घाट हरद्वारी
कला की राह में बड़े रोड़े हैं। इनमें से एक रोड़ा है कला का दलाल। कलाकारों को मंच दिलवाने वाले दलाल या बिचौलिये या कमीशन एजेंट को आजकल की सभ्य भाषा अंग्रेजी में 'इवेंट मैनेजर' कहते हैं। सभी जानते हैं कि दलाल की दलाली अवसर के अनुरूप दस से बीस प्रतिशत तक होती है। 100 कलाकार को मिले हैं तो वह दलाल को 20 तक दे देता है। दोनों का काम चल जाता है। पर मामला उलट जाए तो ? ऐसा ही कोई दलाल आपकी कला के प्रदर्शन के लिए आपके नाम से पौने दो लाख वसूल कर ले और आपको उसमें से केवल बीस हज़ार ही थमाए तो इसे आप क्या कहेंगे? घोर कलयुग । इसलिये कहता हूं कि कला की राह में बड़े रोड़े हैं।
अब देखिए न बरसों की गुरुसेवा, विद्यार्जन के कठिन परिश्रम और सतत् अभ्यास के बाद कोई कलाकार बनता है। पर वह अपनी कला के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए कितने पापड़ बेलता है यह वही जानता है। सार्वजनिक मान्यता के बगैर कला ‘अरण्य-रोदन’ बनकर रह जाती है। कलाकार का भाग्य अच्छा हुआ तो उसे ऐसे अवसर मिल जाते हैं जहां उसकी कला प्रशंसकों तक पहुंचती है। भाग्य ने ज्यादा जोर मारा तो प्रशंसकों की वाह वाह के साथ कुछ धनार्जन भी हो जाता है। पर कभी कभी यह धनार्जन भी ऐसे ऐसे गुल खिलाता है कि आदमी न कहने का रहता है न सहने का।
विश्वप्रसिद्ध भारतीय बांसुरी वादक रोनू मजूमदार के साथ ऐसा ही कुछ हो गया और अब वे बेचारे न कुछ कह पा रहे हैं और ना ही कर पा रहे हैं। यानी मराठी में कहें तो ‘तोंड दाबून बुक्यांचा मार’ । मुंह में पर कपड़ा ठूंस दिया और ऊपर से जमकर कर दी पिटाई । बन्दा न रो सके, न कराह सके। यह किस्सा हुआ भी तीर्थनगरी हरिद्वार में । 18 से 23 नवम्बर के बीच हरिद्वार में ‘हरिद्वार महोत्सव’ के नाम से छह दिवसीय एक वृहद सांस्कृतिक आयोजन संपन्न हुआ। बांसुरी-वादक रोनू मजूमदार, गायक-अभिनेता शेखर सेन, नृत्यांगना शर्बानी मुकर्जी और वन्दना कौल, विचित्रवीणा-वादिका राधिका बुधकर के कार्यक्रमों के अलावा कविसम्मेलन, जादू, पर्वतीय सांझ, राजस्थानी लोकरंग, बच्चों और युवा कलाकारों से भरपूर इस आयोजन को मुख्यरूप से जि़ला प्रशासन ने हरिद्वारवासियों और यहां के उद्यमियों के सहयोग से संपन्न कराया।
बाहर से आमंत्रित सभी कलाकारों-कवियों को हरिद्वार महोत्सव समिति ने चैक के माध्यम से मानधन का भुगतान किया। सभी कलाकारों को चैक उन्हीं के नाम से दिए गए। सिर्फ रोनू मुजूमदार ही अपवाद थे। उन्हें महोत्सव में लाने का जिम्मा नोयडा निवासी कलमकारनुमा कला के एक दलाल को दिया गया था। अल्लाह के ‘तुफैल’ से इसी नाम वाले इस दलाल ने रोनू दा को हरिद्वार लाने का जिम्मा लिया एक लाख पिचहत्तर हज़ार में। रोनू दा का पारिश्रमिक इतना होता है सो समिति मान गई।
दलाल के तुफैल से रोनू दा मंच पर आए। थोड़े उखड़े लग रहे थे। सोचा गया कि देर गंगा किनारे की सर्दीली हवाओं वाली ठण्डभरी रात और श्रोताओं की कमी के कारण खिन्न होंगे। पर वैसी खिन्नता में भी उन्होंने समां बांधा, श्रोताओं को अपनी बांसुरी की तान से विभोर किया और चले गए।
तीन-चार दिन बाद अपनेराम के पास उनका फोन आया और उन्होंने पूछा कि उनके नाम पर हरिद्वार महोत्सव समिति ने कितने पैसे दिए हैं? उन्हें बता दिया गया कि के एक लाख पिचहत्तर हज़ार का चैक ‘तुफैल’ के नाम कटा है। इस पर बुरी तरह चौंकते हुए लगभग चिल्लाकर रोनू दा ने बड़ा सा ‘क्या S S S ............’ कहते हुए आश्चर्य प्रकट किया। ‘मेरे नाम से उसने इतना पैसा लिया और मुझे दिया सिर्फ बीस हज़ार का चैक । बाबा रे बाबा । घोर कलियुग है।‘
असलियत जानने के बाद रोनू दा ने दलाल तुफैल से बात की तो तुफैल फैल गया। बोला ‘बंगाली बाबू , आप हैं किस तुफैल में ? जो मिला है चुपचाप लो वरना मुझे जानते नहीं। कुछ भी करवा सकता हूं।‘ बंगाली मोशाय डर गए, पर ग्लानि से भर गए। एक भावुक कलाकार के साथ ऐसी धोखाधड़ी?।
दुखी मन से रोनू दा ने बताया कि उनसे कहा गया था कि हरिद्वार में किसी संत के आश्रम में कार्यक्रम है। वहीं बांसुरीवादन करना है। आस्तिक कला उपासक रोनू दा तैयार हो गए। कहा, चलो गंगा किनारे संत के सामने बजाना है तो अवश्य चलूंगा। यहां आकर पता चला कि कार्यक्रम आश्रम में नहीं महोत्सव में है। तभी माथा ठनक गया था। बाद में जब सारी बातें पता चलीं तो माथे का ठनकना स्थायी सिरदर्द में तब्दील हो गया है।
शुक्रवार, 28 दिसंबर 2007
रोनू दा की बांसुरी के पीडि़त स्वर
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 9:32 am 4 टिप्पणियॉं
बुधवार, 26 दिसंबर 2007
बिग बी का पण्डा
घाट हरद्वारी
अपनेराम यूं तो खांटी हरद्वारी हैं पर अक्सर सफ़र में रहते हैं। कई दिनों बाद आज हरिद्वार लौटे तो पाया कि यहां के पण्डों में घमासान है। एक पण्डा जी ने तो बाकायदा प्रेस बुलाकर पत्रकारों को रसगुल्ले खिलाते हुए वह बहीखाता दिखाया जिसमें अपने पिता की अस्थियां गंगाप्रवाह करने के बाद अमिताभ ने हस्ताक्षर किए थे। वे राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह के पण्डा तो थे ही अब सुपर स्टार के पण्डा भी बन गए थे। ये और बात है कि वे बच्चन जी या उनके पुरखों के हस्ताक्षरों का कोई प्रमाण नहीं दिखा सके। इसीलिए इस बीच कई पण्डे तेजी जी की अस्थियां तिराने के दावेदार हो गए।
इसीलिये हरिद्वार के पण्डों के बीच परस्पर संधर्ष का एक मुद्दा इन दिनों यह है कि कौनसा पण्डा अब स्वर्गीया तेजी बच्चन की अस्थियों को विधिवत गंगा में प्रवाहित कराएगा? इस ‘कीर्ति’ और इस ‘यश’ के साथ साथ बच्चन परिवार से मिलनेवाली दान-दक्षिणा का भागी कौन बनेगा? हालांकि अपनेराम पण्डों के ही दामाद हैं पर पण्डा नहीं, लेकिन इस बात पर चकित हैं कि क्या यह बात किसी लड़ाई या संघर्ष का सबब बन सकती है? हां सच यही है। यकीन मानिये यही मुद्दा है झगड़े का। मामला पण्डों की बड़ी पंचायत ही नहीं जि़लाधिकारी के दरबार तक पहुंच गया है। जि़लाधिकारी ने तो पण्डों का आपसी मामला कहकर पल्ला झाड़ लिया है पर पण्डा-सभा में सिरफुटौव्वल की नौबत है।
जब बच्चन जी की अस्थियां 27 जनवरी 2003 को हरिद्वार लेकर अमिताभ हरिद्वार आए तो प्रतापगढ के एक पण्डा ने आगे बढ़कर यह जिम्मेदारी निभाई। अमिताभ बच्चन के साथ अस्थिप्रवाह कराते उनकी तस्वीरें छपीं तो पण्डाजी ने माना कि उनकी कीर्ति में सलमें-सितारे जड़े गए हैं। पर अब कुछ और पण्डे उनकी टोपी में जड़े ये सलमें-सितारे नौंचने पर उतारू हैं। अस्थियों के बहाने एक को जो कीर्ति मिली थी उसने बाकी पण्डाओं के मन में यशैषणा जगाई है और इस बार जब बॉलीवुड के शहंशाह के अपनी स्वर्गीया माता तेजी जी की अस्थियां लेकर हरिद्वार आने की सूचना है तो पण्डाओं में ‘शहंशाह और सुपरस्टार के पण्डा’ बनने की होड़ लग गई है। चार चार दावेदार मैदान में हैं और मीडिया की पौ-बारह है। उनके लिये तो बिग बी की मां की अस्थियां केवल 'स्टोरी' हैं।
एक एक करके कई नाम पत्रकारों के सामने लाए गए हैं कि बिग बी के पण्डा वही हैं। एक का दावा है कि उसके पास अमिताभ बच्चन के हस्ताक्षरों वाली पोथी है। दूसरे का कहना है कि पहला धोखेबाज है। पिछली बार जबरदस्ती में अमिताभ के हस्ताक्षर ले उड़ा था। असली पण्डा तो वह है जो उस गांव का परम्परागत पण्डा है जहां हरिवंशराय बच्चन पैदा हुए थे। हालांकि पोथीपत्रे के प्रमाणों ये वह वंचित है। पर उस पर पण्डों की सभा के मुखिया का हाथ है। मुखिया पहले वाले का साथ दे देता पर उसका दर्द यह है कि डॉ. बच्चन की अस्थियों के प्रवाह की बेला में पोथीवाले पण्डा ने उसकी जगह उसके विरोधी को तरजीह देकर उसकी फोटो बिग बी के साथ खिंचवा दी। इस बार मुखिया जी ने ऐसे पण्डे को ही किनारे लगाने की ठान ली है। वे दूसरे दावेदारों के साथ हैं। नतीजा यह है कि पण्डों की बिरादरी में ‘बिग बी’ नाम का भूचाल आया हुआ है। सारी बिरादरी खेमों में बंट गई है। लड़ाई के बहाने ढूंढनेवाले खुश हैं कि कई दिनों बाद मुखिया को पटकनी देने का मौका आया। मुखिया का गुट भी इसीलिये खुश है। बिग बी भले ही राजनीति छोड़ चुके हों पर उनके कारण तो राजनीति की ही जा सकती है। भले कांग्रेस करे, सपा करे या हरिद्वारी पण्डे करें।
