शुक्रवार, 26 मार्च 2010

हर खंभे पर बाबा जी हैं

हरिद्वार में कुम्‍भ चल रहा है। चारों तरफ रौनक ही रौनक है। सारा कुम्‍भनगर रंगबिरंगे पोस्‍टरों, बैनरों, होर्डिंगों और क्‍योस्‍कों से पट गया है। हर खम्‍भे पर बाबा जी है। खम्‍भा चाहे टेलीफोन का हो या बिजली का, ‍ या फिर किसी शामियाने का ही क्‍यों न हो, सब खम्‍भों पर स्‍वामी जी ही बिराजमान हैं। जो ज्‍यादा समर्थ हैं वे बैनरों पर उड़ रहे हैं। उनसे ज्‍यादा समर्थों ने बड़े बडे़ होर्डिंग्‍स लगाकर उतनी जगह घेर रखी है जितनी अपने शिविरों के लिये भी नहीं घेरी।
बाबाओं के रंगबिरंगे पोस्‍टर देखकर, उनकी इगारते पढ़कर अब यह विश्‍वास अपनेराम को भी हो चला है कि महाकुम्‍भ का मेला निबटते निबटते उन सबके दैहिक, दैविक और भौतिक तापों का हरण तो निश्‍चय ही हो जाएगा जो बाबा जी तक पहुंचकर आशीष ले चुके होंगे। इस विश्‍वास का कारण है बाबा लोगों की मोहिनी छवि। तस्‍वीरों में देखो तो आशीषमुद्रा में है और सबकी मुद्रा मुस्‍कानमुद्रा है। सब आपके दुखभंजक हैं और सभी आपके लिये करुणानिधान हैं। वे आपके कष्‍टों का हरण करने के लिए आतुर हैं। वे आठों याम अपने कुम्‍भ शिविर में सिर्फ आपके लिये तत्‍पर हैं। आप वहां अन्‍दर गए और आपके सारे दुखदर्द बाहर हुए।
बाबा लोग कई तरह के हैं। कुछ अकेले हैं तो कुछ अपने गुरू के साथ फोटू खिंचवाकर खम्‍भासीन हैं। कुछेक बाबाओं के साथ बाबिया भी हैं। वे भी उसी दुखभंजक मुद्रा में हैं। चंद बाबा लोग फॉरेन रिटर्न्‍ड हैं। उनका बॉबी-भण्‍डार विपुल है। उनके आगे पीछे, दाएं बाएं सर्वत्र बॉबियां ही बॉबियां हैं। उनका रोगदाब कुछ अलग ही है। रजतछत्र, रजत-चंवर, रजत दण्‍ड और इस तामझाम के बीच गेरुए में बाबा। काले कपड़ों में उन्‍हें घेरे विदेष्शी कमाण्‍डो दस्‍ता। लगता है मानों विदेशी धरती पर भारत ने कब्‍जा करके किसी भगवावस्‍त्रधारी को राष्‍ट्राध्‍यक्ष बना दिया है। विश्‍वास गहराने लगता है कि अपना देश विश्‍वगुरु था, है और विश्‍वगुरु ही रहेगा। भले ही अपने देश के भीतर सौ-डेढ़ सौ जगद्गुरु और भी क्‍यों न पैदा हो जाएं।
भारतवर्ष की मिट्टी बड़ी उपजाऊ है। ख़ासकर धर्म के लिये बड़ी उपजाऊ है। और कुछ हो न हो यहां, धर्म की फ़सल हमेशा लहलहाती रहती है। यह देश जनता का कभी हो न हो, साधु-साध्वियों का हमेशा बना रहता है। यहां अकेला मुख्‍यमंत्री नहीं, उसका सारा मंत्रिमण्‍डल भगवे और गेरुए के आगे साष्‍टांग नतमस्‍तक रहता है, भले ही विपक्षी उसकी कितनी ही टांग खींचते रहें।
यह दृश्‍य देखने हों तो पधारो म्‍हारा देस। आप आते ही केसरिया बालम न बना दिए गए तो बात है। दरअसल बाबा नाम में ही जादू है। वह कपड़ों में मिले तो जादू करता है और बिना कपड़ों के मिले तो उससे भी बड़ा जादू करता है। दरअसल हमारा देश या तो कपड़े वालों को मानता है या फिर नंगों को। अधनंगों के लिये अपने यहां कोई जगह नहीं है। कुम्‍भ की बात करें तो यहां एक ही वर्ग में दोनों म़जे हैं। सवस्‍त्र ही निर्वस्‍त्र हैं और निर्वस्‍त्र ही अस्‍त्र हैं आप और हम जैसों के लियेा तो भाई अपने को तो साष्‍टांग प्रणिपात करना ही है इन खम्‍भानशीन बाबाओं के आगे।

