शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

कुम्‍भ के शुम्‍भ-निशुम्‍भ

उत्‍तराखंड को लोग उसकी प्राकृतिक सुन्‍दरता के चलते धरती का स्‍वर्ग कहते हैं लेकिन इसी नाते से उत्‍तराखंड के निवासियों को स्‍वर्गवासी कहने का कोई रिवाज़ नहीं है। हां, इस प्रदेश का प्रमुख नगर हरिद्वार अलबत्‍ता कई तरह के ''द्वार'' के रूप में मशहूर है। देवभूमि की सीमा पर होने के कारण यह स्‍वर्गद्वार ज़रूर कहलाता है। यह महादेव यानी हर का द्वार है और विष्‍णु यानी हरि का भी द्वार है। अपनेराम का खटोला इसी दरवाजे पर पड़ा है। इसी दरवाज़े पर द्वाराचार के लिए द्वारपाल बने बैठे हैं अपनेराम। आजकल इसी द्वार पर बड़ी चहल पहल है। महाकुम्‍भ जो आने को है।

कुम्‍भ यानी घड़ा। हण्‍डा कह लो, कलश कह लो, कलसा कह लो । पर हर बारह बरस में यह घड़ा हरिद्वार आता है। बहुत बड़ा घड़ा बनकर आता है जिसे महाकुम्‍भ कहते हैं और इस महाकुम्‍भ के साथ ही यहां आते हैं देश-विदेश से लाखों-लाख श्रद्धालु तीर्थयात्री जिन्‍हें तलाश रहती है घड़े से गिरे अमृतकणों की। इसी तलाश में हरिद्वार पहुंचते हें ये सभी तीर्थयात्री।

2010 की शुरुआत यानी जनवरी से अप्रैल तक अपनेराम की छोटी सी कुम्‍भनगरी हरिद्वार में इन्‍हीं अमृत चाहने वालों की चहल-पहल ही नहीं रेल-पेल और उससे भी आगे की कहें तो धका-पेल भी बढ़ जाएगी। हर एक की कोशिश रहेगी कि अमृत की बूंद बस, उसीके हलक में उतरे।

लेकिन अमृत का घड़ा तो सही मायनों में हरिद्वार पहुंच चुका है। देवताओं का तो पता नहीं पर कुम्‍भ के शुम्‍भ निशुम्‍भ ज़रूर इस घड़े से अपने अपने गिलास भरने में जुट गए हैं। हर बार ऐसा होता है। पिछली बार खाली हो चचुके घड़े को सरकार फिर से अपना कोष देकर भरती है और अपने शुम्‍भ-निशुम्‍भों की नियुक्ति करके उसे खाली करने के रास्‍ते भी खोल देती है।
शुम्‍भ सरकारी होते हैं और निशुम्‍भ गैर-सरकारी। शुम्‍भ अधिकारी होते हैं और निशुम्‍भ उनके चहेते ठेकेदार। सरकारी और गैर-सरकारी दोनों मिलकर काफी असरकारी हो जाते हैं। ये दोनों प्रकार के असरकारी मिलकर महाकुम्‍भ जनपर्व को धनपर्व में तब्‍दील कर देते हैं। साढ़े पांच सौ करोड़ रुपयों से भरा है इस बार के महापर्व का घड़ा। जो हो रहा है करोड़ों में हो रहा है। अब इस घड़े को तीर्थयात्रियों के आने से पहले खाली करने की बड़ी जि़म्‍मेदारी शुम्‍भ निशुम्‍भों पर आ पड़ी है। इस घड़े का धन खाली होगा तभी तो इसमें आस्‍था और विश्‍वास का अमृत भरेंगे कुम्‍भ के ये असरकारी आयोजक। फिलहाल धन-कुम्‍भ खाली किया जा रहा है, जिन्‍हें अपना मन-कुम्‍भ भरना है वे अपनी जेबें भरकर कुम्‍भ नहाने आएं।

शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2009

बिगबॉस का सीटी संपादन

इन दिनों लोग बीबी के घर में घुसकर वहां के जलवों का आनन्‍द ले रहे हैं। बीबी का घर चर्चा का विषय है। वहां की रंगीनियां रंग पर यानी अपने कलर चैनल पर गिखरी पड़ी हैं। सुबह से देर रात तक तक इस चैनल पर रंग ही रंग हैं। अनदेखा बिहार है, पता नहीं कौनसा राजस्‍थान है और मराठियों से छिपा हुआ महाराष्‍ट्र है। और है कथित कन्‍या विरोधी हरियाणा जहां के आईएएस तक औरतखोर हैं। इस चैनल के अधिकांश धारावाहिकों में देश के प्रांतों के जो चित्र दिखाए जा रहे हैं वे वहां के विकास के चित्र हैं या पिछड़ेपन के, यह बात शायद निर्मातागण धारावाहिकों के अंतिम एपीसोड्स में ही बताएंगे। तब तक अपनेराम की समझदारी पर ही टिके हैं इन धारावाहिकों के संदेश।

बहरहाल, जो समझ में आ रहा है वह है जि़दा धारावाहिक 'बीबी' यानी 'बिग बॉस' और 'बिग बॉस का घर'। इसमें सब कुछ बिग बिग यानी बड़ा बड़ा है। इसके प्रस्‍तोता तो सबसे ही बड़े हैं। खुद ही एक ज़माने से बिग बी के रूप में विख्‍यात हैं। कद-काठी से बड़े, आचार-विचार से बड़े, और तो और स्‍वभाव-प्रभाव से भी बड़े हैं। जिसके साथ जुड़ते हैं उसीको बड़ा  बना देते हैं। जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है उनका आभामण्‍डल ‍भी बढ़ रहा है। एक बार वे लोगों को करोड़पति बनाने के लिए जुटे तो लोग बने हुए करोड़पतियों को भूल गए, पर याद रह गए बिग बी। अब वे बिग बी के घर में लोगों को रख रहे हैं तो भी लोग वहां रहनेवालों की भले थू थू करें पर बिग बी के कारण कलर की टीआरपी तो रंगीन से रंगीनतर होती जा रही है।

लेकिन इस बार बिग बी बिग बॉस से शिकायत हो सकती है कि बीबी के घर के सदस्‍य छांटने में कमी रह गई है। छांटने की इस कमी के चलते  इस बार बिग बॉस के घर में कुछ ''छंटे छंटाए'' ही सदस्‍य बन पाए हैं। दर्श्‍शक इन छंटे छंटाए लोगों को देखकर सिर पीट रहे हैं। खासकर इन सदस्‍यों की भाषा और व्‍यवहार पर दर्शक शरमिन्‍दा हैं।

बिग बी जैसे बिग बॉस के ये घरवाले आम भारतीय परिवार के सदस्‍य नहीं लगते हैं। इनका व्‍यवहार अगर दर्शक के सिर के ऊपर से निकल जाता है तो इनकी भाषा इनकी खुद की कमर के नीचे टहलती है। और इतना अधिक टहलती है कि बिग बी को सीटी बजानी पड़ जाती है। बिग बॉस के घर से प्रसारित होने वाली अश्‍लील भाषा की इन्‍तहा यह है कि सीटी ही सीटी है पूरे धारावाहिक में। बेचारे बिग बी सीटी बजाते बजाते दुखी हो चुके होंगे अपने घरवालों की भाषा पर। अपनेराम तो इसलिये भी दुखी हैं कि बिग बी सीटी बजाकर भाषा की बेहूदगी तो ढक देते हैं पर व्‍यवहार की अश्‍लीलता और बेहूदगी कैसे ढके। उसे तो अपनेंराम जैसे करोड़ों दर्शकों को झेलना ही है।         