जहां तक मीडिया का सवाल है, उसके तो दो उदाहरण देखकर अपनेराम चकित हैं। पहला तो तेजी जी के निधन के दिन ही मिला। 21 दिसम्बर को करीब तीन बजे टीवी खोला तो समाचार था कि एक बजकर पन्द्रह मिनिट पर तेजी जी ने लीलावती अस्पताल में देह छोड़ी। समाचार के साथ चल रही वीडियो फुटेज शोकसंतप्त अमिताभ को अस्पताल से आते हुए दिखा रही थी। समाचार पूरा हुआ। ब्रेक की घोषणा के साथ ही विज्ञापनों की शुरुआत हुई। शोकसंतप्त अमिताभ जी का चेहरा अभी आंखों के सामने ही था कि अचानक कैडबरीज बेचते हुए साफाधारी अमिताभ प्रसन्नमुद्रा में दिखे और आवाज सुनाई दी.....'कुछ मीठा हो जाए...।'' यह विज्ञापन अभी तक माथे पर हथौड़ा बजा ही रहा था कि आइडिया के अगले विज्ञापन में अभिषेक बच्चन साफा बांधे मोबाइलसेवा बेचते नज़र आ गए। अपनेराम सोच रहे थे कि क्या ये विज्ञापन उस दिन उस वक्त रोके नहीं जा सकते थे? शायद नहीं, क्यूंकि भावनाओं से ज्यादा महत्व आज व्यापार का है।
आज यानी 26 दिसम्बर को अपनेराम जीटीवी के संवाददाता के साथ शाम 7.30 से 8 बजे तक का बुलेटिन देख रहे थे। गश खाकर गिरते गिरते बचे। संवाददाता से जीटीवी कार्यालय से लगातार पूछ रहा था कि हरिद्वार की गंगा में तेजी बच्चन की अस्थिविसर्जन के कार्यक्रम की डीटेल्स पता करके जल्दी बताओ। उधर जीटीवी की स्क्रीन पर अभिषेक बच्चन की ऐश्वर्या राय से 'मुहब्बत से शादी तक' का सफ़र दिखाया जा रहा था। एक प्रतिष्ठित भारतीय टीवी चैनल एक प्रतिष्ठित भारतीय परिवार में हुई दादी की मौत के तेरह दिनों में ही उसके पोते की बारात के दृश्य दिखा रहा था। इस अत्यंत असामयिक स्टोरी के प्रसारण में जो शीर्षक प्रसारित किए जा रहे थे वह आपने देखे सुने न हों तो अपनेराम से सुनिये और लजाइये.... 'बॉलीवुड की सबसे बड़ी शादी'; 'गुरू के प्रमियर पर हुआ इश्क का इज़हार'; 'ऐश्वर्या-अभिषेक का इश्क'; उमराव जान से प्यार परवान चढ़ा'; 'बॉलीवुड का यादगार लमहा';'मुहब्बत से शादी तक का सफ़र' और 'बच्चन की बारात' ।
अपनेराम पत्रकार भी हैं सो लजा रहे हैं पर साथी मीडियावालों के पास तो इस बेहूदगी के लिये भी कुछ न कुछ तर्क होंगे ही।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 9:44 am 4 टिप्पणियॉं
शुक्रवार, 21 दिसंबर 2007
बच्चनजी की तेजी
बच्चन जी भी तेजी जी का बहुत खयाल रखते थे और बेहद सम्मान भी करते थे। वे बच्चन जी को 'बच्चन' संबोधन से ही बुलाती थीं। वे दमे की मरीज थीं और मुम्बई का नम हवामान प्राय: उन्हें रास नहीं आता था इसीलिये ऐसा बहुत काल गुजरा जब बच्चनजी और वे दिल्ली रहती रहीं और बाकी परिवार मुम्बई में। मुझे उनके दर्शनों का और प्रणाम करने का अवसर अक्सर दिल्ली में 13 विलिंग्डन क्रीसेंट तथा गुलमोहर पार्क के उनके घर 'सोपान' में ही मिला। वे भी बच्चन जी की ही तरह राम और हनुमान भक्त थीं। बच्चन जी के हर घर में हनुमान जी की प्रतिमा जरूर स्थापित होती थी। सोपान में थी। अन्दर घुसते ही दाईं ओर के एक वृक्ष के नीचे मारुतिनन्दन बिराजमान थे। एक बार मैं मंगलवार के दिन बच्चन जी के घर गया तो उनके माथे पर सिंदूर का टीका देखकर पूछा तो उन्होंने ले जाकर अपने आंगन के हनुमान जी के दर्शन कराए थे। मुझे याद है उस दिन मां जी चाय भेजने से पहले खुद हाथ में मोतीचूर के लड्डुओं का प्रसाद लेकर आईं और बोलीं, 'लो कमलकांत, तुम हरिद्वार से प्रसाद लाए हो और मैं तुम्हें 'सोपान' वाले हनुमानजी का प्रसाद खिलाती हूं।' मां जी के हाथों से मिले उस प्रसाद का स्वाद मैं आज तक नहीं भूल पाया हूं।
बच्चन जी के मेरे नाम आए पत्रों में कुछेक पत्र उन्होंने मुझे तेजी जी के लैटरहेड पर ही लिखे थे। 1978 में लिचो ऐसे तीन पत्र मेरे सामने हैं जिनपर अंग्रेजी में बांई ओर सुन्दर अक्षरों में TEJI और दाईं ओर मुम्बई का पता छपा हुआ है। तेजी जी के नाम मुद्रित नाम के नीचे बच्चन जी ने अपने हस्ताक्षरों में बच्चन लिखा है। बच्चन जी के अनेक पत्रों में तेजी जी का, उनके दमें और उनकी यात्राओं तक का उल्लेख बच्चन जी ने किया है। परिजनों के पत्रशीर्षों का उपयोग करना और उनके बारे में जानकारी देना बच्चन जी की वह शैली थी जिसके चलते सामान्य व्यक्ति भी खुद को बच्चन परिवार से जुडा महसूस करता था।
कहावत है कि हर सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री होती है। तेजी जी के बारे में यह कहावत दुगनी सार्थक है। वे एक नहीं दो दो सफल पुरुषों के पीछे प्रेरणापुंज थीं। अपनी युवावस्था में जहां उन्होंने कवि बच्चन को महाकवि बनाने में अपनी ऊर्जा लगाई वहीं अपनी प्रौढावस्था और वृद्धावस्था को उन्होंने अपने यशस्वी पुत्र अमिताभ की सफलता के लिए समर्पित कर दिया। खुद बच्चन जी ने बताया था कि तेजी जी एक अभिनेत्री भी थी। वे कॉलेज के दिनों में नाटकों में भाग लेती थीं। यही नहीं विवाह के बाद भी वे इलाहाबाद और दिल्ली में कई बार मंचों पर अभिनय के लिए उतरीं हैं। कहा जा सकता है कि अमिताभ जी में अभिनय के संस्कार अपनी मां से ही आए हैं।
वे सचमुच भाग्यशाली महिला थीं। उन्होंने बच्चन परिवार और नेहरू परिवार के बीच उपजे परिचय को ऐसी प्रगाढता में बदल डाला कि भारत की एक प्रधानमंत्री ने अपनी पुत्रवधू और भावी प्रधानमंत्री की सहधर्मिणी को भारत व भारतीयता का परिचय देने के लिए उन्हीं के हवाले किया। बच्चन जी की साहित्यिक प्रतिभा के बराबर ही तेजी जी की व्यवहार निपुणता का असर था कि देश के अग्रणी दो परिवारों की चर्चा में नेहरू-बच्चन परिवार का नाम सहज ही लोगों की जुबान पर आ जाता था। वे इस मायने में भी भाग्यशाली थीं कि उनके पुत्रों ने उनका भरपूर सम्मान किया और सही मायनों में पुत्रधर्म निभाया। किसी जमाने में बच्चन जी ने मेरे एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि 'अमिताभ में सुरुचि उनकी मां से ही आई है। उन्होंने मुझे लिखा था कि तेजी जी एक ऊंचे आभिजात्य परिवार का संस्कार लेकर आईं। रहन सहन से लेकर बात-व्यवहार तक में वे ऊंचे दर्जो की सुरुचि का सबूत हर सय देती हैं, ऐसी सुरुचि पीढियों की देन होती है और पीढियों का दाय भी । इसमें कोई संदेह नहीं कि अमित अजित ने यह सुरुचि अपनी मां से दाय के रूप में पाई है।''
ऐसी सुरुचिसंपन्न तेजी बच्चन जी को जिनकी प्रतिभा के कारण बच्चन परिवार ने देश के चन्द सफलतम परिवारों में अपना स्थान बनाया हमारे प्रणाम। प्रभु उन्हें अपनी चरण शरण दें।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 4:07 am 6 टिप्पणियॉं
बुधवार, 19 दिसंबर 2007
कंधे पर रोटियां
क्या आप बता सकते हैं कि ये भाई लोग कहां के हैं और क्या ले जा रहे हैं ? मैं ही बता देता हूं। मुस्लिम शिक्षाजगत का एक केन्द्र है देवबन्द जहां विश्वप्रसिद्ध शिक्षा संस्थान है 'दारुल उलूम'। ये चित्र है 'दारुल उलूम' के भोजनालय के बाहर का। भोजनालय के कार्यकर्ता विदद्वयाथियों को खिलाने के लिए रोटियां कंधे पर रखकर भोजनकक्ष तक ले जारहे हैं। रोजाना इस रोटी निर्माण केन्द्र पर करीब सात-आठ हजार क्षुधातुरों के लिए रोटियां सेंकी जाती हैं। जब क्षुधातुरों की संख्या ये है तो रोटियों का 'ट्रांसोर्टेशन' तो ऐसे ही होगा ना ?
