रविवार, 9 दिसंबर 2007

दोस्‍त-ए-आजम


आज मैं सपत्‍नीक सहारनपुर गया था । पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश का एक व्‍यावसायिक नगर है सहारनपुर। पांवधोई नदी के किनारे बसा शाह हारून चिश्‍ती के नाम से बसा श्‍ह शहर लिखने पढने वालों को पद्मश्री पं. कन्‍हैयालाल मिश्र प्रभाकर की याद दिलाता है। कलाप्रेमियों के लिये काष्‍ठकला की बडी मण्‍डी है। उत्‍तर प्रदेश और हरियाणा की सीमा बसे इस नगर में मैने भी अपने जीवन के चौदह बरस गुजारे हैं। य‍हां कई दोस्‍त हैं और कई यादें। आज पूरी शाम 1977 से 1990 के बीच के वही 14 बरस किसी फिल्‍म के फ्लैशबैक की तरह ऑंखो के आगे चल रहे थे। बार बार जो चेहरा सामने आ रहा था वह था वीरेन्‍द्र आजम का । आज की शाम उसीके नाम थी। सहारनपुर के सुधीजनों ने अनेक संस्‍थाओं के माध्‍यम से वीरेन्‍द्र का अभिनन्‍दन का आयोजन किया था।
वीरेन्‍द्र आजम। सुनने में बडा विचित्र लगता है यह नाम। समझ में नहीं आता कि यह आदमी हिन्‍दू है या मुसलमान। हिन्‍दी में देखें तो वीर ही नहीं, वीरों का भी राजा। इन्‍द्र- 'वीरेन्‍द्र'। और उर्दू में 'आजम' यानी सर्वश्रेष्‍ठ । यानी दोनों भाषाओं में मामला श्रेष्‍ठता से ही जुडा हुआ है। ये आदमी मुझे मिला था करीब तीसेक बरस पहले । मिला तब ये लडका सा ही था। औसत लम्‍बाई का गोराचिट्टा युवक, जिसके घुंघराले-से बाल और बोलती हुई ऑंखों ने तुरन्‍त ध्‍यान आकर्षित किया। बाद में जब भी मिला तब हर बार इस 'लडके' ने अपनी श्रेष्‍ठता का मुझे कायल बना लिया। श्रेष्‍ठता भी उसके मानवीय गुणों की । सहारनपुरी लहजे वाली खडी पर मीठी बोली; व्‍यक्तित्‍व और व्‍यवहार से छलकती विनम्रता; धरती से जुडाव और सिद्धांतों के प्रति उसी धरा-सी ठोस कडाई । प्रलोभनों के आगे न झुकने का संस्‍कारशील संकल्‍प, सच सुनने का माद्दा और सच कहने की हिम्‍मत ।
आज तीस बरस बाद भी घर-गिरस्‍ती वाले और दो बच्‍चों के बाप वीरेन्‍द्र आजम को 'आजम' बनानेवाले ये सारे गुण ज्‍यौं के त्‍यौं आश्‍चर्यजनक रूप से विद्यमान हैं। आश्‍चर्य इसलिये कि वीरेन्‍द्र पत्रकार है। आज के पत्रकार में ये सारे गुण एक साथ मिल पाना असंभव तो नहीं पर कठिन जरूर है। इसीलिये तीस बरसों के बाद भी मैं ही नहीं मेरा पूरा परिवार यह कह सकने की स्थिति में है कि वीरेन्‍द्र आजम है, दोस्‍त-ए-आजम। वह दोस्‍त ही नहीं दोस्‍तों का भी दोस्‍त है।
मेरी पत्रकारिता के भी ताजा ताजा शुरुआती दिन थे वे। कॉलेज के प्राध्‍यापक मित्रों के अलावा मेरे दो किस्‍म के संगी साथी और थे। एक तरफ तो कविगण और दूसरी तरफ पत्रकार गण। इन दोनों तरह की जमातों में भी मेरी आमदोरफ्त बढने लगी थी। उन्‍हीं दिनों मुझे वीरेन्‍द्र मिला। जिसे अंग्रेजी में 'स्‍पार्क' कहते हैं मैंने तभी उसमें वह देखा था। वह 'शीतलवाणी' नामक एक साप्‍ताहिक लेकर पत्रकारिता में आया था। हमारे कॉलेज में हुए समारोहों के समाचार भी यदाकदा उसके साप्‍ताहिक में होते थे। और हमारे परिचय के लिये इतना ही काफी था।
आज जब अभिनन्‍दन के मंच पर भरे गले से वीरेन्‍द्र ने अपने मातापिता को याद करने के बाद अपने बडे भाई विजेन्‍्द्र को मंच पर बुलाते हुए सबको बताया कि पत्रकार वीरेन्‍द्र उन्‍हीं के कारण आज पत्रकार बन सका है क्‍योंकि उन्‍होंने अपनी जेब काटकर भी वीरेन्‍द्र के साप्‍ताहिक के लिए संसाधन जुटाए, तो सारा सभागार विनयशील संस्‍कारों को जीवन्‍त देखकर गद्गद् भाव से हर्षध्‍वनि कर रहा था। मेरे लिये ये क्षण इसलिये ज्‍यादा प्रेरक और महत्‍व के थे क्‍योंकि अभी पन्‍द्रह दिन पहले ही हरिद्वार के एक पत्रकार के मॉं-बाप ने वरिष्‍ठ पुलिस अधीच्‍क के सामने यह गुहार लगाई कि उनका बेटा उन्‍हें अपनी पत्रकारिता का रौब देकर गरियाता और धमकाता है।‍ पत्रकारों के दो ध्रुवान्‍त चरित्र मेरे आगे हैं।
