2008 भी गया। बहुत कुछ ले गया और बहुत कुछ दे गया। मैंने 2008 में केवल पांच पोस्ट लिखीं। जनवरी में तीन अक्तूबर में एक और दिसम्बर में एक । यह भी कोई बात हुई। ब्लॉग जैसी विधा और लेखन में इतना अंतराल। बडी शर्मनाक स्थिति है। लेकिन क्या करूं। सारा साल यूं ही अनुर्वर बीतने के पीछे भी ठोस, लेकिन व्यक्तिगत कारण रहे। खासकर आंखों की तकलीफ ने साल भर कम्प्यूटर से प्राय: दूर ही रखा। दरअसल अपनेराम बहुत मीठे हैं। अपने भीतर जमकर मधु मेह यानी मेघ बनकर बरसता है। अगजग भले कितना कडवा हो जाए पर अपनेराम तो भीतर के मधु से लबालब रहते हैं। पर कोई अपनी मिठास में मगन रहे यह भी किसी को कहां सहन होता है। इंसान की तो फितरत में ही चिढना कुढना शामिल है पर इस प्रकृति का कोई क्या करे जो खुद भी मिठास के ज्यादा पक्ष में नहीं है। जो भीतर से ज्यादा मीठा होता है उसे यह प्रकृति अजीबोगरीब सजाएं देती है। मसलन, अपनेराम को उसने आंखें दिखा दीं। नतीजा यह निकला कि भीतर की मिठास कडवी बनकर आंखों में उतर आई। पहले आंखों में अपना ही खून उतरा । यह पता ही नहीं चल सका कि खून किन दुश्मनों के खिलाफ उतरा है। अब खून उतर तो नजर धुंधला गईं। उनका लेजर किरणों से इलाज करवाया तो बाईं आंख के रेटीना महाशय रूठकर एक ओर सरक गए। डॉ. सुमीत जैन मुजफ्फनगरवालों ने उन्हें खींचतान कर जगह पर स्थापित किया तो आंख में मोती आ गया।
आंसुओं को मोती कहते तो सुना था पर सीपी छोडकर मोती आंखों में बैठ जाता यह पहली बार ही पता चला। जिनकी आंखों में ऐसे नगनगीने समा जाएं उनकी आंखें भी असल दुनिया कहां देख पाती हैं। सो अपनेराम भी अब डॉ. सुमीत जैन मुजफ्फनगरवालों की मदद से यह मोती निकलवाए जाएंगे और शायद 5 जनवरी के बाद से अपनेराम ठीक से पढने लिखने में जुटेंगे।
यूं अब आंखों में मोतियों की जरूरत नहीं है क्योंकि 2008 ने अपनेराम को पोतों के रूप में दो दो हंसते खेलते मोतियों से नवाजा है। पहले 9 अगस्त को छोटी बहूरानी सौ. पारुल पल्लव ने अथर्व दिया तो दो महीने बाद ही 6 अक्तूबर को बडी बहूरानी सौ. मृणाल सौरभ ने अद्वय हमारी गोद में दे दिया। यानी आंखों के मोती धरती पर आकर हंसने खेलने लगे। नववर्ष की इस पहली किश्त का शीर्षक बना आंखों में मोतिया, गोदी में मोती।
अब इस बरस आपसे ढेर सारी बातें कहनी हैं, लिखनी हैं। कहने लिखने की बेचैनी बढती जा रही है। यह दूर होगी तभी चलेगी कलम की दुनियादारी। आप सबकी दुआएं मिल जाएं तो दो हजार नौ में कष्ट पीडाएं नौ दो ग्यारह हों और सरपट दौडे अपनेराम की कलम ।
गुरुवार, 1 जनवरी 2009
आंखों में मोतिया, गोदी में मोती
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 11:32 pm
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2 टिप्पणियां:
बढ़िया पोस्ट...दोनो मोतियों की तस्वीरों से भी सजाते तो बेहतरीन कहते इसे :)
sir, bahut dino baad aapka likha padhne ko mila accha laga padhkhar ab yahi aasha hai ki is nav varsh me aapki abhivyakti ke sajhi ban sake hum..
Dr.Ajeet
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