गुरुवार, 4 मार्च 2010

चौथा शाही स्‍नान क्‍यों

हरिद्वार में चल रहे महाकुम्भ को लेकर एक ताज़ा समझौता साधु-संतों के तेरह अखाड़ों की परिषद् तथा कुम्भ प्रशासन के बीच हुआ है। इस समझौते के मुताबिक तेरहों अखाड़े 15 मार्च के सोमवती अमावस्या और 14 अप्रैल के मुख्य कुम्भ स्नान के बीच में 30 मार्च को एक और स्नान करेंगे और प्रशासन इस स्नान को भी ‘‘शाही स्नान’’ का दर्जा देगा।
सामान्यतया हरिद्वार में कोई साधु-संन्यासी अथवा कोई गृहस्थी कितनी ही बार अकेले या समूह में आकर गंगास्नान कर सकता है। यह उसका नितांत निजी मामला है। उसे पूरा अधिकार है कि वह चाहे जितनी बार गंगा नहाए। पर अगर उसके गंगा नहाने से किसी और के अधिकारों का हनन होता है तो फिर यह बात चिंता के घेरे में आ जाती है। अखाड़ों और प्रशासन के इस ताज़े फैसले से कुछ ऐसा ही हुआ है जिस पर चिंता, चिन्तन और पुनर्विचार की आवश्यकता है। दोनों पक्षों ने मिलकर यह एक ऐसा फैसला ले लिया है जो परम्परा-सम्मत तो है ही नहीं, परम्पराभंजन और जनाधिकार विरोधी भी है।
कुम्भ कहीं भी आयोजित हो वह परम्पराओं के दायरे में रहकर आयोजित किया जाता है। हमारा पूजनीय साधुसमाज भी परम्परागत रीति-रिवाज़ों की दुहाई देते हुए ही कुम्भ के सारे कार्य संपन्न करता और करवाता है। कुम्भ के सन्दर्भ में शासन और प्रशासन भी हिन्दुओं के इस महापर्व की परम्परिकता के रक्षण के लिए हमेशा से वचनबद्ध रहता आया है। इसमें कोई आपत्तिजनक बात है भी नहीं और सामान्यजन भी इस परम्परा निर्वाह के साथ बड़ी श्रद्धा से जुड़ते आए हैं।
हरिद्वार के सन्दर्भ में देखें तो शाही स्नान की यह परम्परा महाशिवरात्रि और चैत्र अमावस्या सहित मुख्य कुम्भपर्व पर शाही स्नान की है। पहला शाही स्नान केवल संन्यासी अखाड़े करते हैं और बाद के दोनों स्नानों पर तेरहों अखाड़े अपने अपने क्रम से गंगा स्नान करते हैं। सैकड़ों बरसों से यहां इन्हीं तीन शाही स्नानों की परम्परा चलती आ रही है। इसके अलावा कुम्भ स्नान के बाद वैशाखी पूर्णिमा के दिन बैरागियों की जमात के द्वारा गंगास्नान करने की परम्परा भी रही है, पर स्नान शाही स्नान की कोटि में नहीं माना जाता है।
शाही स्नान के दिन हरिद्वार के मुख्य और अमृत-पावन माने जाने वाले स्नान स्थल हरकी पौड़ी पर साधु-संतों के तेरहों अखाड़े बाजेगाजे के साथ आकर गंगास्नान करते हैं। स्नान दिवस पर करीब लगभग आठ-दस घण्टों के लिए हरकी पौड़ी ब्रह्मकुण्ड पर सामान्य श्रद्धालु तीर्थयात्री को न जाने दिया जाता है और न नहाने दिया जाता है। जो व्यक्ति हज़ारों मील चलकर और हज़ारों रुपए खर्च करके यात्रा के सारे कष्ट और असुविधाएं झेलता हुआ हरिद्वार आता है वह सदियों से चली आ रही इस परम्परा के चलते हरकी पौड़ी पर स्नान करने से वंचित रह जाता है। उसे परम्परा और श्रद्धा के चलते कोई शिकायत नहीं होती।
पर इस बरस तो कुछ नया ही हो रहा है। कुम्भ के शाही स्नानों में एक और शाही स्नान की बढ़ोत्री करके सामान्य श्रद्धालुओं का अधिकार छीना जा रहा है। अनेक साधुसंत भी इस निर्णय से व्यथित हैं क्योंकि वे इसे सरासर परंपराभंजन मानते हैं। लोगों का मानना है कि अखाडत्रा परिशद् और कुम्भ प्रशासन का यह निर्णय जनता को ध्यान में रखकर लिया गया निर्णय नहीं है। यदि यह निर्णय लेने से पहले आम जनता हरकी पौड़ी स्नान की की इच्छा-आकांक्षा और भावनाओं का ख़याल रखा होता तो यह परम्पराविरोधी निर्णय न लिया जाता।
कुछ लोग इस निर्णय को नवयुग की नई परम्परा का बीजारोपण कह रहे हैं। ऐसे लोगों को इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करके तथा हज़ारों शासकीय कर्मचारियों के कार्यदिवस खर्च करके की जाने वाली व्यवस्थाएं केवल तीस चालीस हज़ार साघुओं के लिए ही नहीं बल्कि लाखों करोड़ों श्रद्धालुओं के लिए की जाती हैं।
अखाड़ा परिषद् को अगर नई परम्परा षुरू करनी ही थी तो वह सोमवती अमावस्या का शाही स्नान आम जनता को समर्पित करके कुम्भ का वास्तविक पुण्यार्जन करती। नई परम्परा ही शुरू करनी थी तो इक्कीसवीं सदी में भी विवस्त्र नागाओं गंगास्नान पर चिंतन के साथ करती। कुम्भ को नया रूप ही देना था तो उसे जनोन्मुखी बनाने की सोचते। शाहों-शहंशाहों के बीते युग के शाही स्नान की जगह नये फ़कीरी स्नान की परम्परा डालते। पर ऐसा सब कुछ अगर नहीं हो सकता था तो कमसे कम यह जनविरोधी निर्णय तो न लेते।

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