राजनीति में पत्थरों का बड़ा महत्व है। बड़े काम की चीज होते हैं ये पत्थर। इनके के बगैर राजनीति का काम नहीं चलता। न पक्ष की राजनीति का और ना ही विपक्ष की राजनीति का। फिर राजनीति अगर पहाड़ की हो तो कहना ही क्या। सारा उत्तराखण्ड प्रदेश कंकर से पत्थर, पत्थर से शिला, शिला से पहाड़ी और पहाड़ी से पहाड़ तक पथरीली राजनीति का प्रदेश है। इसलिये यहां जो लोग कुर्सियां पाना चाहते हैं उनके हाथों में पत्थर होना जरूरी है ताकि वे उनका प्रयोग कुर्सियों पर बैठे हुओं पर कर सकें। और जो लोग कुर्सियों पर बैठे हैं उनके हाथ भी कुलबुलाते रहते हैं अपने नाम लिखे पत्थरों से परदे हटाने के लिए।
इन दिनों अपनेराम की नगरी हरिद्वार में भी पत्थरों का मौसम है। वैसे सच तो यह है कि इस महाकुम्भ आने को है, सो पत्थरों की बहार है। पत्थर पड़ भी रहे हैं और पत्थर लग भी रहे हैं। नये राज्य का पहला महाकुम्भ है। सरकार को समझाया गया है कि पांच करोड़ लोग आएंगे। सो, दरियादिल प्रदेश सरकार ने साढ़े पांच सौ करोड़ खर्च करने की ठान ली। ठान ली तो दिल्ली से गुहार लगाई। ''हमारे घर मेहमान आ रहे हैं, व्यवस्था के लिए पैसा दो।'' पिछले कई महीनों से दिल्ली और देहरादून के बीच इसी बात पर पत्थरबाजी चल रही थी। देहरादून बेचैन था कि दिल्ली ने अपनी तिजोरी नहीं खोली तो फिर महकुम्भ का क्या होगा। क्या होगा उन शिलापटों का जो थोक के भाव में बना लिये गए हैं। पर दिल्ली ने सारी समस्या हल कर दी। कह दिया कि, ''चिन्ता नास्ति, हम देंगे चार सौ करोड़। तुम अपने नाम से शिलापट लगाते चलो।'' देहरादून अब खुश है कि दिल्ली ने उसका अमृत-कुम्भ भर दिया है, अब सारा प्रदेश हर आशंका से दूर है। सारा प्रदेश निशंक है। कुम्भ को लेकर लघु और दीर्घ सब तरह की शंकाओं पर काबू पा लिया गया है। विपक्षियों की पत्थरबाज़ी का जवाब शिलान्यास और उद्घाटन की शिलाओं से दिया जा रहा है। माहौल बूमरैंग का है। यानी जिसका पत्थर है उसीका सिर घायल हो रहा है।
हरिद्वार आने वाले प्राय: पूछते हैं कि यहां की क्या चीज़ मशहूर है। उन्हें उत्तर मिलता है कि, ''भाया, यहां तो गंगा जी का जल और गगा जी के पत्थर ही मशहूर हैं।'' जिसकी जिसमें श्रद्धा है उसे वही मिल जाता है। जब यह चर्चा चलती है कि स्नानपर्वों पर यहां इतने सारे लोग कैसे आ जाते हैं, तो लोकचर्चा होती है कि गंगाजी के पत्थर ही रातों-रात आदमी औरत बन जाते हैं। पर्व निबटते ही वे फिर कंकड़-पत्थरों में तब्दील हो जाते हैं। कुल-मिलाकर गंगातट पर इन दिनों शिलाओं की मौज है। मंत्रियों के सुकोमल करकमलों से वे अनावृत हो रही हैं। मंत्री शील का अनावरण करे या शिला का यह देश तो ताली ही बजाता है। तालियां बज रही हैं और शिलाएं अनाव़त हो रही हैं।
शिलान्यासों और शिलोद्घाटनों के इस दौर में शिलाओं से ज्यादा मंत्रियों का ध्यान रखा जा रहा है। खुद को अनावृत करवाने के लिये वे झुण्ड में मंत्रिवरों के पास लाई जा रही हैं। मंत्रिवर आते हैं, सजी हुई शिलाएं अवगुंठन में पंक्तिबद्ध खड़ी कर दी जाती हैं। वे आकर उनका घूंघट हटाकर उन्हेूं अनावृत करते हैं। तालियां बजती हैं। ये तालियां होती हैं जवाब उस पत्थरबाजी का जो विपक्ष की ओर से की गई होती हैं।
1 टिप्पणी:
'मंत्री शील का अनावरण करे या शिला का यह देश तो ताली ही बजाता है। तालियां बज रही हैं और शिलाएं अनाव़त हो रही हैं।' - सही कहा आपने।
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