हरिद्वार में कुम्भ चल रहा है। चारों तरफ रौनक ही रौनक है। सारा कुम्भनगर रंगबिरंगे पोस्टरों, बैनरों, होर्डिंगों और क्योस्कों से पट गया है। हर खम्भे पर बाबा जी है। खम्भा चाहे टेलीफोन का हो या बिजली का, या फिर किसी शामियाने का ही क्यों न हो, सब खम्भों पर स्वामी जी ही बिराजमान हैं। जो ज्यादा समर्थ हैं वे बैनरों पर उड़ रहे हैं। उनसे ज्यादा समर्थों ने बड़े बडे़ होर्डिंग्स लगाकर उतनी जगह घेर रखी है जितनी अपने शिविरों के लिये भी नहीं घेरी।
बाबाओं के रंगबिरंगे पोस्टर देखकर, उनकी इगारते पढ़कर अब यह विश्वास अपनेराम को भी हो चला है कि महाकुम्भ का मेला निबटते निबटते उन सबके दैहिक, दैविक और भौतिक तापों का हरण तो निश्चय ही हो जाएगा जो बाबा जी तक पहुंचकर आशीष ले चुके होंगे। इस विश्वास का कारण है बाबा लोगों की मोहिनी छवि। तस्वीरों में देखो तो आशीषमुद्रा में है और सबकी मुद्रा मुस्कानमुद्रा है। सब आपके दुखभंजक हैं और सभी आपके लिये करुणानिधान हैं। वे आपके कष्टों का हरण करने के लिए आतुर हैं। वे आठों याम अपने कुम्भ शिविर में सिर्फ आपके लिये तत्पर हैं। आप वहां अन्दर गए और आपके सारे दुखदर्द बाहर हुए।
बाबा लोग कई तरह के हैं। कुछ अकेले हैं तो कुछ अपने गुरू के साथ फोटू खिंचवाकर खम्भासीन हैं। कुछेक बाबाओं के साथ बाबिया भी हैं। वे भी उसी दुखभंजक मुद्रा में हैं। चंद बाबा लोग फॉरेन रिटर्न्ड हैं। उनका बॉबी-भण्डार विपुल है। उनके आगे पीछे, दाएं बाएं सर्वत्र बॉबियां ही बॉबियां हैं। उनका रोगदाब कुछ अलग ही है। रजतछत्र, रजत-चंवर, रजत दण्ड और इस तामझाम के बीच गेरुए में बाबा। काले कपड़ों में उन्हें घेरे विदेष्शी कमाण्डो दस्ता। लगता है मानों विदेशी धरती पर भारत ने कब्जा करके किसी भगवावस्त्रधारी को राष्ट्राध्यक्ष बना दिया है। विश्वास गहराने लगता है कि अपना देश विश्वगुरु था, है और विश्वगुरु ही रहेगा। भले ही अपने देश के भीतर सौ-डेढ़ सौ जगद्गुरु और भी क्यों न पैदा हो जाएं।
भारतवर्ष की मिट्टी बड़ी उपजाऊ है। ख़ासकर धर्म के लिये बड़ी उपजाऊ है। और कुछ हो न हो यहां, धर्म की फ़सल हमेशा लहलहाती रहती है। यह देश जनता का कभी हो न हो, साधु-साध्वियों का हमेशा बना रहता है। यहां अकेला मुख्यमंत्री नहीं, उसका सारा मंत्रिमण्डल भगवे और गेरुए के आगे साष्टांग नतमस्तक रहता है, भले ही विपक्षी उसकी कितनी ही टांग खींचते रहें।
यह दृश्य देखने हों तो पधारो म्हारा देस। आप आते ही केसरिया बालम न बना दिए गए तो बात है। दरअसल बाबा नाम में ही जादू है। वह कपड़ों में मिले तो जादू करता है और बिना कपड़ों के मिले तो उससे भी बड़ा जादू करता है। दरअसल हमारा देश या तो कपड़े वालों को मानता है या फिर नंगों को। अधनंगों के लिये अपने यहां कोई जगह नहीं है। कुम्भ की बात करें तो यहां एक ही वर्ग में दोनों म़जे हैं। सवस्त्र ही निर्वस्त्र हैं और निर्वस्त्र ही अस्त्र हैं आप और हम जैसों के लियेा तो भाई अपने को तो साष्टांग प्रणिपात करना ही है इन खम्भानशीन बाबाओं के आगे।
शुक्रवार, 26 मार्च 2010
हर खंभे पर बाबा जी हैं
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 2:45 am
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3 टिप्पणियां:
बाबाओ वाली कला ब्लॉगरों को भी सीखनी होगी। अपनानी होगी।
बाबाओ वाली कला ब्लॉगरों को भी सीखनी होगी। अपनानी होगी।
इतने बाबाओं के होते हुए देश की ये दशा !!
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