सोमवार, 1 नवंबर 2010

उत्‍स का उत्‍सव

उत्‍स का उत्‍सव

अमा के घुप घनेरे, ये अंधेरे,

भले कितने बड़े हों,

भले ही राह में तन कर खड़े हों,

पर, सच कहूं तो हैं बड़े डरपोक।

बहुत कमज़ोर होते हैं- तमस के ये सिपाही !

लड़ नहीं सकते

अकेले एक नन्हें दीप से भी,

जो जला खुद को, मिटा देता

अंधियार की सारी सियाही !

हार जाते हैं उसी से ये सिपाही !!

आज फिर उजियार का बेटा

हमारे द्वार पर सजकर खड़ा है,

अंधत्व से लड़ने अड़ा है।

बनकर नई पीढ़ी खड़ा है,

स्वागत करो इसका !

रोशनी की इस विरासत से

मिलो, उत्सव मनाओ।

गीत गाओ राग के, अनुराग के,

अग-जग उजाला बांटती उस आग के

जो पीढ़ियों की है धरोहर!

जब जुड़ेंगी पीढ़ियां निज उत्स से,

तब मिटेगा

घर ही नहीं, मन-प्राण में

पसरा हुआ तमतोम सारा।

लुप्त होगा तब सकल अंधियार

औ’ खिलेगी यह धरा, यह व्योम सारा !

फिर बहेगी रोशनी की गंगधारा

जिसमें नहाकर पीढ़ियां अविमुक्त होंगी,

संतुष्ट और संतृप्त होंगी !!

अपनी जड़ों से विलग होकर सूख जाता हर तना है,

उत्स से कटकर नहीं कोई बना है,

पर साक्षी इतिहास है कि उत्स से जुड़कर

सदा उत्सव मना है !

सदा उत्सव मना है !

श्रीपर्व 2010

पर उजासभरी मंगलकामनाओं सहित सादर सविनय

हम सब बुधकर-

सौ.संगीता एवं डॉ.कमलकांत

सौ.डॉ.मृणाल एवं सौरभ कु.अपरा तथा अद्वय-ओम

सौ.पारुल एवं पल्लव अथर्व-रघु

kk@budhkar.in 09412070333

saurabh@budhkar.in 09997000186 mrinal@budhkar.in 09011043626

pallav@budhkar.in 09717555050 parul@budhkar.in 09560300255

http://yadaa-kadaa.blogspot.com/

लक्ष्‍मण निवास, साधुबेला मार्ग, निकट स्‍टेट बैंक, हरिद्वार 249491 उत्‍तराखण्‍ड

ओ मेरे अनिकेत

बचपन से सुनते आए थे हम-

कि ‘सबै भूमि गोपाल की’

यानी तुम्हारी है प्रभु !


पर अब तो

तय कर दिया है न्यायपीठ ने

कि तुम्हारा हिस्सा तो सिर्फ

दो तिहाई या एक तिहाई है

दुहाई है राम !

अब तो तुम्हारी ही दुहाई है !!


होगे तुम

दुनिया जहान के मालिक

वेद में, पुरान में।

बाईबिल में, कुरान

में

पर असलियत

तो अब जगज़ाहिर है

मेरे मालिक,


कि तेरे ही इंसान ने

तेरी ही धरती पर

तुझी को

अनिकेत कर दिया है,

और तू तो

हम इंसानों का

सिर्फ एक हथियार है,


सरेआम

यह संकेत कर दिया है !


बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

नमस्‍कार भाई लोगों

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

कुम्‍भ का बादशाही स्‍नान

इस बार महाकुम्‍भ ने सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए। तीन की जगह चार शाही स्‍नान साधु-संन्‍यासियों ने कर लिए और आ‍खरी दिन कविवर निशंक की मंत्रिपरिषद् ने आकर बादशाही स्‍नान कर लिया। जिस दिन से छत्‍तीसगढ़ की सरकार हरिद्वार आकर नहा गई थी उस दिन से उत्‍तराखण्‍ड की सरकार कसमसा रही थी। रमण सरकार क्‍या आई, कुम्‍भ सरकार को लगा कि वह पिछड् गई। सारा अमृत कोई और बटोर गया, हम रह गए। हमारा ही इलाका, हमारी ही गंगा, हमारा ही हरिद्वार और हमारा ही कुम्‍भ। पर आकर नहा गई छत्‍तीसगढ़ की सरकार। मंत्रियों ने मुख्‍यमंत्री को समझाया, निशंक जी, यह हमारा रमणक्षेत्र है। इसमें कोई और सरकार आकर रमण कैसे कर सकती है। भले ही वह रमणसिंह की ही सरकार क्‍यों न हो। निशंक ने कहा चिंता मत करो हम नहाएंगे। और जमकर नहाएंगे। ऐसे नहाएंगे कि लोग देखेंगे कि हम नहा रहे हैं।

ऐसा ही हुआ। कुम्‍भ के आखरी  दिन सरकार हरिद्वार आई। सरकार से पहले नीली बत्‍ती वाली दो अलग  अलग कार आईं। पहली कार सपत्‍नीक मेला प्रशासन उतरा, हरकी पौड़ी पर पहुंचा, गोते लगाए और लौट गया। फिर दूसरी कार आई। उसमें से कुम्‍भ पुलिस सपत्‍नीक उतरी। उत्‍साहित पुलिसजन गंगधार में आभार स्‍नान की किल्‍लोल। अब तक सब कुछ निहाल, सारा माहौल निहाल था। पर फिर वक्‍त आया 'बादशाही स्‍नान' का। धवल वस्‍त्रधारी सरकार का बादशाही स्‍नान। स्‍नान से पूर्व वही सब कुछ दोहराया गया। सारे घाट जनता से खाली करा लिए गए क्‍योंकि जननेता, जनता के रहनुमा आने को थे। कोई उन्‍हें कपड़े उतारते और नहाते न देख ले। घाटों पर सिर्फ सरकार थी और सरकार को गोते लगवाने वाले पण्‍डे थे। इनके अलावा थी सरकार को सुरक्षा देने वाली पुलिस। प्रमुख सचिव, सचिव, अपर सचिव, निदेशक, अधिकारियों का जत्‍था। सभी टेक रहे थे मंत्रियों को मत्‍था। मंत्रिपरिषद् आई, उसने (अपने) कपड़े उतारे और वह गंगा की धारा में प्रवेश कर गई। गंगा का पता नहीं पर मंत्रिपरिषद् निहाल हो गई। देर तक मंत्रिगण जल में रमे रहे, मीडिया के कैमरों के सामने जमे रहे। सरकार नहाती रही, जनता का दूर दूर तक पता नहीं था।

फिर पण्‍डों ने चंदन टीका लगाया। ओएसडीयों ने जेब से दक्षिणा निकाल कर 'साहब' को पुण्‍याशीर्वाद दिलवाया। गद्गद् मंत्रिगण हरकी पौड़ी के मालवीय द्वीप पर गंगामैया को बहलाने पहुंचे। एक घण्‍टे तक गंगामैया के सम्‍मान में बहलाव बैठक चली। मैया मुस्‍कुराती हुई बहती रही और कल-कल स्‍वरों में कहती रही, '' तुम मेरा उद्धार करो न करो, मेरा नाम तुम्‍हारा उद्धार ज़रूर करेगा। पिछली बार रामनाम ने किया था। इस बार गंगनाम करेगा।''

मंत्रिपरिषद् ने बैठक में गंगा के नाम से कुछ प्रस्‍ताव किए और केन्‍द्र सरकार के नहले पर दहला रखते हुए मांग कर डाली कि, ''गंगा को राष्‍ट्रीय धरोहर की जगह विश्‍व धरोहर घोषित करवाओ।'' बहती गंगा ने एक बार भी पलटकर नहीं देखा मंत्रिपरिषद। की ओर। वह बहते बहते आगे बढ़ गई। राजनीति फिर पिछड़ गई।

 

