मंगलवार, 18 दिसंबर 2007

चर्चा चण्‍डूखाने की

एक लाख अस्‍सी हजार की चाय
यूं तो हमारा हरद्वार या हरिद्वार मद्यनिषिद्ध क्षेत्र है । यहां किसी भी तरह का नशा वर्जित है और नशे का सामान बेचनेवाली कोई दुकान यहां खुल भी नहीं सकती। पर नशेबाजों की यहां कोई कमी नहीं है। तरह तरह के नशेडी-भंगेडी-गंजेडी, चिलमिये-सुलफैये यहां इफरात में उपलब्‍ध हैं। सब कुछ है यहां, पर घोषित कुछ नहीं है। अगर कुछ घोषित है तो वह है गोपाल का चण्‍डूखाना। पिछले तीन दशकों से इस चण्‍डूखाने की शहर में कोई मिसाल नहीं। यहां बिकने वाली चाय से ज्‍यादा नशा यहां मिलने वाली मुफ्त की चाय का है। और कई तरह के नशे की मिसालें इस चण्‍डूखाने ने कायम की हैं। क्रमश: उनकी चर्चा करेंगे।
अब इससे पहले कि गोपाल के ख्‍ण्‍डूखाने की विधिवत चर्चा शुरू करें, हम आपको बता दें कि यह गोपाल कौन है। गोपाल यानी गोपालसिंह रावत। एम.ए.,एल.एल.बी.; उम्र यही कोई चौव्‍वन पचपन, रंग गोरा, कदकाठी से औसत पहाडी व्‍यक्तित्‍व, मूल पेशा चाय बनाना और बेचना तथा साइड पेशा पत्रकारिता करना। पहुंच मंगते से मिनिस्‍टर तक। पढने-लिखने के बाद पुश्‍तैनी काम नही करना था इसलिए हरिद्वार से बाहर जाकर नौकरी की। वह जमी नहीं तो हरिद्वार आकर संस्‍कृत विद्यालय में अध्‍यापकी कर ली। पिता का निधन हुआ तो घरेलू दबावों में पुश्‍तैनी दूकान पर आना ही पडा। पर भीतर लेखन और पत्रकारिता के कीडे कुलबुलाते ही रहे। मौका मिलते ही स्‍थानीय अखबार में लिखना शुरू कर दिया। अस्‍सी के शुरू में 'जागरण' का संवाददाता बना दिया गया और तभी से गोपाल की चाय के साथ उसकी पत्रकारिता भी चल निकली। धीरे धीरे 'रावत टी स्‍टाल' कब 'चण्‍डूखने' में तब्‍दील हो गया किसी को क्‍या खुद गोपाल को ही पता ही नहीं चला।
यारों का यार निकला गोपाल इसलिए अस्‍सी के जमाने के तमाम उभरते पत्रकार गोपाल की दूकान पर जमने लगे। पूर्वान्‍ह के ग्‍यारह बजते बजते एक एक करके हिन्‍दुस्‍तान, नवभारत टाइम्‍स, अमर उजाला आदि अखबारों के पत्रकार गोपाल की दूकान पर एकत्र होते और शहरभर की चिमेगोइयों में मशगूल हो जाते। वह जमाना था जब बसों और रेलों से अखबारों के मेरठ-दिल्‍ली दफ्तरों को समाचारों और चित्रों के पैकेट भेजे जाते जो देर शाम या अगले दिन पहुंचते थे। गोपाल ने पत्रकारों को मुफ्त चाय पिलाना शुरू किया। इस उदारता के पीछे तब कुछ यारबाजी और कुछ समाचार संग्रहण की सुविधा जुडी थी। सारे पत्रकार एकत्र होकर परस्‍पर समाचारों का आदान-प्रदान करते और फलां समाचार को कैसे किस एंगल से प्रस्‍तुत करना है यह तय करते । जो तय होता वहीं भाव भाषा के अन्‍तर से प्राय: सभी अखबारों में छप जाता है।
