मास्टर का अमीर होना भारतीय शिक्षक परम्परा में कभी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा गया। समाज हमेशा से मानता रहा है कि मास्टर जी को अमीर होने का कोई अधिकार नहीं है, वे केवल सम्मान की चीज हैं। एक धोती, ऊपर से शर्ट या कुर्ता, काली या सफेद टोपी और पैरों में चप्पलें। सर्दी हो तो कोट और बरसात हो तो हाथ में छाता। हिन्दी फिल्मों ने भी कमोबेश मास्टर का यही खाका ज़हन में उतार रखा है। आर.के. लक्ष्मण के कॉमनमैन किस्म का प्राणी ही मास्टर होता रहा है।
पारम्परिक मास्टर की सोच पर एक लतीफा आपने भी सुना होगा---''एक मास्टर जी अपने साथी मास्टर जी से कह रहे थे कि अगर उन्हें बिड़ला जी की सारी फैक्टरिया, उद्योग-धंधे, बैंक बैलेंस और लॉकर-तिजोरियां मिल जाएं तो वे बिड़ला जी से ज्यादा अमीर हो जाएंगे।'' साथी ने आश्चर्य से पूछा- 'वो कैसे' । मास्टर जी ने गम्भीरता से उत्तर दिया- ''अरे भई, दो ट्यूशन भी तो करूंगा अलग से।''
पर इधर देश ने तरक्की क्या की, मास्टर भी तरक्की पसंद हो गए। उनका हुलिया भी बदल गया। प्राईमरी से विश्वविद्यालय स्तर तक सोच में अंतर आया हो या न आया हो, मास्टरों के ओढ़ने-पहनने और रहने के ढंग में ख़ासा बदलाव आ गया है। सबसे बड़ी बात यह हुई है कि देश के नौजवान वोटर सीधे मास्टरों के ''टच'' में हैं। रोज़ाना उन्हें सुन सुनकर ये वोटर अपना मन तो बना ही सकते हैं। और अगर मन बन गया तो राजपुरुषों के वारे-न्यारे हो सकते हैं। सो इन गरीब मास्टरों को खुश करना भी राजधर्म है। इसी राजधर्म का पालन किया गया है।
नये साल में मास्टर और ज्यादा अमीर हो गए हैं। थोड़े बहुत अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अमीरी के लिये भी कडी मेहनत करनी पडती है। ये जिन थोड़े बहुत अपवादों की मैंने चर्चा की है उनमें माबदौलत भी शामिल हैं। दोस्त कहते हैं पिछले जनम में मोती दान किये होंगे जो इस जनम में मास्टर, वह भी विश्वविद्यालय के मास्टर हो गए। सचमुच वे झूठ नहीं कहते। पिछला जनम जरूर होता होगा क्योंकि इस जनम में बिना कोई रिश्वत दिये मास्टर बने और बत्तीस बरसों से बिना किसी अतिरिक्त श्रम के मास्टर बने ही हुए हैं। मेरा यह जुमला मेरे साथी मास्टरों को नाराज़ कर सकता है। इसलिये अतिरिक्त-श्रम न करने की बात माबदौलत अपने ही मामले में कर रहे हैं।
ईश्वर झूठ न बुलवाए, हर साल की शुरुआत में अपनेराम छात्रों को पहले दिन एक व्याख्यान देते हैं जिसका लुब्बेलुवाब यह है कि, ''भाई लोगों, हमें मास्टर बने रहने दो। जब आप लोग सफर करते हुए बीए एमए तक आ ही गए हो तो थोड़ी बहुत पढ़ाई विश्वविद्यालय में आकर भी कर लो। वैसे तो आजकल विश्वविद्यालय विश्वालय ज्यादा होते हैं विद्यालय कम। पर जब आ ही गए हो तो पढ़ लो। नहीं भी पढ़ोगे तो मैं आपका क्या बिगाड़ लूंगा और आप मेरा क्या कर लेंगे।''
मैं उनसे कहता हूं, ''भाई, हमारी दुनिया सारी दुनिया से अलग है। मसलन सारी दुनिया में साल बारह महीनों का होता है पर हमारे यहां दो महीने की अनिवार्य छुटिृटयां काटकर साल रह जाता है दस महीनों का। औरों का महीना तीस इकतीस दिनों का होता है पर हमारा महीना तिथि-पर्वों, त्योहारों, जयंतियों, मरण तिथियों के अनिवार्य सार्वजनिक अवकाशों के बाद प्राय: बीस दिन का ही बचता है। दुनिया वालों का दिन अगर चौबीस घण्टों का है तो हमारा दिन तीन चार घण्टों से ज्यादा का नहीं है। और इन चार घण्टों में भी हमारी कैजुअल, मेडीकल, अर्न्ड लीव आ जाए तो कोई आश्चर्य। हमारी लीव न आए और आपकी आ जाए तो वहीं कहावत वही सच होगी कि, ''चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर, कटना खरबूजा ही है।''
सो भाई लोगों, आओ और हमसे विद्यादान ले लो।''