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

सफल कुम्‍भ के लक्षण

सभी लक्षण बता रहे हैं कि हरिद्वार में 2010 का महाकुम्‍भ एक सफलतम कुम्‍भ रहा है। कुम्‍भ कार्यों की शुरुआत से लेकर कुम्‍भ संपन्‍न हो जाने तक जो कुछ हुआ वह सब नोबल पुरस्‍कार की श्रेणी का हुआ है। यही वजह है कि उत्‍तराखण्‍ड के कविमना मुख्‍यमंत्री इस महामेले के लिए नोबल परस्‍कार की मांग कर रहे हैं। सचमुच इस सरकार को एक नोबल प्राइज़ की दरकार है भी। नोबल वालों कुछ इधर भी ध्‍यान दो यार, वरना हम उत्‍तराखण्डियों का दिल टूट जाएगा। हमने मेला भी जमकर किया है और मैला भी जमकर किया है। हमें दोनों में से किसी भी एक काम के लिए या दोनों ही कामूों के लिए नोबल पुरस्‍कार दे डालो यार।

यह हमारा पहला महाकुम्‍भ था जो हमने उत्‍तराखण्‍ड राज्‍य बनने के बाद मनाया। इसे मनाने से पहले हमने केन्‍द्र सरकार को मनाया कि हमें कुम्‍भ मनाने के लिए मनीऑर्डर भेजो। सरदार साहब ने मनीऑर्डर भेजने से पहले पूछा, कितना चाहिए, कहां खर्च करोगे और खर्च कर भी लोगे या नहीं। सरदार साहब को शंका हुई कि बच्‍चा राज्‍य है, पता नहीं इतना खर्च कर भी लेगा या नहीं। पर निशंक जी ने असरदार ढंग से सरदार जी से कहा कि, 'आप शंका मत करो जी। पैसा दो तो सही, हम सब मिलकर आपका ‍दिया सारा पैसा निशंकभाव से खर्च कर डालेंगे।' वे मुस्‍कराए और उन्‍होंने मनीऑर्डर भेज दिया। कुम्‍भ प्रथमदृष्‍ट्या सफल हो गया।

जेब में खर्चा हो तो मेला मेला लगता है। सो, पहले तो मेला सफल हुआ पैसा मिलने से। फिर बारी आई पैसा खर्च करने की। तो भाई, सरकार ने ऐसे असरकारी साहबों को खर्च करने का जिम्‍मा दिया जो एक खर्च करके दो का प्रचार करें और तीन का 'पुण्‍य' अर्जित करें। वैसा ही कर दिखाया साहबी समूह ने। दरअसल  महाकुम्‍भ एक सामूहिक पर्व है और एक सामूहिक घटना है। इसमें सब कुछ सामूहिक स्‍तर पर ही होता है। लोग आते भी सूमहों में हैं, नहाते भी समूहों में हैं, खाते भी समूहों में हैं, जाते भी समूहों में हैं, खते भी समूह में हैं और अगर मरने की बात चले तो मरते भी समूह में ही हैं। इन सारे मानदण्‍डों पर 2010 का हरिद्वार महाकुम्‍भ भी सफलतम कुम्‍भ रहा है।

अब अगर सरकारों को भी समूह मानें तो इस सामहिक अवसर के लिए राज्‍य स्‍तरीय एक समूह ने केन्‍द्र स्‍तरीय एक समूह से मांगा। समूह ने समूह को दिया। फिर अफ़सरों के सूमह जुटे और जो कुछ मिला था उसे सामूहिक स्‍तर पर खर्च करने का बीड़ा उन्‍होंने उठाया। बड़ी लगन और बड़ी मेहनत और बड़े समर्पण का काम था। समूहों का ध्‍यान रखना जरूरी था इसलिए अफ़सरों ने नीचे से ऊपर तक हर तरह के हर समूह का ध्‍यान रखा। यही वजह थी कि मंत्री से संत्री तक सब महाकुम्‍भ में तन-मन से जुटे रहे। धन की परवाह किसी ने नहीं की द्य वह तो सुचारु व्‍यवस्‍था के अंतर्गत आटोमेटिक आना ही था।

जनसमूह के लिए योजनाएं बनीं और कुम्‍भ की सफलता के दौर शुरू हो गए। सारा काम निशंकभाव से चलता रहा और कुम्‍भ को नोबल प्राइज़ की लाइन में खड़ा कर दिया गया।

कुम्‍भ की सफलता होती है भीड़ से। सरकार तय कर चुकी थी कि साढ़े पांच सौ करोड़ खर्व करने हैं तो पांच-छह करोड़ को गंगा स्‍नान कराना ही पड़ेगा। सरकार बजि़द थी और उसने चार महीनों में आंकड़ों में ही सही करीब छह करोड़ नहला दिए। असली पुण्‍य तो सरकार का ही रहा।

हमेशा की तरह करीब पांच सौ लोग कुम्‍भ में बिछड़ गए। यह नहीं पता चल सका कि इनमें जड़वां कितने थे। पर बरसों बाद जब ये लोग मिलेंगे तो मुम्‍बइया फिल्‍मवालों को  कमसे कम कुछ वर्षों के लिए कहानी के प्‍लॉट नहीं ढूंढने पडेंगे। कुम्‍भ पुलिस के खोया-पाया विभाग में अगर कुछ लेखक हुए तो सौ पचास मार्मिक कहानियां जल्‍दी ही सामने आएंगी।

कुम्‍भ हो तो भगदड़ जरूरी होती है, सो इस लिहाज से भी कुम्‍भ सफल रहा है। भगदड़ हुई और लोग परमात्‍मा का स्‍मरण करते परलोक सिधार गए। कुम्‍भ का एक लक्ष्‍य 'मोक्ष की प्राप्ति' भी पूरा हुआ। मेला और मैला में सिर्फ मात्राभेद है। सो मेले के दस दिन बाद भी बाद हरिद्वार वाले भारी मात्रा में मैला झेल रहे हैं। इस लिहाज से भी यह महामेला सफलतम रहा है। लक्षण और भी कई हैं सफलता के। पर उनकी चर्चा फिर कभी।

 

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

निबट गया कुम्‍भ।

और जैसे तैसे निबट गया कुम्‍भ। किसी के लिए कुम्‍भ रत्‍नजटित महंगी धातुओं का था तो किसी के लिए वह सोने का सिद्ध हुआ और किसी के लिए वह चान्‍दी चान्‍दी कर गया। चमचम करता रत्‍नजटित कुम्‍भ था संत महंतों का तो  स्‍वर्ण कुम्‍भ आया शासन-प्रशासन वालों के हिस्‍से। और रजत कुम्‍भ तो आरंभ से ही अभियंताओं, बड़े बाबुओं, ठेकेदारों, के नाम लिख गया था। पीतल, ताम्‍बे और लोहे के भी कुम्‍भ कुम्‍भनगरवालों के हिस्‍से में आएा। पर आम आदमी को सामान्‍य श्रद्धालु का कुम्‍भ तो मिट्टी काथा और उसी का रहा।

इस महाकुम्‍भ में किसी ने जमकर अमृत छका तो किसी को वह दीखा तक नहीं। मेले के माहौल में जिनका कुम्‍भ छलकना था उनका छलक गया, जिनका कुम्‍भ  भरना था उनका भर गया। कुछ का कुम्‍भ भरा ही नहीं और कुछ का भरा तो सही पर चटका हुआ था इसलिए हरिद्वार छोड्ने से पहले ही रिस गया। कुछ ऐसे भी थे जिनका अपना कुम्‍भ फूट ही गया।

जिन्‍होंने अमृत की सिर्फ चर्चाएं कीं और प्रवचन दिए उन्‍होंने ही अमृतपान किया। जिन्‍होंने वे अमृत चर्चाएं और प्रवचन सुने उनके कर्णामृत कर लाभ हुआ पर उनका जेबामृत छलक गया।

