एक समाचार एजेंसी ने लिखा है कि 'आजकल बाबा पूरी तरंग में हैं।' बाबा यानी अपने बाबा रामदेव। वे भी हरिद्वारी हैं और अपनेराम भी । अपनेराम और बाबा के बीच सात्विक किस्म के बड़े वैध संबंध हैं। वे मूलत: इसी धरती के हैं पर इन दिनों ऊंचे आकाश में उनकी सफल उड़ान के सभी क़ायल हैं। बाबा हरियाणा से चलकर हरिद्वार के हुए और हरिद्वार में रम-जम गए। हरिद्वार ने और यहां के भगवे माहौल ने बाबा के योग को प्राय: उद्योग में तब्दील कर दिया है। जो थोड़ा बहत बचा है उसेू भी जल्दी ही कर देंगे। मार्केटिंग और दूकानदारी के ज़माने बाबागीरी भी पीछें नही है।
बाबा ने जब जब जो जो किया अपनेराम ने तालियां बजाईं। पर बाबा रामदेव से अपनेराम को ये उम्मीद नहीं थी। अच्छे-खासे आसन-प्राणायाम करवा रहे थे। सारा देश उनके कहने से कपालभाति कर रहा था। पर उनके अपने कपाल में ये भूत पता नहीं कैसे घुस गया कि देश का सुधार करना है। आजकल वे कि वे राष्ट्र को सुधारने के लिये योगमंच से राजनीतिक अखाड़चियों को ललकार रहे हैं।
प्लीज, ऐसा न करो बाबा। आपकी चल गई इसका मतलब ये तो नहीं कि आप औरों की चलती हुई बन्द करने पर उतारू हो जाएं। अरे बाबा जी महाराज, अगर इस देश की राजनीतिक गंदगी को आपने अपने भारत स्वाभिमान ट्रस्ट की झाडू ये बुहार दिया तो उनका क्या होगा जो गन्दे रास्तों से चुने जाते हैं और फिर सारी मानसिक गंदगी अपने साथ लिये संसद में पहुंचते हैं।
यह जो कहा जा रहा है कि 'आजकल बाबा पूरी तरंग में हैं' यह वाक्य अपनेराम के ख़याल से अधूरा है। अपनेराम इसमें सुधारपूर्वक जोड़ना चाहते हैं कि गगनविहारी अपने बाबा आजकल पूरी तरह से रंग में हैं, तरंग में हैं और हवा में उड़ रहे तुरंग पर हैं। वे राष्ट्रीय से अंतर्राष्ट्रीय क्या हुए राष्ट्रवाद के अकेले ऐसे पुरोधा बन गए हैं जिन्हें देश की ओवर हॉलिंग की चिंता के कारण आजकल बिलकुल नींद नहीं आती है। कभी कभी लगता है बाबा की गाड़ी पटरी बदल रही है।
वैसे बाबा योगी हैं। इसलिये उन्होंने देश की नब्ज पकड़ ली है। वे समझ गए हैं कि ये देश बीमार है। जबसे आज़ाद हुआ है तभी से बीमार है। बीमारी का इलाज डॉ. कांग्रेस, डॉ. भाजपा, डॉ. बसपा, डॉ. सपा, डॉ. माकपा, डॉ. भाजपा, डॉ. कपा आदि अनेकानेक नामी-गिरामी डाक्टर कर चुके हैं पर देश की एक बीमारी कम या दूर होती है तो दूसरी उभर आती है। सब हैरान परेशान हैं कि देश को बीमारी से निजात कैसे मिले। बाबा ने इसके लिये योग का संयोग तलाशा है। आज की तारीख में जिस देश को गीता का कर्मसंदेश और लाखों भगवाधारियों का धर्म सन्देश नहीं सुधार पा रहा है उसे बाबा के रास्ते पर चलाने की मुहिम शुरू हो गई। अपने बाबा ने राष्ट्रीय बीमारियों का इलाज खोज लिया है और अमल में लाना शुरू भी कर दिया है।
वे योग से आदमी का इलाज तो करते ही थे, अब वे उसी से देश की कथित गन्दी राजनीति का इलाज भी करने वाले हैं। जो काम साठ साल में संविधान, कानून, नेता सरकार नहीं कर पाए उसे करने के लिये एक योगी ने झण्डा थाम लिया है। बाबा का मूड देखकर लग रहा है कि अब यह देश या तो योगियों का रहेगा या फिर भोगियों का। देश मेरे, बाबा की यह मुहिम अगर सफल हो गई तो बाबाराज आया ही समझो। योग से उद्योग और उसके बाद फिर राजोद्योग। यही राजयोग पथ है।