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

आलोकपर्व 2009

Blog-Greetings

तोहफा-ए-दीवाली

आज सुबह सुबह अपनेराम के पड़ौसी ठाकुर गुलफामसिंह अचानक दरवाजे पर नमुदार हुए। सोचा दीवाली की रामराम करने आए विहोंगे। पर इतनी सुबह । ठाकुर साहब देर रात तक शीशे के गिलासों से खेलते हैं और सुबह दस साढ़े दस तक बिस्‍तर नहीं छूटता उनसे। आज सुबह सात बजे अपने दरवाजे पर हाजि़र देखा तो अपनेराम का मुंह खुला का खुला रह गया। ठाकुर साहब इलाके के राजनेता रह चुके हैं और एकाध बार संसद में हाजरी लगा चुके हें। पर अब तो दशकों से घर पर ही आराम फ़रमां हैं। कभी कभार दोपहर बाद अपनेराम से राजकाज पर चिमंगोइयां करने आ जाते हैं। अखबारी समाचारों पर बहसबाजी करना हम दोनों का धर्म होता है तब। दोपहर चार से छह बजे के बीच हमारी हर गरमाती और ठण्डियाती है। क्‍यों कि शाम ढलते ही ठाकुर साहब की सायंकालीन पाठशाला खुलती है।

आज ठाकुर साहब को बेवक्‍त दरवाजें पर देखा तो माथा ठनका। वे राम राम करते आ बैठे अपनेराम की चारपाई के सामने पड़े मूढ़े पर। बोले, ‘भाईजी, आप तो पढ़ेलिखे विद्वान हो। देश की, दुनिया की खबर रखते हो। ज़रा ये तो बताओं कि दीवाली का जो तोहफ़ा विजय बाबू सांसदों में बंटवा रहे हैं, इसके हक़दार हम जैसे पूर्व सांसद भी हैं या नहीं।’

अपनेराम पहले तो चकराए पर जल्‍दी ही समझ गए कि विजयबाबू का ‘काला कुत्‍ता’ ठाकुर साहब के सिर पर चढ़कर जोर जोर से भौंक रहा है। विजयबाबू यानी अपने लिक़रकिंग विजय माल्‍या और उनका काला कुत्‍ता यानी उनकी फैक्‍टरी में बनी उम्‍दा ‘ब्‍लैक डॉग’ शराब । अपनेराम ने ठाकुर साहब को समझाया कि दीवाली मिठाई खाने का त्‍यौहार है, पीकर टुन्‍न होने का नहीं। पर ठाकुर साहब तो विजय माल्‍या का पता और फोननंबर बताने की जि़द ही पकड़े रहे। वे चाहते थे कि विजय माल्‍या से संपर्क करके मैं उनके लिये भी ‘तोहफा-ए-दीवाली’ मंगवाकर दूं। उनका कहना था कि उनके जैसे वरिष्‍ठ पूर्व सांसदों के सम्‍मान का भी ख़याल रखा जाना चाहिए। तभी तो उनके राष्‍ट्रचिंतन में प्रखरता आएगी और वे उम्र के साथ साथ समाजसेवा में अधिक योगदान करेंगे। अपनेराम ने अभी तो ठाकुरसाहब से पीछा छुड़ा लिया है पर वे फिर आएंगे पता पूछते। आप में से किसी को मालूम हो तो बताइयेगा वरना मेरी दीवाली होली बनना तय है।

अपनेराम पहले भी कह चुके हैं और बार बार यह सिद्ध होता रहता है कि हमारा यह प्‍यारा भारतदेश विवि‍ध भारती है। ऐसी विविध भारती कि जिसका जवाब देश क्‍या दुनिया में कहीं नहीं है। अनेकता में एकता की बेमिसाल प्रदर्शनी है हमारी यह भारतभूमि। समाजवादियों ने तो देश में ऐसे समाजवाद की नींव रख दी है कि होली दीवाली सब एक हो गई है। सुनते हैं पड़ौसी चीन में भेदरहित समाज है। वहां सब धान बाईस पसेरी है। अब अपनेराम तो कभी चीन गए नहीं। रामझरोखे बैठकर ही जग का मुजरा लेते रहते हैं। लेकिन इस मुजराबाजी में भी दिल बाग बाग हो जाता है।

