बुधवार, 31 दिसंबर 2008

नया साल है !

 

नया साल है लेकिन प्यारे,
वही पुराना भात,
पुरानी वही दाल है
बस, नया साल है !

कैसे इनसे बच पाओगे
वही पींजरे सदा पुरातन
और पुरानें वही जाल है
नया साल है !

तलवारें भी वही पुरानी खिंची हुई हैं
अपने हाथों में भी यारों,
टूटी फूटी वही ढाल है
कहने को यह नया साल है !!

उसी पुराने कूएं में रह रही मेंढकी
ठुकवाना पर चाह रही वह
नयी नाल है, शायद कोई नयी चाल है
नया साल है !!

बेहालों की बढ़ी जमातें इस दुनिया में,
थोडे ही हैं जो खुश हैं,
या जो निहाल है।
नया साल है !!

हम पर तो है कृपा प्रभू की,
आप लिखें-
जो उधर हाल हैं, जो खयाल हैं।
नया साल है !!

आप और आपके परिवार पर भी नववर्ष २००९ में प्रभु की असीम कृपा बरसे ! बधाइयों सहित बुधकर परिवार की ओर से स्‍वीकारें अनेक मंगलकामनाएं !!

संगीता और डॉ. कमलकांत
डॉ. मृणाल और सौरभ
पारुल और पल्लव
कुमारी अपरा, कुमार अथर्व और कुमार अद्वय

1 जनवरी 2009

सोमवार, 27 अक्टूबर 2008

श्रीपर्व पर हरिद्वार से मंगलकामनाऍं

 

                            wishes

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गुरुवार, 17 जनवरी 2008

यह भी जान लीजिये....

