तो भाइयों और बहनों, आगे समाचार यह है कि औरतें आगे बढ़ रही हैं और मर्द उन्हें रोक रहे हैं। कहते तो हम हैं ‘नम: पार्वती पतये हर हर महादेवाय’ यानी पावती के पति महादेव को प्रणाम है। ‘भवानीशंकरौ वन्दे‘ कहकर जगत्पिता के साथ उसका स्मरण भी करते हैं पर सच यही है कि उसका अन्नपूर्णारूप ही हमें भाता है। यानी जगन्माता कहकर भी हम उसे रसोई तक ही रखने के हामी हैं। कहते तो हम यही आए हैं कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ पर इसमें भी नारी की पूजा से देवता मिलेंगे यही भाव प्रमुख है। नारी की पूजा सकारण ही करते हैं हम।
सारे विश्व में अजब पुरुष-प्रधान समाज रहा है हमारा। खासकर दुनियाभर के धर्मक्षेत्र में तो पुरुषों का ही राज रहा है अब तक। ईसाइयों के ईसा मसीह पुरुष, मुस्लिमों में मौहम्मद साहब पुरुष, जैनियों के सारे तीर्थंकर, बौद्धों के बुद्ध, हिन्दुओं के दशावतार, सिखों दसों गुरु- सब पुरुष। कहां तक गिनाऊं। जित देखूं तित नर ही नर हैं। धर्माचार्यों को ले तो पोप हों या शंकराचार्य, ग्रंथी हों या मुल्ला, पण्डा हों या पुजारी, कुछेक ताज़ा अपवाद छोड़ दें तो कहीं नारी नहीं दीखती।
ज़माना बदला तो सोच बदली। नारी ने रसोई से निकलकर समाज के हर क्षेत्र में मोर्चा संभाला और अध्यापिका से लेकर राष्ट्रपति पद तक, सर्वत्र अपनी पैठ की। नारी की अस्मिता और महत्ता को इस युग ने स्वीकार किया। लेकिन कहीं कहीं कठमुल्लापन अब भी बचा हुआ है हर समाज में। हमारे गैरिक समाज में भी, जहां परम्पराओं की पग पग पर दुहाई दी जाती है, वहां भी नई हवाएं आईं। बहुत कुछ बदला पर मन फिर भी लौट लौट जाता है अतीत की ओर। मानकर भी बहुत सी बातें मानने को का मन नहीं करता और मौका आते ही पोंगापंथी प्रकट हो ही जाती है।
पिछले कई दिनों से हरिद्वार का साधुसमाज उद्वेलित था। नाराज़ चल रहा था। उनके अपने ही समाज में जो कुछ चल रहा है उसके विरोध में लामबन्द हो रहा था। उद्वेलन का कारण कथित रूप से परम्पराभंजन बताया जा रहा है। नाराज़ी की वजह है जगद्गुरू श्रीआदिशंकराचार्य की तर्ज़ पर पार्वत्याचार्य पद का सृजन और उस पर एक साध्वी-संन्यासिनी द्वारा दूसरी साध्वी-संन्यासिनी को प्रतिष्ठित किये जाने का उपक्रम। श्रीपंचायतीनिरंजनी अखाड़े की महामण्डलेश्वर स्वामी मां योगशक्ति ने अपनी ओर से इसी अखाड़े की एक अन्य संन्यासिनी स्वामी मां ज्योतिषानन्द सरस्वती को पार्वत्याचार्य की उपाधि देने की घोषणा करते ही विवाद आरंभ हो गया था। इस विवाद की परिणति मकर संक्रांति के दिन एक ओर पार्वत्याचार्य के अभिषेक और दूसरी ओर शेष अखाड़ा समाज के उग्र विरोध तथा इनके बीच में पुलिस-प्रशासन के पड़ने के रूप में हुई। इससे पूर्व अखाड़े ने स्वामी मां योगशक्ति से उनका महामण्डलेश्वर पद छीनकर उन्हें अखाड़े से बहिष्कृत करने का निर्णय भी सार्वजनिक कर ही दिया था।
पार्वत्याचार्य बनाने की बात 1998 के हरिद्वार महाकुम्भ के समय भी चर्चा में आई थी। तब भी इसका घोर विरोध साधुसमाज ने किया था और उस विरोध से यह मामला चर्चा तक ही सिमट कर रह गया था। पर दस वर्ष बाद इस बार भारी विरोध के बावजूद पार्वत्याचार्य की उपाधि दे ही दी गई। अब उसकी वैधता, स्वीकार्यता या विकृति बताएं, पर बन्द कमरे में ही सही, एक नारी-पीठ की स्थापना की औपचारिकता तो पूरी हो ही गई।
