शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

अखाड़े हैं तो लड़ेंगे ही

इन दिनों कुम्‍भनगरी हरिद्वार में अखाड़ों के चर्चे आम हैं। अखाड़े यानी साधुसंतों के अखाड़े। अखाड़ा होता वही है जहां मल्‍लयुद्ध सिखाते हैं और करते हैं। दो मल्‍ल आमने सामने खड़े होकर हाथ मिलाते हैं और फिर अपने दांवपेंच आजमाकर दूसरे को पटकनी देने की जुगाड़ में जुट जाते हैं। यही कुछ आजकल हरिद्वार के संतई अखाड़ों में हो रहा है। यहां के अखाड़ची कई स्‍तरों पर पटकनी दे रहे हैं और झेल रहे हैं।

साधु संतों के कुल मिलाकर तेरह अखाड़े हैं। इनकी अखाड़ेबाजी का पहला स्‍तर कुम्‍भ स्‍नान को लेकर होता रहा है। फिर ये अपने अखाड़ों में परस्‍पर मल्‍लयुद्ध करते हैं, फिर दूसरे अखाड़ों से करते हैं और फिर सारे अखाड़े मिलकर शासन प्रशासन से लड़ते हैं। अबर ये लोग इन अलग अलग स्‍तरों पर न लड़ें तो इनकी संतई ख़तरे में पड़ने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। दनके बीच का बड़ा ‍मुद्दा यह होता है कि पहले कौन नहाए। ये एक अत्‍यंत अनिवार्य और स्‍वास्‍थ्‍य की दृष्टि महत्‍वपूर्ण मुद्दा है। भारतीय लोग जितनी जल्‍दी गंदे होते हैं इतनी ही जल्‍दी नहाने की जुगत में रहते हैं। चूंकि वे बार बार नहा लेते हैं इसलिये उन्‍हें बार बार बन्‍दा होने में कोई संकोच भी नहीं होता। दुनिया में कई जगह कम या कभी-कभार नहाते हैं। वे लोग या तो गंदे नहीं होते या फिर गंदगी को गंदा नहीं मानते। दोनों स्थितियों में उनके लिये नहाना ज़रूरी नहीं रह जाता। पर अपने महान देश में नहाने पर बहुत जोर है क्‍योंकि यहो गंदला होने की संभावनाएं भी हमेशा से उज्‍ज्‍वल रही हैं। इसीलिये पहले के ज़माने में भी पहले कौन नहाए यह विवाद का मुद्दा रहता आया है। जो पहले नहाएगा वह पहले पापमुक्‍त होगा। इस मान्‍यता ने आज हर नये मकान के हर कमरे को अटैच्‍ड बाथरूम बनवा दिया है। जल्‍दी नहाओ और अगली गंदगी ओढ़ने को तत्‍पर हो जाओ।

जब तय कर दिया गया कि गंगा में गोता लगते ही बन्‍दे पापमुक्‍त हो जाएंगे तो बहस हुई कि कि पहले कौन नहाए। पहले किसके पाप दूर हों। ख़ासकर कुम्‍भस्‍नान पहले कौन करे, तो आम लोगों ने मान लिया कि मुनिजन श्रेष्‍ठ होते हैं इसलिये वे ही पहले नहाएं। पर कौनसे मुनि पहले नहाएं यह कौन तय करे। इसे तय करने के लिये अखाड़े और अखाड़ची आगे आए। उनके हाथों में तीर कमान, बरछे-भाले, तलवार-कटारी और डण्‍डे ही नहीं बाद में तो बन्‍दूकें तक आ गईं यह तय करने के लिये कि पहले कौन नहाए। अन्‍तत: जिसके गटृों में दम था उसका नंबर पहले लग गया।

अब जब एकला चलो सिद्धांत के हामी एकांत-पथिक साधु अखाड़े में और अखाड़े जमात में तब्‍दील हो गए तो साधुओं की जमातों ने राजकृपा से झण्‍डे-निशान, हाथी-हौदे, रथ पालकियां और भरी तिजोरियों के साथ साथ धर्म की ठेकेदारी भी सहज ही प्राप्‍त कर ली। कुम्‍भ इन्‍हीं की वर्चस्विता का प्रदर्शन पर्व है। इसी वर्चस्‍व प्रदर्शन की गहमा-गहमी इन दिनों कुम्‍भनगर में चल रही है। कुम्‍भ वर्ष में अखाड़ा परिषद की बागडोर जिनके हाथों में है शासन में उनकी लम्‍बी 'पूछ' देखकर अन्‍यत्र बेचैनी है। यह बेचैनी अखाड़ों के बीच पैंतरेबाजी और दांवपेंचों की भूमिका तैयार कर चुकी है। आम जनता देख रही है कि उसे मोक्षपथ दिखाने वाले किस तरह कुर्सीपथ पर लड़-झगड़ रहे हैं। जनता मूक दर्शक है और यही बने रहना उसकी नियती है। 
मुनियों के साथ साथ यह देश कपट-मुनियों का भी देश रहा है। तो जहां मुनियों के कपट-मुनि होने की घटनाएं इतिहास का हिस्‍सा रही हैं वहां सामान्‍यजन तो अपने गुरुओं की प्रेरणा से गुरुघंटाल बनते ही रहे हैं। जब लोग देखते हैं कि साधु का भगवा चोला देखकर सामान्‍य जन कमर में दर्द होने तक झुके रहने के आदी हैं तो फिर भगवा भेस उन्‍हें प्रेरित और प्रभावित करता है। त्‍याग और तपस्‍या के आगे झुकना हमारी परम्‍परा है। और हमारी यही आस्‍था, हमारी यही परम्‍परा, हमारा यही विश्‍वास हमारे ठगे जाने की भूमिका तैयार क‍रता है। हमारे ही बीच के चंद लोग इसीलिये परम्‍परा की आड़ लेकर, भेस बदलकर खुद को हम जैसों से पुजवा लेते हैं। हम अपनी जमापूंजी का सारा धन ऐसों को देकर धन्‍य हो जाते हैं और वे अपनी कृपा की मुस्‍कान बिखेरते हुए हमारे धन्‍यवाद बटोरते रहते हैं। वे ऐसे चमत्‍कारी भेसधारी बन जाते हैं जिनके लिये पाप-पुण्‍य, लाभ-अलाभ, जय-पराजय, हानि-लाभ सब कुछ केवल औरों को पटकनी देने के औजार मात्र ही होते हैं। यानी इसलिये कि वे समाज में पुण्‍यपुरुष दीखें, पाप करने से भी नहीं हिचकते।

 

रविवार, 20 दिसंबर 2009

राजनीति में पत्‍थर

राजनीति में पत्‍थरों का बड़ा महत्‍व है। बड़े काम की चीज होते हैं ये पत्‍थर। इनके के बगैर राजनीति का काम नहीं चलता। न पक्ष की राजनीति का और ना ही विपक्ष की राजनीति का। फिर राजनीति अगर पहाड़ की हो तो कहना ही क्‍या। सारा उत्‍तराखण्‍ड प्रदेश कंकर से पत्‍थर, पत्‍थर से शिला, शिला से पहाड़ी और पहाड़ी से पहाड़ तक पथरीली राजनीति का प्रदेश है। इसलिये यहां जो लोग कुर्सियां पाना चाहते हैं उनके हाथों में पत्थर होना जरूरी है ताकि वे उनका प्रयोग कुर्सियों पर बैठे हुओं पर कर सकें। और जो लोग कुर्सियों पर बैठे हैं उनके हाथ भी कुलबुलाते रहते हैं अपने नाम लिखे पत्‍थरों से परदे हटाने के लिए।

इन दिनों अपनेराम की नगरी हरिद्वार में भी पत्‍थरों का मौसम है। वैसे सच तो यह है कि इस महाकुम्‍भ आने को है, सो पत्‍थरों की बहार है। पत्‍थर पड़ भी रहे हैं और पत्‍थर लग भी रहे हैं।  नये राज्‍य का पहला महाकुम्‍भ है। सरकार को समझाया गया है कि पांच करोड़ लोग आएंगे। सो, दरियादिल प्रदेश सरकार ने साढ़े पांच सौ करोड़ खर्च करने की ठान ली। ठान ली तो दिल्‍ली से गुहार लगाई। ''हमारे घर मेहमान आ रहे हैं, व्‍यवस्‍था के लिए पैसा दो।'' पिछले कई महीनों से दिल्‍ली और देहरादून के बीच इसी बात पर पत्‍थरबाजी चल रही थी। देहरादून बेचैन था कि दिल्‍ली ने अपनी तिजोरी नहीं खोली तो फिर महकुम्‍भ का क्‍या होगा। क्‍या होगा उन शिलापटों का जो थोक के भाव में बना लिये गए हैं। पर दिल्‍ली ने सारी समस्‍या हल कर दी। कह दिया कि, ''चिन्‍ता नास्ति, हम देंगे चार सौ करोड़। तुम अपने नाम से शिलापट लगाते चलो।'' देहरादून अब खुश है कि दिल्‍ली ने उसका अमृत-कुम्‍भ भर दिया है, अब सारा प्रदेश हर आशंका से दूर है। सारा प्रदेश निशंक है। कुम्‍भ को लेकर लघु और दीर्घ सब तरह की शंकाओं पर काबू पा लिया गया है। विपक्षियों की पत्‍थरबाज़ी का जवाब शिलान्‍यास और उद्घाटन की शिलाओं से दिया जा रहा है। माहौल बूमरैंग का है। यानी जिसका पत्‍थर है उसीका सिर घायल हो रहा है।

हरिद्वार आने वाले प्राय: पूछते हैं कि यहां की क्‍या चीज़ मशहूर है। उन्‍हें उत्‍तर मिलता है कि, ''भाया, यहां तो गंगा जी का जल और गगा जी के पत्‍थर ही मशहूर हैं।'' जिसकी जिसमें श्रद्धा है उसे वही मिल जाता है। जब यह चर्चा चलती है कि स्‍नानपर्वों पर  यहां इतने सारे लोग कैसे आ जाते हैं, तो लोकचर्चा होती है कि गंगाजी के पत्‍थर ही रातों-रात आदमी औरत बन जाते हैं। पर्व निबटते ही वे फिर कंकड़-पत्‍थरों में तब्‍दील हो जाते हैं। कुल-मिलाकर गंगातट पर इन दिनों शिलाओं की मौज है। मंत्रियों के सुकोमल करकमलों से वे अनावृत हो रही हैं। मंत्री शील का अनावरण करे या शिला का यह देश तो ताली ही बजाता है। तालियां बज रही हैं और शिलाएं अनाव़त हो रही हैं।

शिलान्‍यासों और शिलोद्घाटनों के इस दौर में शिलाओं से ज्‍यादा मंत्रियों का ध्‍यान रखा जा रहा है। ‍खुद को अनावृत करवाने के लिये वे झुण्‍ड में मंत्रिवरों के पास लाई जा रही हैं। मंत्रिवर आते हैं, सजी हुई शिलाएं अवगुंठन में  पंक्तिबद्ध खड़ी कर दी जाती हैं। वे आकर उनका घूंघट हटाकर उन्‍हेूं अनावृत करते हैं। तालियां बजती हैं। ये तालियां होती हैं जवाब उस पत्‍थरबाजी का जो विपक्ष की ओर से की गई होती हैं।

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

भाषात्‍कार का ज़माना

भाषात्‍कार का ज़माना

लोग जो बोलते हैं, जो लिखते हैं और फिर जो हमें छपा हुआ दीखता है उसे देखकर लगता हैं कि हम उस युग में आ चुके हैं जिसे 'भाषात्‍कार का युग' मज़े में कहा जा सकता है। दरअसल मनुष्‍य अपने जीवन में जितनी तरह के बलात्‍कार करता है, उनमें से एक बलात्‍कार भाषा के साथ भी होता है, जिसे अपनेराम ने  'भाषात्‍कार'  की संज्ञा दे डाली है। जिस तरह बलात्‍कार के लिए कमसे  कम दो की ज़रूरत होती है उसी तरह भाषात्‍कार में भी कमसे कम दो भाषाओं की ज़रू‍रत होती है। अगर दो भाषाओं का परस्‍पर मिलन सस्‍नेह, प्‍यार मौहब्‍बत के साथ होता है तो वह मधुर वैवाहिक संबंधों की तरह पवित्र होता है। पर अगर इन्‍हें जबरदस्‍ती मिलाने की कोशिश हो तो फिर यह भाषात्‍कार ही कहा जाएगा। इस युग में मिलावट का जोर है। ख़ासकर हमारा प्‍यारा भारतवर्ष तो आजकल मिलावट-प्रधान देश ही हो गया है। परस्‍पर प्रेमपूर्वक मिलने-मिलाने में विश्‍वास रखने वाले इस देश में मिलन की जगह मिलावट ने ले ली है। इसी मिलावट की प्रवृत्ति ने भाषाओं को भी अपने शिकंजे में कस लिया है। अपनेराम इसी से दुखी हैं। भाषाएं मिलें पर अपना अपना रंग बिखेरती चलें तो आनन्‍द हैा पर हो यह रहा है कि जब दो अलग अलग भाषाओं के शब्‍दों को मिलाकर नया तीसरा शब्‍द बनाया जाता है तो वह बलात्‍कार से उपजी नाजायज़ संतान की तरह प्रकट होता है। अपनेराम मूलत: अध्‍यापक हैं सो बच्‍चों को भाषा पढ़ाते हैं। पर उस परिवेश का क्‍या करें जिसमें नई पौध बिना भाषा पढ़े ज्ञान की सीढि़यां चढ्ना चाहती है। अपनेराम ने कक्षा में बच्‍चों को पत्र लिखना सिखाया और फिर कहा कि अपने दोस्‍त को लिखो कि, ''अगली छुट्टियों में घूमने के लिये शिमला जाने के लिए अपने माता पिता से अनुमति ले लो। शिमला चलेंगे।'' एक बहुभाषाभाषी परिवार का बच्‍चा कुछ यूं लिख लाया... ''प्रिय यार, हाय। अरे सुन, गर्मियों की छट्टियों में मैं शिमला जा रहा हूं। तू भी चल। मैंने तो इसके लिए अपने मम्‍मी डैडी की इज्‍़ज़त ले ली है। तू भी अपने मां बापू की इज्‍़ज़त लेकर जल्‍दी आ जा, साथ साथ चलेंगे।'' लिखना इजाज़त था, बच्‍चा मां बाप की इज्‍़ज़त का दुश्‍मन बन गया और अपनेराम सिर पीट कर रह गए।

एक प्रखर वक्‍ता विश्‍वविद्यालय में भाषण झाड़ने आए। ऊधमी छात्रों का हुड़दंगी मिजाज़ देखकर कुछ यूं शुरू हुए....''बच्‍‍चों, प्‍लीज़ कीप चुप। आप जब थोड़ा सीरियसता का वातावरण बनाएंगे तभी मैं अपनी बात गम्‍भीरली कह पाऊंगा।''  छात्रों ने जब यह भाषा सुनी तो वह वातावरण बनाया कि  प्रवक्‍ता प्रखर की जगह खर ही सिद्ध हो गए। कुछ उत्‍साहियों ने इस भाषा को गंगाजमुनी कहा तो अपनेराम ने उनके सामने अखबार का एक समाचार रखा। शीर्षक था, ''आलाधिकारियों को मुख्‍यमंत्री की फटकार।'' बड़ी देर तक अपनेराम सोचते रहे कि ये कौनसे अधिकारी हैं। जि़लाधिकारी सुने थे, मेलाधिकारी सुने थे, वित्‍ताधिकारी सुने थे पर ये आलाधिकारी कौन हुए। फोन करके अखबार के संपादक से पूछा तो पता चला कि संस्‍कृत हिन्‍दी के संधि नियमों से उर्दू केआला यानी उच्‍च और हिन्‍दी के अधिकारी को जोड़ दिया गया है। लिखना था उच्‍चाधिकारी, लिख दिया आलाधिकारी। एक बार और भाषात्‍कार हो गया।  ऐसा भाषात्‍कार करने के बाद भी लोग चाहते हैं कि उन पर गुरुजनों का आशीर्वाद नहीं बल्कि ''आर्शीवाद'' बना रहे।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

ठाकरे की ठकुराई

एक छोटे ठाकरे ने एक बड़े ठाकरे की ठकुराई पर अपनी जीत का ग्रहण लगा दिया है। बड़े ठाकरे के अपने लोग, जो उनकी ठकुरसुहाती कहते-करते अघाते नहीं थे, अब न केवल हार का ठीकरा उनके सिर पर फोड़ रहे हैं बल्कि उनके नेतृत्‍व को ठोकर मारने पर भी उतारू दीख रहे हैं। अपनेराम को आनन्‍द आ रहा है कि ठाकरे, ठोकर, ठीकरा, ठाकुर, ठकुराई, और ठकुरसुहाती सारे शब्‍द इन दिनों पंक्तिबद्ध हें। सब एक दूसरे का आसरा सहारा ढूंढ रहे हैं  क्‍योंकि मुम्‍बई के कलानगर बान्‍द्रा में सभी की पोल खुल रही है।

ठाकरे नामक जहाज को डूबता देखकर उसके सवार कूद कूद कर भागने को बेताब हैं। अपने को महाराष्‍ट्र का सिंह कहलवाने वाले की पूंछ इन दिनों तनने से इनकार कर रही है। बेचारी दबी पड़ी है दो टांगों के बीच में।

अब इसे दुर्भाग्‍य की पराकाष्‍ठा न कहें तो क्‍या कहें कि ठाकरे कुल की कुलवधू ही बुरी तरह नाराज़ है अपने बुज़ुर्ग कुलपति से। उसमें जानें कहां से हिम्‍मत आ गई कि वह ''सामना''' वाले का सामना करने के लिये डटकर खड़ी हो गई है। इतनी नाराज़ कि उसने ''शिवसेना कॉलेज''  से अपना नाम कटवाकर ''कांग्रेसी कॉलेज''  में अपना नाम लिखवाने का फैसला कर लिया है। वो तो ''कांग्रेसी कॉलेज'' की प्रिंसिपल सोनिया मैम ने ही ठाकरे-कुलवधू के चरित्र प्रमाणपत्र का गहनता से अध्‍ययन करने के लिए कुलवधू का कांग्रेस-प्रवेश फिलवक्‍त टाल दिया है वरना ''मातुश्री'' के  ''पिताश्री''  तो अब तक कोमा में चले गए होते और इस बारे में चैनल्‍स पर जाने के समाचार भी आ चुके होते। अस्‍तु।

इधर कुलवधू कोपभवन में क्‍या गईं कुल में अफ़रा-तफ़री का माहौल पैदा हो गया है। अपनेराम का मानना है कि इस अफ़रा-तफ़री में भी तफ़री तो विपक्षी ले रहे हैं। शिवसेनावाले तो बेचारे अफ़ारे से ही बेचैन हैं। म.न.से. वाले सर्वाधिक आनन्‍द बड़े मन से ले रहे हैं। उन‍का मन इन दिनों उन्‍मन उन्‍मन है। सारा चमन उनके मन में बस रहा है, खिल रहा है। अपने काका से नाराज़ राजबाबू अब प्रसन्‍न हैं क्‍योंकि उनके काका साहब कुलवधू की करतूत से सन्‍न और खिन्‍न हैं।

मुम्‍बई के मंत्रालय और दिल्‍ली के राजनीतिक गलियारों में भी हवाएं तेज़ बह रही हैं। हवाओं का रुख भांपने वाले नवीन शैली में इंदिरायुग की  पुनरावृत्ति की आस लगाए हैं। उनको लगता है कि तब तो नाराज़ सास ने बहूरानी को दरवाज़ा दिखाया था पर अब ससुर से नाराज़ बहू ख़ुद ही दरवाज़े पर खड़ी है। किसी को आश्‍चर्य भी नहीं होना चाहिए अगर इस बार कुलवधू ही कुलपति को मातुश्री से बेदख़ल करने की कोशिशों पर उतर आए। यह लोकतंत्र है, सब कुछ संभव है। हर तरह की तानाशाही का विरोध इस तंत्र में संभव है। होता आया है, हो रहा है और आगे भी होता रहेगा। कोई तानाशाह, कोई ठाकुर ठाकरे कभी भी ठोकर खाकर गिर सकता है या ठोकर मारकर गिराया जा सकता है। ठीक है न भाई।

