घाट हरद्वारी
कला की राह में बड़े रोड़े हैं। इनमें से एक रोड़ा है कला का दलाल। कलाकारों को मंच दिलवाने वाले दलाल या बिचौलिये या कमीशन एजेंट को आजकल की सभ्य भाषा अंग्रेजी में 'इवेंट मैनेजर' कहते हैं। सभी जानते हैं कि दलाल की दलाली अवसर के अनुरूप दस से बीस प्रतिशत तक होती है। 100 कलाकार को मिले हैं तो वह दलाल को 20 तक दे देता है। दोनों का काम चल जाता है। पर मामला उलट जाए तो ? ऐसा ही कोई दलाल आपकी कला के प्रदर्शन के लिए आपके नाम से पौने दो लाख वसूल कर ले और आपको उसमें से केवल बीस हज़ार ही थमाए तो इसे आप क्या कहेंगे? घोर कलयुग । इसलिये कहता हूं कि कला की राह में बड़े रोड़े हैं।
अब देखिए न बरसों की गुरुसेवा, विद्यार्जन के कठिन परिश्रम और सतत् अभ्यास के बाद कोई कलाकार बनता है। पर वह अपनी कला के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए कितने पापड़ बेलता है यह वही जानता है। सार्वजनिक मान्यता के बगैर कला ‘अरण्य-रोदन’ बनकर रह जाती है। कलाकार का भाग्य अच्छा हुआ तो उसे ऐसे अवसर मिल जाते हैं जहां उसकी कला प्रशंसकों तक पहुंचती है। भाग्य ने ज्यादा जोर मारा तो प्रशंसकों की वाह वाह के साथ कुछ धनार्जन भी हो जाता है। पर कभी कभी यह धनार्जन भी ऐसे ऐसे गुल खिलाता है कि आदमी न कहने का रहता है न सहने का।
विश्वप्रसिद्ध भारतीय बांसुरी वादक रोनू मजूमदार के साथ ऐसा ही कुछ हो गया और अब वे बेचारे न कुछ कह पा रहे हैं और ना ही कर पा रहे हैं। यानी मराठी में कहें तो ‘तोंड दाबून बुक्यांचा मार’ । मुंह में पर कपड़ा ठूंस दिया और ऊपर से जमकर कर दी पिटाई । बन्दा न रो सके, न कराह सके। यह किस्सा हुआ भी तीर्थनगरी हरिद्वार में । 18 से 23 नवम्बर के बीच हरिद्वार में ‘हरिद्वार महोत्सव’ के नाम से छह दिवसीय एक वृहद सांस्कृतिक आयोजन संपन्न हुआ। बांसुरी-वादक रोनू मजूमदार, गायक-अभिनेता शेखर सेन, नृत्यांगना शर्बानी मुकर्जी और वन्दना कौल, विचित्रवीणा-वादिका राधिका बुधकर के कार्यक्रमों के अलावा कविसम्मेलन, जादू, पर्वतीय सांझ, राजस्थानी लोकरंग, बच्चों और युवा कलाकारों से भरपूर इस आयोजन को मुख्यरूप से जि़ला प्रशासन ने हरिद्वारवासियों और यहां के उद्यमियों के सहयोग से संपन्न कराया।
बाहर से आमंत्रित सभी कलाकारों-कवियों को हरिद्वार महोत्सव समिति ने चैक के माध्यम से मानधन का भुगतान किया। सभी कलाकारों को चैक उन्हीं के नाम से दिए गए। सिर्फ रोनू मुजूमदार ही अपवाद थे। उन्हें महोत्सव में लाने का जिम्मा नोयडा निवासी कलमकारनुमा कला के एक दलाल को दिया गया था। अल्लाह के ‘तुफैल’ से इसी नाम वाले इस दलाल ने रोनू दा को हरिद्वार लाने का जिम्मा लिया एक लाख पिचहत्तर हज़ार में। रोनू दा का पारिश्रमिक इतना होता है सो समिति मान गई।
दलाल के तुफैल से रोनू दा मंच पर आए। थोड़े उखड़े लग रहे थे। सोचा गया कि देर गंगा किनारे की सर्दीली हवाओं वाली ठण्डभरी रात और श्रोताओं की कमी के कारण खिन्न होंगे। पर वैसी खिन्नता में भी उन्होंने समां बांधा, श्रोताओं को अपनी बांसुरी की तान से विभोर किया और चले गए।