अपने लोकतंत्र के सारे डॉक्टर घबराए हुए हैं कि अगर बाबा के इलाज ने जोर पकड़ लिया तो उनकी दूकान पर कौन आएंगा। कुछ तो उस दिन को कोस रहे हैं जब उन्होंने और उनकी सरकारों ने बाबा और बाबा के जादू को अपने सिर पर बिठाकर देश को योगडांस दिखाया था।
अब बाबा ने बीमार लोकतंत्र से कहा है कि वह सामाजिक मूल्यों का हनन करने वाली पार्टियों का बहिष्कार करें। बाबा कहते हैं कि संसद में अनपढ़ न जाए, अपराधी न जाए, गैर-जि़म्मेदार चरित्रवाले न जाए। वे धड़ाधड़ चिटिठयां लिख रहे हैं। देश की सात राष्ट्रीय, चवालीस राज्श्यस्तरीय और 179 पंजीक़त राजनीतिक दलों के पास बाबा के फरमान पहुंच गए हैं कि अपने उम्मीदवारों की सूची में ढंग के लोग लाओ वरना......।
अब ये भी कोई बात हुई। साठ साल तक खूनपसीना एक करके हमारे नेताओं ने लोकतंत्र के मंदिर के द्वार इन्हीं लोगों के लिये तो खुलवाए हैं। लगता है बाबा को इस बड़ी जमात की कोई चिंता ही नहीं है। गजब कर दिया बाबा ने। अब क्या होगा। अगर बाबा का कहना लोकतंत्र ने मान लिया तो पार्टियां चुनाव में किसे उतारेंगी। बाबा की चिट़ठी से भारी अकुलाहट है। लोकतंत्र खुद हैरान परेशान है कि अब उसे आसन प्राणायम करना ही पड़ेगा। समाप्त।
शुक्रवार, 30 जनवरी 2009
योग, उद्योग और राजोद्योग
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 6:03 am 5 टिप्पणियॉं
गुरुवार, 22 जनवरी 2009
कल्याण के सिद्धान्त
ज्योतिषाचार्य पं.कल्याणसिंह ने भविष्यवाणी की है कि आने वाले आम चुनावों में भाजपा को अधिकतम छह और न्यूनतम चार सीटों पर ही संतोष करना पड़ेगा।उन्होने विश्वासपूर्वक यह भी कह दिया है कि पीएम इन वेटिंग आडवाणी वेटिंग ही करते रह जाएंगे और पीएम कोई और ही बन जाएगा।
यह सब सुनकर अपनेराम को तरस आ रहा है भाजपा पर कि इतने प्रतिभाधनी ज्योतिषी नेता को उसने केवल एक सीट के चक्कर में गंवा दिया। ये भाजपावाले उनके कहने पर एक बुलन्दशहर सीट दे ही देते तो भाजपा का सितारा बुलन्द हो जाता। वे भाजपा में बने रहते तो ऐसी भविष्यवाणियां मनमोहन और मुलायम को लेकर करते। और कुछ नहीं तो कमसेकम कुछ महीने भाजपा का माहौल खुशगवार बना रहता। राष्ट्रीय क्रांति का यह जनक भाजपा में बना रहता तो कुछ दिन और राष्ट्रीय भ्रांति बनी रहती कि आडवाणी ही अगले पीएम होंगे। पर अब आडवाणीजी को शेखावती झटके और मोदीय लटके ही नहीं बल्कि कल्याणी फटके भी झेलने को मजबूर होना पड़ रहा है। वे प्रतिभापति तो हैं ही इसीलिये जाहिर है कि प्रतिभा के धनी भी हैं। पर कल्याणवाणी के अनुसार तो उनकी सारी प्रतिभा के बावजूद उनके भाग्य में पीएम इन वेटिंग होना ही लिखा है, पीएम होना नहीं।
