शंकराचार्य तो सुने थे पर पार्वत्याचार्य ? आपने सुने कभी ? चलिये मैं सुनाता हूं आपको किस्सा-ए-पार्वत्याचार्य। पहले आप मुझसे उस मकर संक्रांति की बधाई लें जिसके शुभअवसर पर पार्वत्याचार्य अस्तित्व में आ गईं। और फिर सुनें कि आज कनखल हरिद्वार के गंगाकिनारे के एक आश्रम में एक ही अखाड़े की एक संन्यासिनी ने दूसरी संन्यासिनी को शंकराचार्य की तर्ज़ पर पार्वत्याचार्य की उपाधि प्रदान करते हुए चांदी का दण्ड-कमण्डल थमा दिया। फिर नई नई पार्वत्याचार्य ने घोषणा कर दी कि कनखल में पार्वत्याचार्य की मुख्य पीठ होगी और अब वह देशभर में चार पीठ और बनाकर साधुसमाज में महिलाओं की प्रतिष्ठावृद्धि के लिये प्रयास करेंगी।
वे जब यह घोषणा कर रही थीं तब इन संन्यासिनियों के अपने अखाड़े समेत शेष साधुओं के तेरहों अखाड़ों के प्रतिनिधि उस पूरे आयोजन का विरोध करने लिए आश्रम के दरवाज़े पर डटे थे। साधु बाहर हंगामा कर रहे थे और अगर पुलिस न होती तो आश्रम के भीतर भी हंगामा हो ही जाता ।
यूं तो यह घटना एक आश्रम के कमरे में घटी पर इसने हरिद्वार के साधु समाज में बवण्डर ला दिया है। पिछले पांच चार दिनों से अखबार रंगे पड़े हैं और टीवी चैनलों पर यह खबर गर्म है कि सारा साधु समाज अपनी ही संन्यासिनियों के विरोध में एक हो गया है। उनका तर्क है कि शंकराचार्य पद की तो सैकड़ों बरसों की सुपुष्ट परम्परा है। पार्वत्याचार्य की कोई परम्परा नहीं है और किसी एक के उपाधि देने या दूसरे के ले लेने भर से कोई नया पद सृजित नहीं हो सकता। यह धर्म और धार्मिक परम्पराओं के साथ खिलवाड़ है।
दूसरा पक्ष कहता है कि यह तो नारी के सम्मान का मामला है। अगर किसी संन्यासिनी ने धर्मप्रसार के लिये उल्लेखनीय कार्य किये हैं और कोई उस स्त्री-संन्यासिनी का सम्मान करना चाहता है तो आपत्ति क्यों है। और परम्पराएं कभी न कभी तो शुरू होती ही हैं। शंकराचार्य की परम्परा भी तो आचार्य शंकर से ही शुरू हुई है उनके पहले कहां थी यह ? फिर आज अगर पार्वत्याचार्य की परम्परा की नींव पड़ रही है तो आपत्ति क्यों ?