ये चित्र अपनेराम ने पिछले दिनों जर्मनी के डॉ. इन्दुप्रकाश पाण्डेय और उनकी भार्या श्रीमती हाइडी पाण्डेय के अलावा श्रीमती बुधकर के साथ हुई देवबन्द यात्रा में उतारे। आपको कैसे लगे ?
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 10:05 am 7 टिप्पणियॉं
मंगलवार, 18 दिसंबर 2007
चर्चा चण्डूखाने की
एक लाख अस्सी हजार की चाय
यूं तो हमारा हरद्वार या हरिद्वार मद्यनिषिद्ध क्षेत्र है । यहां किसी भी तरह का नशा वर्जित है और नशे का सामान बेचनेवाली कोई दुकान यहां खुल भी नहीं सकती। पर नशेबाजों की यहां कोई कमी नहीं है। तरह तरह के नशेडी-भंगेडी-गंजेडी, चिलमिये-सुलफैये यहां इफरात में उपलब्ध हैं। सब कुछ है यहां, पर घोषित कुछ नहीं है। अगर कुछ घोषित है तो वह है गोपाल का चण्डूखाना। पिछले तीन दशकों से इस चण्डूखाने की शहर में कोई मिसाल नहीं। यहां बिकने वाली चाय से ज्यादा नशा यहां मिलने वाली मुफ्त की चाय का है। और कई तरह के नशे की मिसालें इस चण्डूखाने ने कायम की हैं। क्रमश: उनकी चर्चा करेंगे।
अब इससे पहले कि गोपाल के ख्ण्डूखाने की विधिवत चर्चा शुरू करें, हम आपको बता दें कि यह गोपाल कौन है। गोपाल यानी गोपालसिंह रावत। एम.ए.,एल.एल.बी.; उम्र यही कोई चौव्वन पचपन, रंग गोरा, कदकाठी से औसत पहाडी व्यक्तित्व, मूल पेशा चाय बनाना और बेचना तथा साइड पेशा पत्रकारिता करना। पहुंच मंगते से मिनिस्टर तक। पढने-लिखने के बाद पुश्तैनी काम नही करना था इसलिए हरिद्वार से बाहर जाकर नौकरी की। वह जमी नहीं तो हरिद्वार आकर संस्कृत विद्यालय में अध्यापकी कर ली। पिता का निधन हुआ तो घरेलू दबावों में पुश्तैनी दूकान पर आना ही पडा। पर भीतर लेखन और पत्रकारिता के कीडे कुलबुलाते ही रहे। मौका मिलते ही स्थानीय अखबार में लिखना शुरू कर दिया। अस्सी के शुरू में 'जागरण' का संवाददाता बना दिया गया और तभी से गोपाल की चाय के साथ उसकी पत्रकारिता भी चल निकली। धीरे धीरे 'रावत टी स्टाल' कब 'चण्डूखने' में तब्दील हो गया किसी को क्या खुद गोपाल को ही पता ही नहीं चला।
यारों का यार निकला गोपाल इसलिए अस्सी के जमाने के तमाम उभरते पत्रकार गोपाल की दूकान पर जमने लगे। पूर्वान्ह के ग्यारह बजते बजते एक एक करके हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स, अमर उजाला आदि अखबारों के पत्रकार गोपाल की दूकान पर एकत्र होते और शहरभर की चिमेगोइयों में मशगूल हो जाते। वह जमाना था जब बसों और रेलों से अखबारों के मेरठ-दिल्ली दफ्तरों को समाचारों और चित्रों के पैकेट भेजे जाते जो देर शाम या अगले दिन पहुंचते थे। गोपाल ने पत्रकारों को मुफ्त चाय पिलाना शुरू किया। इस उदारता के पीछे तब कुछ यारबाजी और कुछ समाचार संग्रहण की सुविधा जुडी थी। सारे पत्रकार एकत्र होकर परस्पर समाचारों का आदान-प्रदान करते और फलां समाचार को कैसे किस एंगल से प्रस्तुत करना है यह तय करते । जो तय होता वहीं भाव भाषा के अन्तर से प्राय: सभी अखबारों में छप जाता है।
मशहूर होता चला गया कि गोपाल की दूकान पर दोपहर में पहुंचकर पत्रकारों से मिला जा सकता है। तो शहर के तमाम नेतागण और समाचार-प्रदाता संस्थाओं के लोग गोपाल की दूकान पर आने लगे। कुछ गप्पबाज भी एकत्र होने लगे। बेपर की उडने भी शुरू हुई और कुल मिलाकर गोपाल की चाय की दूकान ऐसे चण्डूखाने में तब्दील हो गई जहां चण्डू का नशा तो नहीं हॉ चाय की चुस्कियों के साथ गप्पों का नशा जरूर मिलने लगा।
धीरे धीरे यह चण्डूखाना प्रेसवालों का, पत्रकारों का अघोषित दफ्तर बन गया। हरिद्वार के पत्रकारों की संस्था 'भारतीय संवाद परिषद' जो कालान्तर में 'प्रेस क्लब हरिद्वार' हो गई, की स्थापना-संकल्पना की जन्मभूमि यही चण्डूखाना बना। आज जब प्रेसक्लब का अपना स्वतंत्र दफ्तर है और नया भवन भी बनकर तैयार है, तब भी पुराने पत्रकारों के लिए गोपाल का चण्डूखाना ही हरद्वारी पत्रकारिता का कलम का मक्का-मदीना है। जब हरिद्वार में गिनेचुने सात-आठ पत्रकार होते थे तब भी चण्डूखाना आबाद था और आज जब यह संख्या 'सेंचुरी अप' हो चुकी है तब भी इस चण्डूखाने का महत्व कम नहीं हुआ है।
ये वो जगह है जहां रोजाना औसतन दस-पन्द्रह कप चाय पत्रकारों को और उनके साथ आए अतिथियों को कतई 'मुफ्त' पिलाई जाती है। यह संख्या महीने में दो चार दिन 20-25 तक भी पहुंचती है। एक दिन पत्रकारगण गोपाल को दिल का दौरा पड जाए इस उद्देश्य से हिसाब लगा रहे थे कि दस के औसत से महीने में 300 कप और साल में 3600 कप यानी अगर चाय की घटती बढती कीमतों में औसतन दो रुपए की चाय भी मानी जाए तो 7200 रुपए की चाय एक साल में गोपाल मुफ्त पिलाही देता है। और यह क्रम अगर कमोबेश 25 बरस से चलता भी माना जाए तो एक लाख अस्सी हजार रुपए की चाय तो गोपाल पत्रकारो को मुफ्त में पिला ही चुका है।
गोपाल ने यह सब सुनने के बाद परम शांत भाव से कहा कि, 'इससे यही बात एक बार फिर सिद्ध हुई है कि पत्रकार परजीवी किस्म का पिस्सू होता है जो औरों का खून चूसता ही है। तुम स्सालों जो चाय के रूप में मेरा खून चूस रहे हो वह सब अगले जन्म में मैं वसूल करने वाला हूं।' अब यह गोपाल भाई की खुशफहमी थी जिसे पत्रकार साथियों ने नहीं तोडा। चण्डूखाने पर चाय का सदावर्त आज भी जारी है। इस सदावर्त में संत्री से मंत्री तक, चपरासी से अफसर तक, जनता से नेता तक, शहर के लफंगों से संतों तक और व्यापारियों से बुद्धिजीवियों तक सब कभी न कभी शामिल हो चुके हैं। हरिद्वार आने वाले अनेक साहित्यकारों पत्रकारों को भी चण्डूखाने का माहात्म्य पता है। इस चण्डूखाने की कई तरह की कई कथाएं फिर कभी। फिलवक्त इतना ही कि कभी हरिद्वार आएं तो अपनेराम का नाम लेकर चण्डूखाने पहुंचे। चाय का स्वाद दुगुना लगेगा आपको।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 8:23 am 8 टिप्पणियॉं
सोमवार, 17 दिसंबर 2007
मोची महान
कैसे कैसे लोग
वे दिन बहुत याद आते हैं। 1973 का साल। अपनेराम 300 रुपए प्रतिमास पर हरियाणा के जगाधरी शहर में खुले नये नये महाराजा अग्रसेन कॉलेज में अंशकालिक प्राध्यापक बने थे हिन्दी के। कॉलेज का पहला ही साल था। अपना कोई भवन तो था नहीं। प्रबंध समिति के लाला-लोगों ने कॉलेज की शुरुआत वहां के रामलीला भवन में की थी। अपनेराम एक अन्य प्राध्यापक के साथ जगाधरी के जुडवाँ शहर यमुनानगर के प्रतिष्ठित एमएलएन कॉलेज के होस्टल के एक कमरे में स्थान पा गए थे। वहाँ से रोज साइकिल पर सवार होकर खेतों से होते हुए जगाधरी आते जाते थे।