बुधवार, 25 नवंबर 2009

बुज़ुर्गों के घर में बचपना

दिल्‍ली में अपनी राजसभा भरेली थी। राजसभा को अंग्रेजी में बोले तो एल्‍डर्स हाउस यानी बुज़ुर्गों का घर। तो बुज़ुर्गों का घर खचाखच भरेला था। सफेद बाल और सफेद दाढ़ी-मूंछ वाला शैतान बच्‍चा लोग भी उधर धमाचौकड़ी मचाने कू जमा था। बड़ा ही सेकुलर किसिम का माहौल था। अध्‍यक्ष की ऊंची कुर्सी पर डिप्‍टी स्‍पीकर जनाब के.ए. रहमान और स्‍पीकर जनाब हामिद अंसारी,  बारी बारी बैठ रयेला था। अयोध्‍या रिपोर्ट के रूप में सत्रह बरस बाद जनाब जस्टिस लिब्राहान को चिदम्‍बरम ने जैसे ही सदन के पटल पर अवतरित किया वैसे ही शोर मच गया। अयोध्‍या  के राजा राम ध्‍वनिमत से आगे कू बढ़ते दीखे तो यह बात अपने समाजवाद को अख़र गई और झट से उठकर सारा समाजवाद भाजपा की ओर लपक लिया। रणबांकुरे कुर्सीछोड़ रण को भागे और एकदूसरे के सामने डट गए। 

अपने सुरेन्‍दर, बोले तो देवताओं के इन्‍दर यानी राजा। और अपने अमर, बोले तो जो कभी मरेगाच नर्इ, माने खुदीच देवता। क्‍या नज़ारा है। एक तरफ अमर खड़ेला है और दूसरी तरफ सुरेन्‍दर खड़ेला है। एक के पीछू समाजवादी अड़ेला है और दूसरे के पीछू भाजपाई अड़ेला है। सारा राज्‍यसभा खचाखच भरेला है और ये दोनों आपस में ढिशुंग ढिशुंग के मूड में आयेला है।

तभी इन दोनों को अपना कॉलेज का जमाना याद आयेला है। वो जवानी का दिन था, मस्‍ती की रातें थीं। एक यूपी से  गया तो दूसरा बिहार से गया था कोलकाता। दोनों एक साथ कोलकाता यूनिवर्सिटी में पढ़ने कू गया था। पढ़ा या नई, ये तो वोईच जाने पर दोनों का मेहबूबा एकीच था- अपना कांगरेस।  पर वो बंगाल था। दोनों दोस्‍त कुछ दिन एकीच मेहबूबा से पींग बढ़ाया पर बाद कू दोनों का मन भर गया तो बीच रास्‍ते में उसको छोड़ दिया। इधर का कांग्रेस बाबू मोशाय ले उड़े। अपने सरदार साहब और ठाकुर साहब दोनों का कांग्रेसी इश्‍क़ परवान ना चढ़ा तो दोनों के रास्‍ते अलग अलग हो गए। एक को भाजपा रास आई तो दूसरा समाजवादी हो गया। बहुत दिनों से दोनों के बीच में कोई सीधा संवाद नहीं हुआ था। अमर मन करता था कि जोर से पुकारें, 'सुरेन्‍दर ओय, की करदा फिरदा ए। चल कन्‍टीन चलिये।' सरदार मन भी कहने को उतावला था कीने को कि, 'अमर यार, चल  इक वारी कोलकाता हो आइये। तेरे नाल  यूनिवर्सिटी घुम्‍मन दा बड़ा मन करदा ए।'कॉलेज के दिन किसको याद नहीं आते। पर बुरा हो इस राजनीति का दो दोस्‍तों को दूर कर दिया। हाय। पर दोस्‍ती सलामत रहे दोनों की। एक ने 'जय बजरंग बली' कहा तो दूसरे ने 'या अली' कहा। दोनों गुस्‍से में भिड़े और प्‍यार से लिपट गए। दोनों की राजनीति भी सच्‍ची हो गई। दोनों के वोट भी पक्‍के हो गए और रोटियां भी पक्‍की हो गईं। देश तमाशबीन था और वे दोनों तमाशगीर। तमाशगीर मज़ा ले गए और तमाशबीन ठगे से देखते रह गए। 

बुधवार, 18 नवंबर 2009

पहले राष्ट्रीय फिर महाराष्‍ट्रीय

वाह बेटा सचिन, क्‍या बल्‍ला घुमाया है। ठाकरे की बॉल पर तुमने वो अट्ठा मारा है कि अपनेराम का दिल बल्लियों उछल रहा है। अपने निजी स्‍वार्थ के लिये रोज़ सुबह उठकर हवा में ठा ठा करने वाले इन ठाकरों को अब क्‍या कहें जिन्‍हें सामान्‍य बोलचाल की भाषा के अर्थ भी समझ नहीं आते। वे अपने को महाराष्‍ट्रीय कहते हैं। पर महाराष्ट्रीय में छिपे राष्‍ट्रीय का अपमान करते नहीं अघाते। वे खुद को महाराष्‍ट्रीय कहें तो कहें पर सच पूछिये वे तो हैं नहीं। होते तो पूरे राष्‍ट्र की बात करते, केवल महाराष्‍ट्र की नहीं। तब फिर आज की तरह देश उन्‍हें दुत्‍कारता  नहीं दुलारता।

असली महाराष्‍ट्रीय थे गोखले, तिलक, सावरकर, राजगुरू और अम्‍बेडकर जो देश के लिये जीये और देश के लिये ही मरे। असली महाराष्‍ट्रीय थे धोंडो केशव कर्वे, पाण्‍डुरंग वामन काणे, पंडित भीमसेन जोशी, प्रह्लाद केशव अत्रे और शंतनुराव किर्लोस्‍कर क्‍योंकि वे सभी पहले राष्‍ट्रीय फिर महाराष्‍ट्रीय थे। उनकी कला, सुमेधा, ज्ञान और उद्यमिता ने केवल महाराष्‍ट्र का नहीं सारे देश का नाम ऊंचा किया। महाराष्‍ट्रीय हैं भारतरत्‍न लता मंगेशकर और अद्वितीय सचिन तेंदुलकर जिन्‍हें सारा राष्‍ट्र सिर-आंखों पर बिठाता है । नाम और भी हैं जिनकी सूचियां बहुत लम्‍बी हो जाएंगी। पर ठाकरों  की सूची बहुत छोटी है। हमेशा छोटी ही रहेगी। 

सच कहें तो अपनेराम के भीतर भी एक  महाराष्‍ट्रीयन हैं। पर वह सचिन की जमात का महाराष्‍ट्रीय हैं, ठाकरे की जमात का नहीं। अपनेराम के एक भांजेमियां अजित वड़नेरकर ने खोजबीन करके बताया कि इतिहासकार विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े ने अपने शोध से सौ बरस पहले ही यह स्थापना दे दी थी कि महाराष्ट्वासी मूलतः मघराष्ट्रीय अर्थात् मगध से आप्रवासित होकर दक्षिणापथ में जा बसे थे। यानी महाराष्ट्रीय मूलतः बिहारी ही हुए। अब आज का व्यंग्य यह है कि एक पुराना बिहारी दूसरे नए बिहारी को भगा रहा है। राजवाड़े जी की उस शोध का हवाला यहां देखा जा सकता है। लिंक देखे-ठाकरे, तुम्हारे पुरखे कहां से आए थे

अब अपनी समझ में तो इस महाराष्‍ट्रीय शब्‍द का अर्थ न जाने कबसे आया हुआ है। यह शब्‍द ही अपने आपमें सारी कहानी बयां कर रहा है। उस कहरनी का लुब्‍बेलुआब यह है कि जो राष्‍ट्रीय नहीं है वह महाराष्‍ट्रीय कैसे हो सकता है । जो कवि ही नहीं है उसके महाकवि बनने के चांसेस कहां हैं। जो वीर ही नहीं उसे भला कौन महावीर कहेगा। यहां तक कि किसी को महामूर्ख कहने से पहले यह देख लेना जरूरी है कि वह मूर्ख भी है कि नहीं। बिना सोचे समझे किसी को महामूर्ख कहना भी ठीक नहीं।

हमारी मुम्‍बई में एक हैं बाळ और एक हैं राज। बाळ मराठी में बच्‍चे को कहते हैं। जैसे हिन्‍दी में मुन्‍ना। तो ये जो बाळ हैं वैसे तो बालबच्‍चों और भतीजों वाले हैं पर हैं अब भी बाळ ही। ये जिस पालने में हैं वही इनका विश्‍व है। ये पड़े हुए अंगूठा चूस रहे हैं। अंगूठा कभी हाथ का होता है तो कभी पांव का। चूसते चूसते कभी हंसकर किलकारी भरते हें तो कभी फुक्‍काफाड़ रो पड़ते हैं। इनकी इन बाल‍ लीलाओं से उकताकर इनके भतीजे राजलीला पर उतर आए। अब दोनों चचा-भतीजे कंपीटीशन में हैं। लीला दोनों तरफ कॉमन है। और कॉमन हैं इन बचकानी लीलाओं को सराहने वाले। मैं और मेरा की यह लीलाएं सुप्रसिद्ध मराठीमंच को कलंकित कर रही हैं पर लीलाकारों को तो केवल टिकट बिकवाने की पड़ी है। कभी 'विषवमन' का मंचन होता है तो कभी 'सिर्फ मैं' का। भाई लोगों का इन दिनों जो नाटक चल रहा है उसका एक ही ध्‍येयवाक्‍य है, ''खेल खेलो मराठी की आड़ में, चाहे सारा देश जाए भाड़ में।'' ऐसे में अपनेराम की हार्दिक इच्‍छा है कि सारा देश, ख़ासकर राष्‍ट्रवादी सचिन तेन्‍दुलकर जैसे मराठीभाषी,  मिलकर ठाकरे जैसी मनोवृत्तियों को भाड़ का रास्‍ता दिखाएं। मराठीभाषी समाज पहले राष्‍ट्रवादी बने फिर महाराष्‍ट्रवादी। हम पहले राष्‍ट्रीय बनें फिर महाराष्‍ट्रीय, पहले जय राष्‍ट्र, फिर जय महाराष्‍ट्र ।।

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

दम्‍भ का महाकुम्‍भ

यूं तो बारहों महीने वसंत है संतई में। पर इन दिनों गंगनगरी हरिद्वार में संतो का विराट् वसंतोत्‍सव आने को है। महाकुम्‍भ के रूप में संत बनने-बनाने का द्वादशवर्षीय दुर्लभ अवसर आने को है। रोज़गार के अवसर जुटनेवाले हैं। समाज को ऋणी होना चाहिए कि बेरोज़गारों को काम मिलने वाला है। उन्‍हें राज़ी-रोटी ही नहीं मुफ्त में पैसा और प्रणाम मिलने के दिन  आने वाले हैं। उम्र की कोई सीमा नहीं है। बच्‍चे हैं तो बालयोगी या बालब्रह्मचारी और बड़े हैं तो 108 से 1008 तक श्रीयुक्‍त हो सकते हैं। जो अशक्‍त हैं, जो परित्‍यक्‍त है, जो घर-परिवार से विरक्‍त है, उन सबके लिये सशक्‍त ढंग से अभिव्‍यक्‍त और आश्‍वस्‍त होने का अवसर आ गया है। जाना कुछ है नहीं, बस आना ही आना है। कहावत पूरी होने को है, ''हींग लगे ना फिटकरी, रंग भी चोखा होय।''

करना कुछ नहीं; बस एक बार कपड़े उतार कर नग्‍न होना है फिर उसके बाद तो इतनी चादरें चढ़ेंगी कि एक नहीं कई कई 'चादर-भण्‍डार' खोल लो या अपने पूर्व परिजनों को खुलवा दो। किस्‍मत ने साथ दे दिया और गट्टों में दम रहा तो नेता-अफ़सर चीज़ ही क्‍या है, मंत्री और मुख्‍यमंत्री तक अपनी कुर्सी आपसे  छिनवाकर गौरवान्वित होंगे। खुद को बड़ा उपकृत अनुभव करेंगे।

यूं भी संतई में बड़े मज़े हैं। पन्‍द्रह-बीस प्रतिशत विद्वान् संतों को छोड़कर शेष को अपनी संतर्इ चलाने के लिये  आजकल कुछ ख़ास करना भी नहीं पड़ता। पहले भी आसान था बाबा बनना और आजकल तो और भी ज्‍्यादा आसान है। तुलसीदास लिख गए हैं कि ''नारि मुई, गृह, संपति नासी, मूड़ मुड़ाए भए संन्‍यासी।'' पर अब तो ऐसा ना भी हो तो भी बाबा बनना आसान है और फ़ायदेमन्‍द भी है। जैसे नेता, अभिनेता या पत्रकार बनने में किसी योग्‍यता, शिक्षा दीक्षा या अनुभव की ज़रूरत नहीं होती वैसे ही बाबा बनने के लिए भी केवल इच्‍छाभर होनी चाहिए। कपड़े का रंग पसंद करो और बाबागीरी शुरू। भगवा पहनो या सफेद, लाल पहनो या काला। जटाजूट रखो या रुण्‍ड-मुण्ड बन जाओ। वस्‍त्र पहनों या निर्वस्‍त्र रहो। रामनाम जपो या किसी की मां-बहन एक करो। आपके लिये सब जायज़ है। आजकल बड़े बड़े लठपति ही मठपति बनते हैं। फिर सारा समाज आपको सप्रणाम विस्‍तृत अनंत अधिकार प्रदान कर देता है।

अभी अभी हरिद्वार में ऐसा हो भी गया है। हरिद्वार महोत्‍सव के  उद्घाटन मंच पर संत महंतों का जमावड़ा था। आसन्‍न कुम्‍भ के चलते आजकल इन सबकी सर्वत्र घुसपैठ और जबरदस्‍त सम्‍मान का दौर है इसलिये हरिद्वार महोत्‍सव कैसे अछूता रहता। सो बाबालोग मंचासीन ही नहीं हुए बल्कि प्रदेश के मुखिया की कुर्सी तक हथिया बैठे। मुख्‍यमंत्री को जनता में बैठकर देखना पड़ा कि 'बाबानाम केवलम्' का जलवा क्‍या होता है। संस्‍कृति के उस मंच से मुख्‍यमंत्री की उपस्थिति में जिस असांस्‍कृतिक, अश्‍लील, अभद्र, मातृ-भगिनी-मूलक गालियों का जो प्रसारण संतों के श्रीमुख से हुआ, वह जिसने भी देखा-सुना वह आज तक अचंभे में है। लोगों को विश्‍वास हो गया है कि हरिद्वार में सचमुच कुम्‍भ आने को है। संतों के निर्बाध दम्‍भ के पीछे ही तो आजकल कुम्‍भ आता है।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

आज वाणी अवाक् है

कई बरस बीत गए, शायद अस्‍सी के दशक की बात है। हरिद्वार कला साहित्‍य प्रसारिका संस्‍था ''वाणी'' ने तब व्‍याकरणाचार्य पं.किशोरीदास वाजपेयी की स्‍मृति में व्‍याख्‍यानमाला का आयोजन किया था। नवभारत टाइम्‍स के तत्‍कालीन प्रधान संपादक पत्रकार-प्रवर राजेन्‍द्र माथुर मुख्‍य वक्‍ता थे और जनसत्‍ता के संपादक प्रखर पत्रकार प्रभाष जोशी उस कार्यक्रम में अध्‍यक्ष की हैसियत से शामिल हुए थे। दोनों परस्‍पर प्रगाढ़ मैत्री की डोर में बंधे थे और दोनों ने ही अपनी पत्रकारिता इंदौर में एक ही बिन्‍दु से शुरू करके दिल्‍ली की मंजिल गांठी थी।

उस कार्यक्रम में तब प्रभाष जी ने अपने अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य की शुरुआत में कहा था कि, ''जिन रज्‍जू भैया की अध्‍यक्षता में मैंने पत्रकारिता की शुरुआत की थी आज उन्‍हीं के भाषण में मुझे अध्‍यक्ष बनाकर बिठा दिया गया है। यह स्थिति मुझे संकोच में भी डाल रही है और गुदगुदा भी रही है।''

प्रभाष जी का ऐसा कहना जहां उनकी सूफियाना वाणी और लेखनी का परिचायक था वहीं रज्‍जूभैया से उनके पारस्‍परिक आदरपूर्ण  मैत्री संबंधों की ऊष्‍मा को भी उजागर कर रहा था। मेरे लिए तो वे क्षण जीवनभर की पूंजी बन गए थे जब हिन्‍दी पत्रकारिता के इन दोनों दिग्‍गजों ने एक साथ मेरे घर की रसोई को पवित्र किया था। आज रज्‍जूभैया भी नहीं हैं और पं.प्रभाष जोशी भी हिन्‍दी पत्रकारिता को बिलखता छोड़कर चल निकले हैं अपने मित्र से मिलने। देश की स्‍वतंत्रता के बाद की हिन्‍दी पत्रकारिता अपना एक और पुरोधा खो चुकी है। पत्रकारिता सदमें में है, उसकी वाणी आज अवाक् है।

प्रभाष जी हिन्‍दी पत्रकारिता के एक पूरे युग की अलग पहचान थे। वे सही मायनों में चिंतक और विचारक पत्रकार थे जिनके संपादन में जनसत्‍ता ने हिन्‍दी को सर्वथा एक नई भाषा शैली और प्रस्‍तुतिकरण की अपूर्व धज प्रदान की। विभिन्‍न विषयों पर अपनी खांटी सोच रखनेवाले प्रभाष जी यूं तो परिवेश के सारे विषयों के प्रति जागरूक थे पर क्रिकेट उनकी जान थी। यह कहना भी शायद अतिशयोक्तिपूर्ण न माना जाए कि उनकी असामयिक मृत्‍यु का, उनके हृदयाघात का कारण भी यही क्रिकेट बनी।

जिस तरह की सूचनाएं मिलीं हैं यह क्रिकेट का दीवाना लिक्‍खाड़ पत्रकार कल रात सचिन तेंदुलकर की 17000 रनों की उपलब्धि पर विभोर था। प्रसन्‍नता और गर्व उनके वाणी और व्‍यवहार से छलक रहा था। पर अचानक देर रात को जब उन्‍हें समाचार मिला कि कंगारुओं ने भारत को सिर्फ तीन रनों से मात दे दी तो प्रभाष जी अवाक् रह गए। उन्‍हें भारत की इस हार से गहरा आघात लगा और समाचार मिलने के पन्‍द्रह मिनिट में ही उन्‍हें दिल का दौरा पड़ गया। उन्‍हें जब तक डॉटर की देखरेख में ले जाया गया तब तक तो वे लम्‍बी, बहुत लम्‍बी यात्रा पर निकल चुके थे।

प्रभाष जी का जाना हिन्‍दी पत्रकारिता के साथ साथ उनके उन हज़ारों मित्रों-परिचितों की व्‍यक्तिगत क्षति है जिन्‍होंने उनकी कार्यशैली देखी है और उनके विचार-सरोवर में अवगाहन कर उसमें समय समय पर खिले अनगिन कमलों का नैकट्य हासिल किया है। प्रभाष जी बेहद खुले व्‍यवहार वाले पारिवारिक किस्‍म के रचनाकार थे। वे कभी वायवीय चिंतक नहीं बने। उनकी भाषा में घरेलूपन था और विचारों में आत्‍मीयता थी। उनकी भाषा और विचार दोनों ही पाठक को अपने अपने से और बहुत करीब के लगते थे। राजकमल प्रकाशन ने ''लिखि कागद कारे किए'' श्रृंखला के 2000 से अधिक पृष्‍ठों वाले जो पांच खण्‍ड प्रकाशित किए हैं उनमें करीब चार सौ निबंघनुमा टिप्‍पणियों में पत्रकार प्रभाष जोशी की दृष्टि और सृष्टि का मणिकांचन संयोग उपस्थित हुबा है। प्रभाष जी की सोच को समझने के लिए इन चार सौ रचनाओं के बीच से गुज़रना काफी होगा।

