हरिद्वार एक स्नान-प्रधान या कहिये नहान-प्रधान शहर है। यहां दुनिया भर से आस्तिक लोग नहाने आते हैं। जो आस्तिक नहीं हैं वे नहान देखने आते हैं यानी नहाते हुओं को देखने के लिये आते हैं। वे नहानेवालों को देखते हैं। और नहाते हुओं को देखने वालों को भी देखते हैं। दरअसल उन लोगों के लिये नहान के ये मौके देखादेखी के मौके होते हैं।
मीडियाकर्मी देखादेखी के इस कर्म में अग्रणी होते हैं। देखना, गौर से देखना और भीतर तक देखना उनके कर्तव्यों में शामिल है। इसलिये जब वे आते हैं तो पहले हरिद्वार को देखते हैं, फिर यहां के लोगों को देखते हैं, यहां के घाटों को देखते हैं, घाटों के ठाठों को देखते हैं और फिर घाट घाट का पानी पीते हुए वह सब कुछ देखते हैं जिसे देखकर पुण्य मिलता है, नयन-पुण्य मिलता है। इस पुण्य के बदले कभी कभी उन्हें गालियां भी मिलती हैं। पर उन गालियों को फूलहार मानकर वे गले में धारण कर लेते हैं। शिव बनकर गरल पीते हैं और फिर नये सिरे से पुण्य लूटने में मशगूल हो जाते हैं।
अपनेराम ने आज ही एक अखबार में पढ़ा है। एक मीडियाकर्मी इस बात से चिंतित और निराश हैं कि हरिद्वार के कुम्भ में अभी तक उतने नागा यानी निर्वस्त्र साधु नहीं आएं हैं जितने आने चाहिए। नग्नता की कमी पर वे बंधु चिंतित हैं। उनकी चिंता भी स्वाभाविक है और निराशा भी स्वाभाविक है। अगर नागा समाज कम तो कुम्भ जैसे विराट पर्व का क्या होगा। अगर सभी साधु संतों ने कपड़े पहन लिये तो कुम्भ की रिपोर्टिंग नीरस हो जाएगी। फिर ये क्या लिखेंगे और दुनिया जहान को क्या दिखाएंगे। वैसे उन्हें मुग़ालता है कि दुनिया जहान के लोग उनके अखबारों में सिर्फ नंगई पढ़ना और उनके चैनलों पर सिर्फ नंगई देखना चाहते हैं।
पर वे अपने मुग़ालते के चलते न केवल नहाते हुओं को देखते हैं बल्कि दुनिया जहान को भी दिखाते हैं कि देखो हरिद्वार में लोग कैसे नहाते हैं। इसी तरह उनकी नौकरी और उनके चैनलों की टीआरपी बनी रहती है। ऐसा न करें तो भाईलोगों की नौकरी पर बन आए। ऐसा वे कहते हैं।
नहाना स्वच्छता और स्वास्थ्य से जुड़ा मसला है। सारी दुनिया में हाइजीन का बोलबाला है। भारतवासी और भारतवंशी तो सदियों से स्नान के महत्व को समझते रहे हैं इसलिये भारतीय परम्परा में नहाने का जबरदस्त आग्रह है। घर में रोज़ नहाओ, कूंए बावड़ी पर भी कभी कभी नहाओ, पिकनिक मनाने को ही सही, झील झरनों में नहाओ, पुण्य कमाने को नदियों में नहाओ और अगर सागर दर्शन हो जाएं तो वहां भी मत चूको। खारे पानी की चिंता किए बगैर वहां भी डुगकी लगाओ।
इसी परम्परा का निर्वाह हमारे संतों, ऋषि-मुनियों ने किया और पूरे समाज के लिये तय कर दिया कि पुण्य कमाना है तो नहाओ। पर्व तिथियों तीर्थों में जाओ और नदियों में डुबकी लगाओ। पाप हट जाएंगे पुण्य खाते में जुड़ जाएंगे। सो भैया, हरिद्वार में लोग सैकड़ों हज़ारों मील दूर से आ रहे हैं और अपने अपने पाप यहां छोड़ कर पुण्य बटोरकर ले जा रहे हैं। और यह कुम्भ तो नहाने का ही मेला है। तन-मन की मैल धोने का मेला है। कुम्भ में लोगों के तन भले ही गंगाजल से साफ हो जाएं पर मन साफ हो पाएंगे या नहीं, पता नहीं। हां, मीडिया अपना मसाला ज़रूर ढूंढ ही लेगा।
