कुम्भनगर में साधुसंतों के अखाड़ों का पहला शाही स्नान आज सकशल निबट ही गया। सच तो यह है कि प्रशासन महसूस रहा है कि उसकी जान बची और उसने लाखों पाए। संयोग ऐसा कि आज लाखों स्नानार्थी भी आए और किस्मत से जान बची के भी लाखों पाए प्रशासन ने। आज दोनों हाथों में लड्डू हैं अफ़सरों के। मध्यलिंगी उनके देहरी द्वार पर कल बधाइयां गाने की तैयारी में हैं।
बड़ी खुशी की बात है कि आज वे लोग नहाने पर नहीं लड़े। कहीं भी नहीं अड़े। सब नहाए, मिलकर नहाए, हिलमिलकर नहाए, गलबहियां डालकर नहाए, प्रेम से नहाए, हंस हंस के नहाए, जयकारे लगाके नहाए, कपड़ों में नहाए और बिना कपड़ों भी नहाए। वे नहाए और लोगों ने देखा कि वे नहा रहे हैं। कैमरों ने देखा कि वे नहा रहे हैं। संन्यासियों ने देखा कि संन्यासी नहा रहे हैं और गृहस्थों ने भी देखा कि संन्यासी नहा रहे हैं। इतना ही नहीं उत्साही गृहस्थों ने तो संन्यासियों के साथ गंगा में छलांग लगाई। पुलिस ने, प्रशासन ने बड़ी नाकेबन्दी कर रखी थी कि संन्यासियों के संग गृहस्थी न नहाएं पर वह सब नाकेबन्दी और हिदायतें धरी की धरी रह गई। गृहस्थी तो नहाए और खूब नहाए। जिन्हें अंगसंग लगके नहाना था वे तो जमके नहाए। अब किसी को यह बात सुहाए या किसी को न भाए पर जोगियों के संग भोगी तो गंगा नहाए। इतना ही नहीं कई भोगियों ने कई जोगियों को नहलाया। हर-हर गाया और मल-मल नहलाया।
सवाल ये पूछा जा रहा है कि कौन से भोगी नहाए। तो भैया, जिस भोगी पर जोगी की कृपा हो गई वह शाही जुलूस में शामिल हो गया और जिसने जोगी को रजत-प्रणाम नहीं किये वह महरूम हो गया जोगी के साथ नहाने से। रजत-प्रणामों का प्रभाव बढ़ रहा है इसीलिये साधुओं की शाहियों में गृहस्थियों की तादाद बढ़ रही है। आज भी हरकी पौड़ी पर जोगी कम थे भोगी ज्यादा थे। शाहियों में संतों के भगवे रंग पर गृहस्थियों का रंगबिरंगापन ज्यादा हावी था।
अपनेराम की चिंता ये है कि रजत-दानियों और रजत- परिवारों का वर्चस्व जिस तरह जोगियों पर बढ़ रहा है उससे तो लगता है कि आने वाले कुम्भों में अमृत उन्हींको मिलेगा जिनकी अंटी में सिक्के होंगे। वही हरकी पौड़ी नहाएंगे जिन्होंने गुरुचरणों में भेंट चढ़ाई है। जो बेचारे हैं, भले ही वे संख्या में भारी हैं पर पुलिस और प्रशासन भी उन्हीं पर भारी है। हरकी पौड़ी के सामने होगी पर वे नहा न पाएंगे, बल्कि दूर, बहुत दूर हकाले जाएंगे। वे कहां नहाएंगे, न उन्हें पता है न शाहियां नहलाने वाले प्रशासन को।
शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010
संग संग नहाए जोगी और भोगी
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 5:45 am
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7 टिप्पणियां:
sahi jagah par prahaar kiya hain aapne
sahi jagah par prahaar kiya hain aapne
ये साले हरिद्वार के क्या और दीगर तीर्थों के क्या, भोगियों से ही तो जोग भिड़ाते हैं। फिर दारू पीकर मर जाते है...जय गंगा मैया, जय अखाड़े, जय भस्म और सारी नैतिकता-धर्म हज्म।