अब यह प्रश्न सारे समाज के लिए विचारणीय है । इसकी पूरी चर्चा मैं अपने ब्लॉग जगत में करना चाहता हूं पर सोचता हूं कि क्या ब्लॉगर बंधु इस विषय को जो धर्म से जुड़ा है विचारणीय ? इस विषय ढेर सारी रोचक सामग्री है क्या वे उसमें रुचि लेंगे ? उत्तर मिले तो आगे बढूं ।
वे जब यह घोषणा कर रही थीं तब इन संन्यासिनियों के अपने अखाड़े समेत शेष साधुओं के तेरहों अखाड़ों के प्रतिनिधि उस पूरे आयोजन का विरोध करने लिए आश्रम के दरवाज़े पर डटे थे। साधु बाहर हंगामा कर रहे थे और अगर पुलिस न होती तो आश्रम के भीतर भी हंगामा हो ही जाता ।
यूं तो यह घटना एक आश्रम के कमरे में घटी पर इसने हरिद्वार के साधु समाज में बवण्डर ला दिया है। पिछले पांच चार दिनों से अखबार रंगे पड़े हैं और टीवी चैनलों पर यह खबर गर्म है कि सारा साधु समाज अपनी ही संन्यासिनियों के विरोध में एक हो गया है। उनका तर्क है कि शंकराचार्य पद की तो सैकड़ों बरसों की सुपुष्ट परम्परा है। पार्वत्याचार्य की कोई परम्परा नहीं है और किसी एक के उपाधि देने या दूसरे के ले लेने भर से कोई नया पद सृजित नहीं हो सकता। यह धर्म और धार्मिक परम्पराओं के साथ खिलवाड़ है।
दूसरा पक्ष कहता है कि यह तो नारी के सम्मान का मामला है। अगर किसी संन्यासिनी ने धर्मप्रसार के लिये उल्लेखनीय कार्य किये हैं और कोई उस स्त्री-संन्यासिनी का सम्मान करना चाहता है तो आपत्ति क्यों है। और परम्पराएं कभी न कभी तो शुरू होती ही हैं। शंकराचार्य की परम्परा भी तो आचार्य शंकर से ही शुरू हुई है उनके पहले कहां थी यह ? फिर आज अगर पार्वत्याचार्य की परम्परा की नींव पड़ रही है तो आपत्ति क्यों ?
अब यह प्रश्न सारे समाज के लिए विचारणीय है । इसकी पूरी चर्चा मैं अपने ब्लॉग जगत में करना चाहता हूं पर सोचता हूं कि क्या ब्लॉगर बंधु इस विषय को जो धर्म से जुड़ा है विचारणीय ? इस विषय ढेर सारी रोचक सामग्री है क्या वे उसमें रुचि लेंगे ? उत्तर मिले तो आगे बढूं ।
6 टिप्पणियां:
ज़रुर आगे बढ़ा जाए!!
अपन न तो घोर धार्मिक है न ही धर्मादि विशेषज्ञ पर लॉजिकली बात सही लगती है कि परंपराएं आखिर कभी न कभी तो शुरु होती ही है!!
और वैसे भी हम सब नारी उत्थान से लेकर नारी को बराबरी का हक़ दिलाने की बात करते ही रहते हैं।
सन्यासियों में भी समानता का आगाज़ ...
आगे की शेष कथा भी सुनाइये !
विवाहिता पार्वती के नाम पर सन्यासिनियाँ - क्या फ़डतूस ऑक्सीमोरोन है बॉस!!
कसम विज्ञान भैरवतंत्र की...आप स्टोरी आगे बढाओ.
आप अपनॆ धर्म सॆ क्यों डिगॆं। चर्चा आगॆ बढाइए। मंथन सॆ निकली कोई मोहिनी शायद गुत्थी सुलझा दॆ। अन्यथा बतरस का सुख तो लॆं। विषय गम्भीर है, एक बार निर्णय हो ही जाए कि सन्यास मॆं श्रॆष्ठता मात्र पुरुषों की बपौती क्यों.
वैसे भी पार्वती से बड़ी सन्यासिनी कौन हो सकती है……… आप विषय आगे बढ़ाये ,हम जानने को उत्सुक……
बात तो अब शुरू कर ही दी है आपने सो आगे बढ़ेगी ही। आप बढ़ाएंगे न तो कोई और बढ़ाएगा/गी। आप ही जारी रखें तो और अच्छा :)
बाकि वैसे तो हमें ये सभी साधु/मुल्ला/पादरी फालतू की ही कोमोडिटी नजर आते हैं पर फिर भी तार्किक रूप से आप सही बजा फरमाते हैं कि स्त्री भी क्यों न हों साधु। वैसे होनी तो चाहिए थीं शंकराचार्य ही पर जब तक वे खड़ूस समझें तक तब पार्वत्याचार्य सही।
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