आज अंतस में पसरता तम घना है,
क्या कहें, मन बहुत ही अनमना है।
सिर ऊपर की छांह नही है,
जिन कंधों बांहों का
अब तक रहा सहारा
वे कंधे वह बांह नहीं है।
दूर किनारा, रात अंधेरी
तेज हवाएं नदी उफनती
नाव मिली सौ छेदों वाली
औ नाविक ने नजर चुरा ली
आसमान तो गायब ही था
खिसक रही पांवों की धरती
अंतिम गांव दूर है फिर भी
जिजीविषा ही लडती मरती।
कब तक जिजीविषा पालूंगा
कब तक प्रीतगीत गा लूंगा,
टूटे, जीर्ण शीर्ण प्याले में,
कब तक मैं हाला ढालूंगा।
मेरे अंग अंग को डसते,
जाने किसके शाप जग रहे,
पुण्यों का अवसान काल है,
शायद मेरे पाप उग रहे।
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ककांबु
24 मार्च 2007
जिजीविषा ही लडती मरती।
कब तक जिजीविषा पालूंगा
कब तक प्रीतगीत गा लूंगा,
टूटे, जीर्ण शीर्ण प्याले में,
कब तक मैं हाला ढालूंगा।
मेरे अंग अंग को डसते,
जाने किसके शाप जग रहे,
पुण्यों का अवसान काल है,
शायद मेरे पाप उग रहे।
--------
ककांबु
24 मार्च 2007
9 टिप्पणियां:
अच्छी लगी कविता। अच्छा लगा आपका लगातार लिखना!
मेरे अंग अंग को डसते,
जाने किसके शाप जग रहे,
पुण्यों का अवसान काल है,
शायद मेरे पाप उग रहे।
मामाश्री मामला खतरनाक होण लाग रा है।
इस उम्र में पाप न उगायें,
उस सबकी आउटसोर्सिंग के लिए इत्ते काबिल भांजे हैं ना आपके।
bahut sundar kavitaa....antim panktiyon tak pravaah ......manbhaaya
बहुत अच्छी लगी कविता...मन प्रसन्न हो गया.
मेरे अंग अंग को डसते,
जाने किसके शाप जग रहे,
पुण्यों का अवसान काल है,
शायद मेरे पाप उग रहे।
बहुत सुंदर लगी ये पंक्तियाँ, बहुत खूब !
बहुत ख़ूबसूरत कमलकांत साहब, बहुत ही अच्छा लगा आपकी कविता पढ़ कर. आगे भी आप को पढ़ने का इंतज़ार रहेगा.
आज अंतस में पसरता तम घना है,
क्या कहें, मन बहुत ही अनमना है।
-- मन सच में बहुत अनमना है... तभी अनुभव हो रहा है --
आसमान तो गायब ही था
खिसक रही पांवों की धरती
अद्भुत अभिव्यक्ति है भावों की. सच ऐसा पहले केवल एकबार पढ़ कर लगा था रवि रतलामीजी के ब्लॉग पर.
बहुत सुंदर कविता । सुंदर भावाभिव्यक्ति।
अंतिम पंक्तियां जीवन के न जाने कितने अवसादित लम्हों का विनम्र निष्कर्ष प्रस्तुत करती सी लग रही हैं। मगर ये भी परिणति अवसाद की ही है।
कुछ अर्सा पहले इसी कविता को फोन पर आपने सुनाया था, प्रसव के फौरन बाद। तब भी यही भाव थे।
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