वो ज़माना गया जब सागर-मंथन हुआ था और देवता लोग फ़ायदे में रहे थे। तब दैत्‍यगण बेचारे ठगे गए थे। उस एक करारे झटके के बाद दैत्‍यों ने हर जगह अपनी तगड़ी यूनियनें बना ली हैं। तब से वे विश्‍वमोहिनी का रहस्‍य समझ गए हैं। तब देवों ने महाविष्‍णु को पटाकर पटकी दी थी दैत्‍यों को। पर उसके बाद से दैत्‍यभई संगठित हैं। वे महाविष्‍‍णु की जगह महालक्ष्‍मी के आगे प्रणतिभाव से नतमस्‍तक हैं। इसीलिए तभी से लगातार देवों की दुर्गति करते आ रहे हैं। देवतत्‍व को अपने राक्षसत्‍व से मलते मसलते आ रहे हैं। तब तो अकेले राहु ने देवता का भेस रख कर अमृत छका था पर अब तो प्राय: सभी राक्षस देव वेश में, संत वेश, नेता वेश में, मंत्रि वेश में, अफ़सर वेश में और पुलिस वेश में अम़त छक रहे हैं।  इसलिए कुम्‍भ जैसे पर्वों पर भी अब दैत्‍य ज्‍यादा और देवगण कम अमृत छक पाते  है।

अब आदर्श और सिद्धांतों का नहीं बल्कि आदर्श और सिद्धांतों की पटरी से उतरने का कुम्‍भ होता है। अब समष्टि चिंतन का नहीं, समष्टि भण्‍डारे का कुम्‍भ होता है। अब महाविष्‍णु के स्‍तवन का नहीं बल्कि महालक्ष्‍मी के पूजन का कुम्‍भ होता है। अब पारस्‍परिक चिंतन मनन का नही बल्कि पारस्‍परिक टकराहट का कुम्‍भ होता है। और ऐसा कुम्‍भ हरिद्वार में निबट चुका है। अब मिलेंगे ग्‍यारह साल बाद नई योजनाओं और नई तिकड़मों के साथ। तब तक के लिए हमें आज्ञा दीजिए।

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

गंगा में राजनीतिक डुबकी

डॉक्‍टर साब अपनी पूरी कबिनेट, बल्कि कहें पूरी सरकार ही लेकर अपनेराम के कुम्‍भनगर में आए थे। सारी सरकार बालबच्‍चों समेत हरिद्वार में थी। डॉक्‍टर साब के साथ कई बड़े बड़े मंत्री और विधायक थे। सत्‍ता में रहने के कारण सबके कुर्ते के नीचे वाले 'कुम्‍भ' भरे भरे लग रहे थे। कइयों के कुम्‍भ तो फटने की स्थिति में थे। पर सभी भावविभोर थे और महाकुम्‍भ नहाकर अपने अपने कुम्‍भ सदा सदा के लिए भरपूर और सुरक्षित कर लेने का आशीर्वाद गंगा मैया से चाह रहे थे। गंगा मैया ने ये आशीर्वाद उन्‍हें दे भी दिया होगा क्‍यों कि मैया इन दिनों हरिद्वार में भाजपाइयों के आश्‍वासनों पर ही बह रही है। मेहमान डॉक्‍टर साब के साथ भी भाजपाइयों का जमावड़ा था और मेज्बान डॉक्‍टर साब भी भाजपाइयों के मुखिया थे। दोनों तरफ भाजपाई थे और बीच में गंगा बह रही थी। बेचारी मैया को आशीर्वाद देना लाजि़म था, सो उसने आशीर्वाद दे दिया होगा कि,'जाओ तुम्‍हारे कुम्‍भ भरे रहें।'

गंगा जी में डुबकी इन दिनों राजनीतिक सफलता की गारंटी लग रही है लोगों को। उन्‍हीं लोगों को जिन्‍हें पहले राम जी का मंदिर राजनीतिक सफलता की गारंटी लगता था। कुछ रामजी ने दे दिया और कुछ आशीर्वाद गंगा मैया दे ही देंगी। इसी उम्‍मीद पे भविष्‍य टिका है सरकारों का ।

छत्‍तीसगढ़ की सरकार के लौट जाने के बाद मैंने रात को मैया से बातचीत की तो उसने मुझे कान में बताया कि, 'मुझे तो आशीर्वाद देना ही था क्‍योंकि मैं अपनी ज्‍यादा दुर्गति नहीं चाहती।' मैंने चकित होकर पूछा, 'मैया आपकी दुर्गति कौन करेगा।'

मैया झल्‍लाकर बोली, 'मूर्ख इतना भी नहीं समझता। जो मेरी गति सुधारने के लिए मंचों पर आकुल-व्‍याकुल हैं वही तो मेरी दुर्गति करेंगे। मुझे उन्‍हीं से ख़तरा है। वे लोग पहले रामजी की दुर्गति कर चुके हैं। अब उनकी निगाह गौमाता के साथ मुझ पर पड़ी है। और मैं बुरी तरह डर गई हूं। अब मेरा क्‍या  लोग अपनी मलिनता को छुपाने के लिए उसकी अविरलता और निर्मलता को मुद्दा बना रहे हैं। साधु-संन्‍यासियों को भी दो हिस्‍सों में बांट दिया है। वे लोग गंगा की गतिशीलता की चिंता करते करते जाने अनजाने गंदली राजनीति को गतिशील कर देते हैं। गंगा उन लोगों से डरी हुई है जो उसके मूल उद्देश्‍य लोक कल्‍याण से ही उसे विचति कर देना चाहते हैं। उत्‍तराखण्‍ड ऊर्जा प्रदेश बने न बने उनकी राजनीति ऊर्जस्वित रहे यही कामना है भाई लोगों की।

सो, आजकल कुम्‍भनगर में गौ और गंगा के चर्चे हैं। इन्‍हीं पर चल रहे न जाने कितनों के खर्चे हैं। धर्म की रसोई में राजनीति के तवे पर वोटों की रोटियां सेंकने की मुहिम जारी है। कुम्‍भ महापर्व ने कइयों के कुम्‍भ भर दिए हैं इसलिए अगले चुनावों की कुछ चिंताएं कम हो गई हैं। फिर भी धर्म की बैसाखियों पर चलने वाले तो बाबाओं की चरणरज लेकर कृतकृत्‍य हैं। अव्‍यवस्थित महाकुम्‍भ उन्‍हें व्‍यवस्थित चुनाव की गारंटी देता दीख रहा है।