हरिद्वार और गंगा से प्रभाष जी को बड़ा लगाव था। ''धन्‍न नरबदा मैया हो'' कहने  लिखने वाला यह कलमशिल्‍पी अक्‍सर हरिद्वार के गंगातट पर दिखाई पड़ जाता था। यह और बात है कि इस तरह की गंगायात्राओं के पीछे हमारी उषा भाभी की मंशा और प्रेरणा अधिक हुआ करती थी। पर यूं भी पंडित प्रभाष जोशी हरिद्वार आने या हरिद्वारियों से मेल-मुलाकात का कोई मौका छोड़ते नहीं थे। गुरुकुल कांगड़ी विश्‍वविद्यालय में हिन्‍दी पत्रकारिता पाठ्यक्रम की नींव 1991 में  उनके ही आशीर्वाद वक्‍तव्‍य से पड़ी थी। अनेक ऐसे  अवसर स्‍म़तिपटल पर हैं जब वे आए और अपनी वाचा से हमें धन्‍य करके लौट गए। उनकी यात्रा स्‍मृतियां हमें स्‍फूर्ति देती रहीं। पर अब हाथ-पांव फूल रहे हैं। पता नहीं उनके परिजन उन्‍हें किस तरह हरिद्वार लाएंगे। जिस तरह लाएंगे उसकी कल्‍पना तक सिहरा रही है। पंडित प्रभाष जोशी यायावर थे, घुमक्‍कड थे, मनमौजी थे । उनका अचानक हरिद्वार आना चौंकाता नहीं था। पर अब यह सोच सोच कर मन व्‍याकुल है वे कि क्‍या सचमुच रज्‍जूभैया की ही तरह उनके अस्थि-अवशेषों के गंगाविसर्जन का साक्षी हमें बनना होगा। हिन्‍दी पत्रकारिता में जमीनी जुड़ाव, सांस्‍कृतिक चेतना और बेलाग प्रखरता की चर्चा अब किस नाम से शुरू हुआ करेगी।

 

शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

कुम्‍भ के शुम्‍भ-निशुम्‍भ

उत्‍तराखंड को लोग उसकी प्राकृतिक सुन्‍दरता के चलते धरती का स्‍वर्ग कहते हैं लेकिन इसी नाते से उत्‍तराखंड के निवासियों को स्‍वर्गवासी कहने का कोई रिवाज़ नहीं है। हां, इस प्रदेश का प्रमुख नगर हरिद्वार अलबत्‍ता कई तरह के ''द्वार'' के रूप में मशहूर है। देवभूमि की सीमा पर होने के कारण यह स्‍वर्गद्वार ज़रूर कहलाता है। यह महादेव यानी हर का द्वार है और विष्‍णु यानी हरि का भी द्वार है। अपनेराम का खटोला इसी दरवाजे पर पड़ा है। इसी दरवाज़े पर द्वाराचार के लिए द्वारपाल बने बैठे हैं अपनेराम। आजकल इसी द्वार पर बड़ी चहल पहल है। महाकुम्‍भ जो आने को है।

कुम्‍भ यानी घड़ा। हण्‍डा कह लो, कलश कह लो, कलसा कह लो । पर हर बारह बरस में यह घड़ा हरिद्वार आता है। बहुत बड़ा घड़ा बनकर आता है जिसे महाकुम्‍भ कहते हैं और इस महाकुम्‍भ के साथ ही यहां आते हैं देश-विदेश से लाखों-लाख श्रद्धालु तीर्थयात्री जिन्‍हें तलाश रहती है घड़े से गिरे अमृतकणों की। इसी तलाश में हरिद्वार पहुंचते हें ये सभी तीर्थयात्री।

2010 की शुरुआत यानी जनवरी से अप्रैल तक अपनेराम की छोटी सी कुम्‍भनगरी हरिद्वार में इन्‍हीं अमृत चाहने वालों की चहल-पहल ही नहीं रेल-पेल और उससे भी आगे की कहें तो धका-पेल भी बढ़ जाएगी। हर एक की कोशिश रहेगी कि अमृत की बूंद बस, उसीके हलक में उतरे।

लेकिन अमृत का घड़ा तो सही मायनों में हरिद्वार पहुंच चुका है। देवताओं का तो पता नहीं पर कुम्‍भ के शुम्‍भ निशुम्‍भ ज़रूर इस घड़े से अपने अपने गिलास भरने में जुट गए हैं। हर बार ऐसा होता है। पिछली बार खाली हो चचुके घड़े को सरकार फिर से अपना कोष देकर भरती है और अपने शुम्‍भ-निशुम्‍भों की नियुक्ति करके उसे खाली करने के रास्‍ते भी खोल देती है।
शुम्‍भ सरकारी होते हैं और निशुम्‍भ गैर-सरकारी। शुम्‍भ अधिकारी होते हैं और निशुम्‍भ उनके चहेते ठेकेदार। सरकारी और गैर-सरकारी दोनों मिलकर काफी असरकारी हो जाते हैं। ये दोनों प्रकार के असरकारी मिलकर महाकुम्‍भ जनपर्व को धनपर्व में तब्‍दील कर देते हैं। साढ़े पांच सौ करोड़ रुपयों से भरा है इस बार के महापर्व का घड़ा। जो हो रहा है करोड़ों में हो रहा है। अब इस घड़े को तीर्थयात्रियों के आने से पहले खाली करने की बड़ी जि़म्‍मेदारी शुम्‍भ निशुम्‍भों पर आ पड़ी है। इस घड़े का धन खाली होगा तभी तो इसमें आस्‍था और विश्‍वास का अमृत भरेंगे कुम्‍भ के ये असरकारी आयोजक। फिलहाल धन-कुम्‍भ खाली किया जा रहा है, जिन्‍हें अपना मन-कुम्‍भ भरना है वे अपनी जेबें भरकर कुम्‍भ नहाने आएं।

शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2009

बिगबॉस का सीटी संपादन

इन दिनों लोग बीबी के घर में घुसकर वहां के जलवों का आनन्‍द ले रहे हैं। बीबी का घर चर्चा का विषय है। वहां की रंगीनियां रंग पर यानी अपने कलर चैनल पर गिखरी पड़ी हैं। सुबह से देर रात तक तक इस चैनल पर रंग ही रंग हैं। अनदेखा बिहार है, पता नहीं कौनसा राजस्‍थान है और मराठियों से छिपा हुआ महाराष्‍ट्र है। और है कथित कन्‍या विरोधी हरियाणा जहां के आईएएस तक औरतखोर हैं। इस चैनल के अधिकांश धारावाहिकों में देश के प्रांतों के जो चित्र दिखाए जा रहे हैं वे वहां के विकास के चित्र हैं या पिछड़ेपन के, यह बात शायद निर्मातागण धारावाहिकों के अंतिम एपीसोड्स में ही बताएंगे। तब तक अपनेराम की समझदारी पर ही टिके हैं इन धारावाहिकों के संदेश।

बहरहाल, जो समझ में आ रहा है वह है जि़दा धारावाहिक 'बीबी' यानी 'बिग बॉस' और 'बिग बॉस का घर'। इसमें सब कुछ बिग बिग यानी बड़ा बड़ा है। इसके प्रस्‍तोता तो सबसे ही बड़े हैं। खुद ही एक ज़माने से बिग बी के रूप में विख्‍यात हैं। कद-काठी से बड़े, आचार-विचार से बड़े, और तो और स्‍वभाव-प्रभाव से भी बड़े हैं। जिसके साथ जुड़ते हैं उसीको बड़ा  बना देते हैं। जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है उनका आभामण्‍डल ‍भी बढ़ रहा है। एक बार वे लोगों को करोड़पति बनाने के लिए जुटे तो लोग बने हुए करोड़पतियों को भूल गए, पर याद रह गए बिग बी। अब वे बिग बी के घर में लोगों को रख रहे हैं तो भी लोग वहां रहनेवालों की भले थू थू करें पर बिग बी के कारण कलर की टीआरपी तो रंगीन से रंगीनतर होती जा रही है।

लेकिन इस बार बिग बी बिग बॉस से शिकायत हो सकती है कि बीबी के घर के सदस्‍य छांटने में कमी रह गई है। छांटने की इस कमी के चलते  इस बार बिग बॉस के घर में कुछ ''छंटे छंटाए'' ही सदस्‍य बन पाए हैं। दर्श्‍शक इन छंटे छंटाए लोगों को देखकर सिर पीट रहे हैं। खासकर इन सदस्‍यों की भाषा और व्‍यवहार पर दर्शक शरमिन्‍दा हैं।

बिग बी जैसे बिग बॉस के ये घरवाले आम भारतीय परिवार के सदस्‍य नहीं लगते हैं। इनका व्‍यवहार अगर दर्शक के सिर के ऊपर से निकल जाता है तो इनकी भाषा इनकी खुद की कमर के नीचे टहलती है। और इतना अधिक टहलती है कि बिग बी को सीटी बजानी पड़ जाती है। बिग बॉस के घर से प्रसारित होने वाली अश्‍लील भाषा की इन्‍तहा यह है कि सीटी ही सीटी है पूरे धारावाहिक में। बेचारे बिग बी सीटी बजाते बजाते दुखी हो चुके होंगे अपने घरवालों की भाषा पर। अपनेराम तो इसलिये भी दुखी हैं कि बिग बी सीटी बजाकर भाषा की बेहूदगी तो ढक देते हैं पर व्‍यवहार की अश्‍लीलता और बेहूदगी कैसे ढके। उसे तो अपनेंराम जैसे करोड़ों दर्शकों को झेलना ही है।         

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

आलोकपर्व 2009

Blog-Greetings

तोहफा-ए-दीवाली

आज सुबह सुबह अपनेराम के पड़ौसी ठाकुर गुलफामसिंह अचानक दरवाजे पर नमुदार हुए। सोचा दीवाली की रामराम करने आए विहोंगे। पर इतनी सुबह । ठाकुर साहब देर रात तक शीशे के गिलासों से खेलते हैं और सुबह दस साढ़े दस तक बिस्‍तर नहीं छूटता उनसे। आज सुबह सात बजे अपने दरवाजे पर हाजि़र देखा तो अपनेराम का मुंह खुला का खुला रह गया। ठाकुर साहब इलाके के राजनेता रह चुके हैं और एकाध बार संसद में हाजरी लगा चुके हें। पर अब तो दशकों से घर पर ही आराम फ़रमां हैं। कभी कभार दोपहर बाद अपनेराम से राजकाज पर चिमंगोइयां करने आ जाते हैं। अखबारी समाचारों पर बहसबाजी करना हम दोनों का धर्म होता है तब। दोपहर चार से छह बजे के बीच हमारी हर गरमाती और ठण्डियाती है। क्‍यों कि शाम ढलते ही ठाकुर साहब की सायंकालीन पाठशाला खुलती है।

आज ठाकुर साहब को बेवक्‍त दरवाजें पर देखा तो माथा ठनका। वे राम राम करते आ बैठे अपनेराम की चारपाई के सामने पड़े मूढ़े पर। बोले, ‘भाईजी, आप तो पढ़ेलिखे विद्वान हो। देश की, दुनिया की खबर रखते हो। ज़रा ये तो बताओं कि दीवाली का जो तोहफ़ा विजय बाबू सांसदों में बंटवा रहे हैं, इसके हक़दार हम जैसे पूर्व सांसद भी हैं या नहीं।’

अपनेराम पहले तो चकराए पर जल्‍दी ही समझ गए कि विजयबाबू का ‘काला कुत्‍ता’ ठाकुर साहब के सिर पर चढ़कर जोर जोर से भौंक रहा है। विजयबाबू यानी अपने लिक़रकिंग विजय माल्‍या और उनका काला कुत्‍ता यानी उनकी फैक्‍टरी में बनी उम्‍दा ‘ब्‍लैक डॉग’ शराब । अपनेराम ने ठाकुर साहब को समझाया कि दीवाली मिठाई खाने का त्‍यौहार है, पीकर टुन्‍न होने का नहीं। पर ठाकुर साहब तो विजय माल्‍या का पता और फोननंबर बताने की जि़द ही पकड़े रहे। वे चाहते थे कि विजय माल्‍या से संपर्क करके मैं उनके लिये भी ‘तोहफा-ए-दीवाली’ मंगवाकर दूं। उनका कहना था कि उनके जैसे वरिष्‍ठ पूर्व सांसदों के सम्‍मान का भी ख़याल रखा जाना चाहिए। तभी तो उनके राष्‍ट्रचिंतन में प्रखरता आएगी और वे उम्र के साथ साथ समाजसेवा में अधिक योगदान करेंगे। अपनेराम ने अभी तो ठाकुरसाहब से पीछा छुड़ा लिया है पर वे फिर आएंगे पता पूछते। आप में से किसी को मालूम हो तो बताइयेगा वरना मेरी दीवाली होली बनना तय है।

अपनेराम पहले भी कह चुके हैं और बार बार यह सिद्ध होता रहता है कि हमारा यह प्‍यारा भारतदेश विवि‍ध भारती है। ऐसी विविध भारती कि जिसका जवाब देश क्‍या दुनिया में कहीं नहीं है। अनेकता में एकता की बेमिसाल प्रदर्शनी है हमारी यह भारतभूमि। समाजवादियों ने तो देश में ऐसे समाजवाद की नींव रख दी है कि होली दीवाली सब एक हो गई है। सुनते हैं पड़ौसी चीन में भेदरहित समाज है। वहां सब धान बाईस पसेरी है। अब अपनेराम तो कभी चीन गए नहीं। रामझरोखे बैठकर ही जग का मुजरा लेते रहते हैं। लेकिन इस मुजराबाजी में भी दिल बाग बाग हो जाता है।

परम्‍परा तो देश की यह बन गई है कि होली पर लोग बोतल खोलते हैं और दीवाली पर मिठाइयां परोसते हैं। पर अब देश की आज़ादी के बाद होली दीवाली धीरे धीरे एक जैसी होती जा रही है। तथाकथित समाजवाद का असर है कि सब कुछ बदल रहा है। राष्‍ट्रभक्‍त टीपू की तलवार खरीदने के लिए सरकारी खजाना नहीं खुलता पर देश एक मदिरा-निर्माता इसे चार करोड़ में खरीदकर अपने ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ाता है। इसी तरह हमारी गांधीवादी सरकारें विदेशों में नीलाम हो रहे महात्‍मा की वस्‍तुओं से नज़रें चुराती हैं पर यही लिकरकिंग आगे बढ़कर नौ करोड़ रुपयों में बापू की सादें खरीद लाता है। अब यही राष्‍ट्रभक्‍त लिकरकिंग इन दिनों दीवाली के प्रेमोपहार सांसदों को भेज रहा है। कुछ नकचढ़े सांसद यह प्रेमोपहार लौटा भी रहे हैं। अब सारा मीडिया मौन है। कोई अखबार सर्वेक्षण नहीं कर रहा है कि विजयबाबू का तोहफा लौटाना उनकी सद्भावना और प्‍यार है या राष्‍ट्रविरोधी कृत्‍य। अपनेराम को यकीन है सारे सर्वेक्षण विजयबाबू के काले कुत्‍ते का साथ देंगे।

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

माया की माया

संत कबीरदास शताब्दियों पहले कह गए थे  कि ''माया महाठगिनि हम जानी''। इस 'हम' में वे खुद  और उनके कुछेक समकालीन संत रहे होंगे जिन्‍होंने माया के असली रूप को समझ लिया। पर हम  दुनियावालों की समझ में यह बात  तब क्‍या, अब तक भी नहीं आई हैजबकि माया साक्षात विचरण कर रही है हमारे बीच। और तो और इस घोर कलिकाल में खुद संतगण ही माया की ठगी के शिकार हो रहे हैं।

माया हर काल में, हर युग में और हर जगह महत्‍वपूर्ण रही है। माया को ठगिनी कहकर भी गले लगाने का घनघोर चलन हमेशा रहा है।  माया से दूर रहो कहने वाले संत-महंत अपने भक्‍तों को माया से दूर रहने का उपदेश देकर उनकी माया को अपने मठ, मंदिर, आश्रम अखाड़ों में संचित करने के हामी हैं। उनकी कृपा से उनके भक्‍त माया के ''प्रकोप'' से बच जाते हैं और संतगण उनका सारा दर्द अपने जिगर में समेट लेते हें। ये संत गंगा मैया की तरह परोपकारी संत हैं। गंगा मैया भक्‍तों को पापमुक्‍त करती है और ये संतगण माया को भक्‍तों के निकट नहीं रहने देते। मायावी आफतों को खुद ओढ़कर भक्‍तों को उससे मुक्‍त कर देते हैं। कुलमिलाकर  जैसे पापहारिणी गंगा भक्‍तों के पाप स्‍वयं बहाकर उन्‍हें पापमुक्‍त कर देती है, वैसे ही आधुनिक संतगण ठगिनी माया को अपने वश में करने की अपनी मायावी कला से अपने भक्‍तों को ''लाभान्वित'' करते ही रहते हैं।

लेकिन माया तो माया है। वह संतों को और उनके भक्‍तों, दोनों को ही, ठगती रहती है। वह दोनों को सत्‍ता के गलियारों में पहुंचाने में भी कामयाब हो चुकी है। वह खुद सत्‍ताधारिणी है। वह सर्वशक्तिमान है, सर्वत्र है, सार्वकालिक है, सार्वभौमिक है। अंग्रेजी में कहें तो ओम्‍नीप्रेजेंट और ओम्‍नीपोटेंट ही नहीं ओम्‍नीवोरस भी है। सबको चट कर जाने की ताकत रखती है, यह सर्वसिद्ध है और यह ताकत वह अक्‍सर दिखाती भी रहती है। आजकल  लखनऊ में बैठकर दिखा रही है। विधायिका और कार्यपालिका को चट करने के बाद वह अब न्‍यायपालिका को चट करने की फि़राक में है। देवी का यह कुमारिका रूप कलिकाल  में साक्षात है। हम धन्‍य हैं जो म‍हामाया को साक्षात देख-सुन पा रहे हैं।

अब अपनेराम तो पैदा ही मायापुरी में हुए हैं। गंगा किनारे वाली मायापुरी में। सो माया के झटके औरों की तुलना में कुछ ज्यादा ही लिखे हैं अपनी किस्‍मत में। संतों वाली मायापुरी से लेकर ठाकरेवाली मायानगरी तक माया के अनेकानेक रूप देखे हैं अपनेराम ने। पर जो लटके-झटके लखनऊ वाली माया के देखे वे अद्भुत और अपूर्व हैं। माया का ये चिरकुमारी रूप है। मांग भले न भरी गई हो पर मांगें तो दिनरात सामने आती रहती हैं। अब वे दिन तो हवा हुए जब 'अयोध्‍या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका। पुरी द्वारावतीश्‍चैव सप्‍तैता मोक्षदायिका।' कहकर माया के पुरीरूप को सम्‍मान दिया जाता था। अब तो जीवित देवी के मूर्तिमंदिरों की प्राणप्रतिष्‍ष्‍ठा का कलिकाल है। इस प्राणप्रतिष्‍ठा में अगर लोकतंत्र की न्‍यायदेवी भी आड़े आई तो उसे भी दरकिनार कर दिया जाएगा। माया के आगे न्‍याय क्‍या बेचता है भला।