पता नहीं ब्‍लॉगर बंधु-भगिनियों को हिन्‍दू समाज की संन्‍यास परम्‍परा का कुछ आयडिया है या नहीं। पर पार्वत्‍याचार्य के पूरे सन्‍दर्भ में देश में चल रही वर्तमान साधुसत्‍ता को समझने का प्रयास भी होना चाहिए। समाज के इस बड़े और शक्तिसंपन्‍न वर्ग के बारे में अक्‍सर अनेकानेक भ्रांतियां और प्रश्‍न उपजते रहते हैं। ऐसे में इस गैरिक जगत में झांकना भी रोचक होगा।
बौद्धों के प्रभावकाल में जब देश में सनातन वैदिक धर्म की आभा क्षीण होने लगी और हिन्‍दू समाज धार्मिक स्‍तर पर विश्रृंखलित होने लगा तब दक्षिण भारत के कालड़ी ग्राम में जन्‍मी एक असाधारण प्रतिभा आचार्य शंकर ने धर्म की रक्षा, हिन्‍दूधर्म के पुनरुत्‍थान और अद्वैतवाद के प्रचार-प्रसार के लिए व्‍यापक देशाटन किया। उन्‍होंने चार दिशाओं में चार मठों की स्‍थापना कर ‘मठाम्‍नाय’ परम्‍परा का ऐतिहासिक सूत्रपात किया। उत्‍तर में बदरिकाश्रम, दक्षिण में श्रृंगेरी, पूर्व में जगन्‍नाथ पुरी और पश्चिम में द्वारिका में उन्‍होंने क्रमश: ज्‍योतिष्‍पीठ, श्रृंगेरीपीठ, गोवर्द्धनपीठ और शारदापीठ की स्‍थापना की और अपने चार प्रमुख शिष्‍यों को उन पर प्रतिष्ठित करके समस्‍त दशनाम संन्‍यासियों को उनके अधीन कर दिया। आदि शंकराचार्य की यह व्‍यवस्‍था ही ‘मठाम्‍नाय’ या ‘महानुशासन’ कहलाती है। संन्‍यासी और उनके मठाधीश को कैसा होना चाहिए और क्‍या करना चाहिए इसका पूरा विवरण इस लिखित व्‍यवस्‍था के अंतर्गत है।
कालान्‍तर में हिन्‍दूधर्म-रक्षा और हिन्‍दूधर्म-प्रचार के लिए शंकराचार्य द्वारा प्रतिष्ठित दशनामी संन्‍यासी समाज में मोटे तौर पर दो वर्ग उभर कर आए। शस्‍त्र हाथ में लेकर धर्मरक्षा करने वाले संन्‍यासी-समाज ने अखाड़ों की परम्‍परा डाली जिनका संचालन श्रीमहंतों ने पंचायती व्‍यवस्‍था के अंतर्गत संभाला। श्रीमहंत की उपाधि और फिर चुनाव पद्धति से पंच-परमेश्‍वर एवं सचिवादि चुनकर उन्‍हें अखाड़ा संचालन की जिम्‍मेदारियां देने वाला साधुओं का यह वर्ग कुम्‍भ स्‍नानों की व्‍यवस्‍थाओं के लिये भी जि़म्‍मेदार बनाया गया। किसी एक शास्‍त्रज्ञानी संत को ये लोग अपने अखाड़े का आचार्यमण्‍डलेश्‍वर भी बनाने लगे जो अखाड़े की पंचायती इच्‍छापर्यन्‍त उस पद पर रह सकता है। यह अखाड़े के प्रथम पुरुष के रूप में पूजित होता है और नये संन्‍यासियों को सीधे अखाड़े में प्रवेश के लिए दीक्षित करता है।
उधर शास्‍त्राध्‍ययन करके धर्मोपदेश के माध्‍यम से प्रचार-प्रसार करने वाले यतिवृन्‍द अपने अपने आश्रमों-मठों के माध्‍यम से सारस्‍वत परम्‍परा का निर्वाह करने लगे। शास्‍त्रज्ञानी संत अपने शिष्‍यों और अनुयायिओं की मण्‍डली में यत्रतत्र धर्मप्रचार करने जाते थे क्‍योंकि मठाधीशों को भी महानुशासन में एक जगह टिककर रहने की आज्ञा नहीं है। कालान्‍तर में मण्‍डलियों का नेतृत्‍व करने वाले शास्‍त्रज्ञानी संतों को मण्‍डलीश्‍वर कहा जाने लगा और अखाडों की ओर से भी मण्‍डलीश्‍वरों को कुम्‍भस्‍नान के समय शोभायात्रा में पर्याप्‍त सम्‍मान दिया जाने लगा। कालान्‍तर में यही मण्‍डलीश्‍वर कब मण्‍डलेश्‍वर और महामण्‍डलेश्‍वर हो गए इसका कोई ठीक ठीक प्रमाण उपलब्‍ध नहीं है।
देश के अधिकांश साधु-संन्‍यासी इन दिनों मुख्‍यरूप से तेरह अखाड़ों में विभाजित हैं और देश में लगने वाले महाकुम्‍भ पर्वों के अवसर पर इन अखाड़ों का शाही स्‍नान ही इन अखाड़ों के वर्चस्‍व को बनाए-बढ़ाए रहता है। इन तेरह अखाड़ों में सात अखाड़े शैव मतावलम्‍बी संन्‍यासियों के हैं जो जगद्गुरु शंकराचार्य की परम्‍परा के पोषक हैं। तीन अखाड़े वैष्‍णव मत मानने वाले बैरागियों के हैं जिनके आचार्यों में जगद्गुरु श्रीरामानन्‍दाचार्य और जगद्गुरु श्रीरामानुजाचार्य आते हैं। जगद्गुरु श्रीचन्‍द्राचार्य के अनुयायी दो अखाड़े पंचदेवोपासक उदासियों के हैं और अंतिम एक अखाड़ा निर्मल सिखों का है जो गुरुग्रंथ साहब को ही अपना प्रेरक मानता है।कुम्‍भस्‍नानों में परस्‍पर एकता और प्रशासन से आवश्‍यक तालमेल रखने के मद्देनज़र इन अखाड़ों की एक सम्मिलित परिषद् भी देश में कार्यरत है। देश के चार कुम्‍भनगरों हरिद्वार, प्रयाग, उज्‍जैन और नाशिक में शाहीस्‍नानों के क्रम-निर्धारण और पालन में भी यह परिषद् सक्रिय भूमिका निभाती है। देश के धर्माचार्यों, साधुओं की बहुत बड़ी तादाद इन अखाड़ों से जुड़ी है। लेकिन देश विदेश के सारे साधुसंत इन्‍हीं अखाड़ों के अधीन है यह कहना मुश्किल होगा। अखाड़ों की मान्‍य वर्चस्विता के बावजूद हिन्‍दुओं के अनेक ऐसे धार्मिक आध्‍यात्मिक पंथ और व्‍यक्तित्‍व हैं जो इस अखाड़ा परम्‍परा से सीधे नहीं जुड़े हैं। वह सूची लम्‍बी है और उसका उल्‍लेख इस लेख में आवश्‍यक भी नहीं है।

आगे समाचार यह है......