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

हर खंभे पर बाबा जी हैं

हरिद्वार में कुम्‍भ चल रहा है। चारों तरफ रौनक ही रौनक है। सारा कुम्‍भनगर रंगबिरंगे पोस्‍टरों, बैनरों, होर्डिंगों और क्‍योस्‍कों से पट गया है। हर खम्‍भे पर बाबा जी है। खम्‍भा चाहे टेलीफोन का हो या बिजली का, ‍ या फिर किसी शामियाने का ही क्‍यों न हो, सब खम्‍भों पर स्‍वामी जी ही बिराजमान हैं। जो ज्‍यादा समर्थ हैं वे बैनरों पर उड़ रहे हैं। उनसे ज्‍यादा समर्थों ने बड़े बडे़ होर्डिंग्‍स लगाकर उतनी जगह घेर रखी है जितनी अपने शिविरों के लिये भी नहीं घेरी।
बाबाओं के रंगबिरंगे पोस्‍टर देखकर, उनकी इगारते पढ़कर अब यह विश्‍वास अपनेराम को भी हो चला है कि महाकुम्‍भ का मेला निबटते निबटते उन सबके दैहिक, दैविक और भौतिक तापों का हरण तो निश्‍चय ही हो जाएगा जो बाबा जी तक पहुंचकर आशीष ले चुके होंगे। इस विश्‍वास का कारण है बाबा लोगों की मोहिनी छवि। तस्‍वीरों में देखो तो आशीषमुद्रा में है और सबकी मुद्रा मुस्‍कानमुद्रा है। सब आपके दुखभंजक हैं और सभी आपके लिये करुणानिधान हैं। वे आपके कष्‍टों का हरण करने के लिए आतुर हैं। वे आठों याम अपने कुम्‍भ शिविर में सिर्फ आपके लिये तत्‍पर हैं। आप वहां अन्‍दर गए और आपके सारे दुखदर्द बाहर हुए।
बाबा लोग कई तरह के हैं। कुछ अकेले हैं तो कुछ अपने गुरू के साथ फोटू खिंचवाकर खम्‍भासीन हैं। कुछेक बाबाओं के साथ बाबिया भी हैं। वे भी उसी दुखभंजक मुद्रा में हैं। चंद बाबा लोग फॉरेन रिटर्न्‍ड हैं। उनका बॉबी-भण्‍डार विपुल है। उनके आगे पीछे, दाएं बाएं सर्वत्र बॉबियां ही बॉबियां हैं। उनका रोगदाब कुछ अलग ही है। रजतछत्र, रजत-चंवर, रजत दण्‍ड और इस तामझाम के बीच गेरुए में बाबा। काले कपड़ों में उन्‍हें घेरे विदेष्शी कमाण्‍डो दस्‍ता। लगता है मानों विदेशी धरती पर भारत ने कब्‍जा करके किसी भगवावस्‍त्रधारी को राष्‍ट्राध्‍यक्ष बना दिया है। विश्‍वास गहराने लगता है कि अपना देश विश्‍वगुरु था, है और विश्‍वगुरु ही रहेगा। भले ही अपने देश के भीतर सौ-डेढ़ सौ जगद्गुरु और भी क्‍यों न पैदा हो जाएं।
भारतवर्ष की मिट्टी बड़ी उपजाऊ है। ख़ासकर धर्म के लिये बड़ी उपजाऊ है। और कुछ हो न हो यहां, धर्म की फ़सल हमेशा लहलहाती रहती है। यह देश जनता का कभी हो न हो, साधु-साध्वियों का हमेशा बना रहता है। यहां अकेला मुख्‍यमंत्री नहीं, उसका सारा मंत्रिमण्‍डल भगवे और गेरुए के आगे साष्‍टांग नतमस्‍तक रहता है, भले ही विपक्षी उसकी कितनी ही टांग खींचते रहें।
यह दृश्‍य देखने हों तो पधारो म्‍हारा देस। आप आते ही केसरिया बालम न बना दिए गए तो बात है। दरअसल बाबा नाम में ही जादू है। वह कपड़ों में मिले तो जादू करता है और बिना कपड़ों के मिले तो उससे भी बड़ा जादू करता है। दरअसल हमारा देश या तो कपड़े वालों को मानता है या फिर नंगों को। अधनंगों के लिये अपने यहां कोई जगह नहीं है। कुम्‍भ की बात करें तो यहां एक ही वर्ग में दोनों म़जे हैं। सवस्‍त्र ही निर्वस्‍त्र हैं और निर्वस्‍त्र ही अस्‍त्र हैं आप और हम जैसों के लियेा तो भाई अपने को तो साष्‍टांग प्रणिपात करना ही है इन खम्‍भानशीन बाबाओं के आगे।

गुरुवार, 4 मार्च 2010

चौथा शाही स्‍नान क्‍यों

हरिद्वार में चल रहे महाकुम्भ को लेकर एक ताज़ा समझौता साधु-संतों के तेरह अखाड़ों की परिषद् तथा कुम्भ प्रशासन के बीच हुआ है। इस समझौते के मुताबिक तेरहों अखाड़े 15 मार्च के सोमवती अमावस्या और 14 अप्रैल के मुख्य कुम्भ स्नान के बीच में 30 मार्च को एक और स्नान करेंगे और प्रशासन इस स्नान को भी ‘‘शाही स्नान’’ का दर्जा देगा।
सामान्यतया हरिद्वार में कोई साधु-संन्यासी अथवा कोई गृहस्थी कितनी ही बार अकेले या समूह में आकर गंगास्नान कर सकता है। यह उसका नितांत निजी मामला है। उसे पूरा अधिकार है कि वह चाहे जितनी बार गंगा नहाए। पर अगर उसके गंगा नहाने से किसी और के अधिकारों का हनन होता है तो फिर यह बात चिंता के घेरे में आ जाती है। अखाड़ों और प्रशासन के इस ताज़े फैसले से कुछ ऐसा ही हुआ है जिस पर चिंता, चिन्तन और पुनर्विचार की आवश्यकता है। दोनों पक्षों ने मिलकर यह एक ऐसा फैसला ले लिया है जो परम्परा-सम्मत तो है ही नहीं, परम्पराभंजन और जनाधिकार विरोधी भी है।
कुम्भ कहीं भी आयोजित हो वह परम्पराओं के दायरे में रहकर आयोजित किया जाता है। हमारा पूजनीय साधुसमाज भी परम्परागत रीति-रिवाज़ों की दुहाई देते हुए ही कुम्भ के सारे कार्य संपन्न करता और करवाता है। कुम्भ के सन्दर्भ में शासन और प्रशासन भी हिन्दुओं के इस महापर्व की परम्परिकता के रक्षण के लिए हमेशा से वचनबद्ध रहता आया है। इसमें कोई आपत्तिजनक बात है भी नहीं और सामान्यजन भी इस परम्परा निर्वाह के साथ बड़ी श्रद्धा से जुड़ते आए हैं।
हरिद्वार के सन्दर्भ में देखें तो शाही स्नान की यह परम्परा महाशिवरात्रि और चैत्र अमावस्या सहित मुख्य कुम्भपर्व पर शाही स्नान की है। पहला शाही स्नान केवल संन्यासी अखाड़े करते हैं और बाद के दोनों स्नानों पर तेरहों अखाड़े अपने अपने क्रम से गंगा स्नान करते हैं। सैकड़ों बरसों से यहां इन्हीं तीन शाही स्नानों की परम्परा चलती आ रही है। इसके अलावा कुम्भ स्नान के बाद वैशाखी पूर्णिमा के दिन बैरागियों की जमात के द्वारा गंगास्नान करने की परम्परा भी रही है, पर स्नान शाही स्नान की कोटि में नहीं माना जाता है।
शाही स्नान के दिन हरिद्वार के मुख्य और अमृत-पावन माने जाने वाले स्नान स्थल हरकी पौड़ी पर साधु-संतों के तेरहों अखाड़े बाजेगाजे के साथ आकर गंगास्नान करते हैं। स्नान दिवस पर करीब लगभग आठ-दस घण्टों के लिए हरकी पौड़ी ब्रह्मकुण्ड पर सामान्य श्रद्धालु तीर्थयात्री को न जाने दिया जाता है और न नहाने दिया जाता है। जो व्यक्ति हज़ारों मील चलकर और हज़ारों रुपए खर्च करके यात्रा के सारे कष्ट और असुविधाएं झेलता हुआ हरिद्वार आता है वह सदियों से चली आ रही इस परम्परा के चलते हरकी पौड़ी पर स्नान करने से वंचित रह जाता है। उसे परम्परा और श्रद्धा के चलते कोई शिकायत नहीं होती।
पर इस बरस तो कुछ नया ही हो रहा है। कुम्भ के शाही स्नानों में एक और शाही स्नान की बढ़ोत्री करके सामान्य श्रद्धालुओं का अधिकार छीना जा रहा है। अनेक साधुसंत भी इस निर्णय से व्यथित हैं क्योंकि वे इसे सरासर परंपराभंजन मानते हैं। लोगों का मानना है कि अखाडत्रा परिशद् और कुम्भ प्रशासन का यह निर्णय जनता को ध्यान में रखकर लिया गया निर्णय नहीं है। यदि यह निर्णय लेने से पहले आम जनता हरकी पौड़ी स्नान की की इच्छा-आकांक्षा और भावनाओं का ख़याल रखा होता तो यह परम्पराविरोधी निर्णय न लिया जाता।
कुछ लोग इस निर्णय को नवयुग की नई परम्परा का बीजारोपण कह रहे हैं। ऐसे लोगों को इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करके तथा हज़ारों शासकीय कर्मचारियों के कार्यदिवस खर्च करके की जाने वाली व्यवस्थाएं केवल तीस चालीस हज़ार साघुओं के लिए ही नहीं बल्कि लाखों करोड़ों श्रद्धालुओं के लिए की जाती हैं।
अखाड़ा परिषद् को अगर नई परम्परा षुरू करनी ही थी तो वह सोमवती अमावस्या का शाही स्नान आम जनता को समर्पित करके कुम्भ का वास्तविक पुण्यार्जन करती। नई परम्परा ही शुरू करनी थी तो इक्कीसवीं सदी में भी विवस्त्र नागाओं गंगास्नान पर चिंतन के साथ करती। कुम्भ को नया रूप ही देना था तो उसे जनोन्मुखी बनाने की सोचते। शाहों-शहंशाहों के बीते युग के शाही स्नान की जगह नये फ़कीरी स्नान की परम्परा डालते। पर ऐसा सब कुछ अगर नहीं हो सकता था तो कमसे कम यह जनविरोधी निर्णय तो न लेते।