परम्‍परा तो देश की यह बन गई है कि होली पर लोग बोतल खोलते हैं और दीवाली पर मिठाइयां परोसते हैं। पर अब देश की आज़ादी के बाद होली दीवाली धीरे धीरे एक जैसी होती जा रही है। तथाकथित समाजवाद का असर है कि सब कुछ बदल रहा है। राष्‍ट्रभक्‍त टीपू की तलवार खरीदने के लिए सरकारी खजाना नहीं खुलता पर देश एक मदिरा-निर्माता इसे चार करोड़ में खरीदकर अपने ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ाता है। इसी तरह हमारी गांधीवादी सरकारें विदेशों में नीलाम हो रहे महात्‍मा की वस्‍तुओं से नज़रें चुराती हैं पर यही लिकरकिंग आगे बढ़कर नौ करोड़ रुपयों में बापू की सादें खरीद लाता है। अब यही राष्‍ट्रभक्‍त लिकरकिंग इन दिनों दीवाली के प्रेमोपहार सांसदों को भेज रहा है। कुछ नकचढ़े सांसद यह प्रेमोपहार लौटा भी रहे हैं। अब सारा मीडिया मौन है। कोई अखबार सर्वेक्षण नहीं कर रहा है कि विजयबाबू का तोहफा लौटाना उनकी सद्भावना और प्‍यार है या राष्‍ट्रविरोधी कृत्‍य। अपनेराम को यकीन है सारे सर्वेक्षण विजयबाबू के काले कुत्‍ते का साथ देंगे।

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

माया की माया

संत कबीरदास शताब्दियों पहले कह गए थे  कि ''माया महाठगिनि हम जानी''। इस 'हम' में वे खुद  और उनके कुछेक समकालीन संत रहे होंगे जिन्‍होंने माया के असली रूप को समझ लिया। पर हम  दुनियावालों की समझ में यह बात  तब क्‍या, अब तक भी नहीं आई हैजबकि माया साक्षात विचरण कर रही है हमारे बीच। और तो और इस घोर कलिकाल में खुद संतगण ही माया की ठगी के शिकार हो रहे हैं।

माया हर काल में, हर युग में और हर जगह महत्‍वपूर्ण रही है। माया को ठगिनी कहकर भी गले लगाने का घनघोर चलन हमेशा रहा है।  माया से दूर रहो कहने वाले संत-महंत अपने भक्‍तों को माया से दूर रहने का उपदेश देकर उनकी माया को अपने मठ, मंदिर, आश्रम अखाड़ों में संचित करने के हामी हैं। उनकी कृपा से उनके भक्‍त माया के ''प्रकोप'' से बच जाते हैं और संतगण उनका सारा दर्द अपने जिगर में समेट लेते हें। ये संत गंगा मैया की तरह परोपकारी संत हैं। गंगा मैया भक्‍तों को पापमुक्‍त करती है और ये संतगण माया को भक्‍तों के निकट नहीं रहने देते। मायावी आफतों को खुद ओढ़कर भक्‍तों को उससे मुक्‍त कर देते हैं। कुलमिलाकर  जैसे पापहारिणी गंगा भक्‍तों के पाप स्‍वयं बहाकर उन्‍हें पापमुक्‍त कर देती है, वैसे ही आधुनिक संतगण ठगिनी माया को अपने वश में करने की अपनी मायावी कला से अपने भक्‍तों को ''लाभान्वित'' करते ही रहते हैं।