तो भाइयों और बहनों, आगे समाचार यह है कि औरतें आगे बढ़ रही हैं और मर्द उन्‍हें रोक रहे हैं। कहते तो हम हैं ‘नम: पार्वती पतये हर हर महादेवाय’ यानी पावती के पति महादेव को प्रणाम है। ‘भवानीशंकरौ वन्‍दे‘ कहकर जगत्पिता के साथ उसका स्‍मरण भी करते हैं पर सच यही है कि उसका अन्‍नपूर्णारूप ही हमें भाता है। यानी जगन्‍माता कहकर भी हम उसे रसोई तक ही रखने के हामी हैं। कहते तो हम यही आए हैं कि ‘यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यंते रमंते तत्र देवता’ पर इसमें भी नारी की पूजा से देवता मिलेंगे यही भाव प्रमुख है। नारी की पूजा सकारण ही करते हैं हम।
सारे विश्‍व में अजब पुरुष-प्रधान समाज रहा है हमारा। खासकर दुनियाभर के धर्मक्षेत्र में तो पुरुषों का ही राज रहा है अब तक। ईसाइयों के ईसा मसीह पुरुष, मुस्लिमों में मौहम्‍मद साहब पुरुष, जैनियों के सारे तीर्थंकर, बौद्धों के बुद्ध, हिन्‍दुओं के दशावतार, सिखों दसों गुरु- सब पुरुष। कहां तक गिनाऊं। जित देखूं तित नर ही नर हैं। धर्माचार्यों को ले तो पोप हों या शंकराचार्य, ग्रंथी हों या मुल्‍ला, पण्‍डा हों या पुजारी, कुछेक ताज़ा अपवाद छोड़ दें तो कहीं नारी नहीं दीखती।
ज़माना बदला तो सोच बदली। नारी ने रसोई से निकलकर समाज के हर क्षेत्र में मोर्चा संभाला और अध्‍यापिका से लेकर राष्‍ट्रपति पद तक, सर्वत्र अपनी पैठ की। नारी की अस्मिता और महत्‍ता को इस युग ने स्‍वीकार किया। लेकिन कहीं कहीं कठमुल्‍लापन अब भी बचा हुआ है हर समाज में। हमारे गैरिक समाज में भी, जहां परम्‍पराओं की पग पग पर दुहाई दी जाती है, वहां भी नई हवाएं आईं। बहुत कुछ बदला पर मन फिर भी लौट लौट जाता है अतीत की ओर। मानकर भी बहुत सी बातें मानने को का मन नहीं करता और मौका आते ही पोंगापंथी प्रकट हो ही जाती है।
पिछले कई दिनों से हरिद्वार का साधुसमाज उद्वेलित था। नाराज़ चल रहा था। उनके अपने ही समाज में जो कुछ चल रहा है उसके विरोध में लामबन्‍द हो रहा था। उद्वेलन का कारण कथित रूप से परम्‍पराभंजन बताया जा रहा है। नाराज़ी की वजह है जगद्गुरू श्रीआदिशंकराचार्य की तर्ज़ पर पार्वत्‍याचार्य पद का सृजन और उस पर एक साध्‍वी-संन्‍यासिनी द्वारा दूसरी साध्‍वी-संन्‍यासिनी को प्रतिष्ठित किये जाने का उपक्रम। श्रीपंचायतीनिरंजनी अखाड़े की महामण्‍डलेश्‍वर स्‍वामी मां योगशक्ति ने अपनी ओर से इसी अखाड़े की एक अन्‍य संन्‍यासिनी स्‍वामी मां ज्‍योतिषानन्‍द सरस्‍वती को पार्वत्‍याचार्य की उपाधि देने की घोषणा करते ही विवाद आरंभ हो गया था। इस विवाद की परिणति मकर संक्रांति के दिन एक ओर पार्वत्‍याचार्य के अभिषेक और दूसरी ओर शेष अखाड़ा समाज के उग्र विरोध तथा इनके बीच में पुलिस-प्रशासन के पड़ने के रूप में हुई। इससे पूर्व अखाड़े ने स्‍वामी मां योगशक्ति से उनका महामण्‍डलेश्‍वर पद छीनकर उन्‍हें अखाड़े से बहिष्‍कृत करने का निर्णय भी सार्वजनिक कर ही दिया था।
पार्वत्‍याचार्य बनाने की बात 1998 के हरिद्वार महाकुम्‍भ के समय भी चर्चा में आई थी। तब भी इसका घोर विरोध साधुसमाज ने किया था और उस विरोध से यह मामला चर्चा तक ही सिमट कर रह गया था। पर दस वर्ष बाद इस बार भारी विरोध के बावजूद पार्वत्‍याचार्य की उपाधि दे ही दी गई। अब उसकी वैधता, स्‍वीकार्यता या विकृति बताएं, पर बन्‍द कमरे में ही सही, एक नारी-पीठ की स्‍थापना की औपचारिकता तो पूरी हो ही गई।