इस कॉलेज को लेकर कई यादें हैं, पर उन्हीं दिनों की मानवीय संवेदना से लबालब एक याद अक्सर स्मृति पटल पर उभर आती है। अपनेराम की नई नई शादी हुई थी। कुछ बाबूजी के और कुछ ससुर जी के दिए हुए पॉंच-चार गरम सूट थे उन दिनों अपनेराम के पास। जिन्हें अदल-बदल पहनकर कॉलेज में प्रोफेसर की धज से जाया करते थे। आमदनी तो वही तीन सौ रुपल्ली थी जिसमें होस्टल का किराया, दोनों वक्त का चाय-नाश्ता-खाना, कभी कभार साथी प्राध्यापकों के साथ होटलबाजी और सिनेमागिरी शामिल थी। इसीमें शामिल था शनिवार का बस से हरिद्वार आना और सोमवार को वापिस जगाधरी पहुंचना। ये सब करके भी उन दिनों बाबूजी से ज्यादा पैसे नहीं माँगने पडते थे। काम मजे में चल जाता था।
एक शनिवार उठने में देर हुई तो कॉलेज जाने से पहले के सारे काम जल्दी जल्दी निबटाने पडे। सूट-बूट पहनकर तैयार हुए और सीधे कॉलेज। कॉलेज में शनिवार को पढाने में मन नहीं लगता था। आखरी पीरियड तो अक्सर जल्दी निबटाकर अपनेराम सीधे बसड्डे भागते थे हरिद्वार की बस पकडने। हमेशा की यात्रा ने कई ड्राइवरों कण्डक्टरों से परिचय भी करा दिया था सो वे अपनेराम के लिए सीट का खयाल भी रखते थे। उस दिन भागकर साईकिल नियत स्थान पर खडी करके अम्बाला-हरिद्वार की बस पकडी । टिकट लेने के लिए जेब में हाथ डाला तो पर्स नदारद । अरे, पर्स तो दूसरे सूट की जेब में रह गया। सर्दियों में आदमी के कपडों में पैसे हों न हों, जेबों की भरमार रहती है। अपनेराम ने सारी जेबे टटोलीं तो सोलह-सत्रह रुपए निकल ही आए। सोचा इतने में तो काम हो ही जाएगा। यमुनानगर से हरिद्वार का किराया उन दिनों 11 रुपए था। मैंने पैसे दिए और टिकट खरीद लिया। सामान के नाम पर एक ब्रीफकेस था, उसे सहेज दिया और ऑंखें मूंद लीं तो नींद सीधे सहारनपुर आकर खुली।
वहां हरियाणा की गाडियां पन्द्रह बीस मिनिट रुकती थीं। हमेशा की तरह मैं उतरा। मोची रामभरोसे के पास जाकर जूतों पर पॉलिश करवाई। ये काम मैं हर बार आते जाते करवाता था इसलिए रामभरोसे खूब परिचित हो गया था। उसने हँसकर हालचाल पूछा और जूते चमका दिए। उसे एक रुपया देकर मैंने दो-ढाई रुपए खर्च करके अपनी क्षुधा शांत की। फिर जाने क्या सूझा उस दिन कि लॉटरी वाले स्टॉल पर जाकर मणिपुर लॉटरी का एक टिकट खरदीदते हुए खुली ऑंखों से थोडे से सपने देख लिए कि अगर ये पॉंच लाख वाली लॉटरी निकल आई तो क्या क्या करना है।
अभी टिकट लेकर मुडा ही था कि देखा मेरी बस रवाना हो चुकी है। मैं भागा बस के पीछे और बस मेरे आगे आगे। घण्टाघर तक पीछा किया बस का पर उसे निकल जाना था और वह चली गई। मैं लॉटरी का टिकट हाथ में लिए 'बस के उठाए गुबार' देखता रहा। फिर लौटा बसड्डे पर। वहां हरियाणा परिवहन वालों का एक काउण्टर था जिसपर उनका इंस्पेक्टर भी बैठता था और टिकट भी मिलते थे। मैंने इंस्पेक्टर से कहा, 'मेरी बस छूट गई है। मुझे हरिद्वार जाना है।' 'कोई बात नहीं बाबूजी, ये दूसरी बस खडी है, इसमें चले जाओ।' 'ठीक है भैया, पर जरा मेरे टिकट पर लिख तो दो।' मेरी इस बात पर भैयाजी का मूड कुछ और ही था। बोले, 'बाबूजी, इस बस का तो नया टिकट लेना पडेगा। उस बस का टिकट इस में ना चलने का।' 'अरे यार, वह भी हरियाणा की बस थी और ये भी हरियाणे की है। टिकट तो मेरे पास है ही । मेरा सामान भी उसमें चला गया है। अब गलती हो गई है। इस दूसरी बस में अलाऊ कर दे भाई।'
पर भाई को दया नहीं आई। वह सोच रहा होगा, बाबू सूट-बूट में है। नया टिकट ले ही लेगा। और बाबू सोच रहा था कि जेब में डेढ रुपया बचा है यह बात इसे कैसे बताऊँ। इधर उधर टहल कर देखा, दो-चार बसो में भी झॉंका कि कोई परिचित यार दोस्त मिल जाए पर उस दिन तो सारे ग्रह-नक्षत्र विरोध में एकत्र थे अपनेराम के। कोई नहीं मिला। तब सहारनपुर शहर में भी ज्यादा परिचित नहीं थे कि उनसे रुपये मांग लाता। याद किया तो एक ससुराली रिश्तेदार परिवार का ध्यान आया। पर वहॉं से ध्यान हटाया कि ससुराल में क्या इज्जत रह जाएगी । पहली बार मिलने जाऊँगा। उन्होंने नेग न दिया तो मांगने पडेंगे। क्या सोचेंगे वे लोग। नहीं वहां नहीं जाना है।
अचानक खडे खडे मोची रामभरोसे पर निगाह पड गई। मैंने तुरंत निर्णय लिया। हरियाणे के काउण्टर वाले इंस्पेक्टर से कहा, तुम गाडी अभी मत छोडना, मैं दो मिनिट में आया। मैं तुरंत रामभरोसे के पास गया। वह बोला, 'बाबूजी क्या बात दुबारार पॉलिश करानी है।' मैं उसे कहना चाहता था कि, 'हॉं, पॉलिश्ा तो मेरी वाकई उतर चुकी है और अब तुम्हीं कर सकते हो दुबारा।' पर मैंने अपनी घडी उतारकर उसके हाथ में दी और कहा, 'भाई, ये रख ले और मुझे दस रुपए दे दे। परसों लौटते हुए देकर घडी ले लूंगा।' रामभरोसे ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा। मैंने सारी बात उसे बताई कि आज क्या गडबड हुई है तो वह चहक कर बोला, ' अरे बाबूजी, तो इसमें घडी देने की कौनसी बात है। आप घडी भी रखो और पैसे भी ले जाओ। जब चाहे लौटा देना।' उसने मुझे दस रुपए दिए तो मेरे चेहरे की उडी हुई रंगत लौटी। मैं फिर इंस्पेक्टर के पास पहुंचा और टेबल पर पैसे फेंककर बोला, 'देना एक टिकट हरिद्वार का।'
अपनेराम का मोची से सारा वार्तालाप और रुपए लेना वह देख रहा था। शायद इस भी अपने व्यवहार पर शरमिन्दगी थी। बोला, 'बाबूजी मोची से पैसे मांगे आपने। यानी सचमुच आपके पास पैसे नहीं थे। लाइये अपना टिकट मैं लिख देता हूं उस पर। आप मोची को पैसे लौटा दीजिये।' गुस्सा तो उस पर बहुत आया पर मैंने कहा कि, 'तुम मुझे टिकट दो, मैं अब टिकट खरीदूंगा और मोची के दिए पैसों से ही खरीदूंगा।' पर इस बीच इंस्पेक्टर की भी शराफत जाग चुकी थी। इसने बस कध्डक्टर को मुझे पुरानी बस के टिकट पर ले जाने के निर्देश दिए और जबरदस्ती बस में बैठा ही दिया। बस जब हरिद्वार के लिए निकल पडी तब मेरे तीन दोस्त भागते-दौडते बस में सवार हुए। उन्हें देखकर एक बार फिर मेरा गुस्सा उबला और मैंने तीनों पर गालियों की बौछार भी कि, 'कम्बख्तों दस मिनिट पहले नहीं आ सकते थे क्या।' लेकिन अगर वे पहले आ जाते तो रामभरोसे मोची के भीतर का महान व्यक्तित्व मुझे कैसे दीख पाता।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 5:05 am 8 टिप्पणियॉं
गुरुवार, 13 दिसंबर 2007
तुम्हारा शेर लंगडा है
यादे बच्चन
यह बच्चन जी का जन्मशती वर्ष है। सोचता हूँ हर महीने उनकी एकाधिक यादों को परोसता चलूँ आपने ब्लॉगी मित्रों के आगे । बात उन दिनों की है जब बच्चन जी ने मौज में आकर दाढी-मूँछ कटाना बन्द कर दिया था। उनकी एक श्मश्रुमय तस्वीर तब 'धर्मयुग' में भी छपी थी। उसीसे प्रेरणा लेकर मैंने उनका एक पेंसिल चित्र बना डाला । अपनेराम चित्रकार तो हैं नहीं सो एक घटिया सा पेंसिल स्केच बन पाया। पर मां को अपने कालूकलूटे बेटे पर भी जिस तरह नाज होता है उसी तरह अपनेराम के लिये वह चित्र भी उस वक्त ''प्यारा'' था।
