मंगलवार, 11 दिसंबर 2007

नौकरी

कविता जो पहली नौकरी के पहले दिन लिखी

निरभ्र आकाश में
उन्‍मुक्‍त उडते हुए
पक्षी सा उत्‍फुल्‍‍ल मन
और
शतदली कल्‍पनाओं का
खिला हुआ कमलवन
तंग आकर
कल अचानक मैंने बेच दिया है।
साथ में बेच दिया है
अपना सारा उल्‍लास,
ताकि मुझे मिल सकें
पॉंच सौ तैंतीस रुपए अस्‍सी पैसे
पतिमास ।
अपनी बेताज बादशाहत
को मैंने गिरवी रख दिया है,
और अब मैं नौकर हो गया हूं
ताकि खुद को
बादशाह समझूँ  --
और
पॉंच सौ तैंतीस रुपए अस्‍सी पैसे
के बदले फिर खरीदूँ--
शतदली कल्‍पनाओं का
खिला हुआ कमलवन
और
निरभ्र आकाश में
उन्‍मुक्‍त उडते पक्षी सा 
उत्‍फुल्‍ल मन ।

5 टिप्‍पणियां:

ghughutibasuti ने कहा…

बहुत सुन्दर व भावपूर्ण कविता है ।
घुघूती बासूती

अनूप शुक्ल ने कहा…

शानदार बादशाही कविता।

बालकिशन ने कहा…

प्रणाम.
अच्छी कविता है. जैसे मेरे ही मन के भावों को लिख दिया आपने.

Dr.Ajit ने कहा…

sir, nijta ka keemat ka bodh hua aapki bhavpurn panktiya padhker.. yai humari niyati hoti ya prarabdh...
ajeet

अजित वडनेरकर ने कहा…

बहुत सुंदर ।
इससे आगे की स्थिति में कई का हाल ये भी होता होगा-
सबसे डरते हुए
उम्र कटती रही
जीर्ण चादर ग्रहस्थी की
फटती रही