मां योगशक्ति और उनके द्वारा बनाई गई नई पार्वत्‍याचार्य स्‍वामी मां ज्‍योतिषानन्‍द सरस्‍वती दोनों ही निरंजनी अखाड़े की ही साध्वियां हैं। जैन परिवार में जन्‍मी विमला लुनावत ने 36 बरस पहले संन्‍यास दीक्षा ली थी और मां ज्‍योतिषानन्‍द बन गई थीं। वे हनुमानभक्‍त हैं और अमेरिका में उनका बनाया हनुमान मंदिर बहुत विख्‍यात भी है। उनके अपने चेलेचेलियों की पूरी जमात है और विदेशों में उनके आश्रमों में लक्ष्‍मी का भी भरपूर वास है। वे मां योगशक्ति के संपर्क में आईं और मां योगशक्ति पर उनके व्‍यक्तित्‍व कृतित्‍व का ऐसा असर रहा कि दस साल पहले ही उन्‍होंने संकल्‍प कर लिया कि वे ज्‍योतिषानन्‍द को सम्‍मानित करेंगी।
मां योगशक्ति जहां तक नारियों के सम्‍मान के लिए कुछ करना चाहती थीं उसमें कोई विरोध न होता। जिस अखाड़े ने स्‍वयं उन्‍हें महामण्‍डलेश्‍वर बनाया उसे इस बात पर क्‍यों आपत्ति होती कि वे किसी अन्‍य साध्‍वी को सम्‍मानित करें। ‘यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यन्‍ते रमन्‍ते तत्र देवता’ मानने वाले देश के साधु भला देवीपूजन के विरोधी क्‍यों बनते? पर मामला उस उपाधि पर अटक गया जो सम्‍मान के अवसर दी जानी थी। चूंकि सम्‍मान के लिये पार्वत्‍याचार्य उपाधि तय की गई थ्‍सी यह बात शांकरी परम्‍परा के पोषकों के गले नहीं उतरी। इसीसे संन्‍यासी समाज रुष्‍ट हो गया। उन्‍हें लगा कि शंकर के मुकाबले में पार्वती को खड़ा करने का प्रयास हो रहा है। यह भी कि पार्वत्‍याचार्य बनाकर कहीं नारी संन्‍यासिनियों की कोई अलग फौज बनाने का गुप्‍त इरादा तो नहीं है? ऐसा तो नहीं कि कहीं इससे पुरुषों के वर्चस्‍व को खतरा पैदा हो रहा हो? आदि आदि अनेक आशंकाओं ने जन्‍म लिया और मां योगशक्ति के संकल्‍प के विरोध में स्‍वर प्रबल से प्रबलतर होते चले गए। अगर मां योगशक्ति पार्वत्‍याचार्य की जगह कोई और उपाधिनाम ईजाद कर लेतीं तो शायद यह बवाल न होता। मतलब यह कि वे ज्‍योतिषानन्‍द को मातृकाचार्य बनातीं, भगवत्‍याचार्य बनातीं नार्याचार्य बनातीं या ऐसा ही कुछ बनातीं तो शायद उतना होहल्‍ला न होता जितना पार्वत्‍याचार्य बनाने से हो गया।
विवाद हुआ तो कई नये प्रश्‍न भी खड़े हो गए। यह कि आदि शंकराचार्य ने तो चार ही पीठ बनाए थे और अपने चार ही शिष्‍यों को शंकराचार्य बनाया था। फिर आज जो चार से अधिक शंकराचार्य (लोग तो उनकी संख्‍या दर्जनों में गिनवाते हैं) साधु समाज में विचरण कर रहे हैं वे किस अधिकार से हैं और उन पर कोई अंकुश्‍ क्‍यों नहीं ? इसी विवाद के चलते एक शंकराचार्य का बयान आया कि स्‍त्री को संन्‍यास देना ही शास्‍त्र विरुद्ध है। यदि ऐसा है तो आज जो प्रत्‍येक अखाड़े में संन्‍यासिनियों और साध्वियों का बोलबाला है वह कैसे है? किस परम्‍परा और अधिकार से वे संन्‍यास में दीक्षित हैं? इतना ही नहीं तो उन्‍हें अखाड़े स्‍वयं उच्‍चासन प्रदान करने की ‘भूल’ कर रहे हैं। जब ये परम्‍पराएं नये सिरे से डाली जा रही हैं तो फिर अगर साध्वियों को नवीन उपाधिदान की परम्‍परा का सूत्रपात हो रहा है तो इतनी बेचैनी क्‍यों? कहा गया कि उपाधि देने वाली साध्‍वी ने लेने वाली साध्‍वी से लाखों रुपए वसूले हैं। लेकिन यह भी तो कड़वा सच है कि अखाड़े भी मोटी मोटी दक्षिणाएं वसूलकर संन्‍यासियों को उपाधियां देते हैं। अगर ऐसा ही कुछ उनकी एक मण्‍डलेश्‍वरी ने भी कर दिया तो वे इतने ख़फा क्‍यों हो गए? हां, उनका जोर उपाधिनाम परिवर्तन का ही रहता तो बात कुछ और होती।