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009

सोने के तारों की खादी

हमारे राष्‍ट्रपिता और राष्‍ट्रपति दोनों ही इन दिनों सुर्खियों में हैं। सारी दुनिया में अपने राष्‍ट्रपिता अतिविशेष हैं। उनका सुर्खियों में रहना तो सामान्‍य बात है। पर अपनी राष्‍ट्रपति का इन दिनों सुर्खियों में रहना विशेष हैं। राष्‍ट्रपिता अगर एक कलम की वजह से चर्चित हो रहे हैं तो राष्‍ट्रपति इन दिनों अपने पुत्र के कारण चर्चा में हैं। पुत्र के कारण लोगों का चर्चा में आना समाज का दस्‍तूर भी है। राष्‍ट्रपति भला क्‍यों अछूती रहें।
पहले अपने राष्‍ट्रपिता की ही चर्चा करें। जिन ब्रिटेन वालें अंग्रेजों के खिलाफ राष्‍ट्रपिता सारी उमर लड़ते रहे, उन्‍हीं की बनिया औलादों ने हमारे राष्‍ट्रपिता के यश को भुनाने की मुहिम शुरू की है। 1930 में हुई बापू की प्रसिद्ध 241 मील की दाण्‍डी यात्रा की याद में भाईलोगों ने चांदी-सोने का एक पैन बनाया है जिसकी कीमत रखी गई है डेढ् लाख से लेकर चौदह लाख रुपए तक। यानी ग़रीबों के लिये कमसे कम कीमत होगी डेढ़ लाख और अमीरों के लिये अधिकाधिक चौदह लाख। प्रसिद्ध ‘मों ब्‍लां’ कंपनी द्वारा बनाए गए इस पैन पर दाण्‍डी कूच पर निकले, हाथ में डण्डा लिये बापू की स्‍वर्णाकृति बनी है। सोने के तारों से जड़ी-मढ़ी इस कलम पर की निब भी सोने की है। इस पर जब आप हाथ फेरेंगे तो, बताया जा रहा है कि, खादी पर हाथ फेरने जैसा अहसास होगा। बेशर्मी की पराकाष्‍ठा भी है खादी का यह अपमान। बापू आज होते तो यह सब सुनकर माथा पीट लेते या ग़श खाकर गिर पड़ते। उनकी सादगी का यह मज़ाक है। इसके खिलाफ उन्‍हें एक नया आन्‍दोलन,या एक नई दाण्‍डीयात्रा निकालनी पड़ जाती। पर उनके अनुयायियों का यह देश चुप है। यह तो संभव है कोई शराब निर्माता दस-बीस गांधी कलमें खरीदकर सुर्खियों में आ जाए। बस इतना ही होना है आगे।
इस पैन पर लिखा है ‘महात्‍मा गांधी लिमिटेड एडीशन 241’ और ‘महात्‍मा गांधी लिमिटेड एडीशन 3000’। पैनपहले पपैन पूर्ण स्‍वर्ण के हैं जबकिदूसरे वाले चांदी-सोने के हैं और पैन के साथ रोलर भी हैं। संख्‍या में कुल मिलाकर ये छह हज़ार पैन विश्‍वभर के बाज्रों में बेचे जाएंगे। गरीब देश के अधनंगे रहने वाले फकीर नेता को दी जा रही यह विडम्‍बनाभरी महंगी श्रद्धांजलि कोई घाघ बनिया ही दे सकता है। यह वही बनिया है जिसने अपने व्‍व्‍यापार की आड़ में देश को दशकों तक अपने कब्‍जे में रखा। अब जिस बूढ़े ने उस बनिये को अपनी लाठी से हंकालकर बाहर किया वह बेशरम बनिया उस बूढ़े की उसी लाठी को फिर से व्‍यापार का माध्‍यम बना रहा है। अजब दुनिया है। जो सादगीभरा जीवन बापू ने जिया उसकी ठाठबाट वाली परिणति इस तरह होते देख रहे हैं हम कि कागज के दोनों तरफ लिखने वाले बापू, डाक में आई आलपिनों तक को संभालकर रखने वाले बापू, की यादों को अब वही बनिया सोने में ढालकर बेच रहा है और हम चुपचाप टुकुर टुकुर देख रहे हैं।
अब राष्‍ट्रपति की बात करें। उनका बेटा अमरावती से विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रत्‍याशी है। इस देश में किसी का भी बेटा चुनाव लड़ सकता है। राष्‍ट्रपति का लड़ रहा है तो लड़े । पर निष्‍पक्ष दीखने की चाहत में बेटे के दल के ही अमरावती के मेयर ने अजब मांग कर दी है। उनका कहना है कि अमरावती के सभी सरकारी दफ्तरों से राष्‍ट्रपति जी के चित्र हटा दिए जाएं या उन चित्रों पर कपड़ा डालकर उन्‍हें ढक दिया जाए। क्‍यों भाई क्‍यों। ऐसा क्‍यों करना है। तो बड़ा मासूम सा कारण बताया है मेयर साहब ने कि ऐसा न किया गया तो वोटर प्रभावित हो जाएंगे जो लोकतंत्र के खिलाफ है।
क्‍या तर्क है, क्‍या मासूमियत है, कुर्बान जाने को मन हो आया है मेयर साहब पर। अमरावती जिले के दफ्तरों से महामहिम के चित्र हटते ही मानों सच्‍चा लोकतंत्र आ जाएगा, सारे मतदाता भूल जाएंगे कि राजेन्‍द्र शेखावत महाहिम के पुत्र हैं और राष्‍ट्रपति जी के चित्रों पर पर्दा पड़ते ही मतमदाताओं क याददाश्‍त और प्रत्‍याशी की वल्दियत पर भी पर्दा पड़ जाएगा। ये सब हो या न हो, अपनेराम को तो फिलहाल मेयर साहब के दिमाग़ पर ही पर्दा पड़ा नज़र आ रहा है ।

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

बीबी चाहिये तो वोट दो

चुनावों में किये जाने वाले वादो से सारा देश परिचित है। तरह तरह के उम्‍मीदवार तरह तरह के वादे करते नज़र आते हैं। कोई मकान का वादा करता है तो कोई बिजली का। कोई सड़कों की बात करता है तो कोई साफ पानी का वादा करता है। वोटर इन वादों पर यकीन करके  उम्‍मीदवार को जिताता है और फिर पांच बरस टापता रहता है यह सारा देश जानता है। पर इस बार दावे भी नए हैं और वादे भी। अगर कुंवारों को बीबियां चाहिए तो वोट देना होगा। यह खबर अपने हरयाणे से आई है।  खबर बिलकुल पक्‍की है। वहां इन दिनों आम चुनावों का माहौल है। नाम ही हैं आम चुनावों का वरना सच तो यह है कि हरयाणे के चुनाव तो हमेशा ही खास होते हैं। इस बार की खासियत छनकर ये आई कि कई इलाकों में प्रत्‍याशीगण कुंवारों को लड़कियां दिलवाने के वादे कर रहे हैं। बेटों के मां-बाप खुश हैं। उन्‍हें अब यकीन है कि उनके घर बहू आ जाएगी। भाभी की इन्‍तज़ार करने वाले देवरगण और ननन्‍दों की जमातों में हर्ष  है। और दूल्‍हे तो भयंकर प्रसन्‍न हैं। उनके घर बसने को हैं।

यह देश सचमुच विविध भारती है। विविधता भी यहां की विरोधाभासी है। एक तरफ नारी मुक्ति की हलचलें और दू‍सरी ओर समाज को नारी से ही मुक्‍त करने के षड्यंत्र। अजब विविधता है इस विविध भारती में। यह विविधता ही इसे तारती है और यही विविधता ही इसे मारती है। यह देश जिस काम को हाथ में लेता है उसे पूरा करके छोड़ता है। अब इक्‍कीसवीं सदी में यह अजब विरोधाभास इसी देश में संभव है कि लोग बेटियां न पैदा होने दें और बीबीयों के तलाश में उनके बेटे अपने वोट बेचने को मजबूर हों ।

इन दिनों एक चैनल पर हरयाणे की एक अम्‍माजी छाई हुई हैं। अम्‍माजी हैं तो खुद भी औरत ही पर अपने गांव बीरपुर की औरतों और लड़कियों के सख्‍त खिलाफ़ हैं। इस बात का पूरा ध्‍यान रखती हैं कि कोई छोरी पैदा ना ना जाए उनके गांव में। यहां तक उनकी देवरानी की लड़की झूमर भी उनके घर में इसलिये पल-बढ़ गई कि उसे बाहर गांव से आई नौकरानी की बेटी बताया गया।

तो भाईलोगों, ऐसे हरयाणे से समाचार कुछ ये आरहे हैं कि वहां अब छोरियों का टोटा पड़ गया है। छोरे ज्‍यादा हो गए हैं और छोरियां समाज से नदारद होती जा रही हैं। ये मामला अब चुनावी मुद्दा बन गया है। अब वहां के कुंवारे कुलदीपक चुनावी उम्‍मीदवारों से रोटी, कपड़ा या मकान, बिजली, सड़क, पानी की जगह लड़कियां मांग रहे हैं। वे बेचारे करें भी क्‍या। घर ही नहीं बसेगा तो बाकी चीजों का क्‍या करेंगे। घरवाली के बगैर घर का क्‍या मतलब। सरकार गेहूं-चावल का जुगाड़ कर भी दे तो  क्‍या। रोटी पकाने वाली ही न मिले तो जि़न्‍दगी बेकार है। मुश्किल यह भी है कि अगर जात बाहर की छोरी पसंद आ जावे तो गांवों की, बिरादरी की पंचायतें बवाल कर दें। जीने ना दें छोरे-छोरियों को।  अब तो एक ही लोकतांत्रिक रास्‍ता बचा है नई पीढ़ी के सामने। छोरी दिलाओ वोट ले जाओ। ये मुहिम दोनों तरफ से जोर से चल रही है। उम्‍मीदवार कह रहे हैं वोट दो तो छोरी दिलाएंगे। वोटर कह रहे हैं छोरी दिलाओ तो वोट ले जाओ।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

सारा देश मवेशी है

धन्‍यवाद कृष्‍णा जी, शुक्रिया थरूर जी। हम आभारी हैं अपने इन माननीय केन्‍द्रीय मंत्रियों के जिनके कारण इस देश को अचानक सादगी याद आ गई है। न ये माननीय मंत्रिगण पंचतारा होटलों में रहते और ना ही मीडिया में उनके विलास-विश्राम की चर्चाएं होती। न विलास-विश्राम की चर्चा होती और ना ही ग़रीब देश के अमीर मंत्रियों को सादगी की नसीहत दी जाती। अब बेचारे जबरिया सादगी झेल रहे हैं।

यूं  देश को तो पता है कि देश में कौन कितने पानी में है। कौन पंचतारा में रहने वाले हैं और कौन गली-मौहल्‍लों में डोलते-फिरने वाले हैं। लेकिन कांग्रेस की सर्वाम्‍मा को शायद पहली  बार पता चला कि उनकी मनमोहनी-सरकार के  मंत्रिगणों के क्‍या ठाठ हैं। माननीयों को सरकारी आवास नहीं मिले तो अतिथिगृह भी नज़र नहीं आए। हाई-फाई मंत्रालयों के इन 'बॉसेस' को यह बुरा लगा कि भारत सरकार के मंत्री होकर वे सामान्‍य अतिथिशालाओं में रहें। दुनिया क्‍या कहेगी। देश में महामहिम राज्‍यपाल और संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ में अपर महासचिव जैसे महिमाशाली पदों पर रह चुके इन मान्‍यवरों के लिये ये सरकारी व्‍यवस्‍थाएं बड़ी लचर थीं। इसीलिये देश के स्‍वाभिमान और अपने अभिमान की सुरक्षा के लिये भाईलोग सीधे पंचतारा होटलों में रहने चले गए। पर जैसे ही सर्वाम्‍मा को पता चला फौरन सर्कुलर जारी हो गए कि खर्चों में कटौती की जाए। फालतू खर्चों से बचा जाए और मंत्रिगण हवाई यात्राएं भी इकॉनॉमी क्‍लास में किया करें।

अब पंचतारा छोड़ने तक तो बात सहनीय थी पर हवाई यात्राएं इकॉनॉमी क्‍लास में। भई ये तो ज्‍़यादती की हद है। ज्‍़यादती की भी ज्‍़यादती। मंत्रिवर  ने तुरंत फतवा जारी कर दिया कि इकॉनॉमी क्‍लास तो कैटल क्‍लास होती है। यानी साधारण श्रेणी में यात्रा करना मवेशियों के रेवड़ में सफ़र करना है। बात बिलकुल वाजिब है। भारतवर्ष का मंत्री औरनज़र आता हैा रेवड़ में चले। बिलकुल मुनासिब नहीं है। ये और बात है कि मवेशियों का रेवड़ कहलाने वाली जनता ही अपने बीच से साण्‍‍डों को चुनकर राजधानी भेजती है । फिर ये चरवाहे बनकर मवेशियों को हांकते हैं।

मुश्किल तब आती है जब चरवाहे मवेशियों से खुद को अलग जाति-गोत्र का समझकर उन्‍हें पालने की जगह हांकने लगते हैं। सारा देश इन्‍हें मवेशी आता है और ये और ये चरवाहे अपने मवेशियों का चारा तक चट करने लगते हैं। बहरहाल सर्वाम्‍मा ने चरवाहों पर लगाम लगाई तो उनका अपना बछड़ा भी कटौती की ज़द में आ गया। राहुल भैया ने खर्च में कटौती के चलते राधानी एक्‍सप्रैस कैटल-क्‍लास में यात्रा कर डाली। उनकी इस सादगी पर पत्‍थर पड़ गए।  जितने पैसे टिकट में बचाए उससे कई गुना ज्‍़यादा के रेल के शीशे तुड़वा दिए। लो कल्‍लो  बचत। राहुल की रेलगाड़ी पर किसने पत्‍थर मारे, क्‍यों मारे, किसके इशारे पर मारे, उसका इरादा क्‍या था और उस गाड़ी पर क्‍या पत्‍थर पड़ते ही रहते हैं। इन सब प्रश्‍नों के उत्‍तर जानने के लिये एजेंसियां सक्रिय हो गई हैं। उनकी कवायद पर होने वाले खर्चें राहुल भैया की रेलयात्रा के खर्चे को भले ही कई स्‍टेशन पीछे छोड़ दें पर इस देश की सादगी पर दाग़ नहीं लगना चाहिए।

 

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

दौर-ए-मिलावट

मेल-जोल, मेल-मिलाप और मिलावट एक जैसे दीखने वाले शब्‍द हैं। पर मेल-जोल और मेल-मिलाप से लोग खुश होते हैं और मिलावट पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। कहते हैं मिलन अच्‍छा है, मिलावट ग़लत है। मिलन को असली बताते हैं और मिलावट को नकली से जोड़ देते हें। 

अब कोई उन्‍हें कैसे समझाए कि जनाब,यह दौर-ए-मिलावट है। कुछ भी असल नहुीं रहा गया है। ''जित देखूं तित मेल मिलावट''। बिना मिलावट के तो मेल-मिलाप भी फीका फीका सा लगता है। नक़ल हमारी राष्‍ट्रीय पहचान है। नक ल करना ही वर्तमान में राष्‍ट्रीयता है।

आज नक़ल और नक़लीपन हावी है। भाषा तो हमारी सैकड़ों बरसों से मिलावटी चली आरही है। भाषा की मिलावट ही हमारी  भूषा में भी मिलावट ले आई। भाषा और भूषा में मिलावट आई तो खांटी देसीपन में कमी आ गई। हमने इस कमी को कहीं उदारता के कारण तो कहीं मजबूरी के कारण स्‍वीकार लिया। ये उदारता और मजबूरी भारतीयों के ख़ास गुण हैं। कहीं हमारी मजबूरी उदारता बनाकर परोसी जाती है तो कहीं उदारता को मजबूरी में रंग दिया जाता है। कुल मिलाकर मिलावटीपन हमारी मजबूरी भी है और उदारता भी है। फि़सल पड़े तो हर हर गंगे की तर्ज़ पर  मजबूरी में हम उदार हो जाते हैं और उदारता हमारी मजबूरी हो जाती है।

हिन्‍दु-मुस्लिम-ईसार्इ्र-पारसी वगैरह का यह देश विश्‍व का उदारतम देश है। सब जातियां, सब धर्म, सब वर्ण, सब वर्ग यहां आबाद हैं। सब मिले जुले हैं, मिलजुलकर रहते हैं पर मिलावट नहीं कहलाते। यह और बात है कि मिलावट करने में यह सब परस्‍पर मिले हुए हैं। मेलजोल-प्रधान इस देश में इसीलिये मिलावट की नींव बड़ी पुख्‍़ता है।

मिलावट की नींव पर टिका यह देश आज अपने मिलावटी चरित्र को साकार करने में जी-जान से जुटा है। हमने इस क्षेत्र में मौलिक कि़स्‍म की तरक्कि़यां हासिल की हैं। विश्‍व के पटल पर मिलावट में हमसे आगे कोई नहीं। हमारा देश मिलावट के मामले में विश्‍वशक्ति बनने की ओर तेजी से अग्रसर है।

हमने भेदभाव समाप्‍त करने का जो बीड़ा अपने संविधान में उठाया था उसके मद्देनज़र हमने सबसे पहले असली और नक़ली का भेद समाप्‍त करने की ठानी और उसमें सफलता भी हासिल की है। हम अंत्‍योदयवादी हैं और निम्‍नोत्‍थान के विश्‍वासी हैं। जो निम्‍न है उसे उच्‍च बनाओं के सिद्धांत को सामने रखकर हमने हर नक़ली  को असली का दर्जा देने की भरपूर कोशिश की है और अब भी कर रहे हैं।

हमने भाषा और भूषा के बाद साहित्‍य, संगीत, कला और संस्‍कृति में मिलावट की और चहां नक़लचियों और नक़लों को असल का दर्जा दिलवाया। पूरा समाज आज नक़ली कवियों, नक़ली साहित्‍यकारों, नक़ली पत्रकारों और नक़ली कलाकारों से अटा पड़ा है।

फिर हमने खानपान पर ध्‍यान दिया। हमने नक़ली चीज़ों का असली बनाकर प्रस्‍तुत किया। हमने नक़ली दूध बनाया, नक़ली घी बनाया, नक़ली मावा बनाया, नक़ली दवाइयां बनाईं और तो और नक़ली खून तक बना डाला। जब दुनिया के विकासशील देश नक़ली आदमी यानी रोबोट बनाने में जुटे हैं तो हमने नक़ली खून बनाकर शायद उनकी मदद ही की है। क्‍या हम किसी से कम विकासशील हैं।

फिल्‍मों और सीरियलों में तो हमारी नक़ल के चर्चे आम हैं। बॉलीवुड ने जाने कितने हॉलीवुड अपनी जेब में छुपा रखे हैं। उनकी चर्चा को एक अलग आख्‍यान चाहिएा फिलवक्‍त अपनेराम चैनलों के सीरियलों में चन्‍द चरित्रों पर ध्‍यान केन्द्रित कर रहे हैं। ''लाडो न आना इस देस'' में ऐ वीरपुर है और एक हैं वीरपुर की अम्‍माजी। वीरपुर में सिर्फ दो सिपाहियों वाली चौकी है और उसके दोनों सिपाही हुड्डा सरकार की जगह अम्‍माजी के हैं। अम्‍माजी हिटलर की बहन हैं और पूरे गांव में आज की तारीख में कोई अखबार नहीं आता। पत्रकार तो वहां है ही कोई ना । वीरपुर में जो कुछ हो रहा है उसका विरोध पूरे गांव में तो किसी से होत्‍ता नहीं। बस एक डॉक्‍टर की छोरी ही क्रांति का बिगुल बजावै है। अपनेराम को लगता है कि भूपेन्‍द्रसिंह हुड्डा ने या उसके बन्‍दों ने या तो ये नक़ली जीवनकथा वाला सीरियल देख्‍‍या को नी। देख लेत्‍ता तो हुड्डा वीरपुर का एकाध दौरा तो कर ही लेत्‍ता इब लौं। नम्‍बर वन हरियाणा की ये गत तो देखी नहीं जाती अपनेराम से।

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

शूकरताप से ग्रस्‍त भाजपा

सारे देश में शूकरताप क्‍या फैला अपनी भाजपा भी उसके चपेट में आ गई लगती है। पुणे, बैंगलोर के बाद अब शिमला चपेट में है। पर शिमला में खैरियत ये है कि वहां तापित केवल भाजपा है शेष शहर नहीं। लौहपुरुषों की अपनी यह पार्टी शापग्रस्‍त तो पहले ही हो चुकी थी, अब बुरी तरह तापग्रस्‍त भी हो गई है। ताप भी ऐसा जो बड़े बड़ों की बलि लेने पर उतारू दीख रहा है। जसवंत के 'जस' की बलि तो वह ले ही चुका है। देश में तो यह ताप विदेशों से आयातित है पर पार्टी में यह ताप ज्‍यादातर राजस्‍थान से आ रहा है।

ताप की शुरुआत तभी हो गई थी जब कांग्रेसी शेखावत ने भाजपाई शेखावत को पराजित किया था। भाजपाई शेखावत की खुन्‍नस ने भाजपा में जो वायरल फैलाया उसकी परिणति अब शिमला की हसीन वादियों तक फैल चुकी है। राजस्‍थान की ही वीरांगना वसुन्‍धरा को धरा दिखाने के बाद जसवंत का जस लीलने के फैसले से पार्टी में हड़कंप तो है पर य‍ह दोहरा है। कंपाने वाले खुद भी कांप रहे हैं। बैठक चिंतन के लिए चलनी थी पर चिंता में तब्‍दील हो रही है। चिंता के साथ जैतली जैसों का गुस्‍सा उबाल पर है क्‍योंकि पिछली बड़ी हार के लिए आई रिपोर्ट में वे ही नहीं, बड़े लौहपुरुष और छोटे लौहपुरुष दोनों जि़म्‍मेदार बताए गए हैं। अब बड़े लौहपुरुघ तो चुप्‍पी साध गए हैं और छोटे लौहपुरुष ने जसवंत की किताब पर पाबंदी लगाकर ध्‍याान बांटन की कोशिश की है। पर युवा जैतली के वकालती बयान तो आग उबल ही रहे हैं। इसी आग की तपिश शूकरताप में तब्‍दील होती जा रही है।