मां योगशक्ति और उनके द्वारा बनाई गई नई पार्वत्याचार्य स्वामी मां ज्योतिषानन्द सरस्वती दोनों ही निरंजनी अखाड़े की ही साध्वियां हैं। जैन परिवार में जन्मी विमला लुनावत ने 36 बरस पहले संन्यास दीक्षा ली थी और मां ज्योतिषानन्द बन गई थीं। वे हनुमानभक्त हैं और अमेरिका में उनका बनाया हनुमान मंदिर बहुत विख्यात भी है। उनके अपने चेलेचेलियों की पूरी जमात है और विदेशों में उनके आश्रमों में लक्ष्मी का भी भरपूर वास है। वे मां योगशक्ति के संपर्क में आईं और मां योगशक्ति पर उनके व्यक्तित्व कृतित्व का ऐसा असर रहा कि दस साल पहले ही उन्होंने संकल्प कर लिया कि वे ज्योतिषानन्द को सम्मानित करेंगी।
मां योगशक्ति जहां तक नारियों के सम्मान के लिए कुछ करना चाहती थीं उसमें कोई विरोध न होता। जिस अखाड़े ने स्वयं उन्हें महामण्डलेश्वर बनाया उसे इस बात पर क्यों आपत्ति होती कि वे किसी अन्य साध्वी को सम्मानित करें। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ मानने वाले देश के साधु भला देवीपूजन के विरोधी क्यों बनते? पर मामला उस उपाधि पर अटक गया जो सम्मान के अवसर दी जानी थी। चूंकि सम्मान के लिये पार्वत्याचार्य उपाधि तय की गई थ्सी यह बात शांकरी परम्परा के पोषकों के गले नहीं उतरी। इसीसे संन्यासी समाज रुष्ट हो गया। उन्हें लगा कि शंकर के मुकाबले में पार्वती को खड़ा करने का प्रयास हो रहा है। यह भी कि पार्वत्याचार्य बनाकर कहीं नारी संन्यासिनियों की कोई अलग फौज बनाने का गुप्त इरादा तो नहीं है? ऐसा तो नहीं कि कहीं इससे पुरुषों के वर्चस्व को खतरा पैदा हो रहा हो? आदि आदि अनेक आशंकाओं ने जन्म लिया और मां योगशक्ति के संकल्प के विरोध में स्वर प्रबल से प्रबलतर होते चले गए। अगर मां योगशक्ति पार्वत्याचार्य की जगह कोई और उपाधिनाम ईजाद कर लेतीं तो शायद यह बवाल न होता। मतलब यह कि वे ज्योतिषानन्द को मातृकाचार्य बनातीं, भगवत्याचार्य बनातीं नार्याचार्य बनातीं या ऐसा ही कुछ बनातीं तो शायद उतना होहल्ला न होता जितना पार्वत्याचार्य बनाने से हो गया।
विवाद हुआ तो कई नये प्रश्न भी खड़े हो गए। यह कि आदि शंकराचार्य ने तो चार ही पीठ बनाए थे और अपने चार ही शिष्यों को शंकराचार्य बनाया था। फिर आज जो चार से अधिक शंकराचार्य (लोग तो उनकी संख्या दर्जनों में गिनवाते हैं) साधु समाज में विचरण कर रहे हैं वे किस अधिकार से हैं और उन पर कोई अंकुश् क्यों नहीं ? इसी विवाद के चलते एक शंकराचार्य का बयान आया कि स्त्री को संन्यास देना ही शास्त्र विरुद्ध है। यदि ऐसा है तो आज जो प्रत्येक अखाड़े में संन्यासिनियों और साध्वियों का बोलबाला है वह कैसे है? किस परम्परा और अधिकार से वे संन्यास में दीक्षित हैं? इतना ही नहीं तो उन्हें अखाड़े स्वयं उच्चासन प्रदान करने की ‘भूल’ कर रहे हैं। जब ये परम्पराएं नये सिरे से डाली जा रही हैं तो फिर अगर साध्वियों को नवीन उपाधिदान की परम्परा का सूत्रपात हो रहा है तो इतनी बेचैनी क्यों? कहा गया कि उपाधि देने वाली साध्वी ने लेने वाली साध्वी से लाखों रुपए वसूले हैं। लेकिन यह भी तो कड़वा सच है कि अखाड़े भी मोटी मोटी दक्षिणाएं वसूलकर संन्यासियों को उपाधियां देते हैं। अगर ऐसा ही कुछ उनकी एक मण्डलेश्वरी ने भी कर दिया तो वे इतने ख़फा क्यों हो गए? हां, उनका जोर उपाधिनाम परिवर्तन का ही रहता तो बात कुछ और होती।
गुरुवार, 17 जनवरी 2008
आगे समाचार यह है......
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 9:45 am
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