हमेशा की तरह मैंने बच्चन जी को एक पत्र लिखकर उनके जन्मदिवस की बधाई के साथ बेसन के लड्डुओं का पार्सल और साथ में अपना बनाया वह घटिया सा चित्र 24 नवम्बर 1978 को भेज दिया। पर बच्चन जी तो बच्चन जी थे। उन्होंने उस घटिया से चित्र को भी ऐतिहासिक बनाकर मुझे यूँ लौटाया कि आज मैं उसे आपको सगर्व दिखाने की स्थिति में हूँ। उन्होंने उस पर अपने हाथों से ये शेर लिखा :-
तेरे दिल में अगर है यह शक्ल मेरी,
तो मैं कैसे कहूँ कि यह मैं नहीं हूँ ।
शेर के नीचे उनके चिरपरिचित हस्ताक्षर थे - 'बच्चन' और तारीख 26.11.78। मैंने दुबारा धृष्टता करदी और उनके शेर के जवाब में एक शेर लिख भेजा। अपनेराम का शेर था :-
हृदय में तुम उपस्थित हो, असल अंदाज में अपने,
उतरे नहीं तस्वीर में ये और बात है।
जवाब आना ही था। जवाब आया जिसमें और बहुत सी बातों के अलावा मेरे शेर पर यह टिप्पणी थी:-
''.....तुम्हारा शेर लंगडा है। पहली लाइन की बहर दीगर, दूसरी लाइन की बहर दीगर। फिर संस्कृतनिष्ठ शब्द शेर में ख्ापते नहीं- 'उपस्थित', 'हृदय' जैसे.....''
अपनेराम के शायर का टायर तो यह टिप्पणी पढकर पंक्चर हो गया पर हस्ताक्षरित चित्र की थाती हाथ लग गई।
बाद में 1981 में मैंने अपने कैमरे से उनके कई चित्र उतारे तो उन्होंने एक चित्र पर 18.4.81 को ये पंक्तियॉं लिख भेजीं :-
हाड मांस की
काया मेरी
जर्जर बंजर।
किन्तु वांग्मय
तन मेरा
नव यौवन उर्वर
यह चित्र बडे आकर में जब मैंने अपने घर के लिये बनवाया तब पता नहीं था कि बच्चन की अस्थिकलश लेकर जब अमिताभ हरिद्वार की हरकी पौडी पर आएंगे तो उसी चित्र के आगे बच्चनजी के अस्थिथ-अवशेष रखे जाएंगे।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 9:06 am 6 टिप्पणियॉं
बुधवार, 12 दिसंबर 2007
''एक मॉं तीन बछडे''
हरिद्वार की सडक पर यह दृश्य देखा तो अपने मोबाइल-कैमरे पर उतार लिया। आज ही आदरणीया वशिनी शर्मा जी के सहयोग से आगरा निवासी कम्प्यूटर विशेषज्ञ श्री सुधीर कुमार जी ने बताया कि चित्र को कैसे ब्लॉग पर भेजा जा सकता है तो पहले स्वर्गीय कत्रलोचन जी का चित्र भेजा और अब यह । दोनें चित्र मेरे ही द्वारा उतारे हैं। कैसे लगे लिखियेगा। अगर चित्र भेजना सफल रहा तो अपने चित्रों का खजाना भी खोलूंगा आपके लिये।
सादर :- कमलकांत बुधकर
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 9:25 am 5 टिप्पणियॉं
मंगलवार, 11 दिसंबर 2007
नौकरी
कविता जो पहली नौकरी के पहले दिन लिखी
निरभ्र आकाश में
उन्मुक्त उडते हुए
पक्षी सा उत्फुल्ल मन
और
शतदली कल्पनाओं का
खिला हुआ कमलवन
तंग आकर
कल अचानक मैंने बेच दिया है।
साथ में बेच दिया है
अपना सारा उल्लास,
ताकि मुझे मिल सकें
पॉंच सौ तैंतीस रुपए अस्सी पैसे
पतिमास ।
अपनी बेताज बादशाहत
को मैंने गिरवी रख दिया है,
और अब मैं नौकर हो गया हूं
ताकि खुद को
बादशाह समझूँ --
और
पॉंच सौ तैंतीस रुपए अस्सी पैसे
के बदले फिर खरीदूँ--
शतदली कल्पनाओं का
खिला हुआ कमलवन
और
निरभ्र आकाश में
उन्मुक्त उडते पक्षी सा
उत्फुल्ल मन ।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 10:00 am 5 टिप्पणियॉं
खूँखार दिल में सदाशय
कहना भाई आलोक पुराणिक का कि 'आपने (यानी मैंने) घाट घाट का पानी पीया है', बिलकुल सही है। ठेठ हरिद्वारी हूं इसलिये केवल पानी पीकर ही काम नहीं चलाता, बल्कि हर घाट पर बाकायदा नहाने तक का जुगाड कर लेता हूं। पीछे मुडकर देखता हूं तो पाता हूं कि तीन घाट तो साफ तौर पर मेरे अपने हैं ही। हरिद्वार की पैदाइश हूं, यहां के एक प्रमुख मंदिर का पुजारी हूं और यहां के पण्डों का दामाद हूं तो मेरा पहला घाट हुआ 'घाट हरद्वारी' । दूसरा घाट अपनेराम के मुख्य पेशे से जुडा है। 1972 से ही विश्वविद्यालय का प्राध्यापक चला आता हूं, सो अपना दूसरा घाट है 'घाट मास्टरी' । और तीसरा घाट है सबसे बेढब यानी 'घाट अखबारी'। पिछले पच्चीस बरसों से बाकायदा इसी घाट पर स्नान-दान-पूजन ही नहीं पिण्डदान और तर्पण तक चल रहा है।
यूं घाट और भी हैं मसलन घाट परिवारी, घाट रिश्तेदारी, घाट दोस्ती-यारी, घाट मेहमानी, घाट मेजबानी, घाट कविताई, घाट मूर्खाई आदि आदि आदि...। पर इतने सारे घाटो में शुरुआती तीन घाटों पर अपनी जिन्दगी के मेले जरा ज्यादा ही लगे हैं। जितने गोते हरद्वारी, मास्टरी और अखबारी घाटों पर अपनेराम ने लगाए हैं उतने बाकी और घाटों पर नहीं। अब सोचता हूं कि स्नान का पुण्य तो परिजनों के साथ ही है तो क्यों न आप सबको भी अपने साथ स्मृतियों की नदी के इन घाटों पर गोते लगवाता चलूं । नहाने का पुण्य तो है ही, नहलाने का पुण्य भी कम नहीं। तो चलिये ब्लॉग की नाव खेकर यादों की नदी पार उतरने की कोशिश की जाए।
घाट अखबारी ने जीवन में इतने रंग दिखाए कि अपनेराम का व्यक्तित्व ही विविध भारती हो गया। लोगों की अपेक्षाएं इतनी मजेदार और रंगीन होती हैं एक प्राध्यापक पत्रकार से कि कभी दिल बल्लियों उछलता है तो कभी दिल बैठता ही चला जाता है रसातल में। उन दिनों हरिद्वार और आसपास के इलाके में उसका नाम 'डर' का दूसरा नाम था। कुलीन ब्राह्मण परिवार में जन्मा वह देखने में भी सुस्वरूप था। नाम के विपरीत बिलकुल गोरा चिट्टा गबरू जवान । ज्वालापुर के पण्डा समाज का सदस्य था वह और वहीं उसका घरबार था। नियति ने चाल कुछ ऐसी चली कि उसकी राहें बदलती चली गईं। कब पुरोहित के बही-बस्ते और कलम की जगह पिस्तौल हाथ में आ गई, खुद उसी को पता नहीं चला। रुपया बरसने लगा और आतंक पसरने लगा। पुलिस थाना कचहरी के साथ लुकाछिपी का खेल भी चल निकला। कभी बाहर तो कभी अन्दर। चूहा बिल्ली की भागमभाग बन गई उसकी जिन्दगी।
अपनेराम पण्डों के दामाद हैं और वह पण्डा समाजका सदस्य था ही। जो लोग जानते हैं उन्हें पता है कि हरिद्वार ज्वालापुर कनखल की पण्डा बिरादरी परस्पर अति निकट गुंथी हुई बिरादरी है। प्राय: सब एक दूसरे के रिश्तेदार हैं। इसी नाते से मुझे कइयों का जीजा होने का संयोग मिला है। मेरे अपने साले साहब जो अब स्वर्गीय हैं, एक दिन कहने लगे कि 'वह आपसे मिलना चाहता है।' मैंने पूछा 'क्यों' । 'पता नहीं, वही जानता है।' मैंने कहा कि, 'मुझे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। मुझे नहीं मिलना।'
कुछ दिन बाद फिर वही आग्रह। फिर मेरी ना । कई बार यही संवाद दोहराए गए। पर आखिर कब तक बीबी के भाई को मना करता। एक दिन उन्होंने घेरघारकर हां करवा ही ली मुझसे कि मिलने में क्या हर्जा है। उसका काम करना या ना करना आपकी मर्जी, पर मिलने में क्या बुराई है। मैंने भी सोचा कि जब अखबारी पेशे में अपराधियों, वेश्याओं तक से मिलने में कोई गुरेज नहीं होता तो उससे मिलने में क्या हर्ज है। मेरे हां कहते ही अगला प्रश्न था कि आपके घर वह आए या आप उसके घर चलेंगे। मैंने दोनों प्रस्ताव ठुकराकर किसी सार्वजनिक स्थल पर मिलने को कहा। तय हुआ कि ज्वालापुर के बाजार में एक चाय की दूकान में भेंट होगी। निश्चित समय पर मैं अपना स्कूटर उठाकर चाय की दूकान पर पहुंच गया।