मशहूर होता चला गया कि गोपाल की दूकान पर दोपहर में पहुंचकर पत्रकारों से मिला जा सकता है। तो शहर के तमाम नेतागण और समाचार-प्रदाता संस्‍थाओं के लोग गोपाल की दूकान पर आने लगे। कुछ गप्‍पबाज भी एकत्र होने लगे। बेपर की उडने भी शुरू हुई और कुल मिलाकर गोपाल की चाय की दूकान ऐसे चण्‍डूखाने में तब्‍दील हो गई जहां चण्‍डू का नशा तो नहीं हॉ चाय की चुस्कियों के साथ गप्‍पों का नशा जरूर मिलने लगा।
धीरे धीरे यह चण्‍डूखाना प्रेसवालों का, पत्रकारों का अघोषित दफ्तर बन गया। हरिद्वार के पत्रकारों की संस्‍था 'भारतीय संवाद परिषद' जो कालान्‍तर में 'प्रेस क्‍लब हरिद्वार' हो गई, की स्‍थापना-संकल्‍पना की जन्‍मभूमि यही चण्‍डूखाना बना। आज जब प्रेसक्‍लब का अपना स्‍वतंत्र दफ्तर है और नया भवन भी बनकर तैयार है, तब भी पुराने पत्रकारों के लिए गोपाल का चण्‍डूखाना ही हरद्वारी पत्रकारिता का कलम का मक्‍का-मदीना है। जब हरिद्वार में गिनेचुने सात-आठ पत्रकार होते थे तब भी चण्‍डूखाना आबाद था और आज जब यह संख्‍या 'सेंचुरी अप' हो चुकी है तब भी इस चण्‍डूखाने का महत्‍व कम नहीं हुआ है।
ये वो जगह है जहां रोजाना औसतन दस-पन्‍द्रह कप चाय पत्रकारों को और उनके साथ आए अतिथियों को कतई 'मुफ्त' पिलाई जाती है। यह संख्‍या महीने में दो चार दिन 20-25 तक भी पहुंचती है। एक दिन पत्रकारगण गोपाल को दिल का दौरा पड जाए इस उद्देश्‍य से हिसाब लगा रहे थे कि दस के औसत से महीने में 300 कप और साल में 3600 कप यानी अगर चाय की घटती बढ‍ती कीमतों में औसतन दो रुपए की चाय भी मानी जाए तो 7200 रुपए की चाय एक साल में गोपाल मुफ्त पिलाही देता है। और यह क्रम अगर कमोबेश 25 बरस से चलता भी माना जाए तो एक लाख अस्‍सी हजार रुपए की चाय तो गोपाल पत्रकारो को मुफ्त में पिला ही चुका है।
गोपाल ने यह सब सुनने के बाद परम शांत भाव से कहा कि, 'इससे यही बात एक बार फिर सिद्ध हुई है कि पत्रकार परजीवी किस्‍म का पिस्‍सू होता है जो औरों का खून चूसता ही है। तुम स्‍सालों जो चाय के रूप में मेरा खून चूस रहे हो वह सब अगले जन्‍म में मैं वसूल करने वाला हूं।' अब यह गोपाल भाई की खुशफहमी थी जिसे पत्रकार साथियों ने नहीं तोडा। चण्‍डूखाने पर चाय का सदावर्त आज भी जारी है। इस सदावर्त में संत्री से मंत्री तक, चपरासी से अफसर तक, जनता से नेता तक, शहर के लफंगों से संतों तक और व्‍यापारियों से बुद्धिजीवियों तक सब कभी न कभी शामिल हो चुके हैं। हरिद्वार आने वाले अनेक साहित्‍यकारों पत्रकारों को भी चण्‍डूखाने का माहात्‍म्‍य पता है। इस चण्‍डूखाने की कई तरह की कई कथाएं फिर कभी। फिलवक्‍त इतना ही कि कभी हरिद्वार आएं तो अपनेराम का नाम लेकर चण्‍डूखाने पहुंचे। चाय का स्‍वाद दुगुना लगेगा आपको।

8 टिप्‍पणियां:

अजित वडनेरकर ने कहा…

आनंदायक पोस्ट है।
इस पोस्ट से दो जानकारियां मिलीं
1 गोपाल जी की उम्र
2 वो मुफ्त चाय पिलाते हैं और जिन्हें नहीं चुकाने वो हिसाब रखते हैं ।
चलने दीजिए प्रवाह....