चिंता का सबसे बड़ा विषय फिलवक्‍त पड़ौसियों के बाबा-ए-क़ौम मियां जिन्‍ना हैं। इकसठ बरस पहले जन्‍नतनशीन हुए जिन्‍ना साहब का जिन्‍न एक बार फिर भाजपा पर हावी हो गया है। इस बार इस जिन्‍न ने बलि भी ले ली है। जसवंतसिंह 'सिंह' थे पर जिन्‍ना के भूत ने उनके 'सिंहत्‍व' का हरण करके उन्‍हें पार्टी में मेमना बनाकर छोड़ दिया है।

जसवंत और उनके शुभचिंतकों को यही खुन्‍नस है कि पार्टी के लौहपुरुष ने जिन्‍ना की मज़ार पर माथा टेका तो पार्टी ने उनकी थोड़ी बहुत लानत-मलामत करके उन्‍हें फिर पार्टी की कमान सौंप दी। पर जसवंत ने उसी जिन्‍ना पर कलम चलाई तो पार्टी ने उनकी दहाड़ को मिमियाने में तब्‍दील करने की ठान ली। भीतरी लोकतंद्त्र को भी दरकिनार करके उनसे स्‍पष्‍टीकरण तक मांगे बगैर बाहर का रास्‍ता दिखा दिया। ये अत्‍याचार है।

हालांकि जबान खोलने पर अत्‍याचार पार्टी में नया नहीं है। खुराना, उमा भारती, गोविन्‍दाचार्य, अरुण जेतली, यशवंतसिंह, अरुण शौरी, वसुन्‍धरा राजे, आदि अनेक नाम हैं जिन्‍होंने भाजपा को समय समय पर सिरदर्द दिया है और अब भी दे रहे हैं। पर संसद में कभी 'आउटस्‍ंटैंडिंग पार्लियामेंटेरियन' का खिताब पाने वाले जसवंत सिंह इस बार अपनी ही किताब की बलि चढ़ा दिए गए हैं। पार्टी ने चिंतन बैठक में पहुंचे इस 'आउटस्‍ंटैंडिंग पार्लियामेंटेरियन' को बैठक में घुसने ही नहीं दिया गया। कह दिया--''प्‍लीज़ स्‍टैंड आउट साइड''। इसमें भी बढ़चढ़कर निकले गुजरात के छोटे लौहपुरुषा उन्‍होंने आगेबढ़कर विचारों पर पाबन्‍दी लगाते हुए जसवंत की पुस्‍तक को ही गुजरात की सीमाओं में घुसने से रोक दिया है। आदमी पार्टी से बाहर और उसके विचार भौगोलिक सीमाओं से बाहर। यही है सच्‍चा लोकतंत्र।

पर अब क्‍या होगा, ख़ासकर वसुंधरा का। राजनाथ ने जसवंत को तो ऐसा नाथा कि राजनीतिक अनाथ कर दिया। क्‍या अब वसुंधरा की बारी है। अगर ऐसा हुआ तो राजस्‍थान के वीर-वीरांगनाएं कब तक राजनाथ को नाथ मानेंगे।

बुधवार, 29 जुलाई 2009

सच का सामना

झूठ का सामना करते करते उकता गया था सत्‍यवादी राजा हरिश्‍चन्‍द्र का यह देश। झूठ, झूठ और सिर्फ झूठ। देश को सिर्फ झूठ ने घेर रखा था। लोग सच बोलने से डरते थे। बोलते भी थे तो मुलम्‍मेदार सच बोलते थे। गोलमेाल भाषा में गोलमोल प्रश्‍न होते थे और उसके गोलमोल ही जवाब सामने आ जाते थे। लेकिन मुलम्‍मा उतरते ही झूठ सामने आ जाता था। आदमी बड़ा हिम्‍मती था। झूठा होने के मामले में वह एकदम सोलह आने सच्‍चा था। वह घर में झूठा था तो बाहर भी झूठा ही था। वह सड़क से संसद तक झूठा था। वह अपने मां-बाप से तो झूठ बोलता ही था, अपने बच्‍चों से भी झूठी भाषा में ही बात करता था। वह सार्वकालिक, सार्वजनीन और सर्वत्र झूठा ही था।

पर भला हो स्‍टार प्‍लस टीवी वालों का कि उन्‍होंने देश को सच बोलना सिखाया दिया है। जो काम बड़े बड़े ऋषि-मुनि, ज्ञानी-संत, धर्मग्रंथ और पीर-पैगम्‍बरों के प्रवचन न कर सके वह काम इस घोर कलिकाल में अपने स्‍टार प्‍लस टीवी ने कर दिखाया है। उसने देशवासियों को सच बोलना सिखा दिया है। और सत्‍यवादियों के सत्‍यवचनों को देशदुनिया के सामने लाकर दिखा भी दिया है। अब ये और बात है कि वह सत्‍य नंगई की सीमा में उतरा हुआ सत्‍य है जिसे देख सुनकर ऩज़रें पता नहीं क्‍यूं झुक झुक जाती हैं।

हम आभारी हैं स्‍टार प्‍लस के कि वह देश में सतयुग लौटा लाया है। अब लोग सच बोलने लगे हैं। हमसच बोलने के लिए किसी कन्‍फेशन बॉक्‍स की ज़रूरत नहीं है। अब स्‍टार प्‍लस ही हमारा नया पादरी, नया धर्माचार्य है जो हमारे इस सच को सार्वजनिक करता है जिसे हम अभी तक पारिवारिक भी नहीं कर पाए थे। बड़ी बात है। वर्तमान जीवन की कितनी बड़ी उपलब्धि है। सच बोलो और लखपति हो जाओ। वे लोग कितने झूठे हैं जो कहते हैं कि आज की दुनिया में कमाई करनी है तो बिना झूठ का सहारा लिये संभव नहीं है। इस घोर कलिकाल में यूं भी भगवान सत्‍य ही लक्ष्‍मी दिलवाते हैं, यह भी सिद्ध हो गया है।

लोग कहते आए हैं कि सत्‍य सोने के पात्र में बन्‍द रहता है और पात्र कर मुंह ढका रहता है़....''हिरण्‍मयेन पात्रेन सत्‍यस्‍यापि हितं मुखं''। अगर कोई उस पात्र का मुंह खोल दे तो सत्‍य की चौंध से उसके अंधा होने की भी संभावना हो जाती है। अपनेराम का कहना है कि ये परम्‍परावादी लोग स्‍टार प्‍लस देखें और फिर अपनी राय कायम करें। भाई ज़माना बहुत दूर निकल आया है । अब तो सच बोलो, वह भी नंगा सच और स्‍वर्णपात्र लेकर घर लौटो।

स्‍टार प्‍लस ने अपनी न्‍याय व्‍यवस्‍था को भी नई राह दिखाई है। वह राह है स्‍वर्णपात्र बांटने की राह, देवी लक्ष्‍‍मी की राह। इस राह पर चलकर सत्‍य की आराधना कितनी आसान हो जाएगी। न्‍यायमूर्ति सच बोलने का पैसा देंगे तो अपराधी वह पैसा परिवार को सौंपकर निश्चिंत होकर जेल चला जाएगा। वह भी सरकारी पैसे पर जीयेगा, उसका परिवार भी सरकारी पैसे पर जीयेगा और न्‍यायालय में बरसों तक मुकदमें सुनने चलने का दौर भी तब समाप्‍त हो जाएगा। अब समाज है तो अपराध तो होंगे पर अपराधी उन्‍हें स्‍वर्णपात्र के बदले झटपट स्‍वीकार कर लेंगे। स्‍वर्णपात्र बालबच्‍चों को सौंपकर अपने नग्‍न चरित्र को जेल के पीछे ले जाएंगे। वहां कुछ दिन ‍भले बनकर सज़ा कम करवाकर फिर बालबच्‍चों में लौट आएंगे। यानी नंगे होकर जेल जाएंगे और सज़ा का तौलिया लपेटकर लौट आएंगेद्य उनके बालबच्‍चे ‍भूलें या न भूलें पर हमारा समाज तो उनकी नंगई कुछ दिनों में भूल ही जाएगा। तब वे अपना अगला नग्‍न सत्‍य लेकर टीवी पर आमंत्रित किए जाएंगे। जेलों और जेल में तौलियों की कमी नहीं है।

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

संस्‍कार देती औरतें

औरतें लड़ रही हैं और देश आगे बढ़ र‍हा है। औरतें ज़बान लड़ा रही हैं और देश आगे बढ़ रहा है। किस दिशा में बढ़ रहा है, बस यही मत पूछिये। आज देश में जो हो रहा है वह औरतों की वजह से ही हो रहा है। जो नहीं हो रहा है उसकी वजह भी औरतें ही हैं। इन दिनों औरतें जोश में हैं। जोश में प्राय: कोई होश में नहीं रहता, फिर ये तो औरते हैं। औरतें और वह भी यूपी की। करेला और नीम चढ़ा। यूपी में नारी राज है और नारी ही वहां नारी से नाराज है। यही वजह है कि नारियां पहले एकदूसरे से चिढ़ रही हैं और फिर भिड़ रही हैं।
अपनी कांग्रेस और अपनी बसपा दोनों ही नारीमय है। दोनों ही नारी अनुगता हैं। दोनों नारी नेतृत्‍व के पीछे हैं। सोनिया और माया तो केवल नाम हैं। दरअसल इन दलों में नारीनाम जहाज है। जो कोई इन जहाजों पे चढ़ गया समझ लो पार उतर गया। और जिस पर ये जहाज चढ़ गए समझ लो वे तो गर्क हुए ही हुए। यूपी में इन दिनों ये दोनों जहाज आमने सामने हैं। तीसरी तरफ मेनका है जो उबल रही है। कह रही है ''माया हटाओ, प्रतिभा लाओ''। माया की प्रतिमा नगरी में भूचाल है। लखनवीं सागर में सुनामी के अंदेशे हैं। सुनामी आ गई तो देशभर में बहुत कुछ डूबेगा। सोनिया की महिला सिपहसालार ने यूपी की रानी पर मुंहभर गुस्‍सा उगल दिया है, तो रानी के सिपाहियों ने उसका घर ही फूंक दिया है। यह घरफूंक तमाशा चालू हो गया है। देखिए अब और किस किस के घर फुंकते हैं।
कौवे हर युग में रहे हैं और कोयल भी। न वे किसी का कुछ छीनते रहे और ये किसी को कुछ देती रहीं। पर उनकी कांव कांव से कान हमेशा पकते रहे और इनकी कूक हमेशा दिल लुभाती रही। आज भी समाज में कौवे हैं और कोयल भी। पर हमारे प्रजातंत्र का सच अजीब है। कौवे तो कूकना सीखे नहीं कोयल अलबत्‍ता कांव कांव सीख गईं। इसीलिये यूपी में यह सब कुछ हो गया। हुआ वाणी की विद्रूपता के चलते।
''ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोय, औरन कूं सीतल करे आपहूं सीतल होय''। ऐसा कहने वाले अब दुर्लभ हैं। कहते हैं जीभ में हड्डी नहीं होती। वह कभी भी कैसे भी घूम जाती है। ज़बान कभी चाशनी में पगी होती थी, मिसरी माखन की सगी होती थी पर वे दिन अब हवा हुए। मीठे वचनों का ज़माना लद गया। स्‍पाइसी यानी चरपरे का युग है। सुनकर मिर्ची न लगे तो कहनेवाले ने क्‍या ख़ाक कहा। ज़हरबुझी वाणी ही राजनीति की पहली सीढ़ी है। गाली और गोली का ज़माना है।
वे सत्‍ता में नहीं थीं तब ''तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार'' के नारे बुलंद होते थे। अब ये सत्‍ता में नहीं हें तो बलात्‍कार के मुआवजे पर भाषणबाजी हो रही है। कम इनमें कोई नहीं । ये अपनी अपनी पार्टी की संस्‍कारित सन्‍नरियां हैं। कहते हैं नारी संस्‍कारित होगी तो पीढि़यां संस्‍कारित होंगी। इन नारियों को देखो, इनके संस्‍कार देखो और अन्‍दाजा लगा लो कि राजनीतिक पीढि़यां कैसी आने वाली हैं आगे आगे।

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

इलैक्‍शन जीते बिना सांसदी

वे बेचारी तो शुद्ध भारतीय परम्‍परा का निर्वाह कर रही थीं पर उसी में धरी गईं। अब कोई  अपने शौहर का अनुगमन भी न करे तो क्‍या करे। आगे आगे शौहर गए, पीछे पीछे बेगम चली गईं और जाकर लोकसभा में उन कुर्सियों में से एक पर बिराज गईं जिन पर बैठकर माननीय सदस्‍य कार्रवाई में हिस्‍सा लेते हैं। बस, इतना ही किया था एक पति-अनुगता नारी ने। इसी पर खलबली मच गई और मार्शल की मार सहनी पड़ गई बेगम को। ये तो सरासर अन्‍याय है,  ज्‍़यादती है भाई।

जी, मामला अपनी इसी इकलौती लोकसभा का है। जिस रोज़ अपने प्रणव दादा बजट पेश कर रहे थे और सांसदों के साथ साथ सारे देश की सांस ऊपर-नीचे हो रही थी इसी वक्‍त लोकसभा के भीतर सुरक्षा के जि़म्‍मेदार मार्शल की सांस उखड़ने को हो रही थी यह जानकर कि कोई महिला संसद के भीतर घुसकर ही नहीं, बल्कि सांसद की कुर्सी पर बैठकर भीतर का तमाशा देख रही है। लोकसभाध्‍यक्ष की कुर्सी पर महिला बैठी तो सारा देश हर्षविह्वल हो उठा था, मार्शलों समेत। पर जब बजट वाले दिन एक महिला आकर सांसद की कुर्सी पर बैठ गई तो मार्शलों के शोकविह्वल होने की बारी आ गई। गड़बड़ाई सुरक्षा व्‍यवस्‍था में हड़बड़ाहट पैदा कर दी। मार्शलों की हालत ऐसी हो गई मानों कोर्टमार्शल का फैसला उनके खिलाफ जा रहा हो। मार्शल भागे महिला की तरफ जिसने बिना इलैक्‍शन जीते संसद की कुर्सी हथिया ली थी। एक तरफ घबराए मार्शल खड़े थे और दूसरी ओर परम शांत भाव से अपना वैनिटी पर्स संभाले बैठी अनिर्वाचित महिला। कुछ कहने की स्थिति नहीं थी। सारा दृश्‍य अनिर्वचनीय था। सुरक्षा व्‍यवस्‍था की बोलती बन्‍द थी। किसी को कुछ  पता भी नहीं था कि संसद में प्रणव दा के बजट भाषण के अलावा भी कुछ चल रहा है। अगली सीटों पर बैठे यूपीए व कांग्रेसी सांसद मेजें थप-थपाकर और भाजपा सहित एनडीए सांसद मुंह बिचकाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। पर जो सांसद उन अनिर्वाचित साहिबा के अगल बगल बैठे थे वे बिलकुल अवाक़ थे। एक अजाना भय और अव्‍यक्‍त संशय उन्‍हें घेरे था। कहीं इस महिला के पर्स में कोई बम-शम तो नहीं। प्रभु रक्षा करे।

पर सारा भय और सारा संशय हवा हो गया जब नाम पूछने और प्रवेशपत्र मांगने पर अनिर्वाचिता ने तपाक से एक पर्ची पर अपना नाम लिखा ''रुखैया बशीर'' और साथ ही परिचय पत्र मांगने पर दर्शकदीर्घा का प्रवेशपत्र मार्शल जी के हाथ में थमा दिया। देखकर मार्शल मियां ने चैन की सांस ली। अरे, ये तो अपनी भाभी जी हैं, यह कहते हुए आस-पड़ौस के सांसद  भी आश्‍वस्‍त हुए।

वे और कोई नहीं, केरल की पोन्‍नानी संसदीय सीट से निर्वाचित इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग़ के अपने सांसद ईटी मुहम्‍मद बशीर की बेगम थीं श्रीमती रुखैया बशीर। वे आईं तो थीं दर्शक दीर्घा से संसद की कार्रवाई देखने पर घुस गई मुख्‍य सभागार में और जम गई एक सीट पर।

अपनेराम का मानना है कि रुखैया भाभी का कोइ्र कसूर नहीं है। जिस देश में बिना कुछ किए अर्धांगिनी को पति के पदानुसार संबोधन मिल जाते हैं, जैसे मास्‍टर की बीबी मास्‍टरनी, पंडित की बीबी पंडितानी, थानेदार की बीबी थानेदारनी, धोबी की धोबन और नाई की नायन वगैरा वगैरा हो जाती हैं वहां सांसद की बीबी भी अगर कुछ देर को सांसद हो जाए तो किसी को कोई आपत्ति क्‍यों हो। जब पंचायतों में चुनी गई महिलाओं के पतिगण वहां घुसकर अपनी बीबियों की  जि़म्‍मेदारी निभाते हैं  तो संसद भी तो बड़ी पंचायत ही कहलाती है। वहां अगर भाभीजी आकर भाईसाहब की कुर्सी पर  बैठ जाएं तो क्‍या हर्ज है। आने वाले वक्‍त में तो वैसे भी 33 प्रतिशत भाईसाहबों की कुर्सियां भाभियों की ही तो होंगी। मार्शलों से निवेदन है कि वे कृपया अभी से भाभियों को पहचान लें।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

कोर्ट ने दी असली आज़ादी

माननीय न्‍यायमूर्तियों ने ऐसा कुछ कर दिया है कि भाईलोग बड़े खुश हैं। कह रहे हैं कि देश को असली आज़ादी अब जाकर मिली है। 1947 वाली अब तक की आज़ादी तो आदमी को आदमी से और औरत को औरत से दूर कर रही थी। अब 63 वें साल में जो आजादी मिली है वह जाकर कहीं आदमी को आदमी के  तथा औरत को औरत के पास लाएगी। देश विकासशीलों की जगह  पूर्ण विकसितों की श्रेणी में आ जाएगा। और यह सब होगा माननीय न्‍यायमूर्तियों की कृपा से।

दरअसल यह देश चलता ही माननीय न्‍यायमूर्तियों के कारण है। जब अफ़सर और नेता, संसद और सरकारें कुछ नहीं कर पाते तब जो होता है वह माननीय न्‍यायमूर्तियों के हाथों ही होता है। वे सबको डांट फटकार लगाकर सीधा कर देते हैं। अब देखिए न कहने को देश स्‍वतंत्र है पर देश के नागरिकों को पूर्ण स्‍वतंत्रता है ही नहीं। पुरानी मान्‍यताओं, परम्‍पराओं और नैतिकताओं का हवाला देकर देश से विकसित होने के सारे मौके छीनने की कोशिशें लगातार जारी रहती हैं। हम महान बनते बनते रह जाते हैं।

पर यह पहला मौका है जब हमें माननीय न्‍यायमूर्तियों का आभार मानना चाहिए कि अब हम देश को अमेरिका, योरोप और  इंग्लैण्‍‍ड के समकक्ष ही नहीं उनसे आगे ले जाने के अवसर पा चुके हैं। वे दिन आ चुके हैं जब बेटियों के बाप दामाद ढूंडने के झंझट से मुक्ति पा जाएंगे। अब बहू ढूंढने की कसरत खत्‍म। यह ''मित्र-परिणयों'' का जमाना है। अब वैवाहिक निमंत्रणपत्र कुछ इस अदा से आया करेंगे :-

