मंगलवार, 11 दिसंबर 2007

खूँखार दिल में सदाशय

कहना भाई आलोक पुराणिक का कि 'आपने (यानी मैंने) घाट घाट का पानी पीया है', बिलकुल सही है। ठेठ हरिद्वारी हूं इसलिये केवल पानी पीकर ही काम नहीं चलाता, बल्कि हर घाट पर बाकायदा नहाने तक का जुगाड कर लेता हूं। पीछे मुडकर देखता हूं तो पाता हूं कि तीन घाट तो साफ तौर पर मेरे अपने हैं ही। हरिद्वार की पैदाइश हूं, यहां के एक प्रमुख मंदिर का पुजारी हूं और यहां के पण्‍डों का दामाद हूं तो मेरा पहला घाट हुआ 'घाट हरद्वारी' । दूसरा घाट अपनेराम के मुख्‍य पेशे से जुडा है। 1972 से ही विश्‍वविद्यालय का प्राध्‍यापक चला आता हूं, सो अपना दूसरा घाट है 'घाट मास्‍टरी' । और तीसरा घाट है सबसे बेढब यानी 'घाट अखबारी' पिछले पच्‍चीस बरसों से बाकायदा इसी घाट पर स्‍नान-दान-पूजन ही नहीं पिण्‍डदान और तर्पण तक चल रहा है।

यूं घाट और भी हैं मसलन घाट परिवारी, घाट रिश्‍तेदारी, घाट दोस्‍ती-यारी, घाट मेहमानी, घाट मेजबानी, घाट कविताई, घाट मूर्खाई आदि आदि आदि...। पर इतने सारे घाटो में शुरुआती तीन घाटों पर अपनी जिन्‍दगी के मेले जरा ज्‍यादा ही लगे हैं। जितने गोते हरद्वारी, मास्‍टरी और अखबारी घाटों पर अपनेराम ने लगाए हैं उतने बाकी और घाटों पर नहीं। अब सोचता हूं कि स्‍नान का पुण्‍य तो परिजनों के साथ ही है तो क्‍यों न आप सबको भी अपने साथ स्‍मृतियों की नदी के इन घाटों पर गोते लगवाता चलूं । नहाने का पुण्‍य तो है ही, नहलाने का पुण्‍य भी कम नहीं। तो चलिये ब्‍‍लॉग की नाव खेकर यादों की नदी पार उतरने की कोशिश की जाए।

घाट अखबारी ने जीवन में इतने रंग दिखाए कि अपनेराम का व्‍यक्तित्‍व ही विविध भारती हो गया। लोगों की अपेक्षाएं इतनी मजेदार और रंगीन होती हैं एक प्राध्‍यापक पत्रकार से कि कभी दिल बल्लियों उछलता है तो कभी दिल बैठता ही चला जाता है रसातल में। उन दिनों हरिद्वार और आसपास के इलाके में उसका नाम 'डर' का दूसरा नाम था। कुलीन ब्राह्मण परिवार में जन्‍मा वह देखने में भी सुस्‍वरूप था। नाम के विपरीत बिलकुल गोरा चिट्टा गबरू जवान । ज्‍वालापुर के पण्‍डा समाज का सदस्‍य था वह और वहीं उसका घरबार था। नियति ने चाल कुछ ऐसी चली कि उसकी राहें बदलती चली गईं। कब पुरोहित के बही-बस्‍ते और कलम की जगह पिस्‍तौल हाथ में आ गई, खुद उसी को पता नहीं चला। रुपया बरसने लगा और आतंक पसरने लगा। पुलिस थाना कचहरी के साथ लुकाछिपी का खेल भी चल निकला। कभी बाहर तो कभी अन्‍दर। चूहा बिल्‍ली की भागमभाग बन गई उसकी जिन्‍दगी।

अपनेराम पण्‍डों के दामाद हैं और वह पण्‍डा समाजका सदस्‍य था ही। जो लोग जानते हैं उन्‍हें पता है कि हरिद्वार ज्‍वालापुर कनखल की पण्‍डा बिरादरी परस्‍पर अति निकट गुंथी हुई बिरादरी है। प्राय: सब एक दूसरे के रिश्‍तेदार हैं। इसी नाते से मुझे कइयों का जीजा होने का संयोग मिला है। मेरे अपने साले साहब जो अब स्‍वर्गीय हैं, एक दिन कहने लगे कि 'वह आपसे मिलना चाहता है।' मैंने पूछा 'क्‍यों' । 'पता नहीं, वही जानता है।' मैंने कहा कि, 'मुझे उसमें कोई दिलचस्‍पी नहीं है। मुझे नहीं मिलना।'

कुछ दिन बाद फिर वही आग्रह। फिर मेरी ना । कई बार यही संवाद दोहराए गए। पर आखिर कब तक बीबी के भाई को मना करता। एक दिन उन्‍होंने घेरघारकर हां करवा ही ली मुझसे कि मिलने में क्‍या हर्जा है। उसका काम करना या ना करना आपकी मर्जी, पर मिलने में क्‍या बुराई है। मैंने भी सोचा कि जब अखबारी पेशे में अपराधियों, वेश्‍याओं तक से मिलने में कोई गुरेज नहीं होता तो उससे मिलने में क्‍या हर्ज है। मेरे हां कहते ही अगला प्रश्‍न था कि आपके घर वह आए या आप उसके घर चलेंगे। मैंने दोनों प्रस्‍ताव ठुकराकर किसी सार्वजनिक स्‍थल पर मिलने को कहा। तय हुआ कि ज्‍वालापुर के बाजार में एक चाय की दूकान में भेंट होगी। निश्चित समय पर मैं अपना स्‍कूटर उठाकर चाय की दूकान पर पहुंच गया।