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

भारत रत्‍न केन्‍द्र

हरिद्वार तंत्र मंत्र और ज्‍योतिष का भी केन्‍द्र है। यहां दर्जनों रत्‍न केन्‍द्र हैं। लोग वहां जाते हैं और अपनी अपनी ग्रहदशा, औकात और उंगलियों के मुताबिक रत्‍न खरीद लाते हैं। इन दिनों भारतरत्‍न को लेकर जो धमाचौकड़ी मची है और जिस तरह राजनीतिक लोग अपनी अपनी वोट बैंक के मद्देनज़र अपने अपने नेताओं को भारतरत्‍न देने की सरेआम मांग करके अपने रत्‍न नेताओं का मखैल बनवा रहे हैं। उसे देखकर अपनेराम के ज्‍येष्‍ठबंधुवत मित्र पं. गोविन्‍द मिश्रा ने कहा कि काश हरिद्वार में कोई ''भारत रत्‍न केन्‍द्र'' होता तो सारी समस्‍या हल हो जाती ।
यूं पं. गोविन्‍द मिश्र का कहना है कि इन राजनेताओं की जगह इस बार भारतरत्‍न लक्ष्‍मी मित्‍तल या अम्‍बानी जैसे किसी व्‍यक्ति को देना चाहिए जिसने कमसे कम देश की गरिमा में चार चांद लगाए और हज़ारों हाथों को काम दिया । उनके आग्रह पर उनकी मांग को मैं अपने ब्‍लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूं।

सोमवार, 14 जनवरी 2008

पसंद आया हो तो आगे लिखूं ?