प्रियवर,

पूज्‍य न्‍यामूर्तियों के आशीर्वाद तथा जमाने की बदली हुई हवाओं के चिन्‍ताहारी असर के चलते हमारी सौभाग्‍याकांक्षिणी प्रिय पुत्री सुकुमारी ने अपनी डिस्‍को-सहेली सौभाग्‍यदायिनी कुमारी का सौभाग्‍य-चयन कर लिया है। कृपया इन दोनों के परस्‍पर मित्रवरण के मांगलिक अवसर पर आयोजित प्रीतिभोज में पधारकर हमारी बेटी और हमारी जंवाई बेटी को अपने आशीर्वादों से अलंकृत करें।

अब लड़कों के लड़कियां छेड़ने के दिन लद गए। अब तो लड़के लड़कों पर तथा लड़कियां लड़कियों पर सरेआम डोरे डाल सकेंगे, फब्तियां कस सकेंगे और उन्‍हें देखकर सीटी बजा सकेंगेा सारी फिल्‍मी दुनिया यानी अपने बॉलीवुड में न्‍यायमूर्तियों के इस नए फैसले से क्रांति के आसार हैं। निर्देशक निर्माता हिरोइनों के लिए और हीरो और हीरो के लिये हिरोइनें खोजने से बच जाएंगे। जिस निर्माता-निर्देशक के दो बेटे या दो बेटियां हुई उसकी फिल्‍म तो घर घर में बन जाएगी। पैसा भी बचेगा।

सामाजिक क्रांति होगी जिसमें ''आधी दुनिया'' ही पूरी दुनिया में तब्‍दील होगी। आदमियों की पूरी दुनिया और औरतों की पूरी दुनिया। जहां तक नई पीढि़यों के लिये चिन्‍ता प्रश्‍न है उस सिलसिले में भी जल्‍दी ही न्‍यायमूर्तियों के आदेश आ जांगे। उनमें सरकारों को आदेश होंगे कि वे हर शहर-गांव में ब्‍लडबैंक और पशुओं के हीमित वीर्य स्‍थात्र की तर्ज पर स्‍त्रीपुरुषों के भी लिये भी केन्‍द्र खोलें ताकि वक्‍तज़रूरत पड़ने पर वे केन्‍द्र परिवारों में इच्‍छानुसार बच्‍चे सप्‍लाई कर सकेंगे। विज्ञान चरमशीर्ष पर होगा तथा सामाजिक मान्‍यताओं का पारम्‍परिक ज्ञान आंखें फाड़ फाड़कर  उसे भौंचक देख रहा होगा।      

    

 

गुरुवार, 25 जून 2009

मध्‍यावधि मुख्‍यमंत्री

बचपन की बात है। अपनेराम खेलते खेलते दौडकर उस कमरे में जा पहुंचे जहां चटाई पर बैठे पिताश्री चाय पी रहे थे। भरा हुआ चाय का कप जमीन पर रखा था जिस पर ठोकर लगी और सारी चाय बिखर गई। कपप्‍लेट के टुकडे दूर तक फैल गए। यह देखकर पिताश्री चाय से भी ज्‍यादा गरम होगए। नतीजा यह कि, ''देखकर नहीं चल सकते'', इस गुस्‍साई आवाज के साथ अपनेराम पिट गए।

कुछ दिनों बाद अपनेराम उसी चटाई पर बैठे चाय पी रहे थे। कपप्‍लेट वैसे ही फर्श पर रखी थी। तभी पिताश्री कमरे में घुसे। अनजाने में उनकी ठोकर लगी और कपप्‍लेट समेत चाय ये जा और वो जा। अपनेराम फिर पिट गए। गुस्‍साई आवाज फिर उभरी..''कपप्‍लेट को रास्‍ते में रखा हुआ है, इतनी भी तमीज नहीं है।''

दृष्‍टांत कहता है कि चाहे जो हो जाए, पिटेंगे छोटे ही । चाकू और खरबूजे की यारी दोस्‍ती में कटेगा खरबूजा ही। अब देखिए न, बाईस सीटें खो देने वाला बडा नेतृत्‍व नैतिक जिम्‍मेदारी की चर्चा तक से दूर है जबकि पांच सीटें खोने वाले प्रदेश के मुख्‍यमंत्री, सवा महीने बाद ही सही, ''हार'' पहनकर कुर्सी छोडने पर मजबूर कर दिए गए हैं। दिल्‍ली के रास्‍ते पर देहरादून चलता तो बात समझ में आती। पर सवा महीने तक देहरादून इंतजार करता रहा कि दिल्‍ली चले तो सही। दिल्‍ली के बडे ''हार'' पहनें तो सही। पर जब किसी ने करवट नहीं ली तो देहरादून ही बेचारा अकेले हार का जिम्‍मेदार बन गया।

यूं देखा जाए तो उत्‍तराखण्‍ड में पार्टी और भगतदा दोनों ही अपना इतिहास दोहरा रहे हैं। राज्‍य बना तो कोश्‍यारी की कोशिश पर भाजपा ने प्रदेश को दो दो मुख्‍यमंत्री चखाए थे। स्‍वामीजी को हटाकर कोश्‍यारी लाए गए थे। तबसे पार्टी और कोश्‍यारी दोनों को आदत पड गई है मध्‍यावधि मुख्‍यमंत्री लाने की। जनरल साहब को भी स्‍वामी बना कर रख दिया गया। पर इस बार भुवन ने भगत को पटकी दे दी है। भगत के पुराने पट्ठे पर हाथ रखकर मुख्‍य‍मंत्री का आसन भगत जी के सपने चकनाचूर कर दिए है। जाते जाते फौजी हाथ दिखा ही गए।  

पर सच तो यही है कि जितने बडे लोग उतनी मोटी चमडी। बडों का कोई नुक्‍सान नहीं है। पार्टी में दलाध्‍यक्ष और लोकसभा में दलाध्‍यक्ष जहां थे वहीं हैं। यानी करारी हार का अध्‍यक्षों पर कोई असर ही नहीं है। पर आत्‍मा की कचोट पर कुछ लोगों ने पद छोडे तो हंगामा हो गया।  इस हंगामें का असर यह कि मारे गए गुलफाम। अब तक जनरल साहब प्रदेश में जीतते जिताते आ रहे थे तो कोई श्रेय नहीं था पर देश भर में पार्टी क्‍या हारी हार ठीकरा प्रदेश वालों के सिर फोड दिया गया। यह प्रजातंत्र का सजातंत्र है।

बहर‍हाल, अपनेराम दूसरे कारणों से खुश हैं पार्टी से कि वह बडी संवेदनशील है। कवि और कविता का सम्‍मान करती है। उसने प्रधानमंत्री से मुख्‍यमंत्री तक की कुर्सियों पर कवि बिठाए हैं। अटल बिहारी और शांताकुमार के बाद अब कवि निशंक पदासीन हैं राज्‍यासन पर। पार्टी ने निशंक का राज्‍यारोहण करके यह भी बता दिया है कि वह लालभाई जैसे वार्धक्‍य को ही नहीं निशंक जैसे युवा को भी सम्‍मान और मौका देती है। उत्‍तराखंड में अब बंदूकरायफलधारी की जगह कलमधारी ने ले ली  है। एक कवि, एक पत्रकार मुख्‍यमंत्री होगा तो संवेदना का पारा चढेगा ही।

राज्‍यभर के कवि शायर खुश हैं कि अब ''कदमताल'' की जगह ''रुबाइयों और गीतों'' का जमाना आगया है। राज्‍य की उपलब्धियां ''अर्ज किया है'' की तर्ज पर प्रकाशित की जाएंगी। कविसम्‍मेलनों और गोष्ठियों की बहार होगी। विमोचनों और लोकार्पणों के समारोहों में मंत्रीगण उपलब्‍ध रहेंगे। राज्‍य का अधिकारीवर्ग पंत प्रसाद निराला की किताबें पढने की तैयारी कर रहा है। हिन्‍दी और हिन्‍दीवालों के दिन बहुरने के दिन आ रहे हैं।

गुरुवार, 18 जून 2009

इस्तीफों की बहार !

इस्तीफों की बहार !
अपनी अति अनुशासित और अति राष्ट्रवादी पार्टी में इन दिनों इस्तीफों की बहार है। बड़े बड़े लोग दनादन इस्तीफे देकर बाहर हैं। लालभाई पर लाल-पीले होने वालों की नफरी में लगातार बढ़ोत्री हो रही है। लालभाई जैसे भीष्म तो अब चुप हैं पर उनके नाते-रिश्तेदार ही अब पार्टी पराजय की आड़ लेकर उन्हें शर-शैया पर लिटाने को बेचैन हैं। दिल्ली से देहरादून तक की हवाओं में बगावती की गंध घुल गई है। वहां भी सेनापति भुवन पर भगत भारी हो रहे हैं। घबराकर उत्तराखंड में तो कार्यकर्ताओं पर कार्रवाई की कटार चल पड़ी है। पर दिल्ली फिलहाल सकते में है, सन्निपात झेल रही है। कहीं कोमा में न चली जाए इसके लिए नागपुर से भागवती-प्रयास आरम्भ हो चुके हैं।
अपनेराम का मानना है कि यह सब जिन्ना के भूत का कमाल है। पड़ौसी देश के बाबा-ए-कौम की समाधि पर सिजदे के वक्त कायदे-आजम का भूत अपने लालभाई के कंधे पर कुछ इस कायदे से चढ़ बैठा था कि अब तक उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है। कायदे आजम के उस भूत ने पहले तो दल में ही नहीं देश-दुनिया में अभिनन्दित लालभाई को बुरी तरह निन्दित करने का काम किया। फिर जब उस निन्दा-प्रचार में कमी आई तो कायदे-आजम के भूत ने लालभाई को वायदे-आजम बना डाला। वह उनके मन में भारत का भावी प्रधानमंत्री बनकर घुस गया। नतीजा यह निकला कि हमारे लालभाई पीएम इन वेटिंग यानी को जनाबे इन्तजार  अली बन गए। उनके साथ  उनकी सारी जमात ‘मजबूत नेतृत्व और निर्णायक सरकार’ की प्रतीक्षा करने लगी। 
पर मनहूस सोलह मई के दिन देश ने सारी ताकत लालभाई जैसे लौहपुरुष की जगह दुबारा कमजोर मनमोहन को दे दी। देश ने सोचा लालभाई तो मजबूत हैं ही, पहले से घोषित लौहपुरुष हैं तो राजनीतिक घोषणाओं को सार्थक बनाते हुए कमजोर को ताकतवर बनाना चाहिए। देश ने तो वही किया जो अनुशासित पार्टी चाहती है। यानी कमजोर तबके को ताकत दे दी। पर इससे पार्टी के प्याले में तूफान आ गया है। जनता ने घोषित लोहे को कागज बना दिया। प्रचारित कमज+ोर को मजबूती दे दी गई। जनता का निर्णयक निर्णायक सरकार के खिलाफ आ गया।
जो हवा भाजपा के गुब्बारे में भरी थी, वह गुब्बारे से निकलते ही तूफान बन गई। आलोचनाओं और इस्तीफों की आंधी ने लोकसभा में विपक्ष के नेतापद की कुर्सी तक को हिला डाला है। चढ़ते सूरज को प्रणाम करने वालों को सूर्यास्त बरदाश्त नहीं होे रहा है। जिसे सूरज बनाने की कोशिश की थी वह टिमटिम दीये में तब्दील हो गया है। ऐसे दीये से किसी और की आरती तो उतारी जा सकती है, पर खुद ऐसे दीये की आरती उतारने में भक्तों की दिलचस्पी नहीं रह जाती।
भाजपा के बुरे दिन हैं। जसवंती जस और यशवंती यश दोनों अयश बन गए हैं। दोनों के गरमागरम बयानों ने  अनुशासन की बखिया उधेड़ कर दी है। दूसरी ओर मार्तण्ड बनने का सपना देखने वाले अरुण को सूर्य तक नहीं बनने दिया जा रहा है। वे जिसका राज मानने को तैयार नहीं उन्हें नाथ मानने को मजबूर हैं। ऐसे में इस्तीफा-बम फोड़ने के अलावा लोग बेचारे क्या करें।
हालात ये हैं कि कांग्रेसी सिंह के दुबारा किंग बनते ही सोलह मई से पहले का राम-रावण युद्ध महाभारत बन गया है। जो सगे अब तक साथ लगे लगे दुश्मनों पर वार कर रहे थे वे आपस में तलवारबाजी पर उतर आए हैं। आपस में तलवार भांजना अब भाजपा की नियति है। दुश्मन की सेना में यौवन उबल रहा हो तो भाजपा बेचारी कब तक वार्धक्य को झेले? 

शुक्रवार, 12 जून 2009

यही मर्दानगी है

कभी लगता है कि औरतें उनके पीछे पड़ गईं हैं। पर अगले ही पल वे औरतों के पीछे पड़ते नजर आने लगते हैं। जब भी औरतों को एक तिहाई तवज्जो देने की बात उठती है तो  वे सेंटी हो जाते हैं। महिला आरक्षण की बात उठते ही पता नहीं क्यों वे खुद उठ खड़े होते हैं। उनकी मुलायमियत सहसा कठोरता में तब्दील हो जाती है। उनकी वाणी चीख-पुकार करने लगती है। उनके सुर में सुर मिलाते हुए लालू-मुलायम-पासवान वगैरह का आर्केस्ट्रा बज उठता है। एक साथ, एक तर्ज, एक धुन- ‘बिल इस काबिल ही नहीं कि पास किया जाए।’  इस बार तो इस आर्केस्ट्रा को धुर विरोधी सुर यानी भाजपाई भी अपने सुरों से सजा रहे हैं। कटियार की कटार भाजपा के दिल को चीरकर बिल को नाकाबिल बता रही है।
मुलायम का दर्द समझ में आता है। एक अकेली गजस्वामिनी गजगामिनी ने उन्हें नाकों चने चबवा रखें हैं यूपी में। मुलायम डाल डाल तो वह पात पात। अपने नेताजी का कैरियर भी गतौर अध्यापक शुरू हुआ था और बहनजी का भी। दोनों जाति-पांति के रथ पर सवार होकर राजमार्ग पर बढ़े पर जो तरक्की बहनजी ने की वह नेताजी सोच भी नहीं पाए। क्या नहीं है बहनजी के पास? आधा अरब की जमीनें, भवन, बंगले, कोठियां, लाखों के हीरे जवाहर, गहने, और अब सवारी के लिये 46 करोड़ का उड़न खटोला। सबसे बड़ी बात तो यह है कि लोगों ने उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठाने की चर्चाएं भी चला दीं। अपने नेताजी समेत सारे यदुवंशी इस चर्चा तक के लिए तरस गए। 
यूपी में बहनजी और उधर दिल्ली में कांग्रेस की सर्वाम्मा पहले ही सत्ता पर कुण्डली मारे बैठी हैं। अब अगर राजनीति के एक तिहाई दरवाजे देवियों के लिये खुल गए तो फिर नेताजी का क्या होगा। हाल-फिलहाल तो मुम्बई से आयातित देवियों, जयाओं और जयप्रदाओं से काम चल रहा है पर बाद में इतनी बड़ी संख्या में तो इम्पोर्टिंग भी कठिन होगी। और फिर एक जयप्रदा ने ही जब आजम को नाराज करवा दिया है तो एक तिहाई देवियां मिलकर सारा आलम नाराज करवा देंगी। इधर तो कोई राबड़ी भी नहीं है कि वक्त-जरूरत राजपाट संभाल लेगी। पर जिनके पास राबड़ी है, उनकी भी चाल ढीली है इस बार। वे भी तो कुछ कम आशंकित नहीं हैं।
राजद, सपा, जदयू के सारे यादव आशंकित हैं। यूं कहने को ये सब उस यदुवंशी कन्हैया के खानदानी हैं जिन्होंने सोलह हज+ार एक सौ आठ देवियों का उद्धार किया था। पर ये सब सिर्फ पौने दो सौ देवियों के संसद-प्रवेश की आशंका से भयभीत हैं। कह रहे हैं कि पहले दलों में महिला आरक्षण लाओ। फिर संसद में लाना। अब अपनेराम की समझ में यह नहीं आ रहा है कि ये सब अपने अपने दलों के अध्यक्षगण हैं। खुद ही क्यों नहीं ले आते अपने अपने दल में महिला आरक्षण ? अब नहीं ला रहे हैं तो इसका मतलब यह हुआ कि या तो ये लोग महिलाओं को इस योग्य मानते ही नहीं या फिर उनके दलों में और समर्थकों में इतनी महिलाएं हैं ही नहीं।
लेकिन ये भाईलोग विरोध करते आ रहे हैं और औरते हैं कि संसद की सीटें हथियाती जा रही हैं। केन्द्र में मंत्री बनना तो अब सपना है ही, मुख्यमंत्री बनना भी मुश्किल होता जा रहा है। इसलिये अब एकमात्र हथियार खुद को बचाए रखने का है चर्चा में बने रहना और उसके लिए औरतों का विरोध करने से मुफीद और कोई तरीका नहीं है। मर्दानगी जताने का प्राचीन भारतीय तरीका है औरतों का विरोध। भाई लोग वही कर रहे हैं। कोई इसका बुरा न मानें।

शुक्रवार, 5 जून 2009

जय माता दी !

कोई मानें या न मानें कांग्रेस की अम्मा अब देशभर की अम्‍मा हो चली है। अपनेराम ने इसीलिये उन्‍हें नाम दिया है सर्वाम्मा। सर्वाम्मा का ही कमाल है कि दशकों से चर्चाओं में सिमटा महिला आरक्षण बिल अब आकार लेने को है। पहले महामहिम का सिंहासन, फिर सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा की अध्यक्ष की आसन्दी मातृसत्ता को सौंपने के बाद अब सर्वाम्मा के किए से देश में मातृयुग आखिर आ ही पहुंचा है।
    पु:षवर्ग सावधान हो जाएं। कांग्रेस की सर्वाम्मा ने तय कर लिया है कि देश में अब सचमुच ‘जय माता की‘ ही होगी। बहुत हो चुकी पिताओं की जय। अब मामला बराबरी का है। अगर माता का जागरण होगा तो पिताओं भी आराम की नींद नहीं सोने दिया जाएगा। भाईलोगों ने माता के जागरण की परम्परा के नाम पर उसे रातों जगाने का षड़यंत्र कर रखा था। माता जागती रहे और पिता तथा बेटे आराम से खर्राटे लेते रहें। अब पिताओं का जागरण शुरू होने के दिन आ गए हैं। बहुत सो लिये बच्चू !
    अगले सौ दिन मिले हैं बेटों और पिताओं को सुधरने के लिए। प्रतिभाताई ने अपनी सरकार के इरादे जाहिर करते हुए पुरुषों को 100 दिन अल्टीमेटमदे दिया है। 33 से 50 प्रतिशत तक स्थान चुपचाप खाली कर दो वरना तुम्हारी बहू-बेटियों को तुम्हारी खबर लेने के लिए जगा दिया जाएगा।
    अब भाई-भतीजावाद का दौर खत्म होने को है, बहू-बेटीवाद के बारे में सोचना होगा। यह नया मुहावरा भारतीस जीवन में प्रवेश लेने को है। देश माताओं और बहू-बेटियों को अधिकार देना चाहता है। जो काम अब तक छह दशकों में पिता, दामाद औा बेटे-भतीजे न कर सके वह अब वीरांगनाएं करेंगी। हमारा नारी वर्ग यूं भी सदा से आगे रहा है। देवता लोग इन्हीं नारियों के कारण देशभर में चहलकदमी करते रहे हैं, रमण करते रहे हैं- यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवता। अब जब नारी की लोकतांत्रिक पूजा का अनुष्ठान पूरा होगा तो ये देवतागण केवल रमण ही नहीं करेंगे बल्कि इन नारियों के पीछे पीछे छत्र-चंवर लेकर भी चलते नजर आएंगे।
    सर्वाम्मा से अपनेराम की भी कुछ गुजारिशें हैं। एक तो यह कि संसद में महिलाओं को आरक्षण देने के बाद उनके पतियों-जेठों और बेटों की भी ट्रेनिंग का भी इन्तजाम कर दीजिएगा। वरना ये भाईलोग बहू बेटियों के नाम से संसद में वोट डालने के लिए वैसे ही धक्कामुक्की करेंगे जैसे ग्राम और नगर पंचायतों में करते हैं। और सर्वाम्मा, अगर ऐसा कहीं कुछ कर दो कि संसद में प्रवेश की कोई क्वालीफिकेशन तय करवा दो तो  फिर कहना ही क्या! एक और बात। अगर ज्यादा उम्र में चुनाव लड़ने पर पाबन्दी तथा एक साथ दो सगे संबंधियों को सांसद बनाने पर रोक लग जाए तो......!
    अरे अरे अपनेराम ये सब क्या लिखने लगे। इससे तो भारतीय लोकतंत्र नेस्तनाबूद हो जाएगा। सारा लोकतांत्रिक उत्सव फीका पड़ जाएगा। रिश्तेदार गलबहियां डाले संसद में कैसे डोल पाएंगे। फारुख भाई दामाद और बेटे के कंधों पर हाथ रखे अशोक हाल में कैसे तस्वीरें उतरवा कर लोगों का दिल जला पाएंगे। उन्‍हें अगली बार तो पूरा फैमिली पोज लेना है। सर्वाम्मा, आप तो जो जैसा चलता है चलने दो। बस थोड़ा हल्ला-गुल्ला चलता रहे। काफी है।  देश माता की जय बोलकर खुश है। आप महिलाओं को प्रसन्‍न करती चलो, देश को जयकारा लगाने दो--‘जय माता दी‘!