दूकान को ग्राहकों से खाली करा लिया गया था। अन्‍दर सिर्फ वह, उसके तमाम साथी जो वस्‍त्रों में तमंचे-पटाखे छिपाए थे, बैठे थे। मेरे अन्‍दर जाते ही सारे उठकर खडे हो गए। मानों क्‍लास में टीचर आ गया हो। इसमें आधा सच था। टीचर तो मैं था पर वे सब विद्यार्थी नहीं थे मेरे। वह तपाक् से मेरे पैर छूने झुका। इस क्रिया की कई आवृत्तियां हुईं। सब एक-एक कर पैर छूते हुए 'जीजाजी नमस्‍ते' कहकर बैठते गए। चाय का आदेश हुआ। तब तक मैं असामान्‍य था उस जमघट में खुद को पाकर। मैंने पूछा, 'ये सब भी बात करेंगे मुझसे।' उसने इशारा समझा और दो पल में दूकान में मैं वह और मेरे असली सालेसाहब रह गए। मैंने वह बात जाननी चाही जिसके लिए यह बैठक तय थी तो सब कुछ सुनकर अवाक् रह गया।

पता चला कि वह अक्‍सर सहारनपुर की जेल में जाता आता रहता है और इसी क्रम में उसकी 'दोस्‍ती' वहां के जेलर से हो गई है। उसके मुताबिक जेलर बेहद नेक, ईमानदार, कडक और कार्यकुशल अफसर है पर उसका प्रमोशन रुका हुआ है । अगर अखबार में उसके बारे में कुछ प्रशंसात्‍मक छप जाए तो उसे उसका वांछित प्रमोशन मिल सकता है। मुझसे चाहा गया था कि मैं नवभारत टाइम्‍स में उस जेलर के बारे में कुछ लिख दूं। मेरा बडा अहसान जेलर और 'उस' पर होगा।

मैं सोचता रहा कि जेलर अगर इसका दोस्‍त है तो इसके इतिहास वर्तमान को देखते हुए जेलर का चरित्र क्‍या होगा। और फिर वैसे जेलर पर मैं क्‍या लिखूंगा। और अगर लिख भी दिया तो अखबार क्‍यों छापेगा। मैं खुद को फंसा हुआ महसूस कर रहा था और मन ही मन अपने सालेसाहब को कोस रहा था। लकिन देर तक चली बातचीत में अंतत: तय यह हुआ कि मैं जेल का निरीक्षण करने जाऊंगा। वहां जेलर ने जो नये प्रयोग कैदियों के हित में किए हैं उन्‍हें देखने के बाद यदि आश्‍वस्‍त हुआ तो कुछ लिखूंगा।

निश्चित तिथि पर सहारनुपर में मेरी क्‍लास के सामने दो सिपाही आकर खडे हो गए। बडी विचित्र स्थिति हो गई जब उन्‍होंन सब छात्र-छात्राओं के बीच में कहा कि चलिये सर, हम आपको जेल ले जाने आए हैं। प्रिंसिपल सरीन को पता चला तो उन्‍होंने सारी बात सुनने समझने के बाद भी कहा कि, इन पुलिसवालों का कोई भरोसा नहीं है। आप जेल का काम निबटाकर मुझसे मिले बिना हरिद्वार न चले जाएं। मैने वैसा ही किया भी।

जेल का तजुर्बा बहुत अच्‍छा रहा था । सचमुच जेलर साहब अपनी तरह के अद्वितीय अफसर थे। खूब सारी लेखन-सामग्री मिल गई मुझे वहां। मैंने वह सब नभाटा में प्रकाशित भी किया और उसके सुपरिणाम में जेलर साहब प्रमोट भी हुए। पता नहीं वे जेलर साहब आज कहां है। रिटायर हो गए होंगे। मेरे साले साहब स्‍वर्ग सिधार गए और 'वह', उसे उसके दुश्‍मनों ने सरेआम कचहरी के आगे गोलियों से भून दिया। वह भी सिधार गया पर आज सोचता हूं कि खूंखार कहे जाने वाले दिलों में भी कहीं उदारता होती ही है।

।। इतिश्री अखबार घाटे प्रथम स्‍मृति:।।

5 टिप्‍पणियां:

बालकिशन ने कहा…

प्रणाम.
अच्छी सीख दी आपने.
ऐसे अपराधी के दिल मे भी दया माया होती है.
इतिश्री अखबार घाटे प्रथम स्�मृति:।
बाकी घाट की यादों के बारे मे भी कुछ बताएं.

Satyendra Prasad Srivastava ने कहा…

आपके घाट दिलचस्प होंगे। अखबारी घाट में डुबकी लगाने के बाद तो ऐसा ही लगा। इतनी ठंड में भी आपके दूसरे घाटों पर डूबकी लगाने की इच्छा प्रबल रहेगी। इंतज़ार रहेगा। उम्मीद है जल्द ही आप दूसरे घाटों पर भी ले चलेंगे। शायद अखबारी घाट में भी अभी बहुत कुछ बाकी है। उसका भी इंतजार रहेगा।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

दिलचस्प!!
इंसान फ़ितरत से कुछ भी हो जाए, हालात उसे कुछ भी बना दें पर भावनाएं कहां पूरी तरह से मरती हैं। भावनाएं ही तो इंसान को इंसान बनाती हैं।

अनूप शुक्ल ने कहा…

शानदार प्रस्तुति। पहले अध्याय की।

Anita kumar ने कहा…

बहुत रोचक्…आगे भी आप के संस्मरण का इंत्जार रहेगा