शंकराचार्य तो सुने थे पर पार्वत्‍याचार्य ? आपने सुने कभी ? चलिये मैं सुनाता हूं आपको किस्‍सा-ए-पार्वत्‍याचार्य। पहले आप मुझसे उस मकर संक्रांति की बधाई लें जिसके शुभअवसर पर पार्वत्‍याचार्य अस्तित्‍व में आ गईं। और फिर सुनें कि आज कनखल हरिद्वार के गंगाकिनारे के एक आश्रम में एक ही अखाड़े की एक संन्‍यासिनी ने दूसरी संन्‍यासिनी को शंकराचार्य की तर्ज़ पर पार्वत्‍याचार्य की उपाधि प्रदान करते हुए चांदी का दण्‍ड-कमण्‍डल थमा दिया। फिर नई नई पार्वत्‍याचार्य ने घोषणा कर दी कि कनखल में पार्वत्‍याचार्य की मुख्‍य पीठ होगी और अब वह देशभर में चार पीठ और बनाकर साधुसमाज में महिलाओं की प्रतिष्‍ठावृ‍द्धि के लिये प्रयास करेंगी।

वे जब यह घोषणा कर रही थीं तब इन संन्‍यासिनियों के अपने अखाड़े समेत शेष साधुओं के तेरहों अखाड़ों के प्रतिनिधि उस पूरे आयोजन का विरोध करने लिए आश्रम के दरवाज़े पर डटे थे। साधु बाहर हंगामा कर रहे थे और अगर पुलिस न होती तो आश्रम के भीतर भी हंगामा हो ही जाता ।

यूं तो यह घटना एक आश्रम के कमरे में घटी पर इसने हरिद्वार के साधु समाज में बवण्‍डर ला दिया है। पिछले पांच चार दिनों से अखबार रंगे पड़े हैं और टीवी चैनलों पर यह खबर गर्म है कि सारा साधु समाज अपनी ही संन्‍यासिनियों के विरोध में एक हो गया है। उनका तर्क है कि शंकराचार्य पद की तो सैकड़ों बरसों की सुपुष्‍ट परम्‍परा है। पार्वत्‍याचार्य की कोई परम्‍परा नहीं है और किसी एक के उपाधि देने या दूसरे के ले लेने भर से कोई नया पद सृजित नहीं हो सकता। यह धर्म और धार्मिक परम्‍पराओं के साथ खिलवाड़ है।

दूसरा पक्ष कहता है कि यह तो नारी के सम्‍मान का मामला है। अगर किसी संन्‍यासिनी ने धर्मप्रसार के लिये उल्‍लेखनीय कार्य किये हैं और कोई उस स्‍त्री-संन्‍यासिनी का सम्‍मान करना चाहता है तो आपत्ति क्‍यों है। और परम्‍पराएं कभी न कभी तो शुरू होती ही हैं। शंकराचार्य की परम्‍परा भी तो आचार्य शंकर से ही शुरू हुई है उनके पहले कहां थी यह ? फिर आज अगर पार्वत्‍याचार्य की परम्‍परा की नींव पड़ रही है तो आपत्ति क्‍यों ?

अब यह प्रश्‍न सारे समाज के लिए विचारणीय है । इसकी पूरी चर्चा मैं अपने ब्‍लॉग जगत में करना चाहता हूं पर सोचता हूं कि क्‍या ब्‍लॉगर बंधु इस विषय को जो धर्म से जुड़ा है विचारणीय ? इस विषय ढेर सारी रोचक सामग्री है क्‍या वे उसमें रुचि लेंगे ? उत्‍तर मिले तो आगे बढूं ।

शनिवार, 12 जनवरी 2008

ब्लॉगर बिरादरी में शोक

अनूप जी को भ्रातृशोक
हम अनूप जी को ‘सृजन सम्‍मान’ मिलने पर बधाई दे रहे थे पर हमें पता ही नहीं था कि उनके घर शोक का वातावरण है। मुझे आज ही शाम को सम्‍मान्‍य बड़े भैया डॉ. कन्‍हैयालाल नन्‍दन जी ने कानपुर से फोन पर बताया कि उनके बड़े भांजे यानी अनूप जी के बड़े भ्राताश्री का किसी हादसे में दो दिन पूर्व निधन हो गया है।
यह अत्‍यंत दुखद समाचार है। अनूप जी और उनके पूरे परिवार की इन शोक की घडि़यों में भी सारा ब्‍लॉगर परिवार उनके साथ है। प्रभु उनके बड़े भ्राताश्री को अपनी चरण-शरण दें और सारे शुक्‍ल परिवार को यह दुख सहने की शक्ति प्रदान करें।