शनिवार, 8 दिसंबर 2007

राष्‍ट्रपतिजी को जुकाम है

राष्‍ट्रपतिजी को जुकाम है
 साल 1964। महीना सितम्‍बर और तारीख 14 यानी हिन्‍दी दिवस। उन दिनों अपनेराम भोपाल से 40 किलोमीटर पर स्थित जिलानगर  सीहोर में अपनी बहन और जीजाश्री के यहां रिहायश रखते थे। उम्र होगी यही कोई चौदह साल। कक्षा नौ के एक दुबले-पतले से छात्र थे तब अपनेराम। अखबारों को चाटने का शौक तब भी था, सो पता चल गया था कि महामहिम राष्ट्पति  सर्वपल्‍ली डॉ. राधाकृष्‍णन् 14 सितम्‍बर को भोपाल आएंगे और वहां श्‍यामला पहाडी पर हिन्‍दी भवन की आधारशिला रखेंगे।
वे दिन थे जब अपनेराम को म‍हत्‍वपूर्ण व्‍यक्तित्‍वों के आटोग्राफ (हस्‍ताक्षर) लेने का नया नया शौक लगा था। एक छोटी सी हस्‍ताक्ष‍र पुस्तिका भी किसी बुजुर्ग ने उपहार में दी थी । सो उसमें कोई बडा आदमी हस्‍ताक्षर कर दे इसी जुगाछ में रहते थे अपनेराम। राष्ट्पति जी के आगमन के समाचार ने मानों उत्‍साह में पंख लगा दिये। दो तीन मित्रों को तैयार किया कि चलो भोपाल घूमके आते हैं। राष्‍ट्पति जी को देखने का शौक भी मैने जगा दिया मित्रों में। कोशिश सफल हुई और तीन दोस्‍त राजी हो गए। मित्र तो मिल गए पर बिना पैसों के जाएंगे कैसे। तय किया कि खाने का टिफिन बांध लो और सवारी के लिए अपनी अपनी साईकिल ले लो।
अगर यह बताते कि भोपाल जा रहे हैं और वो भी साइकिलों पर तो सारा प्राग्राम चौपट हो जाता इसलिये घरवालों से कहा कि आज हम लोग पिकनिक पर जा रहे हैं। सो अच्‍छा सा खाना बांध दो। खाना मिल गया तो अपनी अपनी साइकिल उठाकर हम चारों ने भोपाल की राह पकड ली। उन दिनों राजमार्ग आज जितने भीडभरे और खतरनाक नहीं थे इसलिए दो ढाई घण्‍टे में हम भोपाल में थे। दोपहर बाद एक दोस्‍त के घर साइकिलें टिकाकर हम लोग श्‍यामला हिल्‍स के आयोजनस्‍थल पर आराम से पहुंच गए। न आज की तरह भारी-भरकम पुलिसिया इन्‍तजाम थे न ज्‍यादा रोकटोक। हम लोग यूं भी बच्‍चे ही थे सो भीड की टांगों के जंगल को आसानी से पार करते हुए आगे वहां तक जा पहुंचे जहां गेरूपुती बल्लियों का बाडा था। बाडे के चारों तरफ अलबत्‍ता पुजलस कुछ ज्‍यादा थी। हमारे सामने एक शामियाना लगा हुआ था जिसके दूसरी ओर मंच था, माइक था। मंच के सामने कुर्सियों की कई कतारें थीं जिन पर अभ्‍यागतों के अलावा  एक तरफ कुछ बच्‍चे भी बैठे थे, शायद अफसरों और मंत्रियों के। मंच पर भी बहुत सारे लोग थे जिनके  बीच में शुभ्र-श्‍वेत मद्रासी पगडी में सफेद अचकन पहने गौरवर्ण महामहिम बिराजमान थे। आज कह सकता हूं कि उन्‍हें देखकर ही आंखें तृप्‍त हो गईं थीं। क्‍या गरिमामय व्‍यक्तित्‍व था सर्वपल्‍ली जी का । मंच पर उनके अलावा कौन कौन थे और किसने क्‍या कहा अपनेराम को अब कुछ याद नहीं। वैसे भी वह सब देखने सुनने हम गए ही नहीं थे। महामहिम जब बोलने खडे हुए तो अपनेराम बस एकटक उन्‍हें देखते ही रहे। वे क्‍या बोले याद नहीं।
अपनेराम का तो एकसूत्री कार्यक्रम था महामहिम के हस्‍ताक्षर लेना। पर वह इतनी दूर से हो कैसे। शायद हमारे भीतर पत्रकारिता के बीजों के अंकुरण के दिन थे वे। तभी तो अपने दोस्‍तों को यह कहकर कि, 'मेरे आने तक यहां से जाना नहीं', मैं आगे खडे पुलिसवाले की नजर बचाकर कूदफांदकर बाडे में प्रवेश कर ही  लिया  अपनेराम ने और एक कुर्सी भी हथिया ली।
फिर धीरे धीरे अपनेराम उधर हो लिये जिधर ''बडों के बच्‍चे''  बैठे थे। सोचा सारे ही बच्‍चे हैं तो मुझे अलग से कौन पहचानेगा। हुआ भी वही। आराम से जमा रहा मैं एक कुर्सी पर ।  एक कलाकार वहीं बैठे बैठे महामहिम का सुन्‍दर पेंसिल स्‍केच बना रहे थे। वहीं देखा कई बच्‍चों के पास सुन्‍दर सुन्‍दर हस्‍ताक्षर पुस्तिकाएं थीं। रंगबिरंगी और तरह तरह के सुन्‍दर आकारों वाली। मैं खुश हुआ कि चलो मैं अकेला नहीं हूं। ''बडों के बच्‍चे'' महामहिम तक पहुंचेंगे तो मुझे भी आसानी हो जाएगी।
