मेरा बडा बेटा सौरभ, जो फिलवक्त 34 बरस का है और एक बेटी का बाप भी, छुटपन में बेहद शरारती था। उसकी मॉं अपने इस पहलौटे को देख-देखकर जितनी प्रसन्न होती थी, उसकी शैतानियां देखकर अक्सर उतनी ही परेशान हो जाती थीं। शैतानियां होती भी परेशान कर देने वाली थीं। मसलन एक दिन पूजास्थल पर गई तो यह देखकर अवाक् रह गईं कि सिंहासन के ऊपर रखें देवों की चांदी की तमाम मूर्तियां गायब हैं। सुबह तो पूजा की थी तब सारे देवगण अपने अपने स्थान पर उपस्थित थे। यह अचानक सभी उठकर किस अर्जेन्ट मीटिंग में चले गए। सारा घर छान मारा । भगवान कहीं नजर ही नहीं आए। मुझसे पूछ, इससे पूछ, उससे पूछ.... पर नतीजा सिफर । हारकर सौरभ से पूछा तो उसने तुतलाकर जवाब दिया कि, ''बप्पा नन् नन्'' यानी भगवान नहा रहे हैं। श्रीमती जी बाथरूम की तरफ गईं पर वहां भी भगवान नहीं थे। उन्होंने सौरभ को फिर बुलाकर पूछा कि कहां नहा रहे हैं तो उसने शौचालय की तरफ इशारा कर दिया। अन्दर का दृश्य कुछ ज्यादा ही मार्मिक था। त्रिलोकीनाथ भगवान विष्णु की गरदन चीनीमिट्टी के शौचालय के मलनिकासी पाइप में भरे जल से झांक रही थी। उनकी भार्या लक्ष्मी, गौरा, गणेश, शिवलिंग, बालकृष्ण आदि सब तो गहरे नर्क में डूबे हुए थे। स्वर्ग के स्वामी और साक्षात् नर्क में। यह था घोर नहीं घनघोर कलियुग । श्रीमती जी तो ''हाय राम'' कहकर उलटे पांव बाहर आ गईं। सामने सौरभ मुस्कराकर फिर वही कह रहे थे.... ''बप्पा नन् नन्'' । मॉं समझ नहीं पा रही थीं कि पहले बच्चे की ठुकाई करके गुस्सा उतारे या पहले नर्क से भगवान को निकाले । तभी जमादारनी आ गईं और उसकी कृपा से देवगण नर्क से बाहर निकाले गए। धोए मांजे गए, आग में तपाए गए, गंगाजल में बार बार नहलाए गए तब कहीं जाकर दुबारा सिंहासन पर बिराजते भए। ऐसे हमारे सौरभ जी एक दिन हमारे हत्थे चढ गए। किस्सा-कोताह यह कि हम सहारनपुर से थक-हार कर हरिद्वार लौटे थे। हाथ में चोट लगी थी, पट्टी बंधी थी सो दर्द भी बहुत था। वहां कॉलेज में भी कोई बात हो गई थी तो गुस्सा था और घर आते ही श्रीमती जी ने सौरभ जी की कोई कारगुजारी बयान कर दी। बस अपना गुस्सा भडक गया... ''बुलाओ सौरभ को।'' सौरभ हाजिर हुए। अपनेराम ने आव देखा ना ताव। पट्टी बंधी हथेली से ही ठुकाई शुरू कर दी। अभी दो हाथ ही मारे थे कि दर्द से बिलबिलाकर मैं खुद ही चीख उठा। पर गुस्से का जुनून ऐसा कि सौरभ पर हाथ उठाने को फिर तैयार । उसने हाथ रोकने की कोशिश की..... ''डैडी, मारिये मत। प्लीज मत मारिये। हाथ से मत मारिये, रुक जाइये । मैं डण्डा ला देता हूं आप डण्डे से मार लीजिये। आपके हाथ से खून निकल रहा है। प्लीज हाथ से मत मारिये। डैडी प्लीज...... ।'' मेरे हाथ रुक गए । मैं सोचने लगा कि मैं क्या कर रहा था गुस्से में अपने ही बच्चे पर हाथ उठा रहा था। और बच्चा, वह कहीं से एक डण्डा सचमुच ले आया था फर्स्ट एड बॉक्स के साथ। उस वक्त वह मेरा बेटा भी था और मेरा बाप भी । कहते हैं ना, चाइल्ड इज दि फादर ऑफ द मैन। यह किस्सा मैंने एक बार हरिद्वार में मेरे घर आए वरिष्ठ कथाकार श्रद्घेय श्री विष्णु प्रभाकर जी को सुनाया तो कुछ हफ्ते बाद उनकी लेखनी से यह ''सारिका'' के अंक में छपा देखा । आज भी याद करता हूं तो सौरभ की वह अदा सिहरा देती है मुझे ।
रविवार, 9 दिसंबर 2007
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3 टिप्पणियां:
सिहरा गई ये अदा हमको भी।
पहले भाग पर > वाराह अवतार में दर्शन हो गये भगवान विष्णु के!
अब आपसे यहां भी मुलाकात होगी.
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