त्रिलोचन शास्त्री चले गए। हिन्दी की आधुनिक अक्खड कवित्रयी के शमशेर बहादुर सिंह और नागार्जुन के बाद अब तीसरे धाकड कवि त्रिलोचन भी बुढापे से लडते लडते आखिर अलविदा कह गए हिन्दी वालों को। एक अखबार ने उनके जाने को गुपचुप जाना कहा क्योंकि कल शाम जब उन्हें अंतिम यात्रा पर ले जाया गया तो गाजियाबाद-दिल्ली का कोई कलमकार, साहित्यकार या पत्रकार मौजूद नहीं था। दस-बीस पडौसियों और नजदीकी रिश्तेदारों के कंधों के रथ पर हिन्दी का यह महारथी स्मशान तक गया और फिर भस्मीभूत हो गया। हिन्दी वालों की यही नियति है अगर वे राज्याश्रित तिकडमबाज नहीं बन पाएं तो। हिन्दी में सॉनेट के जन्मदाता का अवसान हो गया और सब कुछ एक शाम में ही राख बनकर उड गया। रह गई केवल किताबें और यादें।
लम्बे दुबले पतले मोटे लैंसों वाला चश्मा पहने शमशेर, लम्बे बालों चमकती ऑंखों और खिचडी दाढीवाले झुकी कमर के नागार्जुन और बुढापे से लडते भिडते त्रिलोचन । मेरे जहन में यही छवियॉं है उस त्रयी की। मैंने हिन्दी की इस त्रयी को नजदीक से देखने का सौभाग्य पाया है। ये तीनों हरिद्वार आए-बुलाए गए और किसी न किसी रूप में इनके स्वागत सम्मान में मैं शरीक रहा। पर अब तो यह तिकडी स्वर्ग में ही कहीं गप्पे हांक रही होगी। हिन्दी वालों के कार्यव्यवहार पर बहसिया रही होगी।
याद आती है 1977 के दिसम्बर की 26 तारीख। हरिद्वार में ''वाणी'' नामक संस्था के तत्वावधान में हम मित्रों ने तारसप्तकीय कवि और हिन्दी के चलते फिरते शब्दकोश के रूप में विख्यात डॉ. प्रभाकर माचवे की षष्ठिपूर्त्ति की उस शाम हरिद्वार में सप्तक परम्परा के सूत्रधार सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय', के अलावा इसी परम्परा के प्रभाकर माचवे, शमशेर बहादुर सिंह और प्रयागनारायण त्रिपाठी सभी एक काव्यमंच पर थे। इनके अलावा जगदीश चतुर्वेदी, रवीन्द्र भ्रमर, सोम ठाकुर आदि अनेक कवि। अद्भुत कवि सम्मेलन था वह जिसमें बहुतायत ऐसे सुप्रतिष्ठित कवियों की थी जो प्राय: मंचों पर दीखते ही नहीं थे। पर यह सभी दिग्गज माचवे जी के सम्मान में हरिद्वार पहुंचे थे। तब शमशेर जी ने जिस तरह झूमझूमकर अपनी कविताएं सुनाई थीं वह दृश्य आज तक आंखें के आगे है। उन्होंने माचवे सम्मानग्रंथ ''अक्षर अर्पण'' के लिये जो कविताएं अपने हाथों से लिखकर भेजी थीं वे आज मेरे संग्रह को सुशोभित कर रही हैं।
नागार्जुन जी की क्या कहूं। वे तो कई कई दिन मेरे घर लक्ष्मण निवास में आकर रहा करते थे। मेरे पिताश्री स्व. पं. लक्ष्मणराव जी के कमरे में रहते। चाय सुडकते हुए दोनों वृद्ध दुनिया जहान की बातों में मशगूल हो जाते थे। हमने आठवें दशक में जब हरिद्वार में शिवालिक पत्रकार परिषद का गठन किया नागार्जन जी ने आकर उसका उद्घाटन किया। उस मौके पर उन्होंने नाच नाच कर जिस तरह अपनी कविताएं सुनाई थीं वह सब अब केवल चित्रों में ही दर्शनीय है। । मेरे संग्रह में मेरे ही उतारे नागार्जुन के ढेर सारे श्वेत श्याम चित्र उनकी अक्सर याद दिलाते रहते हैं।