बार बार साबित होता है कि राजनीति वेश्या है और वह किसी भी कोठे पर बैठ सकती है या किसी को भी अपने कोठे पर बुला सकती है। अब देखिये न, कभी के कटखने आज एकदूसरे की पप्पी लेने पर उतारू हैं और वह भी सरेआम। कह रहे हैं कि दोस्ती हो गई है। मस्जिद गिराने का श्रेय लेनेवाले उतावले अब मुल्ला मुलायम की गोद में हैं। मुलायम का कल्याण करनेवाले कल्याण ने राष्ट्र को धृतराष्ट्री परम्परा याद दिला दी है कि किस तरह पुत्रमोह में सारे सिद्धांतों की बलि चढाई जाती है। एक ने अपना बच्चा दूसरे की गोद में दे दिया है। मुलायम बहुत मुलायम दीख रहे हैं। उन्होने राजबीर नामक बच्चे को गोद में लेकर पुचकारना शुरू कर दिया हैा अपनेराम को यकीन है कि मुलायम की गोद में यह बच्चा तब तक खेलता रहेगा जब तक उनकी धोती गीली न कर दे।
कल्याणसिंह को अपने स्टेटस का बड़ा ध्यान रहता है। यही वजह है कि उन्होंने अपने स्टेटस वाले से दोस्ती की है। लोग समझ लें कि यह दो विपरीत मगर सिद्धांतवादियों की दोस्ती है। दोस्ती का आधार तीन और छह के ही अंक हैं। अब तक के छत्तीस अब त्रेसठ होकर दोस्त बन गए हैं। यह एक ही प्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों की दोस्ती है यानी सेम स्टेटस। यह दो पूर्व अध्यापको की दोस्ती है और यह दोस्ती है दो धोतीवालों की। यानी अगेन सेम स्टेटस। और सबसे बड़ी बात यह है कि यह दो होनहार पुत्रों के स्नेहबद्ध पिताओं की दोस्ती हैा इस दोस्ती की जयजयकार होनी ही चाहिये। धिक्कार है इस दोस्ती को धिक्कारने वालों पर।
कल्याणसिंह बड़े आत्मगौरवी और स्वाभिमानी किस्म के राजनेता हैं। पर उनका स्वाभिमान हमेशा जाग्रत रहता हो ऐसा नहीं है। वह मौका देखकर जागता है और मौका मिलते ही सो जाता है। पिछले डेढ़ दशक में वह दो बार जागा और फिर सो गया। पिछले डेढ़ साल से उनका आत्मगौरव बिस्तर पर अंगड़ाइयां ले रहा था पर शायद भाजपा की थपकियां उसे सुला देती थीं और वह फिर सपने दिखानेवाली नींद के आगोश में दुबक जाता था। पर इस बार कल्याण के स्वाभिमान के सपनों में उमा भारती आ गई, बाबूलाल मराण्डी आ गए, मदनलाल खुराना आ गए और तो और शेखावत और मोदी तक आकर हंसने लगे तो क्ल्याणजी का स्वाभिमान अचकचाकर जाग बैठा। और अब जब वह जाग ही गया है तो मचलेगा ही।
कल्याणवाणी से स्ष्ट है कि वे न तो अब किसी पार्टी में जाएंगे और न नई पार्टी बनाएंगे पर अपने पुत्रमोह के सिद्धांत का बखूबी प्रतिपालन करने के लिये वे मुलायम की समाजवादी पार्टी का समर्थन जोरशोर से करेंगे। आखिर वे सिद्धांतवादी हैं और सिद्धांतप्रिय हैं। सिद्धांत उनकी जान है, उनका जहान हैं। वे सिद्धांतों के लिये ही जीते रहे हैं और सिद्धांतों के लिये ही मर मिटे हैं। आगे भी मरते मिटते रहेंगे पर सिद्धांत नहीं छोड़ेंगे। यमाप्त।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 10:26 am 5 टिप्पणियॉं
शुक्रवार, 16 जनवरी 2009
हवाओं को मत रोको
