संसद के कुलीनों के मन मलिन हैं। वे टसुए बहा रहे हैं। पता नहीं इन विराट गलियारों में चहलकदमी के मौके फिर मिलेंगे या नहीं। बिदाई की बेला में उदासी का आलम है।मानों घर में डाका पड़ गया और सगकुछ लुट गया है। उधर मलिन बस्तियों में मस्ती का माहौल है। अकुलीनों की बन आई है। ऑस्कर क्या मिला-- अधमी, ये स्लमडॉग का हिन्दी अनुवाद है, और अकुलीन हर्ष में डूबे हैं और सांसदी छूटने से कुलीन विषाद में डूबे हें। कुर्सियां थीं तो जनता का मर्सिया भी अनसुना था। अब कुर्सियां छिन रही हैं तो भाईलोग अपना मर्सिया खुद ही पढ़ रहे हैं।
फागुन का असर है। सदियों से होली कुलीनों का नहीं मलिनों का त्यौहार होता आया है। इस बार कुछ ज्यादा ही हैं मलिनों की मस्ती। सारे स्लमडॉग खुद को मिलियोनेअर समझ रहे हैं। ये सिफ्त है गरीबी और मलिनता की कि वह खुशी और ग़म दोनों को मिलबांटकर मनाती है। अमीरों या कुलीनों के यहां मामला उलटा है। वे अपने दुख में तो सबकी शिरकत चाहते हैं पर सुख अकेले अकेले भोगना चाहते हैं। ऑस्कर पाकर सारा स्लम आनन्दित है पर सांसदी छिनने से केवल साढ़े पांच सौ के चेहरों पर मुर्दनी है। फिर भी वे चाहते हैं कि सारा देश उनके साथ मुर्दघाट चले।
अब यह मुर्दनी भी कहीं तो फिर से खुशी में तब्दील हो जाएगी, पर अधिकांश चेहरों पर यह स्थायीभाव बन कर बैठने वाली है। डरे हुए इन्हीं चेहरों पर अश्रुपात चल रहा है। दिन रात चल रहा है। पहले तो टिकट की जुगाड़ में अंटी डीली करो। फिर कार्यकर्ताओं के नखरे उठाने में तिजोरी के ताले खोलो। अंत में वोटरों का रिझाने के लिये अपना तन धन और क्षण समर्पित करो। गारंटी इसके बाद भी कुछ नहीं। ईवीसी ने अनकूल नतीजे न उगले तो अपने ही बच्चे नाकारा और अपनी ही बीबी नपुंसक करार देने से नहीं चूकेगी। हे राम, तब क्या होगा।
क्या होना है । राम तो बार बार आने से रहे नैया पार लगाने के लिये। राम की जगह अगर जनता ने काम पूछ लिया तो मुश्किल हो जाएगी। राम अनुकूल नहीं और काम सारे प्रतिकूल हैं। ऊपर से बूढ़े सोम दा का शाप। अब ऐसे में साम और दाम का ही सहारा है भाई लोगों कों। इन भाईलोगों के दूसरे भाई लोगों ने दण्ड हाथ में लेकर ईवीसी को अनुकूल करना है। योजनाएं बनने लगी हैं। अब उन्हें कुर्सी मिले या न मिले कइयों को अस्थायी काम ज़रूर मिल जाएगा। डंडे चलाने का काम, डंडों में झण्डे लगाने का काम, नारे लगाने का काम, पोस्टर बनाने, चिपकाने, अखाड़ने का काम, भीड़ जुटाने भगाने का काम, मुफ्त में जीमने और पीने का काम। काम ही काम हैं। डेर सारे काम हैं ढेर सारे लोगों के लिये कि वे सब मिलकर एक आदमी को दिल्ली की गोल इमारत की एक कुर्सी पर बिठा दें। फिर वहां बैठकर वह कुछ काम करे या न करे। बस पांच साल बाद आकर फिर से दो महीने के लिये ढेर सारे लोगों को ढेर सारे काम और उनके ढेर सारे दाम दे दे।
अपने देश के ये ढेर सारे लोग हैं भी तो इसी काम के। जब सचमुच कुछ करने का वक्त आता है तब ये करने के स्थान पर खेलने लगते हैं। वह भी औरों के हाथों में। और लोग खेलते हैं बड़े बड़े खेल और ये झेर सारे लोग उनके हाथों में खेलते खेलते सिर्फ खिलौना बन जाते हैं। लोकतंत्र का चाबी वाला खिलौना। ''राज राज'' खेलनेवालों के लिये खिलौना बनकर उन्हें खेलने के भरपूर अवसर देना ही आजका लोकतंत्र है। और हम ढेर सारे लोग इस खेल के लिये मुफीद खिलौने हैं।
4 टिप्पणियां:
आपने एकदम सटीक लिखा है कि हम ढेर सारे लोग इस खेल के लिए मुफीद खिलौने हैं।
अब उन्हें कुर्सी मिले या न मिले कइयों को अस्थायी काम ज़रूर मिल जाएगा। डंडे चलाने का काम, डंडों में ण्ंडे लगाने का काम, नारे लगाने का काम, पोस्टर बनाने, चिपकाने, अखाड़ने का काम, भीड़ जुटाने भगाने का काम, मुफ्त में जीमने और पीने का काम। काम ही काम हैं।
एकदम सटीक !!! 100%
सामयिक पोस्ट है। वह समय दूर नहीं जब खिलौने तौलेंगे, बोलेंगे और सबका रायता ढोलेंगे। वही समय हमारे लोकतन्त्र का वास्तविक उत्सव होगा। इस समय तो स्थिति वही है जो आपने लिखी है।
प्रख्यात शायर विजय वाते ने आपकी बात को इन दो मिसरों में समेटा है -
दो पक्ष मुकाबिल हैं, इक गोल इमारत में
वह प्रश्न उठाता है, ये उत्तर देता है
आदरणीय विष्णु भैया, हितेश भाई, रंजना जी, प्रिय अजित जी, आप सबको मेरे लेख पर टिप्पणी के लिए धन्यवाद, आभार। टिप्पणियां उत्साह देती हैं। डॉ. कविता वाचक्नवी ने लिखा है
आदरणीय बुधकर जी,
इस सामयिक, व्यंग्यात्मक, विचारणीय लेख के लिए धन्यवाद।
पता नहीं यह देश की गुलाम मानसिकता का दर्शन है, या वंशवाद की प्रजाति होने का !!
‘गाँधी’ ( मो.क.गाँधी) दर्शन की प्रासंगिकता के लुप्त होकर उसके विपर्यय की स्थितियों का लाभ उठा सकने वाला काल मानो जनता व आमजन में भी उस दर्शन/ गुणवत्ता की निरुपादयेता की मानसिकता दिखाता है।
इसका दलगत पक्ष भले जो हो, है यह परिवारवाद की ओछी राजनीति ही; जो बौद्धिक रूप से कुन्द,स्वार्थी,वर्चस्व के भूखे और गुलाम बनाए रखने की वाँछा से बुरी तरह से पीड़ित हैं।
घटना की सच्चाई भले जो हो, परन्तु आश्चर्य है कि कौमें कितनी कायर हैं और पहरुए (?) कितने शातिर।
गाँधी के नाम पर चढ़ी हाँडी के न फूटने की कैसी निश्चिन्तता है यह !!
वाह वाह!
इनके लिए गाँधी कितने प्रासंगिक हैं, रहेंगे।
व्यंग्य सटीक है, राजनीति की पोल पट्टी खोलता है।
पुन: शुभकामनाओं सहित
- कविता वाचक्नवी
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