शुक्रवार, 29 मई 2009

संसदेव कुटुम्बकम्


    अपनेराम के बापश्री अब इस दुनिया में नहीं हैं। 102 के होकर कूच कर चुके हैं। वे बड़े आदमी थे। इतने बड़े कि जिन्दगी भर खुद को छोड़कर बाकी समाज और परिवार के लिये मरते-खपते रहे। वह सब कुछ किया जिससे औरों को लाभ हो। पर, वही नहीं किया जो करना चाहिए था। मसलन, अच्छा खासा व्यक्तित्व होते हुए भी नेता नहीं बने। बन जाते तो अपने जमाने के बड़े नेता होते। पर उनके बाप-दादा भी जिन्दगीभर नेताई से दूर रहे तो असर बेटे में आना ही था, सो आ गया। ये वो दिन थे जब असली गुण और असली खून अगली पीढ़ी तक पहुंचाए जाते थे।

    अब बेटे ने जो कुछ नहीं किया उसका सीधा नतीजा अपनेराम को भुगतना पड़ रहा है। बाप नेता होते तो महामहिम ने अपनेराम को भी अशोक हाल में बुलवाकर शपथ दिलवा दी होती। पर किस्मत में जब चपत खाना लिखा हो तो उसे कौनसी माई या कौन माई का लाल शपथ खिलवाएगा! यह बात ठाकुर अर्जुनसिंह और शिवराज पाटील से ज्यादा बेहतर कौन समझेगा। अर्जुन के तीर भौंथरे कर दिए गए हैं और शिवराज नये सूट का कपड़ा खरीदने बाजार भेज दिए गए हैं। राजस्थान में रेत पर इतने ओले पड़ रहे हैं कि शीशराम जी को शीश बचाना भारी हो रहा है। गिरिजा बहन को भी कांग्रेस का यह नया दर्शन समझने विश्‍वविद्यालय लौटना पड़ सकता है।

    अपना भारत विरोधाभासों का देश है। यहां जो होता है उसका पहले या तो विरोध होता है या फिर समर्थन। अगर समर्थन पहले हो जाए तो बाद में विरोध पक्का समझो। और अगर शुरू में समर्थन मिले तो मान लेना चाहिए विरोध का प्लेटफार्म कहीं तैयार हो रहा है। हम भारतीय सबकुछ कर गुजरने में यकीन रखते हैं। हमने राजतंत्र को गालियां दीं और लोकतंत्र को सिरमाथे बिठाया। जब वह हमारे रगों में घुस गया तो हमने राजा-रानियों को चुनाव लड़वाकर उन्हें फिर लोकतंत्र की गद्दियां सौंप दीं। वह गया नहीं। ये और आ गया। दोहरे मजे! या चक्की के दोहरे पाट!

    हमने पहलेपहल परिवार को इकाई माना और फिर धीरे धीरे मकान, मौहल्ले, गांव, शहर, प्रांत, देश से लेकर सारी वसुधा को कुटुम्ब कबूल लिया। वसुधैव कुटुम्बकम्। हाल ही में हम वसुधा से संसद की ओर लौटे हैं। आजकल संसद में हम परिवार बनाने और बढ़ाने में व्यस्त हैं। संसदेव कुटुम्बकम् । कांग्रेस की सर्वाम्मा ही फिलवक्त सारे देश की सर्वाम्मा हैं। उनकी समझ में सारे सूत्र आ गए हैं। अगर संसद में रिश्‍तेदार होगे तो फिर आने वाला वक्त रिश्‍तेदारों का ही होगा इसमें कोई शक नहीं। सर्वाम्मा सबको और सबके रिश्‍तेदारों और विरासतदारों को बता देना चाहती है कि उनकी असली खैरख्वाह सर्वाम्मा ही है। तभी तो गांधियों को एक तरफ करके सर्वाम्मा ने पहले अब्दुल्लाओं, पायलटों, सिंधियाओं, करुणानिधियों, और ऐसे डेढ़ दर्जन से ज्यादा को मंत्री वाली रेवडि़यां बांट दी हैं जिन्‍हें अगर डॉ मनमोहन सिंह नान-रिश्‍तेदारों और नान विरासतदारों में ढूंढते तो वहां और आसानी से मिल जातीं। पर खैर...। अब संसद संसद तो हैं। उसके साथ साथ कुटुम्बों का आनन्दवर्धक स्थल भी है।

    देखकर आंखें तृप्त हो जाती हैं कि कैसे कैसे लोग रूठकर, मनाकर, धमकाकर, जिदकर मंत्रिमण्डल में घुसे हैं। प्रख्यात शेख अब्दुल्ला के नूरेनजर फारुक अब्दुल्ला और आगे उनके भी दामाद सचिन पायलट दोनों ही सरदार मनमोहनसिंह के मनमोहक मंत्री हैं। फारुक और सचिन के चेहरे संसद के सर्वाधिक रिश्‍तासंपन्न चेहरे हैं। फारुक अगर एक मुख्यमंत्री के बाप और एक के बेटे हैं तो सचिन भी ससुर से पीछे नहीं है। वे पूर्व केन्द्रीय मंत्री के बेटे और एक वर्तमान मुख्यमंत्री के जीजा हैं।

    पूर्व-राष्‍टृपति जाकिर हुसैन के नाती और पूर्व-राज्यपाल खुरशीद आलम खां के नूरे नजर सलमान खुरशीद और पूर्व-उपप्रधानमंत्री जगजीवनराम की बेटी मीराकुमार अपनी हाई-प्रोफाइल विरासत के चलते अधिकार पा गए हैं मंत्री बनने का। गुजरात के पूर्व-मुख्यमंत्री अमरसिंह चौधरी तथा माधवसिंह सोलंकी के पुत्र क्रमश: तुषार चौधरी और भरतसिंह सोलंकी, महाराष्‍टृ के पूर्व मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटील तथा पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री सरदार बेअंतसिंह के पोते क्रमश: प्रतीक पाटील और रवनीतसिंह,पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और पटियाला के पूर्व महाराजा अमरिन्दर सिंह की पटरानी परणीत सिंह, म.प्र. के पूर्व-उपमुख्यमंत्री सुभाष यादव के आत्मज अरुण यादव, जीके मूपनार के बेटे जीके वासन, ग्वालियर नरेश माधवराव के गद्दीनशीन ज्योतिरादित्य सिंधिया और हरियाणा के नेता पूर्व केन्द्रीय मंत्री दलबीरसिंह की बिटिया शैलजा, पूर्व लोकसभाध्यक्ष पीए संगमा की बेटी अगाथा संगमा, पूर्व मुख्यमंत्री सीपीएन सिंह के पुत्र आरपीएन सिंह, उत्तरप्रदेश के कांग्रेसाध्यक्ष रहे जितेन्द्र प्रसाद के पुत्र जितिन प्रसाद आदि तो नेताओं से अपनी रिश्‍तेदारियों के चलते मंत्रिमण्डल में आ ही गए हैं। प्रियादत्त, सुप्रिया सुळे जैसे अनेकानेक चेहरे अभी मंत्रिमण्डल से बाहर हैं पर संसद की शोभा तो बढ़ाएंगे ही।

    इस संसद का अपना अलग जलवा है। संसद के सर्वाधिक होनहार अब भी ‘कुमार‘ हैं। अब अगर अगले पांच साल में इस होनहार कुमार के हाथ पीले होने हैं तो उस दिशा में भी देश को सोचना है। देश के लिये संसद को सोचना है। संसद इस मामले को भी जल्दी से जल्दी संज्ञान में ले और लाना पड़े तो अध्यादेश की भी तैयारी करे। अपनेराम को यकीन है कि रिश्‍तों और नातेदारियों में यकीन रखनेवाली पन्द्रहवीं संसद और उसकी सर्वाम्मा इस अध्यादेश के पक्ष में ही होगी। राहुल बाबा घोड़ी चढ़ें तो विपक्ष में बैठे अपने वरुणबाबा को भी कुछ जोश आए। इसी बहाने शायद विपक्ष अंगड़ाई ले ले।
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सादर,
डॉ. कमलकान्‍त बुधकर

शुक्रवार, 22 मई 2009

सिंहासन पर सिंह


आखिर सिंह सिंहासन पर आसीन हो ही गए। देश को तिकड़मी  लकड़बग्घों की जगह विनम्र सिंह पसंद आया। उसने ‘मजबूत नेता और निर्णायक सरकार‘ के नारे को सिरे से नकार दिया आर काम करके दिखाने वाली विकासप्रिय सरकार के पक्ष में वोट दे दिया। सोलह मई का दिन पक्षियों के आसमान छूने  और विपक्षियों के धूल चाटने का दिन था। सुबह से लाली लिपस्टिक लगाए और सोलह सिंगार  किए दल वधुएं दरवाजे पर बारात का इन्तजार करती रहीं और बारात का मन मोह बैठे सरदार  मनमोहन सिंह। जयमाला उन्हीं के गले में डाल दी गई।
पीएमआईडब्लूसी में घनी मायूसी है। पीएमआईडब्लूसी यानी प्राइम-मिनिस्टर इन वेटिंग क्लब। पहले यह क्‍लब नहीं था। यह अपने बीजेपी वाले लालभाई का 'सोल वैन्‍चर' था। इस मामले में वे अकेले रजिस्टर्ड स्वप्नदर्शी थे।  सारे देश में उन्हीं के नाम का डंका बज रहा था कि प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने का अधिकार सिर्फ लालभाई को है। ऐसा सपना और कोई नहीं देख सकता। और किसी को देखना  भी नहीं चाहिए। यह बात पार्टी स्तर पर घोषित थी। पर भाईसाहब, इतिहास गवाह है कि विभीषण लंका में ही पैदा होते हैं। लालभाई  के इस हसीन सपने को क्लब बनाने में उन्ही के दल के नरेन्द्रभाई ने पलीता लगा दिया।
अब जब भाजपा से दो दो पीएमआईडब्लू आ गए तो दक्षिण की अम्मा जी, उत्तर की बहनजी, मराठवाड़ा के शरदभाई और यूपी के मुलायम भैया क्योंकर पिछड़ते। घर में नहीं दाने और अम्मा चली  भुनाने। घोडी को देखा तो मेंढकी भी नाल ठुकवाने आगे आ गई। अपने लालभाई की कतार में  लालब्रिगेड के प्रकाश करात को भी खड़ा कर दिया गया। पता नहीं इससे प्रकाशभाई कर कद बढ़ा या लालभाई का कम हुआ। पर लालभाई का दिल अलबत्ता जरूर टूट गया। यह शुरुआत थी  उनके सुन्दर सपने के चकनाचूर होने की।
सोलह मई का मनहूस दिन। सारे दलों के दूल्हे नए जूते, शेरवानी और पगडि़यों में सजे, सेहरे में तिलक काजल लगाए तैयार बैठे थे कि कब इशारा हो और कब घोड़ी पद सवार हो कर वे बारात की अगुवाई करें। बारात भी तैयार थी। घोड़ी भी दाना खाकर  मुटिया रही थी। बैण्ड भी बुला लिया गया था और रोशनी के भी पुख्ता इंतजामात थे। पर शाम होते होते सब कुछ बेमानी हो गया।
जनता ने सरदार को सरदार तो माना ही, असरदार भी सिद्ध कर दिया। बाकी दूल्हों ने मुह छिपा लिए क्यों कि विजयश्री खुद 7 रेसकोर्स रोड पहुंच गई जयमाला लिये। जैसे ही पता चला धूम मच गई माहौल में। अधिकांश दूल्हे अपनी पगड़ी उतार शेरवानी फेंककर सरदार की बारात में शामिल होने को मचल उठे। बरबस  उनके कंठ से ये बोल फूट पड़े- आज मेरे यार की शादी है।
राजनीति के कई कई रंग हैं। सदाबहार लालू धरती सूंघ रहे हैं। कुछ अपने करमों के और कुछ अपने साले साधु के मारे हुए हैं। साधु को ज्यादा कुछ कहें तो भौजी के शेरनी होने का खतरा है। दिल्ली की शेरनी को तो झेल लें पर घर की शेरनी नहीं झिलेगी। इसलिये वक्त की मार से बिलबिलाए बिना फौजफाटे के अपनी मांद में दुबके हैं। वहीं से रिरिया रहे हैं कि कांग्रेय के साथ हैं। पर खुर्रांट कांग्रेसी  उनसे निबटना जानते हैं। अब अगर सरदार साहब को खतरा है तो चापलूस कांग्रेसियों से ही है। पता नहीं कब उनके मन में राहुल भक्ति जाग जाए और वे एकजुट होकर राहुल को 7 रेसकोर्स रोड भेजने पर आमादा हो जाएं। एक ज्योतिषी ने इसके लिए 2010 के पहले छह महीने घोषित किए हैं। यूं अपने सरदार साहब सितारों का मन भी मोह चुके हैं अब तक।

शुक्रवार, 8 मई 2009

लोकतंत्र की मजबूती

महाकुम्भ के शाही स्नान की बतर्ज दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का चौथा चुनावी महास्नान  संपन्न हो गया।  अब आखरी शाही स्‍नान बचा है और फिर सिंहासन बत्‍तीसी शुरूा । अब तक जितने नहाए, करीब करीब उतने ही बिना नहाए रह गए। कहीं नहानं पर मारकाट हुई तो कहीं न नहाने देने पर। दलों की शाही सवारियों ने समां बांधा तो निर्दली उनसे भी आगे दौड़ते नजर आए। जिन्हें दल से टिकट नहीं मिला वे भी दिल से मैदान में उतरे। देश मानता रहा है कि धरतीपकड़ जैसे जिद्दी लोग ही बतौर सनक हर चुनाव में चर्चित होते हैं। उनके बगैर चुनावों का आनन्‍द भी अधूरा है। बरेली के काका जोगिन्दरसिंह और ग्वालियर के मदनलाल धरतीपकड़ को लोग अब तक भूले नहीं हैं।

पर इस बार तो बड़े बड़े धाकड़ों को ‘चुनावेरिया’ हुआ है। प्रधानमंत्री मलमोहन सिंह ने निर्दलीय प्रत्त्‍याशियों को वोट न देने की अपील क्या कर दी निर्दलीय मारे गुस्से के बेकाबू हो गए।  दल ने टिकट नहीं दिया तो लोग दिल से चुनाव मैदान में कूद पड़े। अब अपनी नृत्यांगना मल्लिका साराभाई को ही लें। किसी दल ने चुनावी मंच पर नाचने लायक न समझा तो वे हार-सिंगार करके घुंघरू बांधकर खुद ही गांधीनगर के चुनावी मंच पर उतर आईं । उन्होंने जता दिया कि कोई आंगन उनके लिए टेड़ा नहीं है और हर आंगन में वे नाच सकती हैं।

एयर डेक्कन के मालिक गोपीनाथ हवा में उड़ते-उड़ाते अचानक दक्षिण बंगलुरु से चुनावी धरती पर आ खड़े हुए। एबीएन की भारत प्रमुख मीरा सान्याल ने कांग्रेस के मिलिंद देवड़ा के मुकाबले निर्दलीय बनकर मुम्बई में चुनाव लड़ लिया। नतीजे चाहे जो हों पर जब जेल में रहते लाखों मतों से जीतने वाले पराक्रमी राजनेता जॉर्ज फर्नाण्डीज को उनके अपने दल ने खारिज कर दिया तो वे बेचारे चुनावी खारिश मिटाने  निर्दलीय खड़े हो गए। यूं निर्दलियों का इतिहास बुरा भी नहीं है। इतिहास गवाह है कि बाबा साहब अम्बेडकर, भैरोंसिह शेखावत, झारखण्ड के मुख्यमंत्री रहे मधु कौड़ा आदि करीब आजादी के बाद से अब तक 214 लोग निर्दलीय जीते और सदन की शोभा बने हैं।

पर यह तय है कि चुनावों के दिन कुम्भ स्नान से कम रोचक नहीं होते। लोग हाथी घोड़ों, रथों, बग्घियों पर ही नहीं गधे तक पर बैठकर प्रदर्शन करने में शान समझते हैं। चुनाव के दिनों में  शिवजी की बारात का समां बंधता है और उससे जुड़ा बन्दा बूटी छानकर मस्ती में डोलता है।

चूंकि चुनाव से जुड़ी हर बात खबर होती है सो दूल्हा दुल्‍हन को दुल्‍हन दूल्हे को माला पहनाने से पहले मतदान केन्द्र पहुंचकर मीडिया को फुटेज देते हैं। लेकिन सारी बारात जब मतदान केन्द्र पर हो  और दूल्हे का नाम मतदान सूची में न हो तो फिर समाचार बनता है।

हमारे चुनाव आयोग के मुखिया चावला जी बेचारे पप्‍पू बन गए अपनी ही मशीनरी के कारण। सारे देश में मतदान करवाने वाले का खुद का नाम मतदानसूची से नदारद था। केन्द्र और बूथ तलाशे गए। बीस बाईस सूचियां खंगाली गई पर चावला जी का नाम नहीं मिलना था सो नहीं मिला। लोकतंत्र एक बार फिर मजबूत हुआ। बड़े और छोटे का फर्क मिटा। अगर कलुए का नाम सूची से गायब था तो उसे अब अफसोस नहीं है। उसका ही नहीं चावला जी का नाम भी सूची में नहीं है।

लोकतंत्र इसीलिए महान है क्योंकि इसमें एक दिन के लिए ही सही महामहिमों को भी लाइन में लगना पड़ता है। ये अलग बात है कि उनकी फोटू छपती है अगले दिन अखबार में और अपनेराम यह बताकर ही खुश हैं कि महामहिम के बाद सत्रहवें नंबर पर अपुन ही थे।

शुक्रवार, 1 मई 2009

सोनिया के हाथ में कमल

अपनेराम अब इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि पौत्र -पीढ़ी के सामने अपनी बुद्धि भोथरी होती जारही है। जो ज्ञान तीसरी पीढी दे रही है वह अद्भुत है, अपनेराम की तीसरी पीढ़ी में एक पोती है। उम्र सवा तीन साल। नाम अपरा। स्वभाव जैसे शहद में डूबी हुई तीखी हरी मिर्च का स्वाद। चटपटी से ज्यादा चरपरी और उससे ज्यादा खटमिट्ठी। बोलना शुरू करे तो ऐसा लगे जैसे अंधेरे में अनार फूट रहे हों या चल रही हों फुलझडि़यां। धाराप्रवाह और अनथक वाणी ऐसी कि सातों दिन चैबीसों घण्टे चलनेवाले चैनल थककर उसके आगे पानी भरें।

लगभग हर विषय पर प्रश्‍न पूछना और हर प्रश्‍न का उत्तर देने की कोशिश करना अपरा की सिफत है। आज सुबह अपनेराम ने अचानक अपरा से पूछा, ‘भाई, तुम वोट किसे दोगी?’ उसने प्रतिप्रश्‍न किया, ‘वोट किसे देना है?’ इसपर उसे बताया गया कि मैदान में माया का हाथी है, मुलायम की साइकिल है, कमल का फूल है और सोनिया का हाथ है।

अपरा ने सोचने में एक मिनट से भी कम समय लगाया और तपाक से बोली, ‘आबा, सोनिया गांधी के हाथ में कमल दे दो।’

यह सुनकर अपनेराम भौंचक निहारते रहे नन्हीं अपरा को। उस नन्हीं विचारक का मुख ऐसा लगा मानों घने कुहासे को चीरती हुई कोई किरण उग आई है। एक सौ बीस से ज्यादा कौमी और सात सौ से ज्यादा क्षेत्रीय पार्टियों वाले दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र की त्रासदी उसके यही आंकड़े हैं। संसद के दोनों सदनों की सम्मिलित सीटों से भी ज्यादा जहां राजनीतिक दल हैं, वहां जो लोग शासन चला लेते हैं, उन्हें कार्यकाल पूरा होते ही ‘भारत रत्न’ और ’परमवीर चक्र’ दोनों एक साथ सामूहिक रूप से देना चाहिए। दिल्ली का शासन चलाना मेंढक तोलने से भी ज्यादा कठिन काम है। और यह कठिन काम है हाथ और कमल बरसों से करते आ रहे हैं।

लेकिन उंगलियों को हथेली से जोड़े रखना और मुट्ठी की शक्‍ल देना या फिर कमल की पंखुडि़यों को एक डंठल से जोड़े रखना कितना श्रमसाध्य है, यह कोई सोनिया, मनमोहन या अटल आडवाणी से पूछे। अपने अपने मेंढकों को तराजू के अपने अपने पलड़े में समेटे रखने में देश की सत्तर प्रतिशत सारी ताकत सारी उर्जा, सारी उष्‍मा, और सारे संसाधन, सब कुछ सिर्फ संतुलन बनाने और गालियां, गोलियां बांटने में ही खर्च हो जाते हैं।

कमजोर 30 प्रतिशत राजनेता अपनी ढपली अलग बजा कर 70 प्रतिशत, पर दो जगह बंटे हुए हैं।  परिणामस्वरूप सारा  देश न जाने कब से किसकी कौन सी धुन पर नाच रहा है। आने वाली पीढियों की माने तो  क्या ये बिल्कुल असंभव है कि निजी राजनैतिक विचारधाराओं से उपर उठकर दो बड़े  दल, एक कार्यकाल के लिए ही सही, राजनीतिक सौदेबाजों को अलग करके परस्पर मिलें। देशकल्याण के लिए मिलकर आगे बढें। अपरा की बात सच हो, सोनिया के हाथों में कमल खिलें। मतदान के मामले में ऊंघता हुआ देश कह रहा है- आमीन !! पर ऐसा होना नहीं है वरना अपनेराम यह आलेख व्यंग्य कॉलम में थोड़े ही लिखते !