जाने कहां गए वो दिन जब अपने देश में सारे देश के नेता पैदा होते थे। कश्मीर ये कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक कहीं भी कोई पैदा होता था तो पहले भारतवासी होता था फिर किसी प्रांत, भाषा, भूषा या जाति धर्म का होता था। वह जब नेतागिरी करता था तो सिकुड़ी-सिमटी नेतागिरी नहीं करता था। देशभर की सोचता था, देशभर के लिए लड़ताजीता और मरता था। आजकल माहौल बदल गया है। पैदा आजकल भी कम नहीं होते और नेता बनने वालों की नफरी भी पहले से ज्यादा ही है। पर आजकल नेता मौहल्लों में पैदा होते हैं और वहीं की राजनीति करते खप जाते हैं। जिनमें थोड़ी बहुत कुव्वत होती है वे नगरपालिकाओं की सीमा से बढ़कर विधानसभाओं की दहलीज़ तक पहुचते हैं और वहीं ढेर हो जाते हैं। कुछेक का हाज़मा तगड़ा होता है वे दिल्ली के सपने देखते भी हैं और दिल्ली रिटर्न बन भी जाते हैं।
ये यब लिखते लिखते अचानक राजबाबू का ख्याल कौंध गया है। अरे वही राजबाबू जिन्हें उत्तरभारत से बड़ा प्यार है। अक्सर उत्तरभारतीय उनके सपनों में आते हैं और उन्हें डराते हैं। डरकर राजबाबू अनापशनाप बोलते हैं और फिर मीडियावाले उनके बोलेअनबोले को ले उड़ते हैं। अचानक राजबाबू अपने शहर में अस्थायी-हीरो और देश भर में जीरो बन जाते हैं। दरअसल राजबाबू का शहर ही उनका प्रांत और प्रांत ही उनका देश है। वे आज़ादी के बाद की पैदाइश हैं और आ़ज़ादी का मतलब जानने समझने के लिये भी आज़ाद हैं। वे अक्सर भूल जाते हैं कि वे जहां पैदा हुए हैं वहां उनसे पहले राष्ट्रवीर शिवाजी, गोखले, तिलक, अम्बेडकर, फुले, जैसे राष्ट्रचिंतक और ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ, समर्थ रामदास आदि जैसे समाज और धर्मचिंतक भी अवतरित हुए हैं। महाराष्ट्र को इन लोगों ने क्या दिया यह सोच सोचकर छाती फूलती है और अपने राजबाबू से देश को क्या मिल रहा है यह देख देखकर मतली सी होने लगती है।
दोस्तों जैसा कि आप जानते ही हैं अपना एक राष्ट्र है। उस राष्ट्र के भीतर अपना ही एक महाराष्ट्र है। उस महाराष्ट्र के भीतर दो महाराष्ट्र और हैं। एक अन्त:महाराष्ट्र और एक बृहन्महाराष्ट्र। अन्त:महाराष्ट्रियन वे जो महाराष्ट्र की सीमाओं में रहते और मराठी बोलते हैं। और बृहन्महाराष्ट्रियन वे जो मराठीभाषी हैं पर महाराष्ट्र की सीमाओं से बाहर सारे देश और विदेश में भी फैले हुए हैं। करीब दो करोड़ की तादाद में हैं ये लोग। अपनेराम भी उनमें से ही एक हैं। उधर राजबाबू उनके मसीहा बने फिर रहे हैं जो उनके इर्दगिर्द हैं।
अपना दर्द ये है कि अन्त:महाराष्ट्र वाले राजबाबू जैसे लोग बृहन्महाराष्ट्र वालों का दर्द नहीं समझते। महाराष्ट्र के ये छुटभैये राजनेता अपने वोटबैंक के चक्कर में महाराष्ट्र से बाहर रहने वाले मराठीभाषियों को भूल बैठे हैं। यही वजह है कि महाराष्ट्र से बाहर के मराठीभाषियों ने जब अपना अधिवेशन जब उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में करना तय किया तो उस पर गोरे राजबाबू की काली छाया पड़ गई। दिसम्बर 2009 के अंत में देशभर के मराठीभाषी देहरादून में एकत्र होकर उत्तराखंडियों का स्वागत सत्कार स्वीकारने वाले थे पर अपने राजबाबू की मति ऐसी फिरी कि उन्होंने देशभर के उन मराठीभाषियों की जान सांसत में डाल दी जो महाराष्ट्र से बाहर रहते हैं और जिन्हें बाकी देशवासियों का भरपूर प्यार मिलता है। उय प्यार में तो कोई कमी राजबाबू के कुछ किये से नहीं आई पर राजबाबू ने दरार डालने में कोई कसर भी नहीं छोड़ी। अपनेराम का सोचना यह है कि राजबाबू जैसों के हाथ में अगर सचमुच का राज आ जाए तो फिर अपनेराम तो मुम्बई-पुणें की ओर मुंह करके बैठ भी नहीं पाएंगे।