सोमवार, 1 मार्च 2010

होली 2010

 

हरिद्वारी दोहे

आसमान के गाल पर मलती धरा गुलाल,

धरा गगन दोनों हुए होली खेल निहाल ।।

आसमान खूलकर हंसा, धरती हुई निहाल।

जब धरती के गाल पर नभ ने मला गुलाल।।

सतरंगी चूनर  हुई बहुरंगी  सब अंग,

हर मन में बजने लगे ढोलक और म़ृदंग ।।

ऐसी भंग छकी है प्रिय ने, सब कुछ है बदरंग,

रसिया बेसुर गा रहे, बेताला है चंग ।।

हरिद्वार  के घाट पर ठण्‍डाई के रंग,

गोरी आंख तरेरती, पिया भंग के संग।।

दो कुण्‍डलियां

अफ़सर सब नौकर हुए, साधु सत्‍तासीन।

महाकुम्‍भ के घाट का यह मनभावन सीन।।

यह मनभावन सीन, सिर्फ ग़मगीन प्रजा है,

गंगातट के वासी को तो कुम्‍भ सज़ा है।

मित्र पुलिस के अंकुश से सहमी जनता है,

मेले वाले दिन उसकी ना कोई सुनता है।।

तन पर भस्‍म लपेटकर वे रहते निर्वस्‍त्र,

काम कामिनी के कहां चलते उन पर अस्‍त्र।

चलते उन पर अस्‍त्र, देव उनके त्रिपुरारी,

कुम्‍भकाल में वे पड़ते हैं सब पर भारी।

इसलिये हरिद्वार में संतों का अब फाग,

सत्‍ता शासन सब करें, संतों से अनुराग।।

रंगपर्व की इन्‍द्रधनुषी बधाइयों और मंगलकामनाओं के साथ -

सादर,

डॉ. कमलकान्‍त बुधकर

एवम् समस्‍त बुधकर परिवार

kk@budhkar.in

http://yadaa-kadaa.blogspot.com

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

महाकम्‍भ के महाबन्‍द में

यूं तो कुम्‍भमेला सबके ही फायदे की चीज है। जब आता है तो सबके लिए कुछ न कुछ लेकर आता है। पर सबसे ज्‍यादा फायदा होता है छुट्टियां चाहने वालों को। जिन्‍हें कामकाज से छुट्टी चाहिये उनके लिये कुम्‍भ से मुफीद कुछ नहीं। जित देखूं तित अवकाशानन्‍द । बाहर वाले तो आनन्‍द लेने आते ही हैं, हम हरिद्वार वाले भी जमकर लूटते हैं अवकाशानन्‍द।

कुम्‍भ ऐसा मौका है जो कुम्‍भनगर में अच्‍छे खासे चलते हुए कामों को बन्‍द करवा देता है। श्रद्धालुओं के लिये आता है कुम्‍भ मोक्ष का रास्‍ता दिखाने। लेकिन उस रास्‍ते पर तो बन्‍दा मरने के बाद ही जा सकता है।  पर  कुम्‍भनगर के बाशिन्‍दों को तो वह जीतेजी ही मुक्ति का आनन्‍द दे जाता है। हर काम से मुक्ति का आनन्‍द। यह महाकुम्‍भ से ज्‍़यादा महाबन्‍द का आनन्‍द है।

कुम्‍भ के आते ही हरिद्वार के रास्‍ते बन्‍द, रिक्‍शा-तांगे बन्‍द, स्‍कूटर कारें बन्‍द,  बाज़ार बन्‍द, दूकानें बन्‍द, मुख्‍य गंगाघाट बन्‍द, वहां के मंदिर-देवालय बन्‍द, शहर के  ‍स्‍कूल-कॉलेज बन्‍द, आने वाले यात्री बाड़ों में बन्‍द और शहर के बूढ़े, बच्‍चे, औरतें घरों में बन्‍द। कुल मिलाकर आजकल का महाकुम्‍भ हमें महाबन्‍द के नज़ारे दिखा देता है। हरिद्वार वालों के लिये तो कुम्‍भ सचमुच मुक्ति का संदेश लेकर आता है। रोज़मर्रा के कामों से मुक्ति का पर्व है महाकुम्‍भ।

इन दिनों हरिद्वार के अखबारों  में राजकीय हवालों से जो सूचनाएं छप रही हैं उनका संदेश है कि जब तक हरिद्वार में महाकुम्‍भ है तब तक स्‍नान दिवसों पर कोई अपना ड्यौढ़ी, दरवाज़ा न लांघे। जो लांघेगा वह वैसे ही फंसेगा जैसे पिछले स्‍नानों पर फंस चुका है। घर से हरकी पौड़ी तक का दस मिनिट का रास्‍ता ढाई घण्‍टे में भी पार न करके लोग महाकुम्‍भ का महानन्‍द ले  चुके हैं। आगे भी लेंगे।

बच्‍चापार्टी खुश है क्‍योंकि रास्‍ते बन्‍द हैं तो स्‍कूल कॉलेज की छुट्टी होनी ही है। आदेश है कि नहान से एक दिन पहले छुट्टी, नहान के दिन छुट्टी और नहाने के बाद अगले दिन फिर छुट्टी। अपनेराम से मौहल्‍ले के बच्‍चे पूछ रहे थे कि, ''अंकल जी, लोग हरिद्वार में गंगा नहाने आते हैं तो हमारी छुट्टी हो जाती है। पर हम भी जो रोज़ नहाते हैं। फिर तो हमें जबरदस्‍ती स्‍कूल क्‍यों भेज दिया जाता है। गंगा में तो नहाने ही नहीं दिया जाता। ये क्‍या चक्‍कर है अंकल जी।''

अब अपनेराम क्‍या बताएं उन्‍हें कि ये चक्‍कर ही तो महाकुम्‍भ का चक्‍कर है। वैसे भी हरिद्वार के विद्यार्थी को अवकाशानन्‍द कुछ ज्‍यादा ही मिलता है। कांवड़ मेला हो तो दस दिन तक जीवन ठप्‍प, स्‍कूल ठप्‍प और शहर में चलना-फिरना ठप्‍प। फिर कोई लक्‍खी मावस-पूनो आ जाए तो फिर अवकाशानन्‍द। बैसाखी हो, सोमवती हो तो शहर में तो चहल-पहल हो जाती है पर शहरवालों को लकवा मार जाता है। इन दिनों महाकुम्‍भ का जोर है।

हमारी उदार सरकार ने तीन कुम्‍भस्‍नानों को बढ़ाकर ग्‍यारह कर दिया तो उत्‍साही अधिकारियों ने हर स्‍नान और उसके आगे पीछे के दिनों को भी अवकाशानन्‍द में तब्‍दील कर दिया। अब सवाल यह है कि इन अवकाशों में हरिद्वार वाले कहां जाएं क्‍या करें। देश-दुनिया के लोग उत्‍साह और उल्‍लास से हरिद्वार आरहे हैं और हरिद्वार के लोग अपने अपने दड़बों में घुसे रहने को मजबूर हैं। बाहर निकलना है तो पास जुटाओा पास जुटाने के लिये पुलिसियों की चिरौरी करो। फिर पास लेकर जब निकलो तो उस पास की औक़ात का पता चले कि वह तो कैंसिल कर दिया गया है।    

