भाषात्कार का ज़माना
लोग जो बोलते हैं, जो लिखते हैं और फिर जो हमें छपा हुआ दीखता है उसे देखकर लगता हैं कि हम उस युग में आ चुके हैं जिसे 'भाषात्कार का युग' मज़े में कहा जा सकता है। दरअसल मनुष्य अपने जीवन में जितनी तरह के बलात्कार करता है, उनमें से एक बलात्कार भाषा के साथ भी होता है, जिसे अपनेराम ने 'भाषात्कार' की संज्ञा दे डाली है। जिस तरह बलात्कार के लिए कमसे कम दो की ज़रूरत होती है उसी तरह भाषात्कार में भी कमसे कम दो भाषाओं की ज़रूरत होती है। अगर दो भाषाओं का परस्पर मिलन सस्नेह, प्यार मौहब्बत के साथ होता है तो वह मधुर वैवाहिक संबंधों की तरह पवित्र होता है। पर अगर इन्हें जबरदस्ती मिलाने की कोशिश हो तो फिर यह भाषात्कार ही कहा जाएगा। इस युग में मिलावट का जोर है। ख़ासकर हमारा प्यारा भारतवर्ष तो आजकल मिलावट-प्रधान देश ही हो गया है। परस्पर प्रेमपूर्वक मिलने-मिलाने में विश्वास रखने वाले इस देश में मिलन की जगह मिलावट ने ले ली है। इसी मिलावट की प्रवृत्ति ने भाषाओं को भी अपने शिकंजे में कस लिया है। अपनेराम इसी से दुखी हैं। भाषाएं मिलें पर अपना अपना रंग बिखेरती चलें तो आनन्द हैा पर हो यह रहा है कि जब दो अलग अलग भाषाओं के शब्दों को मिलाकर नया तीसरा शब्द बनाया जाता है तो वह बलात्कार से उपजी नाजायज़ संतान की तरह प्रकट होता है। अपनेराम मूलत: अध्यापक हैं सो बच्चों को भाषा पढ़ाते हैं। पर उस परिवेश का क्या करें जिसमें नई पौध बिना भाषा पढ़े ज्ञान की सीढि़यां चढ्ना चाहती है। अपनेराम ने कक्षा में बच्चों को पत्र लिखना सिखाया और फिर कहा कि अपने दोस्त को लिखो कि, ''अगली छुट्टियों में घूमने के लिये शिमला जाने के लिए अपने माता पिता से अनुमति ले लो। शिमला चलेंगे।'' एक बहुभाषाभाषी परिवार का बच्चा कुछ यूं लिख लाया... ''प्रिय यार, हाय। अरे सुन, गर्मियों की छट्टियों में मैं शिमला जा रहा हूं। तू भी चल। मैंने तो इसके लिए अपने मम्मी डैडी की इज़्ज़त ले ली है। तू भी अपने मां बापू की इज़्ज़त लेकर जल्दी आ जा, साथ साथ चलेंगे।'' लिखना इजाज़त था, बच्चा मां बाप की इज़्ज़त का दुश्मन बन गया और अपनेराम सिर पीट कर रह गए।
एक प्रखर वक्ता विश्वविद्यालय में भाषण झाड़ने आए। ऊधमी छात्रों का हुड़दंगी मिजाज़ देखकर कुछ यूं शुरू हुए....''बच्चों, प्लीज़ कीप चुप। आप जब थोड़ा सीरियसता का वातावरण बनाएंगे तभी मैं अपनी बात गम्भीरली कह पाऊंगा।'' छात्रों ने जब यह भाषा सुनी तो वह वातावरण बनाया कि प्रवक्ता प्रखर की जगह खर ही सिद्ध हो गए। कुछ उत्साहियों ने इस भाषा को गंगाजमुनी कहा तो अपनेराम ने उनके सामने अखबार का एक समाचार रखा। शीर्षक था, ''आलाधिकारियों को मुख्यमंत्री की फटकार।'' बड़ी देर तक अपनेराम सोचते रहे कि ये कौनसे अधिकारी हैं। जि़लाधिकारी सुने थे, मेलाधिकारी सुने थे, वित्ताधिकारी सुने थे पर ये आलाधिकारी कौन हुए। फोन करके अखबार के संपादक से पूछा तो पता चला कि संस्कृत हिन्दी के संधि नियमों से उर्दू केआला यानी उच्च और हिन्दी के अधिकारी को जोड़ दिया गया है। लिखना था उच्चाधिकारी, लिख दिया आलाधिकारी। एक बार और भाषात्कार हो गया। ऐसा भाषात्कार करने के बाद भी लोग चाहते हैं कि उन पर गुरुजनों का आशीर्वाद नहीं बल्कि ''आर्शीवाद'' बना रहे।
5 टिप्पणियां:
सही कहा आपने, आशीर्वाद तो बना ही रहना चाहिए।
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सलीम खान का हृदय परिवर्तन हो चुका है।
नारी मुक्ति, अंध विश्वास, धर्म और विज्ञान।
जल्दी से जल्दी भाषा के दरोगाओं के पास इस भाषात्कार की रिपोर्ट लिखा दी जाना चाहिए। बढ़िया व्यंग्य । बधाई।
प्रमोद ताम्बट
भोपाल
www.vyangya.blog.co.in
भाषात्कारी मुर्दाबाद....
सुन्दर! भाषात्कारी मुर्दाबाद! मुर्दाबाद,मुर्दाबाद!!
भाषा के प्रति हमारी उपेक्षापूर्ण असावधानी हमें भाषाविहीन बना देगी।
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