शुक्र है कि अपनेराम राजबाबू की छाया ये भी दूर हैं। दूर उत्तराखंड में अपनेराम का बसेरा है और इसीलिये बृहन्महाराष्ट्रियन के तौर पर हैं पर इन दिनों अन्त:महाराष्ट्र में प्रवासी हैं। उत्तराखंड की कड़कड़ाती ठण्ड राहत लेते हुए आजकल पुणे के गुलाबी मौसम का आनन्द ले रहे हैं। कल मराठाभूमि सातारा जाना है। देहरादून का स्थगित बृहन्महाराष्ट्रियनों का अधिवेशन अब सातारा में हो रहा है। राजबाबू की करतूतों का ही यह नतीजा है कि बृहन्महाराष्ट्रियनों को सारा देश छोड़कर महाराष्ट्र में ही लौटना पड़ा है। अपनेराम के दर्द का यह भी एक कारण है। क्या देश अब ऐसे ही नेताओं के कहने पर चलेगा जो देशवासियों को देशवासियों का भी न रहने देंगे। अपने घर के कैदी बनकर जीने में नहीं बल्कि सबके साझे आकाश के नीचे घरौंदा बनाकर साथ साथ जीने का आनन्द कौन समझसएगा राजबाबू जैसों को। भाई, अपने घर के खिड़की दरवाज़े बन्द करके घुटने में नहीं बल्कि उन्हें खुला रखकर हवाओं को मुक्त बहने देने में सुख है। यह सुख समझो जिसे हमारे तुम्हारे पुरखों ने समझा और हम खुली हवा में सांस ले सके। क्या ये अधिवेशन ऐसा कुछ कर पाएंगे या ये भी राजनेतओं की कटपुतली भर रह जाएंगे।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 3:50 am 7 टिप्पणियॉं
बुधवार, 7 जनवरी 2009
या खुदा, उनकी समझदानी बड़ी कर दे
आख्रिर पडौ़सी देश के बापों ने माना तो सही कि लड़का उनका ही हैं। वे तो मान ही नहीं रहे थे कि लड़का उनका है। बहुत समझाया। समझाते समझाते डेढ़ महीना हो गया। पर भाईलोग नन्ना की रट ही लगाए बैठे थे । लड़के के असली बाप ने शुरू में ही कह दिया था कि लड़का उसका है, पर उस देश के बापों ने लड़के के बाप को सूचित किया कि नहीं, लड़का तुम्हारा नहीं है। जब हम कह रहे हैं कि तुम्हारा नहीं है तो तुम भी कहो कि लड़का तुम्हारा नहीं है। पर लड़के बाप सियासी बापों की तरह बेगैरत नहीं था। उसने प्रेसवालों को बता दिया कि वही लड़के बाप है और वह लड़का उसीका है।
सारे जहांन में प्रेसवालों ने डौण्डी पीट दी कि लड़का उन्हीं का है। देखो, ये लड़के का गांव देखो, गांववाले देखों, उसका घर देखों घरवाले देखो यितेदार देखों, दोस्त देखों। सब कुछ दिखा दिया टीवी के परदा-ए-स्क्रीन पर। लेकिन अंधे तो काला चश्मा लगाए बैठे थे। उन्होंने गांव को ही *सील* कर दिया और लड़के के बाप-मां को रिश्तेदारों समेत गायब करवा दिया। ये नासपिटे, कबूतर के खानदानी। गांधारी के वंशज, आंखें बन्द कर लीं और समझ्ा लिया कि दुनिया में रात हो गई। अब उन्हें कोई नहीं देखेगा। जोर जोर से कहने लगे कि नहीं, लड़का बाप का है ही नहीं। जो सबूत दे रहे हो वे सबूत ही नहीं हैं। हैं तो झूठे हैं। इसी बीच एक दिन जेल की कोठरी से बच्चे के रोने की आवाज़ आई-----मम्मी पाछ जाना ए, मम्मी की याद आ लई ए। उसने चिट्ठी भी लिखी अपने आक़ाओं को। पर उनकी वही रटंत-- बच्चा हमारा नहीं है। हमने भी समझाया, दुनिया ने भी समझाया कि अरे नामुरादों, अपने बच्चे को तो अपना कहने की हिम्मत जुटा लो। पर कायर नामुराद भला क्यों मानते? सारी दुनिया से चीख चीख कर कहने लगे कि ये लड़का हमारा नहीं है।