मैंने पाया कि पत्रकारिता को लेकर वीरेन्‍द्र की दृष्टि शुरू से साफ रही है। पत्रकारिता निजी नहीं होती, वह समाज की होती है और उसे समाज के लिए ही किया जाना चाहिए इस बात को वीरेन्‍द्र ने पत्रकारिता में प्रवेश के साथ ही समझ लिया था। इसीलिये उसने पत्रकारिता को निजी सुरक्षा का कवच कभी नहीं बनने दिया। उसे और उसकी इस धारणा को भी तोडने की कई कोशिशें हुईं पर टूटना तो दूर वह झुका तक नहीं। इस चक्‍कर में वीरेन्‍द्र ने झेला बहुत। बार बार वह एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे अखबार से जुडता गया पर समझौते उसने कहीं नहीं किये इसीलिये आर्थिक पक्ष से हमेशा मार खाता रहा। 'शीतलवाणी' के बाद 'दूनदर्पण', बिजनौर टाइम्‍स', 'विश्‍वमानव', 'नवभारत टाइम्‍स', 'राष्‍टीय सहारा', 'अमर उजाला', 'दैनिक जागरण', का तो वीरेन्‍द्र इजागरूक संवाददाता रहा है जबकि दैनिक हिन्‍दुस्‍तान, टिब्‍यून, पंजाब केसरी, चौथी दुनिया, साप्‍ताहिक हिन्‍दुस्‍तान, पायोनियर, योजना, उत्‍तरप्रदेश आदि अनेक पत्रपत्रिकाओं में वीरेन्‍द्र ने जमकर लिखा है। कृषि, सहकारिता, राजनीति, और साहित्यिक तथा सांस्‍कृतिक रिपोर्टिंग वीरेन्‍द्र के प्रिय विषय हैं। वह इन विषयों पर साधिकार लिखता, छपता और सराहा जाता रहा है।एक अत्‍यंत संस्‍कारशील परिवार का बेटा वीरेन्‍द्र अपनी प्रखर और मुखर माता से शुरू में ही यह मंत्र पा चुका था कि जीओ मगर अपनी शर्तों पर। और उसने अपनी अभी तक की जिन्‍दगी जी भी अपनी ही शर्तों पर है। यही वजह है कि वीरेन्‍द्र आजम सहारनपुर के आम पत्रकारों से अलग है। उसकी पहचान अलग है और उसकी कलम की धार भी अलग है। वह विषय को समझकर और फिर उसमें डूब कर लिखता है। इसीलिये जब वह लिखता है तो असरदार लिखता है। मैं कहूं कि वह अपनी उम्र के असरदारों का सरदार है तो अत्‍युक्ति न होगी। आज वीरेन्‍द्र ने पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना शैक्षिक अवदान सहारनपुर की पत्रकारिता पर शोध के साथ प्रस्‍तुत किया है उसके लिये भी वह साधुवाद का पात्र है।
सहारनपुर ने जिस तरह वीरेन्‍द्र की ईमानदारी, साफगोई, निर्भीकता और प्रभावशाली लेखनी का सम्‍मान किया वह आज के समाज में दुर्लभ होता जा रहा है। पर वहां की 'संयम' संस्‍था और उसके कर्ताधर्ता यो्गी सुरेन्‍द्र सचमुच बधाई के पात्र हैं कि उन्‍होंने एक अभिनन्‍दनीय व्‍यक्तित्‍व को बधाई देने का अवसर जुटाया और वीरेन्‍द्र के सारे मित्रों को एकत्र कर लिया। सहारनपुर के कलमकारों, राजनेताओं, व्‍यवसायियों, पत्रकारों और अन्‍य सुधीजनों ने सचमुच प्रतिभा का सम्‍मान करके पत्रकारिता की गिरती साख को मजबूती देने की कोशिश की है जो अन्‍यत्र भी अनुकरणीय है। हम अपने परिवेश की प्रतिभाओं को सम्‍मानित करेंगे तो उजला बढेगा वरना तो हर ओर हर पेशे में चिराग बुझाकर उन चिरागों का तेल बेचने वालों की कमी नहीं है।

3 टिप्‍पणियां:

ALOK PURANIK ने कहा…

मेरी भी शुभकामनाएं पहुंचाइये आजमजी तक।
मुझे भी याद आता है कि करीब बीस साल पहले जब मैं चौथी दुनिया अखबार के बिजनेस पेजों को देखता था, तो सहारनपुर से उनकी कई रिपोर्टें छापने का सौभाग्य मिला था। ग्रेट।

बालकिशन ने कहा…

प्रणाम.
अच्छा प्रेरक प्रसंग है.
शानदार और प्रेरक व्यक्तित्व के स्वामी "वीरेन्द्र आजम" को नमन.

Sanjeet Tripathi ने कहा…

प्रेरक!
शुभकामनाएं आज़मी जी को।