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

संतई से युद्धई तक

वे दिन हवा हुए जब अपनी राजनीति में भी सचमुच के संत हुआ करते थे, संतई हुआ करती थी। चरित्र के संतों और वाणी-व्यवहार की संतई का वह जमाना अब इतिहास हुआ। अब तो संतों में परस्‍पर राजनीति के दिन हैं, संतई के राजनेता हो जाने के दिन हैं। इस देश के कतिपय महान राजनीतिक दलों को इस महान परिवर्तन का श्रेय जाता है कि कुटिया वाले त्यागी-बैरागी, संसद के रागी-अनुरागियों के संग एक टेबल पर कॉफी पी रहे हैं। देश तरक्की पर है, संत तरक्की पर हैं और संतई के दिन बहुरे हैं।
    अपनेराम यह पंक्तियां संतों के बीच से लिख रहे हैं। आश्रमों, मठों, अखाड़ों का यह नगर गंगामैया के नाम पर सबकुछ पाता है और उन्हीं के नाम पर सबकुछ खाता है। विरक्त संतों ने यहां भव्य भवन बनाए हैं। संसार छोड़ चुके संन्यासियों ने सैकड़ों बीघों और एकड़ों में भूमि खरीदी है और मठों-मन्दिरों आश्रमों का निर्माण किया है। अटैच्ड लैटरीन बाथरूम वाले होटलाकृति आश्रम इस तीर्थनगरी में वैराग्य और तपस्या को गौरव-गरिमा देते हैं। साधु का स्टेटस सिंबल है उसके चैपहिया वाहन की कंपनी। हुंडई, इन्नोवा, टवेरा तो छोटे साधु संत रखते हैं, बड़े साधुओं का बड़प्पन उनकी लम्बी विदेशी गाडि़यों से पहचाना जाता हैं।
    दिन भर में कपड़े बदलने के मामले में इस देश के पूर्व गृहमंत्री शिवराज को भी मीलों पीछे छोड़ने वाले इस देश के संत जब विदेशी खुशबुओं से नहाए जब भक्तों को दर्शन देने आते हैं तो यह तपोवन निहाल हो जाता है। इस गंगानगर की सारी अर्थसत्ता के रखवाले और उसे गति-प्रगति देने का सारा काम भगवा ब्रिगेड के ये सिपहसालार ही करते हैं। अगर बैंकों से ये संतगण अपने संबंध तोड़ लें तो न जाने कितनों की नौकरियों पर खतरा मंडराने लगे और कितने ही बैंक अपना बोरिया बिस्तर बांध लें। इन साधु-संतों और त्यागियों बैरागियों के द्वारा दायर मुकदमों का ही असर है कि हरिद्वार के न्यायालयों में ही नहीं  उत्तराखंड के उच्चन्यायालय में भी भरपूर काम वकीलों, न्यायाधीशों को मिला हुआ है। गंगातट पर स्थित बैंकों  की सैकड़ों शाखाएं मठ-मन्दिरों और आश्रम-अखाड़ों के कारण ही फलफूल रही हैं। हजारों घर पल रहे हैं संतकृपा से। सारे संसार को छोड़ने के बावजूद इन महात्माओं को हमारी दुनिया का कितना खयाल है यह देख सोच कर ही अपनेराम की छाती चौड़ी हो जाती है, माथा उंचा हो जाता है और वाणी गर्व से न जाने क्या क्या कह देना चाहती है।
    ये सारे संत महंत हमारे पूज्य हैं। इनका सम्मान हमारा धर्म है। सो, कुछेक राजनीतिक पार्टियों ने इस पूज्यता का सम्मान करने का अभिनव तरीका कुछ यूं ईजाद कर लिया कि महात्मा जी को आश्रम से उठाकर सीधे विधानसभाओं और संसद के गलियारों तक पहुँचा दिया गया। उदार राजनेताओं ने सोचा कि इन बेचारे काषाय वस्त्रधारियों के पास यूं तो सब कुछ तो है, पर एक टिकट नहीं है।  इन्हें टिकट देकर इन समाजसेवियों के पुण्यों में वृद्धि कर दो। इनका जीवन भी सफल कर दो।
    इस उदार विचार के जन्मते ही अनेक संत-महंत हाईकमान का चरणचुम्बन करते नजर आने लगे। कई साधु कई साध्वियां देश सेवा के लिये शास्त्र छोड़कर राजनीतिक शस्त्रों के सहारे अपने युद्धकौशल के प्रदर्शन पर उतर आए। अभी तक युद्ध केवल कुम्भ के स्नानों को लेकर होते थे साधुसंन्यासियों के बीच। पर अब नए नए राजनीतिक अखाड़ों में बार-बार के चुनावकुम्भों की परम्परा शुरू हो गई! कौन जाने कब कुम्भ पड़ जाए यह सोचकर संतई हमेशा की युद्धई में तब्दील हो गई! चुनावों में दूल्हा कौन बने इसकी होड़ संतों में भी लग गई।
      अब यह भी सच है कि जिन्दगी का सबसे बड़ा मौका होता है शादी ब्याह। और लोकतंत्र का सबसे बड़ा मौका है चुनाव। अब अगर दोनों मौके साथ साथ आ जाएं तो लोकतंत्र का जीवन और जीवन का लोकतंत्र दोनों ही संवर जाएं। इन दिनों ऐसा ही हो रहा है! दूल्हे पहले ईवीएम की पेटी तक जाते हैं फिर ससुर की बेटी तक जाते हैं। पर हमारे संत क्या करें। वे बेचारे ईवीएम की पेटी तक तो पहुंच जाएं। पर ससुर की बेटी कहां से लाएं।
    हमारा लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। और लोकतंत्र में चुनाव उत्सव ही नहीं महोत्सव है। किसी होली दीवाली ईद ईस्टर से कम नहीं है यह महोत्सव। होली की तरह यारों पर रंग भी बिखेरते हैं लोग और कीचड़ में भी सानते हैं उम्मीदवारों को। दीवाली की तरह जूए के दांव भी लगते हैं और सट्टे के बाजार की रौनक भी बढ़ जाती है। जीतनेवाले के यहां दीये जलते हैं, लक्ष्मीपूजा का दौर शुरू होता है और हारने वाले काली की आराधना में लग जाते हैं। ईद की तरह गले तो मिलते हैं लोग पर फर्क सिर्फ यह रह जाता है कि चुनावी ईद मिलनेवालों की आस्तीनों के सांप नजर नहीं आते। डसे जाने का अहसास भी लोगों को तब होता है जब परिणाम सामने आ जाते हैं। उस दिन उनकी ईद मौहर्रम में तब्दील हो जाती है। प्रभु ऐसा दिन हमारे संतों को न दिखाए।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

पहले दूल्हा बनें फिर पीएम

राजनीतिक दुश्मनी बड़ी दूर तलक जाती है, बहुत गहरे तक उतरती है। इस बात का खयाल रखा जाता है कि कोई दोनों के बीच तुलना के कोई बिन्दु तक न खोज सके। अब कांग्रेस को इस बात का पूरा अहसास है कि लोग उसे भाजपा का पिछलग्गू न कहें सो इंदिरामुखी प्रियंका बहन ने पहले ही ऐलान कर दिया है... राहुल भैया पहले दूल्हा बनें फिर पीएम। यह खानदानी और युवा कांग्रेसन नहीं चाहती कि कांग्रेस में कोई अटल बिहारी पैदा भी हो! कल को भाजपा कहती न फिरे कि कुंवारा प्रधानमंत्री देने की परम्परा तो भाजपा की है। कांग्रेस ने हमारी परम्परा चुरा ली।
    इंदिरामुखी प्रियंका इंदिरा जितनी कूटनीतिक भी है। जो बात बरसों से उसकी इतालवी मां मन में छिपाए बैठी है उसे बहना ने सहज ही प्रकट कर दिया। राहुल को प्रधानमंत्री तो बनना ही है, पर पहले वह दूल्हा बन ले। वरना इंदिरा के पोते के लिए, बल्कि वरूण का नाम भी जोड़ लें तो कहें, पोतों के लिए ही लड़+कियां ढूंढना कठिन हो रहा है तो प्रधानमंत्री के पुत्र और प्रधानमंत्री के ही पौत्र खुद एक प्रधानमंत्री के लिए लड़की ढूंढने के लिए पंडितों के कई पैनल्स कम पड़ जाएंगे।
    प्रियंका ने अपनी राजनीतिक चातुरी से कमसे कम अपनेराम का तो मन मोह लिया है। भैया का नाम पीएम के रूप में लेकर उसने अपने और विरोधी दोनों दलों को संकेत दे दिये हैं। उसके संकेतो में एक तो यह है कि राहुल पीएम हो सकते हैं। दूसरे यह कि अगर राहुल नहीं तो मेरा चेहरा तो दादी इंदिरा से मिलता है।
    पहले विवाह के कई कारणों में एक यह भी है। इसकी कोई गारंटी नहीं है कि पीएम बन जाने के बाद एसपीजी वाले भैया की बारात में ठुमका भी लगाने देंगे या नहीं। राजा की आएगी बारात गाने के दिन गए। अब तो राजा जेड सिक्योरिटी में ससुराल पहुंचेगा। उससे भी पहले पहुंचेंगे उसके ‘सूंघू कुत्ते’। क्या दृश्य होगा। सास दरवाजे पर आरता सजाए खड़ी है अपनी बहूओं-बेटियों के साथ और एसपीजी के स्नफ डाॅग्ज की टोली आरते का थाल संूघ रही हैं। दूल्हे से पहले गवर्नमेंट टेस्टर का मुंह मीठा कराया जा रहा है। दुल्हन की जयमाला पहले मेटल डिटेक्टर को पहनाई जा रही है। बारात वाले दूल्हन के घर में घुसने के लिए डिटेक्टर डोर के आगे खड़े उबासियां ले रहे हैं। लाइनें लम्बी हैं। स्वागत करने वाले डिटेक्टर डोर के पार हैं। बीबी बच्चें की रात काली हो रही है। बीबी कोस रही है क्योंकि ण्क घण्टे से हम एक ही जगह खड़े हैं और घण्टे भर से उसी जगह ड्यूटी दे रहा एक मुच्छड़ पुलिसिया उसे घूूरे जा रहा है। गुस्सा तो बहुत आ रहा है। पर करें क्या। हमारे हाईकमान की शादी है। हम पार्टी के अनुशासन में बंधे हैं। अगली बार के चुनावों के लिए  हम टिकट की लाइन में सबसे आगे हैं। अगर बारात की लाइन में हंगामा किया तो टिकट की लाइन में पता नहीं कहां होंगे। इसीलिये फिलहाल न कुछ कह सकते हैं और न कर सकते हैं। आखिर हमारे पीएम की शादी है। दूर कहीं रेकाॅर्ड बज रहा है....राजा की आएगी बारात, रंगीली होगी रात।
    अब रातें रंगीन करने के लिए लोग पूरे इन्तजामात करेंगे ही। घर से लानी पड़ी तो लाएंगे। फिर अगर वह चढ़ गई तो पब्लिक में पीएम का ग्राफ उतरने में  देर नहीं लगेगी। सो राहुल भैया सब सोच समझकर ही बहना कह रही है। पहले उसे भाभी ला दो। पहले दूल्हा बनो फिर पीएम।
    आइये राखी भैयादूज बहुत हो गई। दलदली बातें भी होती ही रहती हैं। अब ज+रा निर्दली बातें भी कर लें। हमारी एक ब्लाॅगर बहनजी हैं डाॅ. कविता वाचक्नवी। उन्होंने कल ही कुछ मज+ेदार जानकारियां भेेजी हैं। आइये शेअर करें। हमारे प्यारे भारतवर्ष में अब तक जितनें चुनाव हुए हैं उनमें  इस वक्त हो रहे चुनावों को छोड़ दें तो कुल 37,440 निर्दलीय उम्मीदवारों नें चुनाव लडा और 36,573 अपनी जमानत भी नहीं बचा सके। बचे हुओं में से 214 विभिन्न लोकसभाओं में सांसद चुने गए और 653 अपनी जमानत राशि पापिस ले जाने में कामयाब रहे। जो दिग्गज निर्दलीय रूप में लोकसभा में बिराजे उनमें सबसे  बड़ा नाम दहलतों के मसीहा बाबासाहब अम्बेडकर का है। वे चाहते तो बहुजन समाज को तभी एकत्र कर लेते कांशीराम-मायावती की भूमिका में उतरकर सर्वप्रिय सर्वजन नेता बन जाते। अस्तु।
    अब अपने प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने मुम्बई में यह कह दिया कि निदलियों को वोट मत दो तो कुछेक निर्दली बिफर गए। एबीएन आमरो बैंक की भारत प्रमुख मीरा सान्याल, सुप्रसिद्ध नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई, एयर डेक्कन के मालिक गोपीनाथ, कांग्रेसी सिपहसालार अर्जुनसिंह की अपनी बटी बीना सिंह, और तो और जदयू के ही नहीं भारतीय राजनीति के बड़के नेता रहे अपने जाॅर्ज फर्नांडीज जैसे दिग्गजों को भी पार्टियों ने अपनी उम्मीदवारी के लायक नहीं समझा है। क्या वे जनता के वोट के काबिल बन पाएंगे।

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

डिप्लोमा इन शू-जर्नलिज्म

डिप्लोमा इन शू-जर्नलिज्म
    अपनेराम अपने विश्वविद्यालय के कुलपति को यह समझाने में सफल हो गए हैं कि विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में ‘जूत-पत्रकारिता’ यानी शू-जर्नलिज्म’ में एक वर्षीय डिप्लोमा पाठ्यक्रम आरम्भ कर ही दिया जाए।  इस विषय की भविष्य में बड़ी संभावनाएं हैं। जूते में तो पहले से ही बहुत संभावनाएं थीं। वह आदिकाल से ही अनेक गुणों की खान माना जाता रहा है पर हाल फिलहाल में जूते में आशातीत संभावनाएं जाग गई हैं। और ये संभावनाएं भी ग्लोबली जगी हैं ये और भी खास बात है। इन्हीं संभावनाओं के  चलते उनके बुश और अपने चिदम्बरम् का कद एक हो गया है। गर्व से कहो हम अमरीका से पीछे नहीं हैं। 
    पत्रकारिता तब भी होती थी जब विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थानों में सिखाई पढ़ाई नहीं जाती थी। पर तब की पत्रकारिता अधुनातन उपकरणों के स्थान पर कलम कागज, कैमरा और प्रिंटिंग प्रेस तक सिमटी अखबारी पत्रकारिता थी। समय ने करवट ली और बिना कम्प्यूटरी उपकरणों के पत्रकारिता के बारे में सोचना गुनाह हो गया। संचार क्रांति ने पुरानी पीढि़यों के सामने इलैक्ट्रनिक मीडिया की परोसी भ्रांतियों के पहाड़ खड़े कर दिए। पुरानी पीढ़ी के पत्रकार का उपयोग ‘हमारे जमाने में ऐसा होता था’  कहकर छाती पीटने के लिए किया जाने लगा या फिर वह मुख्य अतिथि आब्लीक अध्यक्ष के रूप में केवल भाषणी व्यक्तित्व बनकर रह गया। ये जो उपकरणाश्रित पत्रकारिता का दौर आया उसे कुछ लोगों ने स्वीकार भी किया ! मान लिया कि अब जमाना ‘करणीय’ नहीं ‘उपकरणीय’ पत्रकारिता का है! उपकरणों की भीड़ में ताजा नाम जुड़ा है पादत्राण का। संस्कृत का पादत्राण जो हिन्दी तक आते आते जूता बन गया। बनना तो छोटी बात थी, वह तो चल गया। पिछली सदी के एक शायर ने अपनी वेदना यू प्रकट की थी -
बूट डासन ने बनाया मैंने इक मजमूं लिखा।
मेरा मजमूं चल न पाया और जूता चल गया ।।
मियां शायर इस दौर में हुए होते तो अफसोस और रंजोगम की जगह इजहारे-खुशी करते, फूलकर कुप्पा हो जाते क्यूंकि जूते के साथ साथ उनका मजमूं भी चल रहा होता। बल्कि जूते की वजह से ही उनका मजमुं चल रहा होता। जूता तो चलता ही। वह अलग बोनस होता।
    पहले राजनीति जाजम, बिछाइतों, दरियों, गद्दों, पर यानी कुलमिलाकर जमीनी होती थी। लोग जूते कमरे के ही नही, शामियाने तक के बाहर उतारकर आते थे। पर अब तरक्की हो गई है। मंच कुर्सियों का जमाना है। सभा सोसायटियों में ही नहीं, खाने की मेज और भीड़भड़क्के में तो मंदिरों तक में जूते दर्शन कर आते हैं। भगवान भी धन्य हो जाते हैं। यह जूतोन्नति का युग है। हमारा प्यारा भारतवर्ष भी जूताप्रधान देश हो चला है।
    पत्रकारिता में जूते का भविष्य उज्ज्वल है। जूते के कारण हमारी पत्रकारिता का भविष्य भी उज्ज्वल है। बस आवश्यकता है आने वाली पत्रकार पीढि़यों को विधिविधान से जूत-पत्रकारिता सिखाने की। उन्हें यह बताने की कि बच्चों यह भी एक दिशा है जो आपको नाम दे सकती है। बदनामी में क्या नाम नहीं होता। अपनेूराम ने कुलपति को यकीन दिला दिया है कि आनेवाला वक्त कुतर्क, बदजबानी और जूतेवाली पत्रकारिता का है। इन्हीं विषयों में डिप्लोमा डिग्री देने वाले विश्वविद्यालयों में छात्रसंख्या बढ़ेगी। उम्मीद है गर्मी की छुट्टियों के बाद जब विश्वविद्यालय खुलें तो डीएसजे यानी डिप्लोमा इन शू-जर्नलिज्म की पढ़ाई या तो विधिवत् चाले हो चुकी हो या फिर इस  मुद्दे पर जूते चल चुके हों।