कार्यक्रम समाप्‍त हुआ और जन-गण-मन के बाद जैसे ही मंच पर लोग खडे होने को हुए एक बडे अधिकारी का इशारा पाकर आटोग्राफबुक्‍स लिये हुए सारे बच्‍चे तुरंत मंच की सीढियों की ओर भागे। वे कलाकार जिन्‍होंने महामहिम का ताजा चित्र बनाया था, वे भी भागे और मैं भी पीछे पीछे भागता कइयों से आगे हो लिया। पर यह क्‍या । महामहिम के एडीसी महोदय आडे आ गए।  उन्‍होंने सबको बीच में ही रोक दिया। कलाकार महोदय ने बहस करनी चाही तो उन्‍हे बाकायदा धकिया दिया गया। बच्‍चों से उनकी हस्‍ताक्षर पुस्तिकाएं एकत्र की जाने लगीं कि बाद में राजभवन में हस्‍ताक्षर करा लिये जाएंगे। कोई राष्‍टृपति जी तक नहीं पहुंच पाएगा क्‍योंकि उनकी तबियत खराब है। ''उन्‍हें जुकाम हो गया है।'' (बात तो सही थी क्‍योंकि महामहिम ने बोलते हुए दो बार रूमाल निकाल तक नाक तक पहुंचाया था, यह अपनेराम ने भी देखा था।)
पर ये तो कोई बात न हुई। 40 किलोमीटर की साईकिल यात्रा निष्‍फल होने को थी। अपनेराम ने अपने छोटे कइ का फायदा उठाते हुए एडीसी साहब को भी चकमा दे दिया और आगे बढ गए। महामहिम सीढियां उतरकर कार की तरु आ रहे थे। उनके मार्ग में बिछे कालीन के एक ओर राज्‍यपाल, मुख्‍यमंत्री और अन्‍य मंत्रीगण उन्‍हें बिदा देने के लिए खडे थे। सबसे हाथ मिलाते महामहिम कार की तरु बढ रहे थे। अपनेराम भी अपनी छोटीसी आटोग्राफ बुक लिए पंक्ति के बीच घुस गए। महामहिम आए, उन्‍होंने अपनेराम को देखा, मुस्‍कराए और हाथ आगे बढाकर बोले, ''व्‍हाट डू यू वांट''। ''सर, योर साइन'' । कहते हुए मैंने आटोग्राफ बुक आगे कर दी।  उन्‍होंने सुना और मेरी आटोग्राफ पुस्तिका अपने हाथों में ले ली। अचकन की जेब से पेन निकाला और हस्‍ताक्षर करने को हुए पर हाय रे दुर्भाग्‍य । पेन चला नहीं। दो बार उन्‍होंने छिडका और मेरी तरु देखा। तब तक मैं अपना पेन निकाल चुका था। उन्‍होंने मेरे पेन से अंग्रेजी में अपने आधे हस्‍ताक्षर किए। लिखा राधा । और मेरा पेन मुझे लौटाया। हाथ मिलाया। वही मेरे गाल पर फेरा और आगे बढ गए। पर ये क्‍या, मेरी आटोग्राफ बुक तो महामहिम साथ ही ले गए।
अब घबराने चौंकने'घबराने की बारी थी मेरी। गाडियों का काफिला चला। कारवां गुजर गया। हम गुबार देखते रहे। राज्‍यपाल के जो एडीसी सबको रोककर हस्‍ताक्षर पुस्तिकाएं एकत्र कर रहे थे, अपनेराम डरते डरते उनके पास गए। उन्‍होंने सुना तो झल्‍ला पडे, ''तुम गए क्‍यों उनके पास''। ''सर, गलती हो गई। पर मेरी आटोग्राफ बुक...।'' ''वे अपने साथ नहीं ले जाएंगे। कल सुबह राजभवन आकर ले जाना।'' ''पर राजभवन में......''। ''अरे गेट पर कह देना चतुर्वेदी जी के यहां जाना है। वह आने देगा।''
शशोपंज की हालत, खुशी भी और गम भी कि खुशी का प्रमाण तो है ही नहीं। दोस्‍तों के पास वापस आया। सुनकर वे बोले, ''कल तक हम नहीं रुकेंगे।'' एक दोस्‍त को पटाया, वह मुश्किल से माना। भोपालवासी एक और दोस्‍त घर रात रुके। अगले दिन राजभवन में एडीसी श्री चतुर्वेदी जी ने अपने चपरासी के साथ वहां भिजवाया जहां सारी हस्‍ताक्षर पुस्तिकाएं रखी थीं। सबसे पहली अपनी वाली ढूंढकर जेबस्‍थ की और फिर मन में विचार आया कि ये इतनी सुन्‍दर सुन्‍दर जो पुस्तिकाएं है उनमें महामहिम के अलावा भी बहुत लोगों के हस्‍ताक्षर हैं। अगर इनमें से कोई एक ''मार ली जाए''  तो........। पर तुरन्‍त मन ने फटकार लगाई और हमने अपनी ही पुस्तिका लेकर अपनी साईकिल सीहोर की ओर दौडाई। वह आटोग्राफ बुक आजकल मेरे बच्‍चों के पास है। कैसी रही।