Unknown ने कहा…

काश आपके साथ गोपाल चाय का मजा ले पाता तो धन्‍य हो जाता

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

गोपालसिंह रावत तो सफल व्यवसायी हैँ जो चण्डूखाना क्रियेट कर उसका लाभ ले सकते हैँ और अगले जन्म मेँ भी वसूली का रुक्का लिखवाये ले रहे हैँ!

ALOK PURANIK ने कहा…

अगली मुलाकात चंडूखाने पर ही होगी। वैसे ब्लागर जगत भी आनलाइन चंडूखाना है। सब मुफ्त की ही पिला रहे हैं गपबाजी।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

चलो जी एक और जगह का जुगाड़ तो हुआ जहां मुफ़त की चाय मिल्लेगी।

बेनामी ने कहा…

वैसे तो पत्रकारो के बारे मे जगप्रसिद्ध है कि पत्रकाऱ हमेशा हराम की और मुफ्त की खाते है परन्तु हरिद्वार के चण्डूखाने की बकवास कहानी सुनकर यह भी पता लग गया कि हरिद्वार के पत्रकार अपने ही एक पत्रकार की......रहे है। अब हरिद्वार के चण्डूखाने के इन चन्द बूडे, खूसट, मठाधीश पत्रकारो, जिन्हें वैसै भी हराम की खाने की आदत है, के बारे में क्या कहे कि जिस चाय को वह मुफ्त की सोच रहे है, उस मुफ्त की चाय की आड में पत्रकारिता का रौब झाड कर चणडूखाने का मालिक और उसके काकस के बुड्ढे, मठाधीश पत्रकार, कितनी और क्या क्या हराम की खा रहे है, या यों कहें कि शहर व समाज के कितने लोगो का खून चूस रहे है। वैसे भी इन बुड्ढो की खबर-वबर तो कही छपनी छपानी नही फिर भी चण्डूखाना तो आबाद है ही और दुकानदारी भी बढिया चल रही है। अब खाली बैठ कर ब्लाग पर लिखकर ही अपी ठरक भी मिटा रहे है और फजीहत भी करा रहे है। जा बेशर्मी तेरा ही आसरा...................

बेनामी ने कहा…

अपनेराम यानी एक ऐसा ठरकी कलमकार जिसे अपने मुँह मियोँ मिठ्ठू बनने मे महारत हासिल है। अब ऐसे ठरकी मिठ्ठू का क्या करे जो चण्डूखाने को महिमामंडित कर दुनिया भर को यह जता रहे है कि हरिद्वार में पत्रकार मुफ्त की खाते है। वैसे यह सही भी है हरिद्वार में एक खासियत भंडारा संस्कृति की भी है जिसका अपना एक इतिहास है और जिसका इस ब्लाग के छोटे से पृष्ठ पर सही ठंग से बखान नही किया जा सकता है। वैसे भी भंडारा संस्कृति के परम अनुभवी, मुफ्तखोर इन मठाधीश पत्रकारो से इस इतिहास के बारे में , और अपनेराम व चण्डुखाने के मालिक के बारे में ज्यादा जानना हो तो चले आईये कभी हरिद्वार..............

बेनामी ने कहा…

कहो अपने राम जी, अपुन की यह भडास कैसी लगी। कही इस भडास ने तुम्हारे बेर्शम दिल पर ठेस तो नही पहुचांई........।