दूकान को ग्राहकों से खाली करा लिया गया था। अन्दर सिर्फ वह, उसके तमाम साथी जो वस्त्रों में तमंचे-पटाखे छिपाए थे, बैठे थे। मेरे अन्दर जाते ही सारे उठकर खडे हो गए। मानों क्लास में टीचर आ गया हो। इसमें आधा सच था। टीचर तो मैं था पर वे सब विद्यार्थी नहीं थे मेरे। वह तपाक् से मेरे पैर छूने झुका। इस क्रिया की कई आवृत्तियां हुईं। सब एक-एक कर पैर छूते हुए 'जीजाजी नमस्ते' कहकर बैठते गए। चाय का आदेश हुआ। तब तक मैं असामान्य था उस जमघट में खुद को पाकर। मैंने पूछा, 'ये सब भी बात करेंगे मुझसे।' उसने इशारा समझा और दो पल में दूकान में मैं वह और मेरे असली सालेसाहब रह गए। मैंने वह बात जाननी चाही जिसके लिए यह बैठक तय थी तो सब कुछ सुनकर अवाक् रह गया।
पता चला कि वह अक्सर सहारनपुर की जेल में जाता आता रहता है और इसी क्रम में उसकी 'दोस्ती' वहां के जेलर से हो गई है। उसके मुताबिक जेलर बेहद नेक, ईमानदार, कडक और कार्यकुशल अफसर है पर उसका प्रमोशन रुका हुआ है । अगर अखबार में उसके बारे में कुछ प्रशंसात्मक छप जाए तो उसे उसका वांछित प्रमोशन मिल सकता है। मुझसे चाहा गया था कि मैं नवभारत टाइम्स में उस जेलर के बारे में कुछ लिख दूं। मेरा बडा अहसान जेलर और 'उस' पर होगा।
मैं सोचता रहा कि जेलर अगर इसका दोस्त है तो इसके इतिहास वर्तमान को देखते हुए जेलर का चरित्र क्या होगा। और फिर वैसे जेलर पर मैं क्या लिखूंगा। और अगर लिख भी दिया तो अखबार क्यों छापेगा। मैं खुद को फंसा हुआ महसूस कर रहा था और मन ही मन अपने सालेसाहब को कोस रहा था। लकिन देर तक चली बातचीत में अंतत: तय यह हुआ कि मैं जेल का निरीक्षण करने जाऊंगा। वहां जेलर ने जो नये प्रयोग कैदियों के हित में किए हैं उन्हें देखने के बाद यदि आश्वस्त हुआ तो कुछ लिखूंगा।
निश्चित तिथि पर सहारनुपर में मेरी क्लास के सामने दो सिपाही आकर खडे हो गए। बडी विचित्र स्थिति हो गई जब उन्होंन सब छात्र-छात्राओं के बीच में कहा कि चलिये सर, हम आपको जेल ले जाने आए हैं। प्रिंसिपल सरीन को पता चला तो उन्होंने सारी बात सुनने समझने के बाद भी कहा कि, इन पुलिसवालों का कोई भरोसा नहीं है। आप जेल का काम निबटाकर मुझसे मिले बिना हरिद्वार न चले जाएं। मैने वैसा ही किया भी।
जेल का तजुर्बा बहुत अच्छा रहा था । सचमुच जेलर साहब अपनी तरह के अद्वितीय अफसर थे। खूब सारी लेखन-सामग्री मिल गई मुझे वहां। मैंने वह सब नभाटा में प्रकाशित भी किया और उसके सुपरिणाम में जेलर साहब प्रमोट भी हुए। पता नहीं वे जेलर साहब आज कहां है। रिटायर हो गए होंगे। मेरे साले साहब स्वर्ग सिधार गए और 'वह', उसे उसके दुश्मनों ने सरेआम कचहरी के आगे गोलियों से भून दिया। वह भी सिधार गया पर आज सोचता हूं कि खूंखार कहे जाने वाले दिलों में भी कहीं उदारता होती ही है।
।। इतिश्री अखबार घाटे प्रथम स्मृति:।।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 4:41 am 5 टिप्पणियॉं
सोमवार, 10 दिसंबर 2007
ज्वालापुर की गली में त्रिलोचन
त्रिलोचन शास्त्री चले गए। हिन्दी की आधुनिक अक्खड कवित्रयी के शमशेर बहादुर सिंह और नागार्जुन के बाद अब तीसरे धाकड कवि त्रिलोचन भी बुढापे से लडते लडते आखिर अलविदा कह गए हिन्दी वालों को। एक अखबार ने उनके जाने को गुपचुप जाना कहा क्योंकि कल शाम जब उन्हें अंतिम यात्रा पर ले जाया गया तो गाजियाबाद-दिल्ली का कोई कलमकार, साहित्यकार या पत्रकार मौजूद नहीं था। दस-बीस पडौसियों और नजदीकी रिश्तेदारों के कंधों के रथ पर हिन्दी का यह महारथी स्मशान तक गया और फिर भस्मीभूत हो गया। हिन्दी वालों की यही नियति है अगर वे राज्याश्रित तिकडमबाज नहीं बन पाएं तो। हिन्दी में सॉनेट के जन्मदाता का अवसान हो गया और सब कुछ एक शाम में ही राख बनकर उड गया। रह गई केवल किताबें और यादें।
लम्बे दुबले पतले मोटे लैंसों वाला चश्मा पहने शमशेर, लम्बे बालों चमकती ऑंखों और खिचडी दाढीवाले झुकी कमर के नागार्जुन और बुढापे से लडते भिडते त्रिलोचन । मेरे जहन में यही छवियॉं है उस त्रयी की। मैंने हिन्दी की इस त्रयी को नजदीक से देखने का सौभाग्य पाया है। ये तीनों हरिद्वार आए-बुलाए गए और किसी न किसी रूप में इनके स्वागत सम्मान में मैं शरीक रहा। पर अब तो यह तिकडी स्वर्ग में ही कहीं गप्पे हांक रही होगी। हिन्दी वालों के कार्यव्यवहार पर बहसिया रही होगी।
याद आती है 1977 के दिसम्बर की 26 तारीख। हरिद्वार में ''वाणी'' नामक संस्था के तत्वावधान में हम मित्रों ने तारसप्तकीय कवि और हिन्दी के चलते फिरते शब्दकोश के रूप में विख्यात डॉ. प्रभाकर माचवे की षष्ठिपूर्त्ति की उस शाम हरिद्वार में सप्तक परम्परा के सूत्रधार सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय', के अलावा इसी परम्परा के प्रभाकर माचवे, शमशेर बहादुर सिंह और प्रयागनारायण त्रिपाठी सभी एक काव्यमंच पर थे। इनके अलावा जगदीश चतुर्वेदी, रवीन्द्र भ्रमर, सोम ठाकुर आदि अनेक कवि। अद्भुत कवि सम्मेलन था वह जिसमें बहुतायत ऐसे सुप्रतिष्ठित कवियों की थी जो प्राय: मंचों पर दीखते ही नहीं थे। पर यह सभी दिग्गज माचवे जी के सम्मान में हरिद्वार पहुंचे थे। तब शमशेर जी ने जिस तरह झूमझूमकर अपनी कविताएं सुनाई थीं वह दृश्य आज तक आंखें के आगे है। उन्होंने माचवे सम्मानग्रंथ ''अक्षर अर्पण'' के लिये जो कविताएं अपने हाथों से लिखकर भेजी थीं वे आज मेरे संग्रह को सुशोभित कर रही हैं।
नागार्जुन जी की क्या कहूं। वे तो कई कई दिन मेरे घर लक्ष्मण निवास में आकर रहा करते थे। मेरे पिताश्री स्व. पं. लक्ष्मणराव जी के कमरे में रहते। चाय सुडकते हुए दोनों वृद्ध दुनिया जहान की बातों में मशगूल हो जाते थे। हमने आठवें दशक में जब हरिद्वार में शिवालिक पत्रकार परिषद का गठन किया नागार्जन जी ने आकर उसका उद्घाटन किया। उस मौके पर उन्होंने नाच नाच कर जिस तरह अपनी कविताएं सुनाई थीं वह सब अब केवल चित्रों में ही दर्शनीय है। । मेरे संग्रह में मेरे ही उतारे नागार्जुन के ढेर सारे श्वेत श्याम चित्र उनकी अक्सर याद दिलाते रहते हैं।
और त्रिलोचन । उनके संपर्क में भी मैं उनकी अशक्तावस्था में ही जा सका। उनकी पुत्रवधू उषा अमित सिंह हरिद्वार कचहरी में प्रैक्टिस करती हैं। हमने नजदीक से देखा है कि इस अकेली महिला ने निपट अकेले ही 'वीरतापूर्वक' त्रिलोचन जी के रोगी वार्द्घक्य का भार वहन किया। उनके पति अमित जी नौकरी के कारण गाजियाबाद में रहते हैं पर त्रिलोचन अकेले ही अपनी पुत्रवधू के साथ हरिद्वार के उपनगर ज्वालापुर की एक तंग गली के आखरी सिरे पर बने मकान में रहते थे। लिखना पढना वहीं होता था। कई बार ऐसे बीमार पडे कि लगा अब गए तब गए। पर हर बार पुत्रवधू की सुश्रुषा उन्हें मौत के मुंह से खींच लाई।