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

संग संग नहाए जोगी और भोगी

कुम्‍भनगर में साधुसंतों के अखाड़ों का पहला शाही स्‍नान आज सकशल निबट ही गया। सच तो यह है कि प्रशासन महसूस रहा है कि उसकी जान बची और उसने लाखों पाए। संयोग ऐसा कि आज लाखों स्‍नानार्थी भी आए और किस्‍मत से जान बची के भी लाखों पाए प्रशासन ने। आज दोनों हाथों में लड्डू हैं अफ़सरों के। मध्‍यलिंगी उनके देहरी द्वार पर कल बधाइयां गाने की तैयारी में हैं।

बड़ी खुशी की बात है कि आज वे लोग नहाने पर नहीं लड़े। कहीं भी नहीं अड़े। सब नहाए, मिलकर नहाए, हिलमिलकर नहाए, गलबहियां डालकर नहाए, प्रेम  से नहाए, हंस हंस के नहाए, जयकारे लगाके नहाए, कपड़ों में नहाए और बिना कपड़ों भी नहाए। वे नहाए और लोगों ने देखा कि वे नहा रहे हैं। कैमरों ने देखा कि वे नहा रहे हैं। संन्‍या‍सियों ने देखा कि संन्‍यासी नहा रहे हैं और गृहस्‍थों ने भी देखा कि संन्‍यासी नहा रहे हैं। इतना ही नहीं उत्‍साही गृहस्‍थों ने तो संन्‍यासियों के साथ गंगा में छलांग लगाई।  पुलिस ने, प्रशासन ने बड़ी नाकेबन्‍दी कर रखी थी कि संन्‍यासियों के संग गृहस्‍थी न नहाएं पर वह सब नाकेबन्‍दी और हिदायतें धरी की धरी रह गई। गृहस्‍थी तो नहाए और खूब नहाए। जिन्‍हें अंगसंग लगके नहाना था वे तो जमके नहाए। अब किसी को यह बात सुहाए या किसी को न भाए पर जोगियों के संग भोगी तो गंगा नहाए। इतना ही नहीं कई भोगियों ने कई जोगियों को नहलाया। हर-हर गाया और मल-मल नहलाया।

सवाल ये पूछा जा रहा है कि कौन से भोगी नहाए। तो भैया, जिस भोगी पर जोगी की कृपा हो गई वह शाही जुलूस में शामिल हो गया और जिसने जोगी को रजत-प्रणाम नहीं किये वह महरूम हो गया जोगी के साथ नहाने से। रजत-प्रणामों का प्रभाव बढ़ रहा है इसीलिये साधुओं की शाहियों में गृहस्थियों की तादाद बढ़ रही है। आज भी हरकी  पौड़ी पर जोगी कम थे भोगी ज्‍यादा थे। शाहियों में संतों के भगवे रंग पर गृहस्थियों का रंगबिरंगापन ज्‍यादा हावी था।

अपनेराम की चिंता ये है कि रजत-दानियों और रजत- परिवारों का वर्चस्‍व जिस तरह जोगियों पर बढ़ रहा है उससे तो लगता है कि आने वाले कुम्‍भों में अमृत उन्‍हींको मिलेगा जिनकी अंटी में सिक्‍के होंगे। वही हरकी पौड़ी नहाएंगे जिन्‍होंने गुरुच‍रणों में भेंट चढ़ाई है। जो बेचारे हैं, भले ही वे संख्‍या में भारी हैं पर पुलिस और प्रशासन भी उन्‍हीं पर भारी है। हरकी पौड़ी के सामने होगी पर वे नहा न पाएंगे, बल्कि दूर, बहुत दूर हकाले जाएंगे। वे कहां नहाएंगे, न उन्‍हें पता है न शाहियां नहलाने वाले प्रशासन को।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

कुम्‍भ में नयनसुख

हरिद्वार एक स्‍नान-प्रधान या कहिये नहान-प्रधान शहर है। यहां दुनिया भर से आस्तिक लोग नहाने आते हैं। जो आस्तिक नहीं हैं वे नहान देखने आते हैं यानी नहाते हुओं को देखने के लिये आते हैं। वे नहानेवालों को देखते हैं। और नहाते हुओं को देखने वालों को भी देखते हैं। दरअसल उन लोगों के लिये नहान के ये मौके देखादेखी के मौके होते हैं।

मीडियाकर्मी देखादेखी के इस कर्म में अग्रणी होते हैं। देखना, गौर से देखना और भीतर तक देखना उनके कर्तव्‍यों में शामिल है। इसलिये जब वे आते हैं तो पहले हरिद्वार को देखते हैं, फिर यहां के लोगों को देखते हैं, यहां के घाटों को देखते हैं, घाटों के ठाठों को देखते हैं और फिर घाट घाट का पानी पीते हुए वह सब कुछ देखते हैं जिसे देखकर पुण्‍य मिलता है, नयन-पुण्‍य मिलता है। इस पुण्‍य के बदले कभी कभी उन्‍हें गालियां भी मिलती हैं। पर उन गालियों को फूलहार मानकर वे गले में धारण कर लेते हैं। शिव बनकर गरल पीते हैं और फिर नये सिरे से पुण्‍य लूटने में मशगूल हो जाते हैं।

अपनेराम ने आज ही एक अखबार में पढ़ा है। एक मीडियाकर्मी इस बात से चिंतित और निराश हैं कि हरिद्वार के कुम्‍भ में अभी तक उतने नागा यानी निर्वस्‍त्र साधु नहीं आएं हैं जितने आने चाहिए। नग्‍नता की कमी पर वे बंधु चिंतित हैं। उनकी चिंता भी स्‍वाभाविक है और निराशा भी स्‍वाभाविक है। अगर नागा समाज कम तो कुम्‍भ जैसे विराट पर्व का क्‍या होगा। अगर सभी साधु संतों ने कपड़े पहन लिये तो कुम्‍भ की रिपोर्टिंग नीरस हो जाएगी। फिर ये क्‍या लिखेंगे और दुनिया जहान को क्‍या दिखाएंगे। वैसे उन्‍हें मुग़ालता है कि दुनिया जहान के लोग उनके अखबारों में सिर्फ नंगई पढ़ना और उनके चैनलों पर सिर्फ नंगई देखना चाहते हैं।

पर वे अपने मुग़ालते के चलते न  केवल नहाते हुओं को देखते हैं बल्कि दुनिया जहान को भी दिखाते हैं कि देखो हरिद्वार में लोग कैसे नहाते हैं। इसी तरह उनकी नौकरी और उनके चैनलों की टीआरपी बनी रहती है। ऐसा न करें तो भाईलोगों की नौकरी पर बन आए। ऐसा वे कहते हैं।

नहाना स्‍वच्‍छता और स्‍वास्‍थ्‍य से जुड़ा मसला है। सारी दुनिया में हाइजीन का बोलबाला है। भारतवासी और भारतवंशी तो सदियों से स्‍नान के महत्‍व को समझते रहे हैं इसलिये भारतीय परम्‍परा में नहाने का जबरदस्‍त आग्रह है। घर में रोज़ नहाओ, कूंए बावड़ी पर भी कभी कभी नहाओ, पिकनिक मनाने को ही सही, झील झरनों में नहाओ, पुण्‍य कमाने को नदियों में नहाओ और अगर सागर दर्शन हो जाएं तो वहां भी मत चूको। खारे पानी की चिंता किए बगैर वहां भी डुगकी लगाओ।

इसी परम्‍परा का निर्वाह हमारे संतों, ऋषि-मुनियों ने किया और पूरे समाज के लिये तय कर दिया कि पुण्‍य कमाना है तो नहाओ। पर्व तिथियों तीर्थों में जाओ और नदियों में डुबकी लगाओ। पाप हट जाएंगे पुण्‍य खाते में जुड़ जाएंगे। सो भैया, हरिद्वार में लोग सैकड़ों हज़ारों मील दूर से आ रहे हैं और अपने अपने पाप यहां छोड़ कर पुण्‍य बटोरकर ले जा रहे हैं। और यह कुम्‍भ तो नहाने का ही मेला है। तन-मन की मैल धोने का मेला है। कुम्‍भ में लोगों के तन भले ही गंगाजल से साफ हो जाएं पर मन साफ हो पाएंगे या नहीं, पता नहीं। हां, मीडिया अपना मसाला ज़रूर ढूंढ ही लेगा।