और त्रिलोचन । उनके संपर्क में भी मैं उनकी अशक्तावस्था में ही जा सका। उनकी पुत्रवधू उषा अमित सिंह हरिद्वार कचहरी में प्रैक्टिस करती हैं। हमने नजदीक से देखा है कि इस अकेली महिला ने निपट अकेले ही 'वीरतापूर्वक' त्रिलोचन जी के रोगी वार्द्घक्य का भार वहन किया। उनके पति अमित जी नौकरी के कारण गाजियाबाद में रहते हैं पर त्रिलोचन अकेले ही अपनी पुत्रवधू के साथ हरिद्वार के उपनगर ज्वालापुर की एक तंग गली के आखरी सिरे पर बने मकान में रहते थे। लिखना पढना वहीं होता था। कई बार ऐसे बीमार पडे कि लगा अब गए तब गए। पर हर बार पुत्रवधू की सुश्रुषा उन्हें मौत के मुंह से खींच लाई।
मेरे पिता पं. लक्ष्मणराव जी बुधकर ने 5 जून 2004 को अपनी वय के 100 वर्ष पूरे किये तो हम परिजनों ने एक उनके सम्मान में शतपूर्त्ति समारोह का आयोजन किया। विख्यात संत स्वामी सत्यमित्रानन्दगिरि, स्वामी अवधेशानन्द गिरि, पद्मश्री डॉ. कन्हैयालाल नन्दन और श्री बालकवि बैरागी जी के अलावा उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पं. नारायणदत्त तिवारी भी समारोह में पधारे। उस मौके पर हमने जिन ग्यारह बुजुर्गों का भी सम्मान करवाया उनमें त्रिलोचन की उपस्थिति ने समारोह को अतिरिक्त गरिमा दे दी थी।
बाद में त्रिलोचन जी लगातार रोगग्रस्त और अशक्त होते चले गए। मैं दो चार बार ही उनके घर गया हूं। किसी न किसी को लेकर ही जाना होता था। आखरी बार तब जब प्रो. केदारनाथ सिंह और वशिनी शर्मा जी उनके साक्षात्कार के लिये आए थे। उत्तराखंड सरकार के कविमंत्री डॉ. रमेश पोचारियाल निशंक ने त्रिलोचन जी की खैरखबर ली और उन्हें राजकीय सहायता से अस्पताल में स्वस्थ किया। पर वह स्वास्थ्य भी त्रिलोचन अधिक दिनों तक नहीं संभाल पाए। अंतत: 91 बरस का यह हिन्दी का योद्धा भी एक युग को समाप्त कर चला ही गया। ज्वालापुर की गलियों को पता नहीं यह अहसास है भी या नहीं कि हिन्दी का कितना बडा दिग्गज उनकी गंध में बरसों रचाबसा रहा। अस्तु, उनकी स्मृति को मेरे प्रणाम । 'ताप के ताए हुए दिनों में' 'गुलाब' और बुलबुल' प्रीत करने वाला 'उस जनपद का कवि' हूं' मैं त्रिलोचन ही नहीं, 'फूल नाम है एक' मेरा जिसकी गंध 'दिगंत' तक फैले इसलिए आओ मैं 'तुम्हें सौंपता हूं', 'सबका अपना आकाश' जो 'अमोला' है जिसमें अपनी 'अनकहनी भी कहानी है'।
सादर,
कमलकांत बुधकर
http://yadaa-kadaa.blogspot.com/
सोमवार, 10 दिसंबर 2007
ज्वालापुर की गली में त्रिलोचन
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 6:47 am
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11 टिप्पणियां:
स.पत्रों से यह सूचना मिली थी कि अन्तिम संस्कार १० दिस. को १२ बजे दोपहर को होगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि इस गलतफ़हमी के कारण साहित्यिक बन्धु न पहुँच पाए हों? क्योंकि सहज ही विश्वास नहीं हो रहा कि इस प्रकार से विदा किया इस नपुंसक हिन्दी समाज ने उन्हें। इस समाज का हिस्सा होने के कारण स्वयम् के प्रति एक धिक्क्कारभाव से ग्लानि में डूब गया है मन!!
(http://360.yahoo.com/kvachaknavee)
नियति यही है कुछ कर जाने वालों की,
पहले आलोचना और फ़िर चंद कंधे पाने की।
श्रद्धांजलि उन्हें!!