गुरुवार, 4 मार्च 2010

चौथा शाही स्‍नान क्‍यों

हरिद्वार में चल रहे महाकुम्भ को लेकर एक ताज़ा समझौता साधु-संतों के तेरह अखाड़ों की परिषद् तथा कुम्भ प्रशासन के बीच हुआ है। इस समझौते के मुताबिक तेरहों अखाड़े 15 मार्च के सोमवती अमावस्या और 14 अप्रैल के मुख्य कुम्भ स्नान के बीच में 30 मार्च को एक और स्नान करेंगे और प्रशासन इस स्नान को भी ‘‘शाही स्नान’’ का दर्जा देगा।
सामान्यतया हरिद्वार में कोई साधु-संन्यासी अथवा कोई गृहस्थी कितनी ही बार अकेले या समूह में आकर गंगास्नान कर सकता है। यह उसका नितांत निजी मामला है। उसे पूरा अधिकार है कि वह चाहे जितनी बार गंगा नहाए। पर अगर उसके गंगा नहाने से किसी और के अधिकारों का हनन होता है तो फिर यह बात चिंता के घेरे में आ जाती है। अखाड़ों और प्रशासन के इस ताज़े फैसले से कुछ ऐसा ही हुआ है जिस पर चिंता, चिन्तन और पुनर्विचार की आवश्यकता है। दोनों पक्षों ने मिलकर यह एक ऐसा फैसला ले लिया है जो परम्परा-सम्मत तो है ही नहीं, परम्पराभंजन और जनाधिकार विरोधी भी है।
कुम्भ कहीं भी आयोजित हो वह परम्पराओं के दायरे में रहकर आयोजित किया जाता है। हमारा पूजनीय साधुसमाज भी परम्परागत रीति-रिवाज़ों की दुहाई देते हुए ही कुम्भ के सारे कार्य संपन्न करता और करवाता है। कुम्भ के सन्दर्भ में शासन और प्रशासन भी हिन्दुओं के इस महापर्व की परम्परिकता के रक्षण के लिए हमेशा से वचनबद्ध रहता आया है। इसमें कोई आपत्तिजनक बात है भी नहीं और सामान्यजन भी इस परम्परा निर्वाह के साथ बड़ी श्रद्धा से जुड़ते आए हैं।
हरिद्वार के सन्दर्भ में देखें तो शाही स्नान की यह परम्परा महाशिवरात्रि और चैत्र अमावस्या सहित मुख्य कुम्भपर्व पर शाही स्नान की है। पहला शाही स्नान केवल संन्यासी अखाड़े करते हैं और बाद के दोनों स्नानों पर तेरहों अखाड़े अपने अपने क्रम से गंगा स्नान करते हैं। सैकड़ों बरसों से यहां इन्हीं तीन शाही स्नानों की परम्परा चलती आ रही है। इसके अलावा कुम्भ स्नान के बाद वैशाखी पूर्णिमा के दिन बैरागियों की जमात के द्वारा गंगास्नान करने की परम्परा भी रही है, पर स्नान शाही स्नान की कोटि में नहीं माना जाता है।
शाही स्नान के दिन हरिद्वार के मुख्य और अमृत-पावन माने जाने वाले स्नान स्थल हरकी पौड़ी पर साधु-संतों के तेरहों अखाड़े बाजेगाजे के साथ आकर गंगास्नान करते हैं। स्नान दिवस पर करीब लगभग आठ-दस घण्टों के लिए हरकी पौड़ी ब्रह्मकुण्ड पर सामान्य श्रद्धालु तीर्थयात्री को न जाने दिया जाता है और न नहाने दिया जाता है। जो व्यक्ति हज़ारों मील चलकर और हज़ारों रुपए खर्च करके यात्रा के सारे कष्ट और असुविधाएं झेलता हुआ हरिद्वार आता है वह सदियों से चली आ रही इस परम्परा के चलते हरकी पौड़ी पर स्नान करने से वंचित रह जाता है। उसे परम्परा और श्रद्धा के चलते कोई शिकायत नहीं होती।
पर इस बरस तो कुछ नया ही हो रहा है। कुम्भ के शाही स्नानों में एक और शाही स्नान की बढ़ोत्री करके सामान्य श्रद्धालुओं का अधिकार छीना जा रहा है। अनेक साधुसंत भी इस निर्णय से व्यथित हैं क्योंकि वे इसे सरासर परंपराभंजन मानते हैं। लोगों का मानना है कि अखाडत्रा परिशद् और कुम्भ प्रशासन का यह निर्णय जनता को ध्यान में रखकर लिया गया निर्णय नहीं है। यदि यह निर्णय लेने से पहले आम जनता हरकी पौड़ी स्नान की की इच्छा-आकांक्षा और भावनाओं का ख़याल रखा होता तो यह परम्पराविरोधी निर्णय न लिया जाता।
कुछ लोग इस निर्णय को नवयुग की नई परम्परा का बीजारोपण कह रहे हैं। ऐसे लोगों को इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करके तथा हज़ारों शासकीय कर्मचारियों के कार्यदिवस खर्च करके की जाने वाली व्यवस्थाएं केवल तीस चालीस हज़ार साघुओं के लिए ही नहीं बल्कि लाखों करोड़ों श्रद्धालुओं के लिए की जाती हैं।
अखाड़ा परिषद् को अगर नई परम्परा षुरू करनी ही थी तो वह सोमवती अमावस्या का शाही स्नान आम जनता को समर्पित करके कुम्भ का वास्तविक पुण्यार्जन करती। नई परम्परा ही शुरू करनी थी तो इक्कीसवीं सदी में भी विवस्त्र नागाओं गंगास्नान पर चिंतन के साथ करती। कुम्भ को नया रूप ही देना था तो उसे जनोन्मुखी बनाने की सोचते। शाहों-शहंशाहों के बीते युग के शाही स्नान की जगह नये फ़कीरी स्नान की परम्परा डालते। पर ऐसा सब कुछ अगर नहीं हो सकता था तो कमसे कम यह जनविरोधी निर्णय तो न लेते।