लेकिन माया तो माया है। वह संतों को और उनके भक्‍तों, दोनों को ही, ठगती रहती है। वह दोनों को सत्‍ता के गलियारों में पहुंचाने में भी कामयाब हो चुकी है। वह खुद सत्‍ताधारिणी है। वह सर्वशक्तिमान है, सर्वत्र है, सार्वकालिक है, सार्वभौमिक है। अंग्रेजी में कहें तो ओम्‍नीप्रेजेंट और ओम्‍नीपोटेंट ही नहीं ओम्‍नीवोरस भी है। सबको चट कर जाने की ताकत रखती है, यह सर्वसिद्ध है और यह ताकत वह अक्‍सर दिखाती भी रहती है। आजकल  लखनऊ में बैठकर दिखा रही है। विधायिका और कार्यपालिका को चट करने के बाद वह अब न्‍यायपालिका को चट करने की फि़राक में है। देवी का यह कुमारिका रूप कलिकाल  में साक्षात है। हम धन्‍य हैं जो म‍हामाया को साक्षात देख-सुन पा रहे हैं।

अब अपनेराम तो पैदा ही मायापुरी में हुए हैं। गंगा किनारे वाली मायापुरी में। सो माया के झटके औरों की तुलना में कुछ ज्यादा ही लिखे हैं अपनी किस्‍मत में। संतों वाली मायापुरी से लेकर ठाकरेवाली मायानगरी तक माया के अनेकानेक रूप देखे हैं अपनेराम ने। पर जो लटके-झटके लखनऊ वाली माया के देखे वे अद्भुत और अपूर्व हैं। माया का ये चिरकुमारी रूप है। मांग भले न भरी गई हो पर मांगें तो दिनरात सामने आती रहती हैं। अब वे दिन तो हवा हुए जब 'अयोध्‍या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका। पुरी द्वारावतीश्‍चैव सप्‍तैता मोक्षदायिका।' कहकर माया के पुरीरूप को सम्‍मान दिया जाता था। अब तो जीवित देवी के मूर्तिमंदिरों की प्राणप्रतिष्‍ष्‍ठा का कलिकाल है। इस प्राणप्रतिष्‍ठा में अगर लोकतंत्र की न्‍यायदेवी भी आड़े आई तो उसे भी दरकिनार कर दिया जाएगा। माया के आगे न्‍याय क्‍या बेचता है भला।