बाबा को शत् शत् नमन् । कटु सत्य लिखा आपने । कुछ समय पहले हमेशा की तरह एक वर्ग बाबा की बीमारी की बात पर साहित्यकारों से इलाज के नाम पर मदद की टेर लगाता नज़र आ रहा था। हर बार वही नाटक.....क्या उन्हें पैसों की दरकार थी या उसकी जिसकी पूर्ति जीवित रहते होशो हवास में रहते होती तो वो सब लिखने की ज़रूरत नहीं पड़ती जैसी अक्सर श्रद्धाजलियों में आ जाती हैं। दुखी कौन नहीं है, और एक न एक दिन तो सबको जाना ही है। पर समाज को कुछ देने वाले के योगदान की चिन्ता उसके जीतेजी हो जाए तो बेहतर...
त्रिलोचनजी की स्मृति को नमन।
कमलकांत जी, त्रिलोचन के अंतिम संस्कार के समय निगमबोध घाट पर कई सौ ऐसे लोग थे जिनका हिंदी से संबंध है। संख्या बहुत महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन त्रिलोचन को चाहने वाले वहां थे। तमाम बूढ़े, थरथराते बदन वाले और बरसों से नया न लिखने वाले, लेकिन अकादमियों से लेकर संस्थानों पर कुंडली मारकर बैठे सारे महारथी भी वहां मौजूद थे। हिंदी के स्टार वहां कम थे। इसकी वजह तो शायद ये है कि हिंदी में पिछले तीसेक साल में स्टार बने ही कम हैं। या हिंदी के मठाधीशों और पुस्तकालयों से लिए 500 का प्रिट ऑर्डर छापने वाले प्रकाशकों ने कोई नया स्टार बनने ही नहीं दिय़ा। त्रिलोचन जी जैसा जीवट कितनों में है जिन्होंने सबसे विपरीत परिस्थितियों में सबसे ज्यादा और सबसे अच्छा लिखा? त्रिलोचन इस वजह से याद नहीं किए जाएंगे कि उनके अंतिम संस्कार के समय कौन-कौन मौजूद था।
"कल शाम जब उन्हें अंतिम यात्रा पर ले जाया गया तो गाजियाबाद-दिल्ली का कोई कलमकार, साहित्यकार या पत्रकार मौजूद नहीं था। दस-बीस पडौसियों और नजदीकी रिश्तेदारों के कंधों के रथ पर हिन्दी का यह महारथी स्मशान तक गया और फिर भस्मीभूत हो गया।"
आपकी ये पंक्तियां भ्रमपूर्ण हैं. कृपया ठीक करें.
प्रणाम.
त्रिलोचनजी की स्मृति को मेरा भी नमन।
भाई दिलीप मण्डल जी और भाई इरफान जी,
मुझे सुधारने के लिए आभार । क्षमा चाहता हूं कि मेरी कलम से असत्यांश लिखे गए। लेकिन मैं तो यहां हरिद्वार में बैठा हूं और कल 10 दिसम्बर 2007 के 'अमर उजाला' में मुख्ापृष्ठ पर शीर्ष में जब यह एक कॉलम समाचार कि, 'गुपचुप चले गए त्रिलोचन' पढा तो तो किंचित क्षोभ हुआ। समाचार का यह हिस्सा कि, '...विडम्बना देखिए, सरस्वती के इस वरद पुत्र के देहांत परकिसी ने इनके घर तक आने की जहमत नहीं उठाई। उनके आखरी समय में मात्र परिवार के सदस्य और पडौसी ही मौजूद थे, जिनकी संख्या भी नाममात्र थी।'
कुलमिलाकर समाचार जो प्रभाव मन पर छोड रहा था वही मैंने ब्लॉग पर अभिव्यक्त कर दिया। फिर भी मैंने अखबारी अभिव्यक्ति को मैंने अपनी बना लिया इसका दोषी तो मैं हूं ही। इससे किसी को ठेस लगी हो तो मैं क्षमा चाहता हूँ।
त्रिलोचनजी कोई स्मृति को नमन।
jwalapur ki galion me sradhay trilochan ji ko dekha. mera jaisa agyani patrkaar interview karne gaya tha.lambi beemari ke baad unke chehre per tej gazab ka tha. kaafi puchne per unhone presnt sahitye per kaha & apni peera chupa nehi sake.......unhe mera sat-sat naman....shiva agarwal,editor aviral prawah,haridwar
bahut marmik vrittant likha hai jo hamari vartman vyavastha par chot bhi karta hai...
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