तुम्हारा नहीं है तो किसका है भाई? पड़ौसी का तो है नहीं। अब ये माना जा सकता है कि तुम्हारे यहां बच्चे पड़ौसी के घर पैदा होने की रवायत हो। पर ये बच्चा और उसका बाप दोनों कह रहे कि वे ही बाप-बेटे हैं तो मानते क्यों नहीं? दुनिया-जहान ने समझाई कि यार भाई, अपने लड़के को अपना लड़का कहने में शरम क्यों कर रहे हो? बाकी बातें बाद में कर लेंगे पहले बच्चे को तो पुचकार लो। न लो। पर पड़ौसीभाई तो पड्रौसीभाई ठहरे। वे शरम से नहीं, अकड़ से कह रहे थे कि सबूत दो कि लड़का हमारा
अब भला बताओ कि ये कोई बात हुई? लड़का तुमने पैदा किया, पाला पोसा बड़ा किया और सबूत हम दें कि लड़का तुम्हारा है। भाईजान, साफ बात यह है कि इस लड़के की पैदाइश में हमारा कोई हाथ नहीं है। बल्कि हम तो यहां तक कहते हैं कि इस तरह कसब-कसाई सीमापार ही पैदा किये जाते हैं। इधर नहीं।
दुनिया में असली को लोग मानते नहीं पर नक़ली को सब मानते हैं। पड़ौसियों की भी यही आदत है। अपने घर परिवार के असली बापों को नकार देते हैं और सात समुन्दर पार बैठे महाबापों की चिरौरी करते हैं। उन्हें अपना असली बाप मानते हैं। तो किस्सा कोताह ये कि सात समुन्दी परा से महाबापों ने इनके यहां चाचू-मामूं भेजे और समझाया कि मान जाओ नामुरादों हमारी भी नाक कट रही है। नहीं मानोगे तो आपजी क्या कर बैठें पता नहीं। खानदान की इज़्जत के लिये ही मान लो कि पडौसियों के यहां तुमने अपने ही लल्ला भेजे थे। अब कहीं जाके भाईखां माने हैं कि यह पितरती औलाद उन्हींकी खानदानी है। अब नया सवाल आएगा। ज़िन्दा उनका है तो बाकी नौ मुर्दे किसके हैं। कहीं ये मुर्दे उनके कब्रिस्तान के लिये भी नालायक घोषित न कर दे हमारा पड़ौसी। उसकी समझदानी बड़ी छोटी है। खुदा उसकी समझ्दानी बड़ी करे। आमीन ।
--
सादर,
डॉ. कमलकांत बुधकर
http://yadaa-kadaa.blogspot.com
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 8:10 am 8 टिप्पणियॉं
सोमवार, 5 जनवरी 2009
हर हर महादेव
कल रात जो कुछ लिखा वह व्यर्थ तो नहीं गया पर हां, तीसरी बांख खोलने और विष पीने की ज़रूरत नहीं पड़ी भोलेभण्डारी को। ताज़ा समाचार यह है कि अपने भारत्तीय मुलायम ने नेपाली प्रचंड को की गर्मी ठण्डी कर दी और उन्हें समझा दिया कि भाई राज करना है तो धर्म को छेड़ने का अधर्म मत करोङ प्रचण्ड अब शांत हैं। वे शांत हैं तो प्रलयंकर भी शांत होंगे ही। भारतीय दाक्षिणात्य मूलभट्रट पुजारियों को पूजा आरती की कमान सौंप दी गई है और पशुपतिनाथ का जलाभिषेक शुरू हो चुका है। बोलिये ---- हर हर महादेव ।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 9:08 pm 2 टिप्पणियॉं
इस बार विष उगलो
