पता नहीं ब्लॉगर बंधु-भगिनियों को हिन्दू समाज की संन्यास परम्परा का कुछ आयडिया है या नहीं। पर पार्वत्याचार्य के पूरे सन्दर्भ में देश में चल रही वर्तमान साधुसत्ता को समझने का प्रयास भी होना चाहिए। समाज के इस बड़े और शक्तिसंपन्न वर्ग के बारे में अक्सर अनेकानेक भ्रांतियां और प्रश्न उपजते रहते हैं। ऐसे में इस गैरिक जगत में झांकना भी रोचक होगा।
बौद्धों के प्रभावकाल में जब देश में सनातन वैदिक धर्म की आभा क्षीण होने लगी और हिन्दू समाज धार्मिक स्तर पर विश्रृंखलित होने लगा तब दक्षिण भारत के कालड़ी ग्राम में जन्मी एक असाधारण प्रतिभा आचार्य शंकर ने धर्म की रक्षा, हिन्दूधर्म के पुनरुत्थान और अद्वैतवाद के प्रचार-प्रसार के लिए व्यापक देशाटन किया। उन्होंने चार दिशाओं में चार मठों की स्थापना कर ‘मठाम्नाय’ परम्परा का ऐतिहासिक सूत्रपात किया। उत्तर में बदरिकाश्रम, दक्षिण में श्रृंगेरी, पूर्व में जगन्नाथ पुरी और पश्चिम में द्वारिका में उन्होंने क्रमश: ज्योतिष्पीठ, श्रृंगेरीपीठ, गोवर्द्धनपीठ और शारदापीठ की स्थापना की और अपने चार प्रमुख शिष्यों को उन पर प्रतिष्ठित करके समस्त दशनाम संन्यासियों को उनके अधीन कर दिया। आदि शंकराचार्य की यह व्यवस्था ही ‘मठाम्नाय’ या ‘महानुशासन’ कहलाती है। संन्यासी और उनके मठाधीश को कैसा होना चाहिए और क्या करना चाहिए इसका पूरा विवरण इस लिखित व्यवस्था के अंतर्गत है।
कालान्तर में हिन्दूधर्म-रक्षा और हिन्दूधर्म-प्रचार के लिए शंकराचार्य द्वारा प्रतिष्ठित दशनामी संन्यासी समाज में मोटे तौर पर दो वर्ग उभर कर आए। शस्त्र हाथ में लेकर धर्मरक्षा करने वाले संन्यासी-समाज ने अखाड़ों की परम्परा डाली जिनका संचालन श्रीमहंतों ने पंचायती व्यवस्था के अंतर्गत संभाला। श्रीमहंत की उपाधि और फिर चुनाव पद्धति से पंच-परमेश्वर एवं सचिवादि चुनकर उन्हें अखाड़ा संचालन की जिम्मेदारियां देने वाला साधुओं का यह वर्ग कुम्भ स्नानों की व्यवस्थाओं के लिये भी जि़म्मेदार बनाया गया। किसी एक शास्त्रज्ञानी संत को ये लोग अपने अखाड़े का आचार्यमण्डलेश्वर भी बनाने लगे जो अखाड़े की पंचायती इच्छापर्यन्त उस पद पर रह सकता है। यह अखाड़े के प्रथम पुरुष के रूप में पूजित होता है और नये संन्यासियों को सीधे अखाड़े में प्रवेश के लिए दीक्षित करता है।
उधर शास्त्राध्ययन करके धर्मोपदेश के माध्यम से प्रचार-प्रसार करने वाले यतिवृन्द अपने अपने आश्रमों-मठों के माध्यम से सारस्वत परम्परा का निर्वाह करने लगे। शास्त्रज्ञानी संत अपने शिष्यों और अनुयायिओं की मण्डली में यत्रतत्र धर्मप्रचार करने जाते थे क्योंकि मठाधीशों को भी महानुशासन में एक जगह टिककर रहने की आज्ञा नहीं है। कालान्तर में मण्डलियों का नेतृत्व करने वाले शास्त्रज्ञानी संतों को मण्डलीश्वर कहा जाने लगा और अखाडों की ओर से भी मण्डलीश्वरों को कुम्भस्नान के समय शोभायात्रा में पर्याप्त सम्मान दिया जाने लगा। कालान्तर में यही मण्डलीश्वर कब मण्डलेश्वर और महामण्डलेश्वर हो गए इसका कोई ठीक ठीक प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
देश के अधिकांश साधु-संन्यासी इन दिनों मुख्यरूप से तेरह अखाड़ों में विभाजित हैं और देश में लगने वाले महाकुम्भ पर्वों के अवसर पर इन अखाड़ों का शाही स्नान ही इन अखाड़ों के वर्चस्व को बनाए-बढ़ाए रहता है। इन तेरह अखाड़ों में सात अखाड़े शैव मतावलम्बी संन्यासियों के हैं जो जगद्गुरु शंकराचार्य की परम्परा के पोषक हैं। तीन अखाड़े वैष्णव मत मानने वाले बैरागियों के हैं जिनके आचार्यों में जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य और जगद्गुरु श्रीरामानुजाचार्य आते हैं। जगद्गुरु श्रीचन्द्राचार्य के अनुयायी दो अखाड़े पंचदेवोपासक उदासियों के हैं और अंतिम एक अखाड़ा निर्मल सिखों का है जो गुरुग्रंथ साहब को ही अपना प्रेरक मानता है।कुम्भस्नानों में परस्पर एकता और प्रशासन से आवश्यक तालमेल रखने के मद्देनज़र इन अखाड़ों की एक सम्मिलित परिषद् भी देश में कार्यरत है। देश के चार कुम्भनगरों हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नाशिक में शाहीस्नानों के क्रम-निर्धारण और पालन में भी यह परिषद् सक्रिय भूमिका निभाती है। देश के धर्माचार्यों, साधुओं की बहुत बड़ी तादाद इन अखाड़ों से जुड़ी है। लेकिन देश विदेश के सारे साधुसंत इन्हीं अखाड़ों के अधीन है यह कहना मुश्किल होगा। अखाड़ों की मान्य वर्चस्विता के बावजूद हिन्दुओं के अनेक ऐसे धार्मिक आध्यात्मिक पंथ और व्यक्तित्व हैं जो इस अखाड़ा परम्परा से सीधे नहीं जुड़े हैं। वह सूची लम्बी है और उसका उल्लेख इस लेख में आवश्यक भी नहीं है।
गुरुवार, 17 जनवरी 2008
यह भी जान लीजिये....
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 10:31 am
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4 टिप्पणियां:
शानदार ज्ञानवर्धक जानकारियां हैं। शुक्रिया बहुत बहुत ।
जानकारी देने का शुक्रिया।
दादा,लोग इतने तटस्थ कैसे रह लेते हैं मेरी समझ से बाहर है । धर्म ऐसा विषय नहीं है जिसे न जाना तो भी हम मानव रह सकते हैं । जो आपने लिखा उसे निरा पाखंड कह कर किनारा नहीं करा जा सकता वह हमारी सम्पन्न परम्परा का बड़ा अंग है । स्वास्थ्य का ख्याल रखें
जय श्री राम
सार्थक.
आभार इस प्रस्तुति के लिए.
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डा.चन्द्रकुमार जैन
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