तीन-चार दिन बाद अपनेराम के पास उनका फोन आया और उन्होंने पूछा कि उनके नाम पर हरिद्वार महोत्सव समिति ने कितने पैसे दिए हैं? उन्हें बता दिया गया कि के एक लाख पिचहत्तर हज़ार का चैक ‘तुफैल’ के नाम कटा है। इस पर बुरी तरह चौंकते हुए लगभग चिल्लाकर रोनू दा ने बड़ा सा ‘क्या S S S ............’ कहते हुए आश्चर्य प्रकट किया। ‘मेरे नाम से उसने इतना पैसा लिया और मुझे दिया सिर्फ बीस हज़ार का चैक । बाबा रे बाबा । घोर कलियुग है।‘
असलियत जानने के बाद रोनू दा ने दलाल तुफैल से बात की तो तुफैल फैल गया। बोला ‘बंगाली बाबू , आप हैं किस तुफैल में ? जो मिला है चुपचाप लो वरना मुझे जानते नहीं। कुछ भी करवा सकता हूं।‘ बंगाली मोशाय डर गए, पर ग्लानि से भर गए। एक भावुक कलाकार के साथ ऐसी धोखाधड़ी?।
दुखी मन से रोनू दा ने बताया कि उनसे कहा गया था कि हरिद्वार में किसी संत के आश्रम में कार्यक्रम है। वहीं बांसुरीवादन करना है। आस्तिक कला उपासक रोनू दा तैयार हो गए। कहा, चलो गंगा किनारे संत के सामने बजाना है तो अवश्य चलूंगा। यहां आकर पता चला कि कार्यक्रम आश्रम में नहीं महोत्सव में है। तभी माथा ठनक गया था। बाद में जब सारी बातें पता चलीं तो माथे का ठनकना स्थायी सिरदर्द में तब्दील हो गया है।
शुक्रवार, 28 दिसंबर 2007
रोनू दा की बांसुरी के पीडि़त स्वर
लेखक डॉ. कमलकांत बुधकर पर 9:32 am
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4 टिप्पणियां:
बेहद शर्मनाक है एक कलाकार के साथ हुई यह धोखाधड़ी। सरकारी स्तर पर इस मामले में सख्ती से कुछ होना चाहिये था , उसकी संभावना अब नज़र नहीं आती है।
रोनू मजुमदार और दूसरे कलाकार अपने नेटवर्क से साल भर में खूब कमा लेते हैं । कष्ट इसका नहीं है। कष्ट ये है कि मीडिया, ब्यूरोक्रेसी की आड़ मे ये आलिम,फाजिल, पीर , औलिया, शातिर और तुफैल न जाने कितने आदिवासी कलाकारों के नाम पर भी ऐसी ही रकमें पीट रहे हैं और उन्हें तो इतने हजारों में भी भुगतान नहीं हो रहा है।
सच्चाई सामने लाने वाली पोस्ट।
मार्केटिंग के जमाना है जी।
बनारस में कोठियां बनारसी साड़ी बनाने वालों की नहीं हैं। उन्हे बेचने वालों की हैं।
रोनू दा के साथ जो हुआ वो तो बेहद शर्मनाक है, तुफैल जी के बारे में तो कुछ न ही कहा जाए तो ठीक है, पर एक बात जो मैं कहना चाहूँगा वो ये है की आपने इवेंट मेनेजमेंट के काम को ही बुरा कह दिया है, जो मेरी नज़र में ठीक हैं है.
इवेंट मेनेजेमेंट आज की तारीख में बहुत इज्ज़त वाला और अच्छा काम है. इस काम में जुटे सभी लोगों को बिचौलिया कहना शायद ठीक नही होगा. मेरे ऐसे कई मित्र हैं जो इवेंट मेनेजमेंट का काम करते हैं, और कई उभरते हुए कलाकारों को दुनिया के सामने आने का मौका देते हैं. ये लोग काम को आसाम बनते हैं. कई बड़े कलाकारों को तो शायद इन इवेंट मेनेजर्स की ज़रूरत नही होती, पर की उभरते हुए कलाकारों के लिए ये लोग आगे बढ़ने का एक मौका देते हैं.
तुफैल साहब ने जो किया वो तो वाकई शर्मनाक है, लेकिन एक मछली के ख़राब होने की वजह से सारे तालाब को गन्दा कह देना, सही नही होगा
अफसोस!!
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