सादर,
कमलकांत बुधकर

http://yadaa-kadaa.blogspot.com

8 टिप्‍पणियां:

Shiv Kumar Mishra ने कहा…

बहुत खूब रही....और बहुत सारे संस्मरण पढ़ने का इन्तेजार रहेगा...

लेकिन मामाजी, इस घटना से एक बात साबित हो गई....'मामाजी भी कभी बच्चे थे'.....:-)

बालकिशन ने कहा…

अच्छी यादें बाँटने के लिए कृतज्ञ हूँ.
लेकिन मुझे लगता है " मामाजी मे अभी भी एक बच्चा" है.

बेनामी ने कहा…

सो तो है ।।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

खूब रही!!
इस संस्मरण से ये मालूम तो चला कि मामाश्री बचपन से ही खुराफाती रहे हैं तो अपन की क्या गलती, भांजे तो होंगे ही फ़िर ऐसे!!

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

यह संस्मरण तो बहुत जमा। इसलिये भी कि हस्ताक्षर सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के थे। बाद में तो एक दो ऐसे हुये जिन्हें हम अपने ऑटोग्राफ न दें!

बेनामी ने कहा…

वाह , बहुत खूब । मेरी जन्मस्थली से जुड़ा हुआ ये संस्मरण शानदार है। शरारती तो आप अभी भी हैं,इसमें कोई शक नहीं। सुना है बचपन में हमारे साथ भी कुछ रंगाई पुताई आप करते थे। अजीत

बेनामी ने कहा…

कमेंट्स भेजने वाले भांजों, शुक्रिया । बच्‍चा तो मैं अभी भी हूं यह सच है। उस बच्‍चे को तुम बच्‍चों के साथ खेलना अच्‍छा लगता है। खेलने दो । मेरे पास संस्‍मरणों का खजाना है। धीरे धीरे पोटली खोलूंगा और उसमें से रंगबिरंगी यादें निकालकर आप सबमें बॉंटूगा। जहां मजा आए बताते चलना।

अनूप शुक्ल ने कहा…

मजेदार है यह !