संत कबीरदास शताब्दियों पहले कह गए थे कि ''माया महाठगिनि हम जानी''। इस 'हम' में वे खुद और उनके कुछेक समकालीन संत रहे होंगे जिन्होंने माया के असली रूप को समझ लिया। पर हम दुनियावालों की समझ में यह बात तब क्या, अब तक भी नहीं आई हैजबकि माया साक्षात विचरण कर रही है हमारे बीच। और तो और इस घोर कलिकाल में खुद संतगण ही माया की ठगी के शिकार हो रहे हैं।
माया हर काल में, हर युग में और हर जगह महत्वपूर्ण रही है। माया को ठगिनी कहकर भी गले लगाने का घनघोर चलन हमेशा रहा है। माया से दूर रहो कहने वाले संत-महंत अपने भक्तों को माया से दूर रहने का उपदेश देकर उनकी माया को अपने मठ, मंदिर, आश्रम अखाड़ों में संचित करने के हामी हैं। उनकी कृपा से उनके भक्त माया के ''प्रकोप'' से बच जाते हैं और संतगण उनका सारा दर्द अपने जिगर में समेट लेते हें। ये संत गंगा मैया की तरह परोपकारी संत हैं। गंगा मैया भक्तों को पापमुक्त करती है और ये संतगण माया को भक्तों के निकट नहीं रहने देते। मायावी आफतों को खुद ओढ़कर भक्तों को उससे मुक्त कर देते हैं। कुलमिलाकर जैसे पापहारिणी गंगा भक्तों के पाप स्वयं बहाकर उन्हें पापमुक्त कर देती है, वैसे ही आधुनिक संतगण ठगिनी माया को अपने वश में करने की अपनी मायावी कला से अपने भक्तों को ''लाभान्वित'' करते ही रहते हैं।
लेकिन माया तो माया है। वह संतों को और उनके भक्तों, दोनों को ही, ठगती रहती है। वह दोनों को सत्ता के गलियारों में पहुंचाने में भी कामयाब हो चुकी है। वह खुद सत्ताधारिणी है। वह सर्वशक्तिमान है, सर्वत्र है, सार्वकालिक है, सार्वभौमिक है। अंग्रेजी में कहें तो ओम्नीप्रेजेंट और ओम्नीपोटेंट ही नहीं ओम्नीवोरस भी है। सबको चट कर जाने की ताकत रखती है, यह सर्वसिद्ध है और यह ताकत वह अक्सर दिखाती भी रहती है। आजकल लखनऊ में बैठकर दिखा रही है। विधायिका और कार्यपालिका को चट करने के बाद वह अब न्यायपालिका को चट करने की फि़राक में है। देवी का यह कुमारिका रूप कलिकाल में साक्षात है। हम धन्य हैं जो महामाया को साक्षात देख-सुन पा रहे हैं।
अब अपनेराम तो पैदा ही मायापुरी में हुए हैं। गंगा किनारे वाली मायापुरी में। सो माया के झटके औरों की तुलना में कुछ ज्यादा ही लिखे हैं अपनी किस्मत में। संतों वाली मायापुरी से लेकर ठाकरेवाली मायानगरी तक माया के अनेकानेक रूप देखे हैं अपनेराम ने। पर जो लटके-झटके लखनऊ वाली माया के देखे वे अद्भुत और अपूर्व हैं। माया का ये चिरकुमारी रूप है। मांग भले न भरी गई हो पर मांगें तो दिनरात सामने आती रहती हैं। अब वे दिन तो हवा हुए जब 'अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका। पुरी द्वारावतीश्चैव सप्तैता मोक्षदायिका।' कहकर माया के पुरीरूप को सम्मान दिया जाता था। अब तो जीवित देवी के मूर्तिमंदिरों की प्राणप्रतिष्ष्ठा का कलिकाल है। इस प्राणप्रतिष्ठा में अगर लोकतंत्र की न्यायदेवी भी आड़े आई तो उसे भी दरकिनार कर दिया जाएगा। माया के आगे न्याय क्या बेचता है भला।
2 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर। बहुत कडुवी सच्चाई को आपने बहुत प्रभावपूर्ण तरीके से और बहुत बेबाकी से लिखा है। बधाई।
बहुत बढिया लिखा आपने , एक सुन्दर आलेख , सच को खंगालती !
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