क्षमा कीजियेगा, सूचनार्थ निवेदन यह है कि ऊपर का लिखा यह सब एक हिन्दू ने लिखा है, किसी शिवसेनाई या भाजपाई ने नहीं। ऐसा ही समझकर पढ़ें और स्वीकारें।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 9:51 am 1 टिप्पणियॉं
शनिवार, 3 जनवरी 2009
मास्टरों की अमीरी
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 3:05 am 14 टिप्पणियॉं
गुरुवार, 1 जनवरी 2009
आंखों में मोतिया, गोदी में मोती
2008 भी गया। बहुत कुछ ले गया और बहुत कुछ दे गया। मैंने 2008 में केवल पांच पोस्ट लिखीं। जनवरी में तीन अक्तूबर में एक और दिसम्बर में एक । यह भी कोई बात हुई। ब्लॉग जैसी विधा और लेखन में इतना अंतराल। बडी शर्मनाक स्थिति है। लेकिन क्या करूं। सारा साल यूं ही अनुर्वर बीतने के पीछे भी ठोस, लेकिन व्यक्तिगत कारण रहे। खासकर आंखों की तकलीफ ने साल भर कम्प्यूटर से प्राय: दूर ही रखा। दरअसल अपनेराम बहुत मीठे हैं। अपने भीतर जमकर मधु मेह यानी मेघ बनकर बरसता है। अगजग भले कितना कडवा हो जाए पर अपनेराम तो भीतर के मधु से लबालब रहते हैं। पर कोई अपनी मिठास में मगन रहे यह भी किसी को कहां सहन होता है। इंसान की तो फितरत में ही चिढना कुढना शामिल है पर इस प्रकृति का कोई क्या करे जो खुद भी मिठास के ज्यादा पक्ष में नहीं है। जो भीतर से ज्यादा मीठा होता है उसे यह प्रकृति अजीबोगरीब सजाएं देती है। मसलन, अपनेराम को उसने आंखें दिखा दीं। नतीजा यह निकला कि भीतर की मिठास कडवी बनकर आंखों में उतर आई। पहले आंखों में अपना ही खून उतरा । यह पता ही नहीं चल सका कि खून किन दुश्मनों के खिलाफ उतरा है। अब खून उतर तो नजर धुंधला गईं। उनका लेजर किरणों से इलाज करवाया तो बाईं आंख के रेटीना महाशय रूठकर एक ओर सरक गए। डॉ. सुमीत जैन मुजफ्फनगरवालों ने उन्हें खींचतान कर जगह पर स्थापित किया तो आंख में मोती आ गया।
आंसुओं को मोती कहते तो सुना था पर सीपी छोडकर मोती आंखों में बैठ जाता यह पहली बार ही पता चला। जिनकी आंखों में ऐसे नगनगीने समा जाएं उनकी आंखें भी असल दुनिया कहां देख पाती हैं। सो अपनेराम भी अब डॉ. सुमीत जैन मुजफ्फनगरवालों की मदद से यह मोती निकलवाए जाएंगे और शायद 5 जनवरी के बाद से अपनेराम ठीक से पढने लिखने में जुटेंगे।
यूं अब आंखों में मोतियों की जरूरत नहीं है क्योंकि 2008 ने अपनेराम को पोतों के रूप में दो दो हंसते खेलते मोतियों से नवाजा है। पहले 9 अगस्त को छोटी बहूरानी सौ. पारुल पल्लव ने अथर्व दिया तो दो महीने बाद ही 6 अक्तूबर को बडी बहूरानी सौ. मृणाल सौरभ ने अद्वय हमारी गोद में दे दिया। यानी आंखों के मोती धरती पर आकर हंसने खेलने लगे। नववर्ष की इस पहली किश्त का शीर्षक बना आंखों में मोतिया, गोदी में मोती।
अब इस बरस आपसे ढेर सारी बातें कहनी हैं, लिखनी हैं। कहने लिखने की बेचैनी बढती जा रही है। यह दूर होगी तभी चलेगी कलम की दुनियादारी। आप सबकी दुआएं मिल जाएं तो दो हजार नौ में कष्ट पीडाएं नौ दो ग्यारह हों और सरपट दौडे अपनेराम की कलम ।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 11:32 pm 2 टिप्पणियॉं