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

विकासशील पेट का कुम्‍भ

विकास के कई आयाम हैं। विकसित होना और अविकसित होना इसके दो ध्रुवान्‍त हैं तो अर्द्धविकसित होना मध्‍यबिन्‍दु है। अर्द्धविकसित होने में एक स्थिरता का भाव है पर इसके अलावा एक भाव है विकासशीलता का। विकासशीलता के इस भाव में गतिशीलता है। बड़ी संभावनाएं छिपी रहती हैं इस विकासशीलता में।  यह पूत के पांवों की तरह होती है जिसे चतुर सुजान लोग पालने में ही देख लेते हैं। देखकर फिर उन पांवों के घुटनों को अपने ही पापी पेट की ओर मोड़ लेते हैं। हमारा प्‍यारा देश भारतवर्ष एक विकासशील देश है और अनंत संभावनाओं से लबालब है। जैसी और जो जो संभावनाएं देश में हैं वैसी ही, बल्कि उससे भी ज्यादा सं‍भावनाएं देशवासियों के पापी पेट में हैं। देश की तरह देशवासियों का पेट भी विकासशील है और विकसित होने की  तमाम संभावनाएं अक्‍सर भुनाता रहता है। फर्क सिर्फ यह है कि अगर पेटवाला गरीब है, आम जनता का हिस्‍सा है तो उसे अपना पेट कटवाना ही है। इसके विपरीत  अगर पेट वाला कोई खास है, अमीर है, नेता है, अफ़सर है, इंजीनियर है, दफ्तर का बाबू है या फिर  कोई सरकारी ठेकेदार है तो उसे अपना पेट भरने की ही नहीं, ठूंस ठूंस कर भरने की  पूरी छूट है। उसे यह भी छूट है कि वह अपने बेचारे पेट के लिए औरों के पेट पर लात मारे या ज़रूरी समझे तो उसे काट डाले।

इस छूट के चलते कुम्‍भन्रर हरिद्वार में  पूरी मस्‍ती हैं। नज़र पारखी हो तो यह देख सकती है कि किसका पेट कितना विकासशील हो रहा है। 

आइये कुछ विकासशील पेटों की चर्चा का रस लें। पहली श्रेणी के विकासशील पेटों में आते हें चुनाव की नाव में बैठकर राजधानियों में ब़डी-छोटी कुर्सियां पाए मंत्रिगण जो दावे करते नहीं अघा रहे हैं कि वे पांचसौ पैंसठ करोड़ रुपये कुम्‍भ पर खर्च कर रहे हैं। ऐसी घोषणा के समय वे अपने मातहत अधिकारियों की तरफ मुस्‍कराकर देख लेते हैं। उनकी मुस्‍कान से आश्‍वस्‍त कुम्‍भ में जुटे अधिकारी और इंजीनियर अपने विश्‍वस्‍त बाबुओं की ओर देखकर मुस्‍कराते हैं और फिर बाबूजनों के मुस्‍कराने की बारी आती है। जब बाबूजन मुस्‍कराते हैं तब सरकारी ठेकेदार भी खींसे निपोरते हैं। यह मुस्‍कान श्रृंखला कुम्‍भकार्यों तक पहुंचती है। ऐसे में कर्मठ ठेकेदार और समर्पित अधिकारीगण कुछ और लोगों के बीच अपना मुस्‍कानसुख बांटते हैं। जनता की तरफ से बोलनेवाले मौहल्‍ला-नेताओं और अखबारों और चैनलों का नाम लेकर डराने वाले और वह नाम भुनाने वाले कलमची और टीवी आईडीधारक इस मुस्‍कानसुख से उपकृत होते हैं।

आजकल कुम्‍भनगर में नीचे ये उुपर तक यही मुस्‍कान बिख‍री हुई है। कुम्‍भ में कुछ पेट अत्‍यंत विकासशील हैं। वे लगातार डकार रहे हैं पर डकार नहीं ले रहे हैं। उनके डकार-प्रकारों पर शोधप्रबंध लिखे जाने की पूरी गुंजाइश हैं। पर यह शोधप्रबंध कौन लिखेगा। जिसका पेट विकसित है और जिसका अविकसित है, इन दोनों को ही फुर्सत नहीं है अपने अपने कारणों से। अर्धविकसित पेट वाले बेचारे  समझ ही नहीं पा रहे हैं कि माजरा क्‍या है और विकाशीलों को अपने पेट-विकास से ही फुर्सत नहीं है। उनका कुम्‍भ लगातार भर रहा है।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

संतों का वसंत

आजकल कुम्‍भनगर हरिद्वार में कुम्‍भ की रौनक है। कुम्‍भ यानी संतों का वसंत। तो हरिद्वार में इन दिनों संतों का वसंत आया हुआ है। न केवल आया हुआ है, बल्कि छाया भी हुआ है- ''जित देखूं तित संतई संता, जित संता उत सदा बसंता''।

गली गली, डगर डगर, मौहल्‍ले मौहल्‍ले, और अखाड़े अखाड़े सर्वत्र बस संत ही संत हैं। जहां संत हैं वहीं महंत हैं। महंत ही संतों के कंत हैं। जहां महंत हैं वहीं मण्‍डलेश्‍वर हैं, महा मण्‍डलेश्‍वर हैं, आचार्य हैं। और ये सब जहां हैं वहां आनन्‍द है, परमानन्‍द है और सच्चिदानन्‍द है। फिर जहां स्‍वयं सच्चिदानन्‍द हों वहां उनके सम्‍मान में किस चीज़ की कमी रखी जा सकती है। सो, छत्र-चंवर, बैण्‍ड-बाजे, रथ, पालकियां, हाथी-हौदे, ऊंट-घोड़े क्‍यों सब कुछ जुट रहे हैं संन्‍यासियों- बैरागियों और उदासियों-निर्मलों के लिए। सो, इन दिनों हरिद्वार में यही कुछ दर्शनीय है।

जैसे घर-गिरस्‍ती वाले ब्‍याह-शादी की तैयारी में जुटते हैं वही नज़ारा संतों की दुनिया में आजकल चल रहा है। बेटी का ब्‍याह हो तो घर की लिपाई-रंगाई-पुताई से लेकर हलवाई तक और मेहमानों की मेज़बानी  के इंतज़ामों में बेटीवाले जिस तरह जुटे रहते हैं उसी तरह का माहौल आजकल संतनगरी में है। जिस तरह बेटे वाले बारात की तैयारी में बैण्‍ड, घोड़ी,  शहनाई, बिजली के लिये बेचैन रहते हैं उसी तरह संतों की जमातों में तैयारियों का जोर है और जोश भी है। हर जमात की और हर अखाड़े की कोशिश यह है कि उनकी भव्‍यता दूसरे से बढ़कर हो। दिव्‍यता की चिंता नहीं है, भव्‍यता के पीछे बौराए हुए हैं हमारे संतगण। चिंतन यह नहीं है कि आत्‍म-परमात्‍म का संगम किस तरह हो, मोक्ष कैसे हो आम आदमी का या कैसे मुक्ति मिले माया मोह से बल्कि चिंता यह है कि हमारी भौतिक भव्‍यता कैसे दूसरे से अधिक बनी रहे। हमारे अखाड़े की पेशवाई और शाही बाकियों की पेशवाइयों और श्‍खाहियों से ज्‍यादा सुन्‍दर, प्रभावशाली और आकर्षक कैसे बने। सबकी कोशिश यही है कि लोग देखें तो बस यही कहें कि अखाड़ा तो बस यही है।

