एक कहावत सुनते चले आ रहे हैं कि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। बात सही भी है। एक को बाहर रहना ही पड़ेगा। इस कहावत का एक मज़ेदार पारम्परिक उदाहरण भी सुनते आ रहे हैं। अवंतिका यानी उज्जैन के महाकालेश्वर महादेव को वहां का राजा माना जाता है। यह सब जानते हैं कि एक राज्य में राजा एक ही हो सकता है, एक ही होता है। जब अवंतिकापुरी लौकिक परिस्थितियों में ग्वालियर के सिंधियाओं के कब्जे में आई तो समस्या खड़ी हुई कि अवंतिका में तो राजा महाकाल है। तो ऐसे में उनके समानान्तर सिंधिया महाराज कैसे रह पाएंगे? तो परम्परा का सूत्रपात करके समस्या का तोड़ यूं निकाला गया कि महाराजा सिंधिया केवल दिन दिन में ही उज्जैन में रह पाएंगे। रात को उन्हें उज्जैन की सीमाओं से बाहर रहना होगा। सिंधिया राजपरिवार राजपाट छूटने के बाद भी सुना है इस परम्परा का निर्वाह आज तक कर रहा है।
उधर पड़ौसी देश नेपाल में भी शायद ऐसा ही कोई धर्मसंकट पैदा हो गया है। वहां तो परम्परानुसार पशुपतिनाथ के चरणों में वहां राजा विक्रमशाहदेव नतमस्तक रहता आता था। पर माओवादियों ने पहले राजा विक्रमशाहदेव को उखाड़ फेंका और अब उस *देव* के देव यानी देवाधिदेव का हुक्का-पानी बन्द करवाने पर आमादा है। राजा तो अकेला ही रहेगा। साम्यवादी और माओवादी भी इस परम्परा में विश्वास करते दीखते हैं।
पर देवाधिदेव और महादेव आदि अनेक विशेषणों और पूजोपाधियों से हिन्दू मन-मानस में रचे-बसे भगवान शंकर दुनियाभर के भक्तों के मनमंदिरों के अलावा लाखों पाषाणमंदिरों में भी शोभित-पूजित हैं। भोले भण्डारी और आशुतोष शिव नाम से ही कल्याणमूर्ति हैं। अशिव का नाश और शिवत्व की स्थापना ही उन्हें प्रिय है। वे खुद तो अर्धनग्न औघड़ बने रहते हैं पर अपने भक्तों को वे अपने अनुग्रह की अमित संपत्ति से निहाल करते रहते हैं।
ऐसे भक्तवत्सल औढरदानी इन दिनों अपने भक्तों की बेचारगी पर दुखी चल हैं। यह दुख, यह दर्द नेपाल की सीमाओं से ही उभरा है। सदियों से नेपाली हिन्दूओं के प्रथमपूज्य पशुपतिनाथ इन दिनों पूजा-आरती तक को तरस गए हैं। बागमती नदी के तट पर सदियों से पूजित उनके जगत्प्रसिद्घ मंदिर पर नेपाल के सत्ताधारी माओवादियों की नज़रें इन दिनों टेढ़ी हैं। जो प्रजातंत्र के दिनों में राजा-प्रजा दोनों के पूजित थे वे हाल-पिलहाल सत्ताधीशों की उपेक्षा से बेहाल हैं।
जो समाचार मिल रहे हैं उनके मुताबिक सत्ताधारियों का कोई झगड़ा भगवान जी से नहीं है। हो भी कैसे सकता है? साम्यवादी मतलब समता वादी। और समतावादी लिये भक्त और भगवान दोनों समान हैं। अब जब उन्होंने नेपाली समाज पर कब्जा कर लिया तो समाज के भगवान पर क्यों न करें? और भगवान भी ऐसे-वैसे नहीं, अरबों-खरबों की संपत्ति वाले। जिस देवालय के खजाने में संपत्ति की थाह न हो और जिसके आगे सारा राज-समाज झुकता हो वह सत्ताधारी के लिये आस्था के साथ भय का भी कारण हो जाता है। मानव इतिहास ऐसी अनेक घटनाओं का गवाह रहा है जब धर्म की सत्ता ने राजा की सत्ता को पटखनी दी है।
नेपाल में हुई राजक्रांति के बाद नये सत्ताधीशों के सामने नेपाल के राजा से भी ज्यादा खतरनाक थी आस्तिक हिन्दुओं की आस्थास्थली पशुपतिनाथ का मंदिर। माओवादी यह कैसे सहन करते कि उनके साम्यवाद को कोई पारंपरिक मठ-मन्दिर चुनौती दे? सो उनकी भ्रकुटि टेढ़ी हुई और मंदिर के मूलभट्ट सहित सारे दक्षिण भारतीय भट्ट पुजारी एक एक कर बाहर कर दिये गए या हो गए और देवाधिदेव की सदियों से चली आ रही पूजा-आरती में व्यवधान पड़ गया।
बहरहाल परम्पराभंजन से अगर समाज का भला होता है तो परंपराभंजन को स्वीकारने में कोई हर्जा नहीं है। पर अगर परम्पराभंजन केवल भंजनेंात्र या अपनी तलवार भांजने मात्र के लिये ही है अथवा उसके कोई अन्य निहितार्थ हैं तो उन्हें भी टटोला जाना चाहिये। यह जानना भी ज़रूरी है कि कभी कभी केवल परंपराएं ही राष्ट्र का स्स्वरूप बनाती हैं। परम्परापोषित ब्रिटेन अपनी परंपराओं पर नाज़ करता है और इसी कारण *ग्रेट* भी कहलाया है। पर जनाब, वे गोरे हैं अंग्रेज हैं, ठण्डे मुलुक वाले हैं और हमारे आक़ा रहे हैं। वे ऐसा करें तो उन्हें हक है। पर हम काले हैं, पिछड़े हैं, हिन्दू हैं, गरम देश में रहते हैं और शासित होते आए हैं। अपनी परम्पराएं निभाकर गौरवान्वित होने का दुस्साहस हमें क्यों भला करना चाहिये? बताएं आप भी बताएं।
लेकिन इन सबके बावजूद आस्तिक हिन्दूमन का मानना है कि अब बारी है भोलेनाथ के तांडव की। उनका रौद्ररूप प्रकटेगा या वे मुस्कराकर अभी और विषपान करेंगे इसकी तो जानकारी अभी किसी को नहीं मिली है। न किसी प्रेसवाले को और ना ही चैनलवाले का। पता नहीं कब तक वे और तमाशबीन की मुद्रा में रहेंगे, कभी तीसरी आंख से भी देखेंगे या नहीं यह भी पता नहीं। अलबत्त्ता आस्तिक मन कह रहा है कि अपशकुन हुआ है और इस अपशकुन के अर्थ वही हैं जो ज्योतिषियों से ज्यादा भक्त निकाल ऱ्हे हैं। उनकी पुकार एक ही है---*प्रभु विष उगलने के ज़माने को समझो। विष पीओ मत, इस बार विष उगलो।*
क्षमा कीजियेगा, सूचनार्थ निवेदन यह है कि ऊपर का लिखा यह सब एक हिन्दू ने लिखा है, किसी शिवसेनाई या भाजपाई ने नहीं। ऐसा ही समझकर पढ़ें और स्वीकारें।
1 टिप्पणी:
बहुत अच्छी जानकारी दे आपने.....
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