपर्वों पर  यहां इतने सारे लोग कैसे आ जाते हैं, तो लोकचर्चा होती है कि गंगाजी के पत्‍थर ही रातों-रात आदमी औरत बन जाते हैं। पर्व निबटते ही वे फिर कंकड़-पत्‍थरों में तब्‍दील हो जाते हैं। कुल-मिलाकर गंगातट पर इन दिनों शिलाओं की मौज है। मंत्रियों के सुकोमल करकमलों से वे अनावृत हो रही हैं। मंत्री शील का अनावरण करे या शिला का यह देश तो ताली ही बजाता है। तालियां बज रही हैं और शिलाएं अनाव़त हो रही हैं।

शिलान्‍यासों और शिलोद्घाटनों के इस दौर में शिलाओं से ज्‍यादा मंत्रियों का ध्‍यान रखा जा रहा है। ‍खुद को अनावृत करवाने के लिये वे झुण्‍ड में मंत्रिवरों के पास लाई जा रही हैं। मंत्रिवर आते हैं, सजी हुई शिलाएं अवगुंठन में  पंक्तिबद्ध खड़ी कर दी जाती हैं। वे आकर उनका घूंघट हटाकर उन्‍हेूं अनावृत करते हैं। तालियां बजती हैं। ये तालियां होती हैं जवाब उस पत्‍थरबाजी का जो विपक्ष की ओर से की गई होती हैं।

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

भाषात्‍कार का ज़माना

भाषात्‍कार का ज़माना

लोग जो बोलते हैं, जो लिखते हैं और फिर जो हमें छपा हुआ दीखता है उसे देखकर लगता हैं कि हम उस युग में आ चुके हैं जिसे 'भाषात्‍कार का युग' मज़े में कहा जा सकता है। दरअसल मनुष्‍य अपने जीवन में जितनी तरह के बलात्‍कार करता है, उनमें से एक बलात्‍कार भाषा के साथ भी होता है, जिसे अपनेराम ने  'भाषात्‍कार'  की संज्ञा दे डाली है। जिस तरह बलात्‍कार के लिए कमसे  कम दो की ज़रूरत होती है उसी तरह भाषात्‍कार में भी कमसे कम दो भाषाओं की ज़रू‍रत होती है। अगर दो भाषाओं का परस्‍पर मिलन सस्‍नेह, प्‍यार मौहब्‍बत के साथ होता है तो वह मधुर वैवाहिक संबंधों की तरह पवित्र होता है। पर अगर इन्‍हें जबरदस्‍ती मिलाने की कोशिश हो तो फिर यह भाषात्‍कार ही कहा जाएगा। इस युग में मिलावट का जोर है। ख़ासकर हमारा प्‍यारा भारतवर्ष तो आजकल मिलावट-प्रधान देश ही हो गया है। परस्‍पर प्रेमपूर्वक मिलने-मिलाने में विश्‍वास रखने वाले इस देश में मिलन की जगह मिलावट ने ले ली है। इसी मिलावट की प्रवृत्ति ने भाषाओं को भी अपने शिकंजे में कस लिया है। अपनेराम इसी से दुखी हैं। भाषाएं मिलें पर अपना अपना रंग बिखेरती चलें तो आनन्‍द हैा पर हो यह रहा है कि जब दो अलग अलग भाषाओं के शब्‍दों को मिलाकर नया तीसरा शब्‍द बनाया जाता है तो वह बलात्‍कार से उपजी नाजायज़ संतान की तरह प्रकट होता है। अपनेराम मूलत: अध्‍यापक हैं सो बच्‍चों को भाषा पढ़ाते हैं। पर उस परिवेश का क्‍या करें जिसमें नई पौध बिना भाषा पढ़े ज्ञान की सीढि़यां चढ्ना चाहती है। अपनेराम ने कक्षा में बच्‍चों को पत्र लिखना सिखाया और फिर कहा कि अपने दोस्‍त को लिखो कि, ''अगली छुट्टियों में घूमने के लिये शिमला जाने के लिए अपने माता पिता से अनुमति ले लो। शिमला चलेंगे।'' एक बहुभाषाभाषी परिवार का बच्‍चा कुछ यूं लिख लाया... ''प्रिय यार, हाय। अरे सुन, गर्मियों की छट्टियों में मैं शिमला जा रहा हूं। तू भी चल। मैंने तो इसके लिए अपने मम्‍मी डैडी की इज्‍़ज़त ले ली है। तू भी अपने मां बापू की इज्‍़ज़त लेकर जल्‍दी आ जा, साथ साथ चलेंगे।'' लिखना इजाज़त था, बच्‍चा मां बाप की इज्‍़ज़त का दुश्‍मन बन गया और अपनेराम सिर पीट कर रह गए।