मेरे पिता पं. लक्ष्मणराव जी बुधकर ने 5 जून 2004 को अपनी वय के 100 वर्ष पूरे किये तो हम परिजनों ने एक उनके सम्मान में शतपूर्त्ति समारोह का आयोजन किया। विख्यात संत स्वामी सत्यमित्रानन्दगिरि, स्वामी अवधेशानन्द गिरि, पद्मश्री डॉ. कन्हैयालाल नन्दन और श्री बालकवि बैरागी जी के अलावा उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पं. नारायणदत्त तिवारी भी समारोह में पधारे। उस मौके पर हमने जिन ग्यारह बुजुर्गों का भी सम्मान करवाया उनमें त्रिलोचन की उपस्थिति ने समारोह को अतिरिक्त गरिमा दे दी थी।
बाद में त्रिलोचन जी लगातार रोगग्रस्त और अशक्त होते चले गए। मैं दो चार बार ही उनके घर गया हूं। किसी न किसी को लेकर ही जाना होता था। आखरी बार तब जब प्रो. केदारनाथ सिंह और वशिनी शर्मा जी उनके साक्षात्कार के लिये आए थे। उत्तराखंड सरकार के कविमंत्री डॉ. रमेश पोचारियाल निशंक ने त्रिलोचन जी की खैरखबर ली और उन्हें राजकीय सहायता से अस्पताल में स्वस्थ किया। पर वह स्वास्थ्य भी त्रिलोचन अधिक दिनों तक नहीं संभाल पाए। अंतत: 91 बरस का यह हिन्दी का योद्धा भी एक युग को समाप्त कर चला ही गया। ज्वालापुर की गलियों को पता नहीं यह अहसास है भी या नहीं कि हिन्दी का कितना बडा दिग्गज उनकी गंध में बरसों रचाबसा रहा। अस्तु, उनकी स्मृति को मेरे प्रणाम । 'ताप के ताए हुए दिनों में' 'गुलाब' और बुलबुल' प्रीत करने वाला 'उस जनपद का कवि' हूं' मैं त्रिलोचन ही नहीं, 'फूल नाम है एक' मेरा जिसकी गंध 'दिगंत' तक फैले इसलिए आओ मैं 'तुम्हें सौंपता हूं', 'सबका अपना आकाश' जो 'अमोला' है जिसमें अपनी 'अनकहनी भी कहानी है'।
सादर,
कमलकांत बुधकर
http://yadaa-kadaa.blogspot.com/
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 6:47 am 11 टिप्पणियॉं
रविवार, 9 दिसंबर 2007
''बप्पा नन् नन्''
मेरा बडा बेटा सौरभ, जो फिलवक्त 34 बरस का है और एक बेटी का बाप भी, छुटपन में बेहद शरारती था। उसकी मॉं अपने इस पहलौटे को देख-देखकर जितनी प्रसन्न होती थी, उसकी शैतानियां देखकर अक्सर उतनी ही परेशान हो जाती थीं। शैतानियां होती भी परेशान कर देने वाली थीं। मसलन एक दिन पूजास्थल पर गई तो यह देखकर अवाक् रह गईं कि सिंहासन के ऊपर रखें देवों की चांदी की तमाम मूर्तियां गायब हैं। सुबह तो पूजा की थी तब सारे देवगण अपने अपने स्थान पर उपस्थित थे। यह अचानक सभी उठकर किस अर्जेन्ट मीटिंग में चले गए। सारा घर छान मारा । भगवान कहीं नजर ही नहीं आए। मुझसे पूछ, इससे पूछ, उससे पूछ.... पर नतीजा सिफर । हारकर सौरभ से पूछा तो उसने तुतलाकर जवाब दिया कि, ''बप्पा नन् नन्'' यानी भगवान नहा रहे हैं। श्रीमती जी बाथरूम की तरफ गईं पर वहां भी भगवान नहीं थे। उन्होंने सौरभ को फिर बुलाकर पूछा कि कहां नहा रहे हैं तो उसने शौचालय की तरफ इशारा कर दिया। अन्दर का दृश्य कुछ ज्यादा ही मार्मिक था। त्रिलोकीनाथ भगवान विष्णु की गरदन चीनीमिट्टी के शौचालय के मलनिकासी पाइप में भरे जल से झांक रही थी। उनकी भार्या लक्ष्मी, गौरा, गणेश, शिवलिंग, बालकृष्ण आदि सब तो गहरे नर्क में डूबे हुए थे। स्वर्ग के स्वामी और साक्षात् नर्क में। यह था घोर नहीं घनघोर कलियुग । श्रीमती जी तो ''हाय राम'' कहकर उलटे पांव बाहर आ गईं। सामने सौरभ मुस्कराकर फिर वही कह रहे थे.... ''बप्पा नन् नन्'' । मॉं समझ नहीं पा रही थीं कि पहले बच्चे की ठुकाई करके गुस्सा उतारे या पहले नर्क से भगवान को निकाले । तभी जमादारनी आ गईं और उसकी कृपा से देवगण नर्क से बाहर निकाले गए। धोए मांजे गए, आग में तपाए गए, गंगाजल में बार बार नहलाए गए तब कहीं जाकर दुबारा सिंहासन पर बिराजते भए। ऐसे हमारे सौरभ जी एक दिन हमारे हत्थे चढ गए। किस्सा-कोताह यह कि हम सहारनपुर से थक-हार कर हरिद्वार लौटे थे। हाथ में चोट लगी थी, पट्टी बंधी थी सो दर्द भी बहुत था। वहां कॉलेज में भी कोई बात हो गई थी तो गुस्सा था और घर आते ही श्रीमती जी ने सौरभ जी की कोई कारगुजारी बयान कर दी। बस अपना गुस्सा भडक गया... ''बुलाओ सौरभ को।'' सौरभ हाजिर हुए। अपनेराम ने आव देखा ना ताव। पट्टी बंधी हथेली से ही ठुकाई शुरू कर दी। अभी दो हाथ ही मारे थे कि दर्द से बिलबिलाकर मैं खुद ही चीख उठा। पर गुस्से का जुनून ऐसा कि सौरभ पर हाथ उठाने को फिर तैयार । उसने हाथ रोकने की कोशिश की..... ''डैडी, मारिये मत। प्लीज मत मारिये। हाथ से मत मारिये, रुक जाइये । मैं डण्डा ला देता हूं आप डण्डे से मार लीजिये। आपके हाथ से खून निकल रहा है। प्लीज हाथ से मत मारिये। डैडी प्लीज...... ।'' मेरे हाथ रुक गए । मैं सोचने लगा कि मैं क्या कर रहा था गुस्से में अपने ही बच्चे पर हाथ उठा रहा था। और बच्चा, वह कहीं से एक डण्डा सचमुच ले आया था फर्स्ट एड बॉक्स के साथ। उस वक्त वह मेरा बेटा भी था और मेरा बाप भी । कहते हैं ना, चाइल्ड इज दि फादर ऑफ द मैन। यह किस्सा मैंने एक बार हरिद्वार में मेरे घर आए वरिष्ठ कथाकार श्रद्घेय श्री विष्णु प्रभाकर जी को सुनाया तो कुछ हफ्ते बाद उनकी लेखनी से यह ''सारिका'' के अंक में छपा देखा । आज भी याद करता हूं तो सौरभ की वह अदा सिहरा देती है मुझे ।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 9:21 am 3 टिप्पणियॉं
दोस्त-ए-आजम
आज मैं सपत्नीक सहारनपुर गया था । पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक व्यावसायिक नगर है सहारनपुर। पांवधोई नदी के किनारे बसा शाह हारून चिश्ती के नाम से बसा श्ह शहर लिखने पढने वालों को पद्मश्री पं. कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की याद दिलाता है। कलाप्रेमियों के लिये काष्ठकला की बडी मण्डी है। उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सीमा बसे इस नगर में मैने भी अपने जीवन के चौदह बरस गुजारे हैं। यहां कई दोस्त हैं और कई यादें। आज पूरी शाम 1977 से 1990 के बीच के वही 14 बरस किसी फिल्म के फ्लैशबैक की तरह ऑंखो के आगे चल रहे थे। बार बार जो चेहरा सामने आ रहा था वह था वीरेन्द्र आजम का । आज की शाम उसीके नाम थी। सहारनपुर के सुधीजनों ने अनेक संस्थाओं के माध्यम से वीरेन्द्र का अभिनन्दन का आयोजन किया था।
