माननीय न्यायमूर्तियों ने ऐसा कुछ कर दिया है कि भाईलोग बड़े खुश हैं। कह रहे हैं कि देश को असली आज़ादी अब जाकर मिली है। 1947 वाली अब तक की आज़ादी तो आदमी को आदमी से और औरत को औरत से दूर कर रही थी। अब 63 वें साल में जो आजादी मिली है वह जाकर कहीं आदमी को आदमी के तथा औरत को औरत के पास लाएगी। देश विकासशीलों की जगह पूर्ण विकसितों की श्रेणी में आ जाएगा। और यह सब होगा माननीय न्यायमूर्तियों की कृपा से।
दरअसल यह देश चलता ही माननीय न्यायमूर्तियों के कारण है। जब अफ़सर और नेता, संसद और सरकारें कुछ नहीं कर पाते तब जो होता है वह माननीय न्यायमूर्तियों के हाथों ही होता है। वे सबको डांट फटकार लगाकर सीधा कर देते हैं। अब देखिए न कहने को देश स्वतंत्र है पर देश के नागरिकों को पूर्ण स्वतंत्रता है ही नहीं। पुरानी मान्यताओं, परम्पराओं और नैतिकताओं का हवाला देकर देश से विकसित होने के सारे मौके छीनने की कोशिशें लगातार जारी रहती हैं। हम महान बनते बनते रह जाते हैं।
पर यह पहला मौका है जब हमें माननीय न्यायमूर्तियों का आभार मानना चाहिए कि अब हम देश को अमेरिका, योरोप और इंग्लैण्ड के समकक्ष ही नहीं उनसे आगे ले जाने के अवसर पा चुके हैं। वे दिन आ चुके हैं जब बेटियों के बाप दामाद ढूंडने के झंझट से मुक्ति पा जाएंगे। अब बहू ढूंढने की कसरत खत्म। यह ''मित्र-परिणयों'' का जमाना है। अब वैवाहिक निमंत्रणपत्र कुछ इस अदा से आया करेंगे :-
प्रियवर,
पूज्य न्यामूर्तियों के आशीर्वाद तथा जमाने की बदली हुई हवाओं के चिन्ताहारी असर के चलते हमारी सौभाग्याकांक्षिणी प्रिय पुत्री सुकुमारी ने अपनी डिस्को-सहेली सौभाग्यदायिनी कुमारी का सौभाग्य-चयन कर लिया है। कृपया इन दोनों के परस्पर मित्रवरण के मांगलिक अवसर पर आयोजित प्रीतिभोज में पधारकर हमारी बेटी और हमारी जंवाई बेटी को अपने आशीर्वादों से अलंकृत करें।
अब लड़कों के लड़कियां छेड़ने के दिन लद गए। अब तो लड़के लड़कों पर तथा लड़कियां लड़कियों पर सरेआम डोरे डाल सकेंगे, फब्तियां कस सकेंगे और उन्हें देखकर सीटी बजा सकेंगेा सारी फिल्मी दुनिया यानी अपने बॉलीवुड में न्यायमूर्तियों के इस नए फैसले से क्रांति के आसार हैं। निर्देशक निर्माता हिरोइनों के लिए और हीरो और हीरो के लिये हिरोइनें खोजने से बच जाएंगे। जिस निर्माता-निर्देशक के दो बेटे या दो बेटियां हुई उसकी फिल्म तो घर घर में बन जाएगी। पैसा भी बचेगा।
सामाजिक क्रांति होगी जिसमें ''आधी दुनिया'' ही पूरी दुनिया में तब्दील होगी। आदमियों की पूरी दुनिया और औरतों की पूरी दुनिया। जहां तक नई पीढि़यों के लिये चिन्ता प्रश्न है उस सिलसिले में भी जल्दी ही न्यायमूर्तियों के आदेश आ जांगे। उनमें सरकारों को आदेश होंगे कि वे हर शहर-गांव में ब्लडबैंक और पशुओं के हीमित वीर्य स्थात्र की तर्ज पर स्त्रीपुरुषों के भी लिये भी केन्द्र खोलें ताकि वक्तज़रूरत पड़ने पर वे केन्द्र परिवारों में इच्छानुसार बच्चे सप्लाई कर सकेंगे। विज्ञान चरमशीर्ष पर होगा तथा सामाजिक मान्यताओं का पारम्परिक ज्ञान आंखें फाड़ फाड़कर उसे भौंचक देख रहा होगा।
3 टिप्पणियां:
सिर्फ यही नहीं अभी बहुत कुछ ही जरूरत है बदलने की। उस बदलाव का बस इंतजार कीजिए और मन ही मन यूंही कुढ़ते रहिए।
अनादिकाल से यह प्रवृत्ति है। जानवरों में भी होती है। उतनी ही सहज है जितने अन्य फितुर। न तो कोर्ट मूर्ख है और न ही इसकी मांग करनेवाले लाखों लोग जो हर वर्ग में हैं, पर आवाज उठाने की हिम्मत करनेवाले पेज थ्री तबके से आते हैं। अलबत्ता इनके पक्ष मे सबसे जोरदार आंदोलन चलानेवाले अमेरिका में भी ये समाज से अलग थलग ही हैं और उपहास के पात्र बनते हैं। वहां भी कोई बाप अपने बेटे के सखा का परिचय नहीं दे पाता। बल्कि दुत्कार कर दोनों को ही घर से निकला जाता है।
बढ़िया पोस्ट...
अब तो कन्या भ्रूण का अभिशाप भी वरदान में तब्दील हो जाएगा। जब कन्या के लिए वर की तलाश ही नहीं करनी तो फिर काहे का डरना, और काहे का दहेज, कैसा दहेज। अब वर नहीं वरनी चलेगी। वर वर के लिए, वरनी वरनी के लिए। नये नये नारे अस्तित्व में आयेंगे।
अब लड़कों द्वारा लड़कियों को और लड़कियों द्वारा लड़कों को छेड़े जाने के किस्से बीते जमाने की स्मृतियों में रह जायेंगे। इसके विपरीत का जमाना है।
अब बलात्कार की भी नहीं परिभाषाएं आएंगी। लड़की का लड़की से और लड़के का लड़के से बलात्कार।
परिवर्तन जीवन का नियम है। नियम ही यम है। अब सब समझ में आ रहा है।
आपकी लेखनी से सही मुद्दा सही परिप्रेक्ष्य में उद्भूत हुआ है, बधाई स्वीकारें।
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