3 टिप्पणियां:
कुछ बरसों बाद नहाने को क्या पीने को भी पाने उपलब्ध नही रहेगा ..तब यह नहाना अपने आप बन्द हो जायेगा ।
मनुष्य का मार्ग और धर्म
पालनहार प्रभु ने मनुष्य की रचना दुख भोगने के लिए नहीं की है। दुख तो मनुष्य तब भोगता है जब वह ‘मार्ग’ से विचलित हो जाता है। मार्ग पर चलना ही मनुष्य का कत्र्तव्य और धर्म है। मार्ग से हटना अज्ञान और अधर्म है जो सारे दूखों का मूल है।
पालनहार प्रभु ने अपनी दया से मनुष्य की रचना की उसे ‘मार्ग’ दिखाया ताकि वह निरन्तर ज्ञान के द्वारा विकास और आनन्द के सोपान तय करता हुआ उस पद को प्राप्त कर ले जहाँ रोग,शोक, भय और मृत्यु की परछाइयाँ तक उसे न छू सकें। मार्ग सरल है, धर्म स्वाभाविक है। इसके लिए अप्राकृतिक और कष्टदायक साधनाओं को करने की नहीं बल्कि उन्हें छोड़ने की ज़रूरत है।
ईश्वर प्राप्ति सरल है
ईश्वर सबको सर्वत्र उपलब्ध है। केवल उसके बोध और स्मृति की ज़रूरत है। पवित्र कुरआन इनसान की हर ज़रूरत को पूरा करता है। इसकी शिक्षाएं स्पष्ट,सरल हैं और वर्तमान काल में आसानी से उनका पालन हो सकता है। पवित्र कुरआन की रचना किसी मनुष्य के द्वारा किया जाना संभव नहीं है। इसके विषयों की व्यापकता और प्रामाणिकता देखकर कोई भी व्यक्ति आसानी से यह जान सकता है कि इसका एक-एक शब्द सत्य है।
आधुनिक वैज्ञानिक खोजों के बाद भी पवित्र कुरआन में वर्णित कोई भी तथ्य गलत नहीं पाया गया बल्कि उनकी सत्यता ही प्रमाणित हुई है। कुरआन की शब्द योजना में छिपी गणितीय योजना भी उसकी सत्यता का एक ऐसा अकाट्य प्रमाण है जिसे कोई भी व्यक्ति जाँच परख सकता है।
प्राचीन धर्म का सीधा मार्ग
ईश्वर का नाम लेने मात्र से ही कोई व्यक्ति दुखों से मुक्ति नहीं पा सकता जब तक कि वह ईश्वर के निश्चित किये हुए मार्ग पर न चले। पवित्र कुरआन किसी नये ईश्वर,नये धर्म और नये मार्ग की शिक्षा नहीं देता। बल्कि प्राचीन ऋषियों के लुप्त हो गए मार्ग की ही शिक्षा देता है और उसी मार्ग पर चलने हेतु प्रार्थना करना सिखाता है।
‘हमें सीधे मार्ग पर चला, उन लोगों का मार्ग जिन पर तूने कृपा की।’ (पवित्र कुरआन 1:5-6)
ईश्वर की उपासना की सही रीति
मनुष्य दुखों से मुक्ति पा सकता है। लेकिन यह इस पर निर्भर है कि वह ईश्वर को अपना मार्गदर्शक स्वीकार करना कब सीखेगा? वह पवित्र कुरआन की सत्यता को कब मानेगा? और सामाजिक कुरीतियों और धर्मिक पाखण्डों का व्यवहारतः उन्मूलन करने वाले अन्तिम सन्देष्टा हज़रत मुहम्मद (स.) को अपना आदर्श मानकर जीवन गुज़ारना कब सीखेगा?
सर्मपण से होता है दुखों का अन्त
http://hamarianjuman.blogspot.com/2010/02/quran-math-ii.html
बच्चा जब जन्म लेता है तो वो नंगा होता है,चाहे जो देखे...बाद में देखने वाले की सोच है अब देखें तो देखें क्या गलत है?...
एक टिप्पणी भेजें