एक प्रखर वक्‍ता विश्‍वविद्यालय में भाषण झाड़ने आए। ऊधमी छात्रों का हुड़दंगी मिजाज़ देखकर कुछ यूं शुरू हुए....''बच्‍‍चों, प्‍लीज़ कीप चुप। आप जब थोड़ा सीरियसता का वातावरण बनाएंगे तभी मैं अपनी बात गम्‍भीरली कह पाऊंगा।''  छात्रों ने जब यह भाषा सुनी तो वह वातावरण बनाया कि  प्रवक्‍ता प्रखर की जगह खर ही सिद्ध हो गए। कुछ उत्‍साहियों ने इस भाषा को गंगाजमुनी कहा तो अपनेराम ने उनके सामने अखबार का एक समाचार रखा। शीर्षक था, ''आलाधिकारियों को मुख्‍यमंत्री की फटकार।'' बड़ी देर तक अपनेराम सोचते रहे कि ये कौनसे अधिकारी हैं। जि़लाधिकारी सुने थे, मेलाधिकारी सुने थे, वित्‍ताधिकारी सुने थे पर ये आलाधिकारी कौन हुए। फोन करके अखबार के संपादक से पूछा तो पता चला कि संस्‍कृत हिन्‍दी के संधि नियमों से उर्दू केआला यानी उच्‍च और हिन्‍दी के अधिकारी को जोड़ दिया गया है। लिखना था उच्‍चाधिकारी, लिख दिया आलाधिकारी। एक बार और भाषात्‍कार हो गया।  ऐसा भाषात्‍कार करने के बाद भी लोग चाहते हैं कि उन पर गुरुजनों का आशीर्वाद नहीं बल्कि ''आर्शीवाद'' बना रहे।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

ठाकरे की ठकुराई

एक छोटे ठाकरे ने एक बड़े ठाकरे की ठकुराई पर अपनी जीत का ग्रहण लगा दिया है। बड़े ठाकरे के अपने लोग, जो उनकी ठकुरसुहाती कहते-करते अघाते नहीं थे, अब न केवल हार का ठीकरा उनके सिर पर फोड़ रहे हैं बल्कि उनके नेतृत्‍व को ठोकर मारने पर भी उतारू दीख रहे हैं। अपनेराम को आनन्‍द आ रहा है कि ठाकरे, ठोकर, ठीकरा, ठाकुर, ठकुराई, और ठकुरसुहाती सारे शब्‍द इन दिनों पंक्तिबद्ध हें। सब एक दूसरे का आसरा सहारा ढूंढ रहे हैं  क्‍योंकि मुम्‍बई के कलानगर बान्‍द्रा में सभी की पोल खुल रही है।

ठाकरे नामक जहाज को डूबता देखकर उसके सवार कूद कूद कर भागने को बेताब हैं। अपने को महाराष्‍ट्र का सिंह कहलवाने वाले की पूंछ इन दिनों तनने से इनकार कर रही है। बेचारी दबी पड़ी है दो टांगों के बीच में।

अब इसे दुर्भाग्‍य की पराकाष्‍ठा न कहें तो क्‍या कहें कि ठाकरे कुल की कुलवधू ही बुरी तरह नाराज़ है अपने बुज़ुर्ग कुलपति से। उसमें जानें कहां से हिम्‍मत आ गई कि वह ''सामना''' वाले का सामना करने के लिये डटकर खड़ी हो गई है। इतनी नाराज़ कि उसने ''शिवसेना कॉलेज''  से अपना नाम कटवाकर ''कांग्रेसी कॉलेज''  में अपना नाम लिखवाने का फैसला कर लिया है। वो तो ''कांग्रेसी कॉलेज'' की प्रिंसिपल सोनिया मैम ने ही ठाकरे-कुलवधू के चरित्र प्रमाणपत्र का गहनता से अध्‍ययन करने के लिए कुलवधू का कांग्रेस-प्रवेश फिलवक्‍त टाल दिया है वरना ''मातुश्री'' के  ''पिताश्री''  तो अब तक कोमा में चले गए होते और इस बारे में चैनल्‍स पर जाने के समाचार भी आ चुके होते। अस्‍तु।

इधर कुलवधू कोपभवन में क्‍या गईं कुल में अफ़रा-तफ़री का माहौल पैदा हो गया है। अपनेराम का मानना है कि इस अफ़रा-तफ़री में भी तफ़री तो विपक्षी ले रहे हैं। शिवसेनावाले तो बेचारे अफ़ारे से ही बेचैन हैं। म.न.से. वाले सर्वाधिक आनन्‍द बड़े मन से ले रहे हैं। उन‍का मन इन दिनों उन्‍मन उन्‍मन है। सारा चमन उनके मन में बस रहा है, खिल रहा है। अपने काका से नाराज़ राजबाबू अब प्रसन्‍न हैं क्‍योंकि उनके काका साहब कुलवधू की करतूत से सन्‍न और खिन्‍न हैं।

मुम्‍बई के मंत्रालय और दिल्‍ली के राजनीतिक गलियारों में भी हवाएं तेज़ बह रही हैं। हवाओं का रुख भांपने वाले नवीन शैली में इंदिरायुग की  पुनरावृत्ति की आस लगाए हैं। उनको लगता है कि तब तो नाराज़ सास ने बहूरानी को दरवाज़ा दिखाया था पर अब ससुर से नाराज़ बहू ख़ुद ही दरवाज़े पर खड़ी है। किसी को आश्‍चर्य भी नहीं होना चाहिए अगर इस बार कुलवधू ही कुलपति को मातुश्री से बेदख़ल करने की कोशिशों पर उतर आए। यह लोकतंत्र है, सब कुछ संभव है। हर तरह की तानाशाही का विरोध इस तंत्र में संभव है। होता आया है, हो रहा है और आगे भी होता रहेगा। कोई तानाशाह, कोई ठाकुर ठाकरे कभी भी ठोकर खाकर गिर सकता है या ठोकर मारकर गिराया जा सकता है। ठीक है न भाई।