पर नहीं, कोई नहीं आता विद्यादान लेने। अगर एक दिन आ गए तो अगले दिन वे नहीं आते, कोई और ही आते हैं। जो अगले दिन आते हैं वे तीसरे दिन गायब मिलते हैं। सप्ताह पूरा चल जाए तो एक छात्र की सूरत दो एक बार ही दीखती है मुझे।
इसके बाद भी छात्र परीक्षा देते हैं, पास होते हैं और नौकरियां पा जाते हैं। उन्होंने भी पिछले जनम में मोती ही दान किये होंगे। ऐसे छात्र पाकर तो हम पहले ही अमीर थे। अब हमें सरदारी-सरकार ने और अमीर बना दिया है। उनका शुक्रिया। पर युवाओं में वोटर ढूंढने वाली सरकारें मास्टरों को विद्यार्थी कब मुहैया कराएंगी, कोई बताएगा अपनेराम को।
14 टिप्पणियां:
मान्यवर आपने अच्छा व्यंग करते हुए अपनी पीडा को व्यक्त किया है आपको साधुवाद
मामाजी,
आप पढ़ाने के लिए तैयार हैं. लेकिन पढायेंगे किसे? छात्र होंगे तब तो पढेंगे. वे तो वोटर हैं. और वोटर को पढ़ाने का काम नेता करता है. पिछले जनम में मोती दान करके आप इस जनम में मास्टर बने. छात्र पिछले जनम में मोती दान करके वोटर बने. ये वोटर ख़ुद के और नेताओं के बीच मास्टर को नहीं आने देंगे. वे तो इस जनम में अपना मोती खोज रहे हैं ताकि उसे दान करके अगले जनम में वोटर बन सकें. उन्हें मोती खोजने दीजिये.
बहुत दिनों बाद आपकी पोस्ट पढ़कर प्रसन्नता हुई.
बहुत बढ़िया लिखा है।
घुघूतीबासूती
सुन्दर व्यंग्य!
छात्र पिछाले जनम में मोती का दान प्राप्त कर छात्र बने और आप मोती दान कर मास्टर बने . आपकी पीड़ा को छात्र ही अच्छी तरह से समझ सकते है . आप पढाइये हम नेट पर आपको पढेंगे . जय हो गुरुदेव जय हो . व्यंग्य बढ़िया....
क्या केने, क्या केने। इत्ती अमीरी का ढोल ना पीटें, मास्टरों की। सरजी अपहरण टाइप हो लेगा।
bahut sateek lekh hai.. itna kam padh kar bhi vidhyarthi pass ho jate hain aur naukri pa jate hain..bahut khoob..
वाह जी वाह!!!
और अपने प्राईमरी के मास्टर के बारे में??????
अलोक जी सही कह रहे हैं .... हमारे जनपद के दूरस्थ हिस्सों में सबसे ज्यादा अपहरण की धमकियाँ ग्रामीण अंचल के प्राईमरी के मास्टरों को ही मिलती हैं!!!
अच्छा व्यंग????
मजा आ गया काका, इधर तो लगभग सारी यूनिवर्सिटियों में कुलपति-कुलपति का खेल चल रहा है, हर कोई कुलपति बनना चाहता है, विश्वविद्यालयों में फ़र्जी नियुक्तियाँ हो रही हैं, कोर्ट केस चल रहे हैं, जूतमपैजार हो रही है… गरज कि पढ़ाई के अलावा सब कुछ हो रहा है… सरकारी कर्मचारियों की "सनातन" परम्परा को निभाते हुए "काम कोई करना नहीं चाहता, छटा वेतन आयोग सभी को चाहिये"… वैसे भी एक बात पहले कहीं पढ़ी थी…
"A Lecturer is, one who reads and teaches... A Reader is, one who reads but doesnt teach... A Professor is, one who neither reads nor teaches... A Vice Chancellor is one who doesnt allow anyone to read and teach..."
अब प्रोफ़ेसरों की तनख्वाह 80000 हजार हो रही है (हफ़्ते में 4-6 पीरियड लेने की) और कुलपति तो आईएएस से भी बड़ा हो गया है, और उसे राजनीति-जोड़तोड़ के अलावा और कुछ भी नहीं करना है… नेताओं ने भी सोचा होगा कि जब चारों ओर लूट मची हो तो बेचारे मास्टरों को क्यों वंचित रखा जाये… जय हो उच्च शिक्षा की,
मोती दान करने से विद्या दान करने में आसानी हो जाती है । यूं कहें बिना दान किए ही लाख गुना फ़ल प्राप्त होता है । प्लीज़ पता लगाइये ना ,मोती बसरा का ज़्यादा फ़ायदा पहुंचाता है या कल्चरड भी चलेगा दान - पुण्य के लिए ...।
शिक्षा देना सबसे पुण्य का कार्य है -
शानदार...धारदार...चुटीला...
लंबे विराम-आराम के बाद आपका सक्रिय होना
सुखद है...
जै जै
सुन्दर |
वाह। इत्ते दिन बाद आपको फ़िर से पढ़ना बहुत अच्छा लगा। आप नियमित लिखा करें न!
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