कुम्‍भनगर सज रहा है। संतों के धूने सज रहे हैं और महंतों के महल सजाए जा रहे हैं। जो जहां है सजीला दीखने की भरपूर कोशिश में व्‍यस्‍त है। कुछ व्‍यस्‍त होकर आकर्षित कर रहे हैं और कुछ अपनी अस्‍तव्‍यस्‍तता में आकर्षक लग रहे हैं। तरह तरह की वेशभूषा और साज-श्रृंगार में, तरह तरह की कण्‍डीमाला में, तरह तरह के तिलक-त्रिपुण्‍ड में तरह तरह के कफ़नी-चोले में और तरह तरह के आसनों और मुद्राओं में साधुसंत यत्रतत्र बिखरे हुए हैं। भक्‍तों की इंतज़ार में कोई नाखून तो कोई जटाजूट बढ़ाए है, कोई रुण्‍डमुण्‍ड है तो कोई दाढ़ीमूंछ में अलपेट दिए है। कोई भगवा तो कोई सफेद, कोई काला पहने है तो कोई कुछ भी नहीं पहने है। हम पहने हैं तो भेगी हैं और वह नहीं पहने है तो योगी। भोग और योग के बीच एक वस्‍त्र की दूरी भर है।

कुम्‍भ में आने से बड़ा एक मुद्दा है कुम्‍भ में नहाना। बारह बरसों में यह मुद्दा छह बार उठता है और छहों बार यह मुद्दा साधुसंतों  के बीच से उठता है। वे कहते हैं, ''हमारी फलां मांग मानों वरना हम नहीं नहाएंगे।'' सरकारें हिल जाती हैं और मीडिया चौंक जाता है कि बाबालोग नहीं नहाएंगे तो धर्म का क्‍या होगा। बाबाओं की मानमनौव्‍वल शुरू हो जाती है। अधिकारीगण बाबाओं की ठुड्डी सहलाते हैं, ''बाबाजी तीन साल हो गए अब तो नहा लो'' और बाबाजी रूठे रहते हैं, ''जाओ, नहीं नहाते।'' कभी कभी दूसरे बाबाजी हुंकार भरते हैं, ''ख़बरदार,  फलाने बाबा को नहाने दिया तो मारकाट हो जाएगी।'' और फलाना बाबा या फलाना अखाड़ा नहाने से रह जाता है। यानी पंचायती साधुओं के इस पंचतंत्र गणतंत्र में गंगा नहाने पर भी राशनिंग है।

जहां तक मामला इस बार हरिद्वार कुम्‍भ में नहाने का है, सारे बाबालोग एक साथ नहाने को राजी हैं। जो अखाड़े पिछले नौ सालों से नहीं नहाए उन्‍हें नहाने वालों ने इसबार अपने अंगसंग लगाने का फैसला कर लिया है। इसलिये अखाड़ा जगत में पूरा वसंत खिल रहा है। सब साथ साथ जाएंगे और साथ साथ गंगा नहाएंगे।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

ज़मीनों की मारामारी

भक्‍तों, इस घोर कलिकाल में द्वापर घुसने को आतुर है। अपनेराम भय‍भीत हैं कि अब क्‍या होगा। गंगातट पर कुम्‍भ का मेला लगने वाला है। साधुसंतों की रेलमपेल शुरू हो चुकी है। एक तरफ पाण्‍डव साधुवेश में पाण्‍डव हैं और दूसरी ओर अफ़सरों की कौरवी सेना। मामला वही भूमि का है। एक राज्‍य चाहता है और दूसरा फुटों, मीटरों और बीघों में बात कर रहा है। यही क्‍या कम है कि मामला सूई की नोंक से आगे निकल आया है। अब के कौरव भूमि दे तो रहे हैं पर पाण्‍डवों को वह, तब भी कम लगी थी और अब भी कम लग रही है। महाभारत जारी है।

अजब विडम्‍बना है कि किसी वक्‍त सब कुछ त्‍यागने का नाम संतई था पर अब सब कुछ त्‍याग कर फिर से वही सब जुटा लेना संतई की परिभाषा में आता है। सारी दुनिया छोड़कर, अपना घर बार, ज़मीन जायदाद त्‍यागकर भगवा धारण करने वाले ये जो इन दिनों हरिद्वार पहुंच रहें हैं वे सब सरकार से ज़मीनें मांग रहे हैं। ज़मीनें यूं कि उस पर ये लोग अपना धूना रमाएंगे। झण्‍डा गाड़ेंगे, अपना शिविर लगाएंगे। उस सुसज्जित शिविर में आप हम जैसों को बुला बुलाकर कहेंगे कि भाईलोगों अपनी ज़मीनें, अपने घर, अपना मालमत्‍ता यानी कुलमिलाकर सारा माया मोह छोड़ो और  अपने सब कुछ को हमारे चरणों में धर दो तभी मुक्ति मिलेगी, तभी मोक्ष मिलेगा। अपनेराम को मोक्ष की तलाश है ही, झट से इन वंदनीय चरणों में सब कुछ धरने को तैयार हो जाते हैं। लकहनि देते अपनेराम उसी साधु को हैं जिससे राजकाज, व्‍यापार, नौकरी में फ़ायदा हो। ऐसे साधु का दमदार होना, हाई-फ़ाई होना ज़रू‍री है।

ऐसा माना जाता है कि जितनी बड़ी ज़मीन पर जितना बड़ा शिविर होगा और जितनी बड़ी गाड़ी में बैठकर जितने भव्‍य-सुदर्शन स्‍वामी जी जितने बड़े मंच के जितने बड़े सिंहासन पर बिराजकर जितनी बड़ी बड़ी बातें करेंगे उतनी ही जल्‍दी भक्‍त कोउतनी ही प्रभावशाली मुक्ति मिलेगी।

तो कुम्‍भ की शुरुआत में फिलहाल ज़मीनों की मारामारी है। गरीब गृहस्‍थों, उनकी झुग्‍गी-झोंपडि़यों को और उनके पटरी-खोखों को हटाया जा रहा है। भगवाधारियों को दिया जा रहा है। अफ़सर खुश हैं कि वे इस बार पिछले कुम्‍भ की तुलना में संतों को डेढ़ गुना ज्‍यादा भूमि बांट रहे हैं। संत परेशान हैं कि उन्‍हें वांछित भूमि नहीं मिल पा रही है। मिले कैसे, वे डेढ़ सौ एकड़ भूमि चाहते हैं और यह बताने को भी राजी नहीं हैं कि वे इतनी भूमि में जनवरी से अप्रैल तक किस चीज़ की खेती करेंगे। कुम्‍भ आदि मेलों में भक्ति की खेती ही सर्वाधिक फलती है। नवधा भक्ति में भले ज़मीन की चर्चा न की गई हो, पर बिना ज़मीन के कोई भक्ति करे कैसे। सो, संतों को ज़मीनें चाहिये ही। भक्ति के लिये भी ज़मीन चाहिए और मुक्ति के लिये भी ज़मीन चाहिए। भला कोई कहां बैठकर भक्ति करे या करवाए।

कुम्‍भ क्षेत्र में आने वाले साधु-संत भजन-पूजन, यज्ञ-याग, संदेश-उपदेश आदि के लिये सैकड़ों एकड़ों में भूमि चाहते हैं। अफ़सर उन्‍हें ए‍क बटा दस भाग भूमि भी देने को तैयार नहीं हैं। सरकार के पास इतनी  भूमि हरिद्वार में तो है ही नहीं।

अब सरकार गम्‍भीरता से परिवार नियोजन की तर्ज़ पर संत-नियोजन की नीति बनाने पर विचार कर रही है। पर जब इस उर्वर देश में बच्‍चों की पैदावार नहीं रोकी जा सकी तो साधु-संतों, पीरों-फ़कीरों की पैदावार कैसे रुक सकती है। बच्‍चा पैदा करने के लिये तो फिर भी दो की ज़रूरत होती है, चेला तो कोई भी अकेले ही मूंड लेता है।

तो भैये, साधु-संन्‍यासी इन दिनों ज़मीनों में उलझे हैं। जिन्‍हें ज़मीन मिल गई वह बसेरा बनाने की जुगत में है और जिस साधु को बसेरा मिल गया वह जमात जुटाने की जुगाड़ में है। जमात के बाद फिर पद है प्रतिष्‍ठा है, धन है वैभव है। अपनेराम जैसा गृहस्‍थ चकित है। समझ नहीं पा रहा है कि मुक्ति का मार्ग गृहस्‍थों के वैभव के बीच से निकलता है या संन्‍यस्‍तों के वैभव के बीच से निकलता है।