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009

सोने के तारों की खादी

हमारे राष्‍ट्रपिता और राष्‍ट्रपति दोनों ही इन दिनों सुर्खियों में हैं। सारी दुनिया में अपने राष्‍ट्रपिता अतिविशेष हैं। उनका सुर्खियों में रहना तो सामान्‍य बात है। पर अपनी राष्‍ट्रपति का इन दिनों सुर्खियों में रहना विशेष हैं। राष्‍ट्रपिता अगर एक कलम की वजह से चर्चित हो रहे हैं तो राष्‍ट्रपति इन दिनों अपने पुत्र के कारण चर्चा में हैं। पुत्र के कारण लोगों का चर्चा में आना समाज का दस्‍तूर भी है। राष्‍ट्रपति भला क्‍यों अछूती रहें।
पहले अपने राष्‍ट्रपिता की ही चर्चा करें। जिन ब्रिटेन वालें अंग्रेजों के खिलाफ राष्‍ट्रपिता सारी उमर लड़ते रहे, उन्‍हीं की बनिया औलादों ने हमारे राष्‍ट्रपिता के यश को भुनाने की मुहिम शुरू की है। 1930 में हुई बापू की प्रसिद्ध 241 मील की दाण्‍डी यात्रा की याद में भाईलोगों ने चांदी-सोने का एक पैन बनाया है जिसकी कीमत रखी गई है डेढ् लाख से लेकर चौदह लाख रुपए तक। यानी ग़रीबों के लिये कमसे कम कीमत होगी डेढ़ लाख और अमीरों के लिये अधिकाधिक चौदह लाख। प्रसिद्ध ‘मों ब्‍लां’ कंपनी द्वारा बनाए गए इस पैन पर दाण्‍डी कूच पर निकले, हाथ में डण्डा लिये बापू की स्‍वर्णाकृति बनी है। सोने के तारों से जड़ी-मढ़ी इस कलम पर की निब भी सोने की है। इस पर जब आप हाथ फेरेंगे तो, बताया जा रहा है कि, खादी पर हाथ फेरने जैसा अहसास होगा। बेशर्मी की पराकाष्‍ठा भी है खादी का यह अपमान। बापू आज होते तो यह सब सुनकर माथा पीट लेते या ग़श खाकर गिर पड़ते। उनकी सादगी का यह मज़ाक है। इसके खिलाफ उन्‍हें एक नया आन्‍दोलन,या एक नई दाण्‍डीयात्रा निकालनी पड़ जाती। पर उनके अनुयायियों का यह देश चुप है। यह तो संभव है कोई शराब निर्माता दस-बीस गांधी कलमें खरीदकर सुर्खियों में आ जाए। बस इतना ही होना है आगे।
इस पैन पर लिखा है ‘महात्‍मा गांधी लिमिटेड एडीशन 241’ और ‘महात्‍मा गांधी लिमिटेड एडीशन 3000’। पैनपहले पपैन पूर्ण स्‍वर्ण के हैं जबकिदूसरे वाले चांदी-सोने के हैं और पैन के साथ रोलर भी हैं। संख्‍या में कुल मिलाकर ये छह हज़ार पैन विश्‍वभर के बाज्रों में बेचे जाएंगे। गरीब देश के अधनंगे रहने वाले फकीर नेता को दी जा रही यह विडम्‍बनाभरी महंगी श्रद्धांजलि कोई घाघ बनिया ही दे सकता है। यह वही बनिया है जिसने अपने व्‍व्‍यापार की आड़ में देश को दशकों तक अपने कब्‍जे में रखा। अब जिस बूढ़े ने उस बनिये को अपनी लाठी से हंकालकर बाहर किया वह बेशरम बनिया उस बूढ़े की उसी लाठी को फिर से व्‍यापार का माध्‍यम बना रहा है। अजब दुनिया है। जो सादगीभरा जीवन बापू ने जिया उसकी ठाठबाट वाली परिणति इस तरह होते देख रहे हैं हम कि कागज के दोनों तरफ लिखने वाले बापू, डाक में आई आलपिनों तक को संभालकर रखने वाले बापू, की यादों को अब वही बनिया सोने में ढालकर बेच रहा है और हम चुपचाप टुकुर टुकुर देख रहे हैं।
अब राष्‍ट्रपति की बात करें। उनका बेटा अमरावती से विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रत्‍याशी है। इस देश में किसी का भी बेटा चुनाव लड़ सकता है। राष्‍ट्रपति का लड़ रहा है तो लड़े । पर निष्‍पक्ष दीखने की चाहत में बेटे के दल के ही अमरावती के मेयर ने अजब मांग कर दी है। उनका कहना है कि अमरावती के सभी सरकारी दफ्तरों से राष्‍ट्रपति जी के चित्र हटा दिए जाएं या उन चित्रों पर कपड़ा डालकर उन्‍हें ढक दिया जाए। क्‍यों भाई क्‍यों। ऐसा क्‍यों करना है। तो बड़ा मासूम सा कारण बताया है मेयर साहब ने कि ऐसा न किया गया तो वोटर प्रभावित हो जाएंगे जो लोकतंत्र के खिलाफ है।
क्‍या तर्क है, क्‍या मासूमियत है, कुर्बान जाने को मन हो आया है मेयर साहब पर। अमरावती जिले के दफ्तरों से महामहिम के चित्र हटते ही मानों सच्‍चा लोकतंत्र आ जाएगा, सारे मतदाता भूल जाएंगे कि राजेन्‍द्र शेखावत महाहिम के पुत्र हैं और राष्‍ट्रपति जी के चित्रों पर पर्दा पड़ते ही मतमदाताओं क याददाश्‍त और प्रत्‍याशी की वल्दियत पर भी पर्दा पड़ जाएगा। ये सब हो या न हो, अपनेराम को तो फिलहाल मेयर साहब के दिमाग़ पर ही पर्दा पड़ा नज़र आ रहा है ।