वीरेन्द्र आजम। सुनने में बडा विचित्र लगता है यह नाम। समझ में नहीं आता कि यह आदमी हिन्दू है या मुसलमान। हिन्दी में देखें तो वीर ही नहीं, वीरों का भी राजा। इन्द्र- 'वीरेन्द्र'। और उर्दू में 'आजम' यानी सर्वश्रेष्ठ । यानी दोनों भाषाओं में मामला श्रेष्ठता से ही जुडा हुआ है। ये आदमी मुझे मिला था करीब तीसेक बरस पहले । मिला तब ये लडका सा ही था। औसत लम्बाई का गोराचिट्टा युवक, जिसके घुंघराले-से बाल और बोलती हुई ऑंखों ने तुरन्त ध्यान आकर्षित किया। बाद में जब भी मिला तब हर बार इस 'लडके' ने अपनी श्रेष्ठता का मुझे कायल बना लिया। श्रेष्ठता भी उसके मानवीय गुणों की । सहारनपुरी लहजे वाली खडी पर मीठी बोली; व्यक्तित्व और व्यवहार से छलकती विनम्रता; धरती से जुडाव और सिद्धांतों के प्रति उसी धरा-सी ठोस कडाई । प्रलोभनों के आगे न झुकने का संस्कारशील संकल्प, सच सुनने का माद्दा और सच कहने की हिम्मत ।
आज तीस बरस बाद भी घर-गिरस्ती वाले और दो बच्चों के बाप वीरेन्द्र आजम को 'आजम' बनानेवाले ये सारे गुण ज्यौं के त्यौं आश्चर्यजनक रूप से विद्यमान हैं। आश्चर्य इसलिये कि वीरेन्द्र पत्रकार है। आज के पत्रकार में ये सारे गुण एक साथ मिल पाना असंभव तो नहीं पर कठिन जरूर है। इसीलिये तीस बरसों के बाद भी मैं ही नहीं मेरा पूरा परिवार यह कह सकने की स्थिति में है कि वीरेन्द्र आजम है, दोस्त-ए-आजम। वह दोस्त ही नहीं दोस्तों का भी दोस्त है।
मेरी पत्रकारिता के भी ताजा ताजा शुरुआती दिन थे वे। कॉलेज के प्राध्यापक मित्रों के अलावा मेरे दो किस्म के संगी साथी और थे। एक तरफ तो कविगण और दूसरी तरफ पत्रकार गण। इन दोनों तरह की जमातों में भी मेरी आमदोरफ्त बढने लगी थी। उन्हीं दिनों मुझे वीरेन्द्र मिला। जिसे अंग्रेजी में 'स्पार्क' कहते हैं मैंने तभी उसमें वह देखा था। वह 'शीतलवाणी' नामक एक साप्ताहिक लेकर पत्रकारिता में आया था। हमारे कॉलेज में हुए समारोहों के समाचार भी यदाकदा उसके साप्ताहिक में होते थे। और हमारे परिचय के लिये इतना ही काफी था।
आज जब अभिनन्दन के मंच पर भरे गले से वीरेन्द्र ने अपने मातापिता को याद करने के बाद अपने बडे भाई विजेन््द्र को मंच पर बुलाते हुए सबको बताया कि पत्रकार वीरेन्द्र उन्हीं के कारण आज पत्रकार बन सका है क्योंकि उन्होंने अपनी जेब काटकर भी वीरेन्द्र के साप्ताहिक के लिए संसाधन जुटाए, तो सारा सभागार विनयशील संस्कारों को जीवन्त देखकर गद्गद् भाव से हर्षध्वनि कर रहा था। मेरे लिये ये क्षण इसलिये ज्यादा प्रेरक और महत्व के थे क्योंकि अभी पन्द्रह दिन पहले ही हरिद्वार के एक पत्रकार के मॉं-बाप ने वरिष्ठ पुलिस अधीच्क के सामने यह गुहार लगाई कि उनका बेटा उन्हें अपनी पत्रकारिता का रौब देकर गरियाता और धमकाता है। पत्रकारों के दो ध्रुवान्त चरित्र मेरे आगे हैं।
मैंने पाया कि पत्रकारिता को लेकर वीरेन्द्र की दृष्टि शुरू से साफ रही है। पत्रकारिता निजी नहीं होती, वह समाज की होती है और उसे समाज के लिए ही किया जाना चाहिए इस बात को वीरेन्द्र ने पत्रकारिता में प्रवेश के साथ ही समझ लिया था। इसीलिये उसने पत्रकारिता को निजी सुरक्षा का कवच कभी नहीं बनने दिया। उसे और उसकी इस धारणा को भी तोडने की कई कोशिशें हुईं पर टूटना तो दूर वह झुका तक नहीं। इस चक्कर में वीरेन्द्र ने झेला बहुत। बार बार वह एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे अखबार से जुडता गया पर समझौते उसने कहीं नहीं किये इसीलिये आर्थिक पक्ष से हमेशा मार खाता रहा। 'शीतलवाणी' के बाद 'दूनदर्पण', बिजनौर टाइम्स', 'विश्वमानव', 'नवभारत टाइम्स', 'राष्टीय सहारा', 'अमर उजाला', 'दैनिक जागरण', का तो वीरेन्द्र इजागरूक संवाददाता रहा है जबकि दैनिक हिन्दुस्तान, टिब्यून, पंजाब केसरी, चौथी दुनिया, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, पायोनियर, योजना, उत्तरप्रदेश आदि अनेक पत्रपत्रिकाओं में वीरेन्द्र ने जमकर लिखा है। कृषि, सहकारिता, राजनीति, और साहित्यिक तथा सांस्कृतिक रिपोर्टिंग वीरेन्द्र के प्रिय विषय हैं। वह इन विषयों पर साधिकार लिखता, छपता और सराहा जाता रहा है।एक अत्यंत संस्कारशील परिवार का बेटा वीरेन्द्र अपनी प्रखर और मुखर माता से शुरू में ही यह मंत्र पा चुका था कि जीओ मगर अपनी शर्तों पर। और उसने अपनी अभी तक की जिन्दगी जी भी अपनी ही शर्तों पर है। यही वजह है कि वीरेन्द्र आजम सहारनपुर के आम पत्रकारों से अलग है। उसकी पहचान अलग है और उसकी कलम की धार भी अलग है। वह विषय को समझकर और फिर उसमें डूब कर लिखता है। इसीलिये जब वह लिखता है तो असरदार लिखता है। मैं कहूं कि वह अपनी उम्र के असरदारों का सरदार है तो अत्युक्ति न होगी। आज वीरेन्द्र ने पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना शैक्षिक अवदान सहारनपुर की पत्रकारिता पर शोध के साथ प्रस्तुत किया है उसके लिये भी वह साधुवाद का पात्र है।
सहारनपुर ने जिस तरह वीरेन्द्र की ईमानदारी, साफगोई, निर्भीकता और प्रभावशाली लेखनी का सम्मान किया वह आज के समाज में दुर्लभ होता जा रहा है। पर वहां की 'संयम' संस्था और उसके कर्ताधर्ता यो्गी सुरेन्द्र सचमुच बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने एक अभिनन्दनीय व्यक्तित्व को बधाई देने का अवसर जुटाया और वीरेन्द्र के सारे मित्रों को एकत्र कर लिया। सहारनपुर के कलमकारों, राजनेताओं, व्यवसायियों, पत्रकारों और अन्य सुधीजनों ने सचमुच प्रतिभा का सम्मान करके पत्रकारिता की गिरती साख को मजबूती देने की कोशिश की है जो अन्यत्र भी अनुकरणीय है। हम अपने परिवेश की प्रतिभाओं को सम्मानित करेंगे तो उजला बढेगा वरना तो हर ओर हर पेशे में चिराग बुझाकर उन चिरागों का तेल बेचने वालों की कमी नहीं है।
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 9:19 am 3 टिप्पणियॉं
शनिवार, 8 दिसंबर 2007
क्या कहें सर्दियों को भला
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 8:22 pm 7 टिप्पणियॉं
राष्ट्रपतिजी को जुकाम है
सादर,
कमलकांत बुधकर
http://yadaa-kadaa.blogspot.com
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 6:48 am 8 टिप्पणियॉं
मंगलवार, 4 दिसंबर 2007
मन बहुत ही अनमना है
आज अंतस में पसरता तम घना है,
क्या कहें, मन बहुत ही अनमना है।
सिर ऊपर की छांह नही है,
जिन कंधों बांहों का
अब तक रहा सहारा
वे कंधे वह बांह नहीं है।
दूर किनारा, रात अंधेरी
तेज हवाएं नदी उफनती
नाव मिली सौ छेदों वाली
औ नाविक ने नजर चुरा ली
आसमान तो गायब ही था
खिसक रही पांवों की धरती
जिजीविषा ही लडती मरती।
कब तक जिजीविषा पालूंगा
कब तक प्रीतगीत गा लूंगा,
टूटे, जीर्ण शीर्ण प्याले में,
कब तक मैं हाला ढालूंगा।
मेरे अंग अंग को डसते,
जाने किसके शाप जग रहे,
पुण्यों का अवसान काल है,
शायद मेरे पाप उग रहे।
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ककांबु
24 मार्च 2007
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 4:07 am 9 टिप्पणियॉं