ओंकार, ओंकार
(पहले डकार)
व्यंग्य के जरिए कुंभ के बदलते स्वरूप पर चिंता धारदार बन पड़ी है। हरिद्वार के ही पिछले कुंभ में यह कॉमरेड भी लाल झंडा और लाल वस्त्र धारियों के साथ ब्राहृकुंड पर नहा कर पुण्य कमा चुका है, रजत प्रणाम कर नहीं, कुछ प्रभावशालियों के साथ अखाड़े में जगह पाकर, निश्चित ही सेवक की संज्ञा के साथ यह अवसर मिला था। संतों की सेवा में थे, सो नहान पर्व पर आम लोगों से अलग विशिष्ट होने का सुख भी मिला। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि पुण्य इतना मिला है कि दूसरे कुंभ में जाने की जरूरत महसूस नहीं हुई। बहरहाल, मुद्दा वही है जिस ओर आपने इशारा किया है। रजत-प्रमाम अथवा किसी और तरीके से अखाड़ों के करीब पहुंचे लोग नहान पर्वों पर बढ़ते जा रहे हैं, और इसी के साथ वह लोग भी आबादी के साथ बढ़ रहे हैं, जो मालवीय द्वीप भी नहीं, बल्कि किसी सुदूर घाट पर ही डुबकी लगा पाते हैं। क्या सुरक्षा और हर की पैड़ी पर दबाव कम करने के लिए जरूरी नहीं है कि यह देखा जाय कि स्नान पर्व पर साधुओं के शाही स्नान में पहले से तय लोग ही प्रवेश कर सकें। यह सवाल उठाकर पुण्य कमाने के नैसर्गिक अधिकार पर चोट किया जा रहा है। फिर भी धर्म में सरकार और प्रशासन पहले से ही घुसा है, तो यह सवाल भी क्यों नहीं? prabhat ojha
व्यंग्य के जरिए कुंभ के बदलते स्वरूप पर चिंता धारदार बन पड़ी है। हरिद्वार के ही पिछले कुंभ में यह कॉमरेड भी लाल झंडा और लाल वस्त्र धारियों के साथ ब्राहृकुंड पर नहा कर पुण्य कमा चुका है, रजत प्रणाम कर नहीं, कुछ प्रभावशालियों के साथ अखाड़े में जगह पाकर, निश्चित ही सेवक की संज्ञा के साथ यह अवसर मिला था। संतों की सेवा में थे, सो नहान पर्व पर आम लोगों से अलग विशिष्ट होने का सुख भी मिला। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि पुण्य इतना मिला है कि दूसरे कुंभ में जाने की जरूरत महसूस नहीं हुई। बहरहाल, मुद्दा वही है जिस ओर आपने इशारा किया है। रजत-प्रमाम अथवा किसी और तरीके से अखाड़ों के करीब पहुंचे लोग नहान पर्वों पर बढ़ते जा रहे हैं, और इसी के साथ वह लोग भी आबादी के साथ बढ़ रहे हैं, जो मालवीय द्वीप भी नहीं, बल्कि किसी सुदूर घाट पर ही डुबकी लगा पाते हैं। क्या सुरक्षा और हर की पैड़ी पर दबाव कम करने के लिए जरूरी नहीं है कि यह देखा जाय कि स्नान पर्व पर साधुओं के शाही स्नान में पहले से तय लोग ही प्रवेश कर सकें। यह सवाल उठाकर पुण्य कमाने के नैसर्गिक अधिकार पर चोट किया जा रहा है। फिर भी धर्म में सरकार और प्रशासन पहले से ही घुसा है, तो यह सवाल भी क्यों नहीं?
उम्दा..
पढकर अपनी पीठ ठोकी। कुम्भ स्नान के लिए हरिदृवार न जाने के अपने निर्णय पर गुमान हो आया। मन चंगा तो अपने घर में ही गंगा।
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