सोमवार, 1 मार्च 2010

होली 2010

 

हरिद्वारी दोहे

आसमान के गाल पर मलती धरा गुलाल,

धरा गगन दोनों हुए होली खेल निहाल ।।

आसमान खूलकर हंसा, धरती हुई निहाल।

जब धरती के गाल पर नभ ने मला गुलाल।।

सतरंगी चूनर  हुई बहुरंगी  सब अंग,

हर मन में बजने लगे ढोलक और म़ृदंग ।।

ऐसी भंग छकी है प्रिय ने, सब कुछ है बदरंग,

रसिया बेसुर गा रहे, बेताला है चंग ।।

हरिद्वार  के घाट पर ठण्‍डाई के रंग,

गोरी आंख तरेरती, पिया भंग के संग।।

दो कुण्‍डलियां

अफ़सर सब नौकर हुए, साधु सत्‍तासीन।

महाकुम्‍भ के घाट का यह मनभावन सीन।।

यह मनभावन सीन, सिर्फ ग़मगीन प्रजा है,

गंगातट के वासी को तो कुम्‍भ सज़ा है।

मित्र पुलिस के अंकुश से सहमी जनता है,

मेले वाले दिन उसकी ना कोई सुनता है।।

तन पर भस्‍म लपेटकर वे रहते निर्वस्‍त्र,

काम कामिनी के कहां चलते उन पर अस्‍त्र।

चलते उन पर अस्‍त्र, देव उनके त्रिपुरारी,

कुम्‍भकाल में वे पड़ते हैं सब पर भारी।

इसलिये हरिद्वार में संतों का अब फाग,

सत्‍ता शासन सब करें, संतों से अनुराग।।

रंगपर्व की इन्‍द्रधनुषी बधाइयों और मंगलकामनाओं के साथ -

सादर,

डॉ. कमलकान्‍त बुधकर

एवम् समस्‍त बुधकर परिवार

kk@budhkar.in

http://yadaa-kadaa.blogspot.com